गांधी और गांधीवाद
71. जहाज को बन्दर पर जाने की अनुमति मिली
दिसम्बर, 1896 – जनवरी, 1897
प्रवेश
गांधीजी की आत्मा की शक्ति
सत्य और अहिंसा से जन्मी है। जो सत्य की राह पर है वह हर उस चीज़ के सामने झुकने से
इंकार करेगा जो उसकी दृष्टि में ग़लत होगी। वह सारी उत्तेजनाओं के बीच शांत रहेगा।
वह पाप का विरोध करेगा लेकिन पापी से घृणा नहीं करेगा। सफलता के लिए आवश्यक है कि व्यक्ति
भय, घृणा और असत्य से पूरी तौर पर मुक्त रहे। उचित रूप से पालन किया जाए तो अहिंसा
की पद्धति एक सर्वव्यापी और अचूक पद्धति है। वाह्य परिस्थितियों के प्रतिकूल होने
पर भी, यहाँ तक की झगड़े और हिंसा
के समय भी, उसका अवश्य प्रयोग होना
चाहिए।
क्वारंटीन की अवधि बढी
क्रिसमस के दूसरे दिन क्वारंटीन
की अवधि और बढ़ा दी गई। अधिसूचित समय में जहाज के यात्रियों द्वारा सारे
क़ायदे-क़ानून का उचित अनुपालन किया गया। इधर सरकार कोई नई तरकीब खोजने की जुगत में
लगी रही कि क्वारंटीन की अवधि को बढ़ाया जा सके। अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए
सरकार ने डॉक्टर सदरलैंण्ड को निकाल दिया और उनकी जगह डॉ. बर्ट्वेल की नियुक्ति की
गई। उसने यात्रियों और क्रू के सदस्यों के निरीक्षण के उपरांत घोषणा की कि जहाज
में अभी और फ़्यूमिगेशन की ज़रूरत है और क्वारंटीन की अवधि को एक पखवाड़ा और बढ़ा दिया
गया। पानी और अन्य सामग्रियों की कमी से यात्री परेशान थे ही, अब कपड़ों और कम्बलों को जला देने से
उनकी परेशानियां और बढ़ गईं। ठंड और नमी के कारण अन्य बीमारियों से ग्रसित होने का
खतरा तो संभावित था ही। जहाज के बाहरी बन्दर पर लंगर डालने के दस दिनों के बाद 28 दिसम्बर को जहाज
पर पानी भेजा गया। सरकारी आदेशों के तहत जिन वस्त्रों को नष्ट कर दिया गया था उसकी
जगह नए वस्त्र की आपूर्ति के लिए जहाज के मुख्य अधिकारी ने सरकार से मांग की। पर
सरकार के कान पर जूं तक नहीं रेंगी। यात्रियों की आवश्यकता की पूर्ति के लिए
स्थानीय भारतीयों ने सहायता कोष संगठित किया।
उग्र विरोध प्रदर्शन
कोलोनियल पैट्रियोटिक यूनियन
और यूरोपियन प्रोटेक्शन असोसिएशन ने मिलकर विरोध प्रदर्शन शुरु किया। जबकि उग्र दल
के लोग सीधी कार्रवाई चाहते थे। नेटाल वोलन्टीयर फोर्स के कैप्टन हैरी, जो एक कसाई था, ने उनको नेतृत्व प्रदान करना शुरु कर
दिया। डरबन के टाउन हॉल में सोमवार, 4 जनवरी 1897 को सुबह 8 बजे एक सभा का आयोजन किया गया। इसमें लगभग 2000 लोगों ने भाग लिया। इनका एक मात्र उद्देश्य था कि बन्दरगाह के
क्षेत्र में प्रदर्शन किया जाए और अगर आवश्यकता हुई तो भारतीयों को उतरने से
बलपूर्वक रोका जाए। आक्रोश चरम पर था। भड़काऊ भाषण दिए गए। एक प्रदर्शन समिति भी
गठित की गई।
सरकार भारत विरोधी शक्तियों के आगे झुकी
सरकार के ऊपर दवाब बढ़ रहा था
