गांधी और गांधीवाद
65. मद्रास
पहुंचे
अक्तूबर 1896
ज़ोरदार स्वागत
पूना में गांधीजी की सभा बहुत
सफल रही। उत्साहित गाांधीजी ने मद्रास जाने का कार्यक्रम तय किया। ट्रेन से गांधीजी 14 अक्तूबर, 1896 को
मद्रास (चेन्नई) पहुंचे। मद्रास (चेन्नई) की उनकी यात्रा में काफ़ी उत्साह का
वातावरण था। गांधीजी अपनी आत्मकथा में लिखते हैं, “मद्रास तो पागल हो उठा।” दक्षिण अफ़्रीका में तो गांधीजी
ग़ुलाम मज़दूरों के मसीहा बन चुके थे। उसपर से बालासुंदरम यहीं का रहने वाला था।
उसके किस्से यहां पहुंच ही गए थे (47. बालासुन्दरम का मामला)। बालासुंदरम की घटना ने गांधीजी को मद्रास का दुलारा बना दिया था।
लोगों को मालूम था कि किस प्रकार गांधीजी गिरमिटिया मज़दूरों की लड़ाई दक्षिण
अफ़्रीका में लड़ रहे हैं। वे दक्षिण अफ़्रीका के गुलाम मज़दूरों के मसीहा बन चुके थे।
ज़्यादातर गिरमिटिया मज़दूर मद्रास प्रेसिडेंसी के ही थे। इसके कारण गांधीजी का यहां
ज़ोरदार स्वागत हुआ और लोगों का अपार स्नेह उमड़ पड़ा था। चारों तरफ़ अथाह उत्साह का
वातावरण था। यहां उन्हें अग्रणी भारतीय विधिवेत्ता न्यायमूर्ति सुब्रमण्यम अय्यर
ने सहजता से अपना लिया। इर्डली नॉर्टन और भाष्यम अयंगर, प्रसिद्ध कानूनी
विद्वान, ने धैर्यपूर्वक उनकी बात सुनी और उनके पक्के, वफ़ादार दोस्त
बन गए। दक्षिण भारत के प्रमुख भारतीय दैनिक, हिंदू के संपादक जी.
सुब्रमण्यम और मद्रास स्टैंडर्ड के संपादक परमेश्वरम पिल्ले ने उनका स्वागत किया।
कांग्रेस के संस्थापक सदस्यों में से एक, माननीय आनंद चार्लू, जो अपनी दमदार
वाकपटुता के लिए जाने जाते थे, ने उनका स्वागत किया।
सार्वजनिक सभा
मद्रास महाजन सभा के तत्वावधान में एक सार्वजनिक बैठक बुलाने के लिए राजा
सर रामास्वामी मुदलियार से शुरू करते हुए समुदाय के विभिन्न वर्गों के लगभग 40
प्रतिनिधियों
के हस्ताक्षर से एक परिपत्र तैयार किया गया। बैठक 26 अक्टूबर को पचैयप्पा हॉल में
हुई। माननीय आनंद चार्लू ने अध्यक्षता की। गांधीजी ने तमिल पढ़ना-लिखना तो सीख लिया था लेकिन बोलने का अभ्यास
नहीं था, इस कारण से वे स्थानीय लोगों की भाषा में बात नहीं कर सकते थे। इसलिए
उनकी बातचीत अंग्रेज़ी या हिंदी में होती थी। प्यार को भाषा का अभाव नहीं लगता। हालाकि यहां पर दिया गया गांधीजी
का भाषण अपेक्षाकृत लंबा था फिर भी 26 अक्टूबर, 1896 को वहां के पचैयप्पा हॉल में जो सार्वजनिक सभा हुई उसमें
लोगों ने उन्हें ध्यानपूर्वक सुना। सभा काफ़ी सफल रही। मद्रास में गांधीजी को सबसे
ज़्यादा समर्थन मिला। जनसभा में गांधी ने चिल्लाते हुए कहा, ‘वे हमारे साथ जानवरों जैसा व्यवहार करते हैं।’ उन्होंने कहा, ‘नीति यह है कि जब भी संभव हो, हमें काफिरों के
साथ रखा जाए।’ दक्षिण अफ्रीका ने भारतीयों के जीवन स्तर को गिरा दिया और उन्हें
अस्वास्थ्यकर हालातों में बंद कर दिया। गांधीजी ने सभा में कहा कि इन अपमानों के
आगे झुकने का मतलब है पतन। उन्होंने प्रतिरोध का
आग्रह किया। उन्होंने यह भी आग्रह किया कि यदि कोई सुधार नहीं हुआ तो भारत से
दक्षिण अफ्रीका में प्रवास को निलंबित कर दिया जाना चाहिए। बम्बई और पूना की तरह मद्रास