कि वो अपने खर्चे पर दोनों जहाज के यात्रियों को वापस हिन्दुस्तान भेज दे। सरकार
को आन्दोलनकारियों से सहानुभूति भी थी। वह इस विषय पर विधेयक भी पेश करने जा रही
थी। सरकार ने उपद्रवकारियों से संयम बरतने को कहा। प्रेस ने भी हिंसा का सहारा न
लेने की अपील की। कोलोनियल पैट्रियोटिक यूनियन ने भी संवैधानिक तरीक़े से ही विरोध
जताने का आह्वान किया। इस सब के बावज़ूद अधिकांश लोगों का मानना था कि सरकार के हाथ
में यह अधिकार नहीं है कि जहाज के यात्रियों को वह वापस भेज सके। फिर भी प्रदर्शन
समिति के नेता कैप्टन स्पार्क्स ने सरकार को इस आशय का अनुरोध भेजा कि वह
यात्रियों को लोगों की भावना से अवगत कराते हुए यह निर्देश दे कि वे वापस लौट
जाएं। प्रशासन दुविधा में था। क्वारंटीन की
अवधि ने समस्या के समाधान के लिए काफ़ी अवसर प्रदान कर ही
दिया था। किंतु सरकार खुद भारत विरोधी शक्तियों के आगे इस कदर झुकी हुई थी कि वह
विवेक का प्रयोग न कर पा रही थी। प्रधानमंत्री सर जॉन रॉबिन्सन स्वास्थ्य लाभ के
लिए इंगलैंड चले गए थे। एटर्नी जनरल हैरी एस्कॉम्ब ने कार्यकारी प्रधानमंत्री का
पद संभाला हुआ था। वे गांधीजी के पड़ोसी थे। आंदोलनकारियों से वह सख़्ती से निपट
नहीं पा रहे थे। एफ़.ए. लाटन जब उनसे यात्रियों के अधिवक्ता के तौर पर मिले तो वह
उन्हें भी यात्रियों की उपद्रवकारियों से सुरक्षा का कोई आश्वासन न दे सके।
दादा अब्दुल्ला को धमकियां
प्रदर्शन समिति ने अनगिनत
सभाएं की। दादा अब्दुल्ला के नाम धमकियां भेजी जाती रहीं। लालच भी दिया जाता रहा।
अगर दादा अब्दुल्ला दोनों स्टीमरों को वापस ले जायें तो गोरे नुकसान की भरपाई कर
देंगे। दादा अब्दुल्ला किसी धमकी से डरने वालों में से नहीं थे। उन्होंने यह ठान
ली थी कि चाहे कितना भी नुकसान उठाना पड़े वे स्टीमरों को बन्दर पर लगायेंगे और
यात्रियों को उतारेंगे। जब तक हमारा सारा कार-बार चौपट न हो जाए, हम बिल्कुल बरबाद न हो जाएं, हम लड़ते रहेंगे।
अफ़वाहों को हवा
इधर स्पार्क्स के नेतृत्व में
आग उगलने वाले भाषण दिए गए। अफ़वाहों को हवा दी गई। कहा गया कि जहाज से भर कर लोग
लाये गए हैं कि ताकि डरबन के शहर-बाज़ार पर क़ब्ज़ा जमा लिया जाए। गांधी अपने साथ प्रिंटिंग
प्रेस लाया है, ताकि वह यहां अपना प्रचार अभियान तेज़ कर सके। उनके साथ पचास छपाई के
काम करने वाले लोग भी आए हैं। इन भारतीयों के लिए हिन्द महासागर सही जगह है। जहाज
को उसी में डुबा दिया जाना चाहिए। एजेण्ट को तो धमकी मिल ही रही थी, अब तो गांधीजी के नाम भी धमकियां आने
लगीं। “अगर तुम वापस नहीं गये, तो तुम्हें समुद्र में डुबो दिया जाएगा।” उपद्रवकारियों ने जहर उगलते शब्दों से तरह-तरह के अफ़वाह फैलाए। उन्हें
यह लगता था कि सरकार उनके साथ है। फिर भी उन्हें लगता था कि अगर सरकार असफल हुई तो
वे खुद कार्रवाई करेंगे। किंतु सही बात तो यह थी कि जहाज पर कोई छपाई की मशीन नहीं थी और
जितने भी लोग थे, उनमें से कोई पचास-साठ लोग ही ऐसे थे जो व्यवसाय की तलाश में वहां गए
थे, बाक़ी तो
महिलाएं-बच्चे थे। कुरलैंड और नादेरी में सवार 600 यात्रियों में से, केवल 200 ही नेटाल के लिए थे, बाकी डेलागोआ
खाड़ी, मॉरीशस, बॉर्बन और ट्रांसवाल के लिए थे। इनमें से नए लोगों की संख्या केवल
100 थी, जिनमें से 40 महिलाएँ
थीं। इस प्रकार, नेटाल में स्टोरकीपर के
सहायक, अपने आप से करने वाले
व्यापारी और फेरीवाले के रूप में रहने के लिए केवल 60 नए लोग बचे थे।
यात्रियों ने हिम्मत नहीं हारी
भारतीय नेटाल कांग्रेस के
नेता चिंतित तो थे, लेकिन उन्होंने शांति रखी हुई थी। मेसर्स नाज़र ब्रदर्स, लंदन के मनसुखलाल हीरालाल नाज़र इन
दिनों गांधीजी से मिलने डरबन आए हुए थे। वे होशियार और बहादुर आदमी थे। भारतीय
समुदाय को उनका पथप्रदर्शन और सलाह बड़ा काम आया। भारतीय समुदाय ने उन्हें
मुक्तिदाता के रूप में सम्मानित किया। वह लॉटन के साथ घनिष्ठ रूप से जुड़े रहे, जो समुदाय के
वकील के रूप में कार्य कर रहे थे। नाज़र की सहायता और उनके
सुझाव लॉटन के लिए अत्यंत मूल्यवान साबित हुए।
7 जनवरी 1897 को क्रुद्ध गोरों
की दूसरी
बैठक हुई, जिसमें यह निर्णय लिया गया कि वे किसी भी तरह भारतीय यात्रियों को
जहाज से उतरने नहीं देंगे। उस सुबह प्रधानमंत्री के साथ एक टेली-कांफ्रेंस कर एस्कोम्ब ने प्रदर्शनकारियों
को बताया कि “सरकार उनके साथ है और हर संभव तरीके
से मामले को तेजी से निपटाना चाहती है।” किसी सज्जन ने कहा, ‘क्वारंटीन को बढ़ाओ’; एस्कोम्ब ने बताया कि संसद ठीक यही करने जा रही थी। ‘जहाज को डुबो
दो’ के नारे लगे। इसके बाद तैयारियां आगे बढ़ाई गईं और पूरी व्यवस्था की गई, जिसमें बल
प्रयोग करने के इच्छुक लोगों की सूची बनाना और उनका नेतृत्व करने के लिए
"कैप्टनों" की नियुक्ति करना शामिल था। डरबन में उत्साह का माहौल था।
भयभीत भारतीय नागरिकों को किसी भी समय भीड़ द्वारा हिंसा
भड़कने की आशंका थी। भारतीय समुदाय और भारतीय
नेटाल कांग्रेस के लिए अब हाथ पर हाथ धरे रख कर बैठने का समय नहीं था। अगर भीड़-हिंसा
की भावना भड़क जाती तो इसे आसानी से
नियंत्रित नहीं किया जा सकता था।
दादा अब्दुल्ला और उनके
सहयोगी शहर में हो रही सारी गतिविधियों की जानकारी गांधीजी को देते रहे। अब तो
स्पष्ट ही हो चुका था कि क्वारंटीन तो मात्र एक बहाना था यात्रियों को उतरने देने
से रोकने के लिए। यह बात भी स्पष्ट थी कि सरकार आन्दोलनकारियों को ख़ुश रखना चाहती
है। दादा अब्दुल्ला जहाज के यात्रियों के लगातार सम्पर्क में थे। उनके मनोरंजन के
साधन भी उन्होंने जहाज पर मुहैया कराए। उनके लिए खेलों का प्रबंध किया गया। जहाज
पर गांधीजी तो थे ही। वे यात्रियों में घूमे-फिरे। उन्हें धीरज बंधाते रहे। यात्री