की बैठक में भी गांधीजी ने 'ग्रीन पम्फलेट' की चर्चा की और जाते समय
श्रोताओं से इसे खरीदने को कहा।
विश्वासोत्पादक वक्ता
गांधीजी कोई जोशीले वक्ता
नहीं थे। उनका भाषण शांत और धीमा होता था। उनका सुगठित वक्तव्य मुख्यतः
पढ़े-लिखे लोगों को प्रभावित कर सकता था। लेकिन अपनी सधी हुई गति से वे विषय को
स्पष्ट और काफ़ी दमदार तरीक़े से सामने रखते थे जिससे सभी वर्ग के श्रोताओं पर अच्छा-खासा प्रभाव पड़ता
था। भाषण के दौरान उनकी आवाज़ में कोई ख़ास उतार-चढ़ाव नहीं होता था, लेकिन उनकी बात में ईमानदारी साफ़
झलकती थी। जिस बुद्धि चातुर्य से वे अपनी बात कहते थे वह काफ़ी महत्वपूर्ण था। इन
सब के कारण वे एक बहुत बड़े विश्वासोत्पादक वक्ता थे। अंग्रेज़ी की तुलना में गुजराती
में भाषण देते वक़्त वे काफ़ी तेज़ी से भी बोला करते थे। भाषण देते वक़्त हाथ तो कभी
नहीं हिलाते थे, हां अंगुलियों का कभी-कभार उपयोग कर लिया करते थे। उनकी ईमानदारी, उनकी उदारता और तर्क लोगों को उनके
साथ एकाकार कर देते थे। उनका व्यक्तित्व करिश्माई तो था ही। अपने शिष्ट व्यवहार और
भद्रता से वे अपने बड़े से बड़े विरोधियों को भी झुका देते थे। उनकी सभा में हर वर्ग
के लोग काफ़ी प्रभावित हुआ करते थे।
‘ग्रीन पम्फलेट’ का संशोधित संस्करण
मद्रास की सभा की समाप्ति पर
तो ‘हरी
पुस्तिका’ के लिए बिल्कुल ही मारा-मारी की सी स्थिति हो गई। इसकी मांग को पूरा
करने के लिए नया संशोधित, परिवर्धित संस्करण निकालना पड़ा। फिर से इसकी 10,000 प्रतियां
वहीं छपवाई गई। गांधीजी ‘मद्रास स्टैण्डर्ड’ के सम्पादक जी. परमेश्वरन पिल्लै और प्रभावशाली ‘हिन्दू’ के सम्पादक जी. सुब्र्हमण्यम
से भी मिले। इन्होंने गांधीजी के प्रति पूरी सहानुभूति दिखाई। हिन्दू ने गांधीजी के भाषणों को
विस्तार से छापा। ‘मद्रास स्टैण्डर्ड’ ने गांधीजी को अखबार में एक स्तम्भ लिखने को कहा, और गांधीजी ने वैसा किया भी।
एक तरफ़ विभिन्न स्थलों पर
जा-जा कर गांधीजी का सभा करने का कार्यक्रम चल रहा था। दूसरी तरफ़, इन सबके बीच ‘हरी पुस्तिका’ का
तोड़-मरोड़ कर बनाया गया सारांश रायटर ने तार द्वारा लंदन के हुक्मरानों को सूचित
किया था। उनके लंदन कार्यालय ने तार द्वारा इसका भी संक्षेप नेटाल भेजा। इसके लिए गांधीजी
को काफ़ी संकटों का सामना करना पड़ा। साथ ही भारत के विभिन्न समाचार पत्रों में भी
इस बाबत छपा था। गांधीजी के मद्रास (चेन्नई) पहुंचने के कुछ ही दिनों पहले, 14 सितम्बर को सर
वाल्टर पीस, जो लंदन में नेटाल का एजेंट जेनरल था,
ने एक वक्तव्य ज़ारी किया था। यह ‘ग्रीन पम्फलेट’ में जो
भी लिखा गया था उसके जवाब में था। इस तार से उत्तेजित हो डरबन के यूरोपवासियों ने 16 सितम्बर को
योरोपियन प्रोटेक्शन असोसिएशन (European protection
association) गठित कर लिया। मद्रास से जो
‘ग्रीन पम्फलेट’ का संशोधित और संवर्धित संस्करण छपा था, उसमें गांधीजी ने सर वाल्टर पीस के
वक्तव्य का जवाब भी समाहित कर दिया था।
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मनोज कुमार
पिछली
कड़ियां- गांधी और गांधीवाद
संदर्भ : यहाँ पर
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