भी शांत रहे और एक क्षण के लिए भी न हिम्मत हारी और न ही हौसला खोया। ज्यों-ज्यों
समय बीतता गया उन्होंने तय किया कि अपने अधिकार के लिए वे संघर्ष करेंगे।
कैप्टन स्पार्क्स की धमकी
क्वारंटीन की बढ़ाई गई अवधि भी
अब समाप्त होने को आ रही थी। प्रदर्शन समिति अब और भी सक्रिय थे। इसके नेता यह
उम्मीद लगाए बैठे थे कि डरबन के व्यापारी अपनी-अपनी दुकानें बन्द कर अपने मज़दूरों
को उनके प्रदर्शन में साथ देने को कहेंगे। यह भी कहा गया कि जो इसमें सहयोग नहीं
करेंगे उनका बहिष्कार किया जाएगा। 11 जनवरी 1897 को डॉ. बिर्टवेल ने दोनों जहाजों को संगरोध मुक्ति (Pratique) का आदेश दे दिया गया। कुछ ही देर बाद
दोनों जहाजों पर लगे क्वारंटीन झंडे उतारे गए।
इस जानकारी के मिलते ही कैप्टैन स्पार्क्स ने अपने
हस्ताक्षर में जहाज के मुख्य अधिकारी को एक धमकी भरा नोटिस भेजा। कप्तान ने इसे
पढ़कर सुनाया, “नेटाल के गोरे बहुत उत्तेजित हैं और उनके मिजाज की हालत जानते हुए भी
अगर यात्री उतरने की कोशिश करेंगे तो बंदरगाह के ऊपर कमेटी के आदमी खड़े रहेंगे और
जहाज से उतरते ही उन्हें हजारों प्रदर्शनकारियों के विरोध का कोपभाजन बनना होगा।” गांधीजी ने जहाज के यात्रियों को समझाया कि कर्तव्य की मांग है कि
उन्हें दृढ़ रहना चाहिए। दोनों ही जहाजों
के मुसाफिरों ने वापस जाने से साफ इनकार कर दिया। उन्होंने यह भी कहा कि : “बहुत से मुसाफिरों को ट्रांसवाल जाना है। जो लोग नेटाल में उतरना चाहते हैं, उनमें से भी बहुत से तो नेटाल के पुराने निवासी
हैं। जो भी हो, हम में से हर एक हिन्दुस्तानी को नेटाल में उतरने का कानूनी अधिकार
है और कमेटी की धमकियों के बावजूद अपना यह अधिकार सिद्ध करने के लिए मुसाफिर हर हालत में यहाँ उतरेंगे।” गांधीजी के निर्देश पर जवाब में एक
संक्षिप्त संदेश भेजा गया: "यात्री वापस जाने से इनकार करते हैं।"
संकट के समाधान के लिए बातचीत
आंदोलन के प्रति अपनी सहानुभूति रखने वाली सरकार यात्रियों को
सुरक्षा का आश्वासन देने में विफल रही। दोनों जहाजों, कुरलैंड और नादेरी के मालिक यात्रियों की सुरक्षा के बारे में चिंतित
हो गए, और उन्होंने संकेत दिया
कि वे प्रदर्शन समिति के साथ बातचीत करने के लिए तैयार हैं। संकट के समाधान के लिए प्रदर्शन समिति का एक प्रतिनिधि मंडल (जिसमें वाइली, फ्लेचर और समिति के सचिव सैविले शामिल थे) दोनों जहाज के कप्तान से जाकर मिला ताकि बातचीत के द्वारा कोई समझौता
हो जाए। लगभग चौबीस घंटों तक समिति इस तरह से व्यवहार करती रही जैसे वही नेटाल की
सरकार के प्रतिनिधि हों। यात्रियों को और गांधीजी को अल्टिमेटम दिए गए। कहा गया कि
सबकी जान खतरे में है। हालांकि, गांधीजी और उनके साथी
यात्रियों ने पीछे हटने का कोई विचार नहीं किया। उपनिवेशवादी जो चाहें कर सकते थे, लेकिन कानूनी तौर पर वे उन्हें उतरने देने से इनकार नहीं कर सकते थे, और कम से कम जहाज पर एक व्यक्ति तो था जो यह जानता था। समिति के सदस्यों को भी इस बात का अन्दाज़ हो गया था कि यात्री हर
हाल में डरबन जाने के अपने अधिकार का प्रयोग करने पर उतारू हैं। 12 जनवरी की सुबह
कैप्टन मिल्ने, नादेरी के मास्टर के साथ, फिर से किनारे पर गए और प्वाइंट डेमोन्स्ट्रेशन कमेटी के साथ लंबी
बातचीत की। शुरू में ही अपनी स्थिति स्पष्ट करते हुए, उन्होंने उन्हें पूछा कि बातचीत शुरू करने से पहले मैं यह कहना चाहता
हूँ कि हम "केवल नेटाल सरकार के साथ ही बातचीत कर सकते हैं"। उन्होंने उनसे सीधे पूछा: क्या वे सरकार का प्रतिनिधित्व करते हैं? उन्होंने कहा कि वे
सरकार नहीं हैं, लेकिन उनका ‘विश्वास’ है
कि उनके कार्यों के लिए सरकार की स्वीकृति है। कैप्टन मिल्ने ने उनसे कहा, "यदि आप सरकार
नहीं हैं, तो मैं अब आपसे बात नहीं कर सकता", और इसके साथ ही
वे बैठक से चले गए। रात के साढ़े दस बजे समिति ने घोषणा की कि वार्ता विफल हो गई
है। 12 जनवरी को देर रात समिति के सदस्यों की अटॉर्नी जनरल के साथ एक और बैठक हुई, लेकिन कोई सफलता
नहीं मिली।
यूरोपियन समुदाय का पारा उफान पर
दूसरी तरफ़ यूरोपियन समुदाय का
पारा उफान पर था। समाचार पत्र दो-दो घंटे पर बुलेटिन प्रसारित कर उनके उबाल को
थमने नहीं दे रहे थे। भारतीयों की तरफ़ से कुरलैंड के कप्तान मिलने को यह सूचित कर
दिया गया कि प्रदर्शन समिति का कोई क़ानूनी हक़ नहीं बनता कि वो कोई समझौता करे।
दोनों जहाज के एजेण्ट ने उपनिवेश सचिव, मारित्ज़बर्ग को प्रतिवेदन दिया। उन्हें इस बात की याद दिलाई गई कि
भारतीय यात्रियों के जान-माल की रक्षा करना उनका दायित्व बनता है। यात्रियों के
सुरक्षित रूप से उतरने में उन्होंने अपनी हर संभव सहायता देने का भी वचन दिया।
किंतु सरकार का व्यवहार बहुत ही टालमटोल वाला रहा। ऐसा लग रहा था कि जब स्थिति बेकाबू
हो जाएगी तो सरकार यात्रियों से वापस जाने को कहेगी। सर जॉन रॉबिन्सन इंगलैंड से
लौट आए थे। उन्होंने प्रधानमंत्री के रूप में अपना कार्यभार संभाल लिया था। यात्रियों का कड़ा रुख देखकर
हैरी एस्कॉम्ब को भी लग रहा था क़ानूनी तौर पर तो वह उन्हें डरबन में उतरने से नहीं
रोक सकता था। कई और ऐसी बातें हुईं जो गांधीजी के हक़ में गईं। धीरे-धीरे
सच्चाई सामने आने लगी। कई यूरोपीय यात्री 11 जनवरी 1897 को तट पर आए तो उन्होंने गांधीजी के प्रति काफ़ी आदर और सम्मान का भाव
प्रदर्शन किया। यह भी स्पष्ट हुआ कि जहाजों के सारे यात्री डरबन ही नहीं जाने वाले
थे, उनमें से कई ऐसे
भी थे जिन्हें आगे ट्रान्सवाल जाना था। 11 जनवरी को तट पर लाए गए दो यूरोपीय
यात्रियों ने, जो युगांडा रेलवे पर कुछ
ठेके पूरा करने के लिए बम्बई से आए थे, नेटाल एडवरटाइजर
के एक प्रतिनिधि द्वारा साक्षात्कार में भारतीयों को उतरने से रोकने की कॉलोनी की
कार्रवाई की कड़ी निंदा की।
जहाज को बन्दर पर जाने की अनुमति
प्रदर्शन समिति सरकार पर दवाब
बनाए रखी पर कुछ हासिल करने में क़ामयाब नहीं हुई। 12
जनवरी को जहाज मालिकों ने एस्कोम्ब को लिखा: "स्टीमर
अब 24 दिनों से बाहरी
लंगरगाह में हैं, जिस पर हमें प्रतिदिन £150 का खर्च आ रहा है; इसलिए हमें विश्वास है कि आप कल दोपहर तक हमें पूरा उत्तर देने की कृपा
करेंगे, और हम आपको यह सूचित करना उचित समझते हैं कि यदि आप हमें यह आश्वासन
देते हुए कोई निश्चित उत्तर नहीं देते कि हमें पिछले रविवार से £150 का भुगतान किया जाएगा, और आप दंगाइयों को दबाने के लिए कदम
उठा रहे हैं ताकि हम स्टीमर को उतार सकें, तो स्टीमर को बंदरगाह में उतारने की तैयारी तुरंत शुरू कर दी जाएगी, हम सम्मानपूर्वक प्रस्तुत करते हैं
कि सरकार हमें सुरक्षा देने के लिए बाध्य है।" इस पर तुरंत जवाब आया।
अगली सुबह 10.45 बजे एस्कोम्ब ने लिखा: "बंदरगाह के कप्तान ने निर्देश दिया
है कि आज 12 बजे स्टीमर बार को पार करके अंदर की ओर जाने के लिए तैयार हो जाएँ।
सरकार को व्यवस्था बनाए रखने की अपनी जिम्मेदारी के बारे में याद दिलाने की कोई ज़रूरत
नहीं है।" नेटाल की सरकार हारी। अनुचित
प्रतिबंध और अधिक दिन चल न सकी। बंबई से रवाना होने के 44 दिनों के बाद कुरर्लैंड
और नादरी अब किनारे जाने वाले थे। रोक हटा ली गई और 13 जनवरी 1897 की सुबह पोर्ट अधीक्षक ने
जानकारी दी कि जहाज को बन्दर पर जाने की अनुमति दे दी गई है। बाहरी बन्दर को छोड़ने
के पहले ही नेटाल एडवर्टाइज़र का एक रिपोर्टर जहाज पर चढ़ गया। वह गांधीजी का
साक्षात्कार लेना चाह रहा था। उसने हरी पुस्तिका,
भारत में गांधीजी के भाषण और जहाज के यात्रियों आदि पर
तरह-तरह के प्रश्न किए और गांधीजी ने उसके हर प्रश्न का बिल्कुल खुलासा करते हुए
जवाब दिया। लोगों के मन में इन दोनों जहाजों और उसके यात्रियों को लेकर जितनी भी
शंकाएं थीं उसका समाधान गांधीजी ने किया। लेकिन यह रिपोर्ट तो अखबारों में दूसरे
दिन सुबह आना था।
होनी टलने वाली
कहां थी!
उपसंहार
गांधीजी किसी भी ऐसे पुराने विश्वास
या प्रचलन का ग़ुलाम बनने से इंकार करते थे, जिसे वह समझ नहीं सकते या जिसका वह नैतिक
आधार पर समर्थन नहीं कर सकते। उनके अनुसार सबसे बड़ी बात नैतिक नियम थी, जो उनकी समझ
में होना चाहिए। उनकी विचारधारा पर विवाद हो सकता है, लेकिन वह अपने को एक ही आधारभूत
मापदंड से नापने पर ज़ोर देते थे। फिर भी कुछ सीमा तक वह अपने को हमेशा परिवर्तनशील
परिस्थिति के अनुकूल बनाते रहे।
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मनोज कुमार
पिछली
कड़ियां- गांधी और गांधीवाद
संदर्भ : यहाँ पर
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