शनिवार, 7 सितंबर 2024

67. दक्षिण अफ़्रीका जाने की तैयारियां

 गांधी और गांधीवाद

67. दक्षिण अफ़्रीका जाने की तैयारियां

नवम्बर 1896

पूना (पुणे) से राजकोट लौटे

दक्षिण अफ़्रीका से फ़ौरन लौटने के निवेदन का तार आ चुका था। अब देर करने से काम नहीं चलने वाला था। उन्हें हर हाल में जनवरी की शुरुआत में दक्षिण अफ़्रीका में होना था। इस बीच देश में कई व्यक्तिगत काम भी गांधीजी को निपटाने थे। कलकत्ता से लौटते हुए वह पूना में रुके। 16 नवंबर, 1896 को जोशी हॉल में सार्वजनिक सभा के तत्वावधान में पूना के नागरिकों की एक बैठक में उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों की शिकायतों पर बात की, डॉ. भंडारकर ने अध्यक्षता की। गांधीजी के बोलने के बाद, लोकमान्य तिलक ने दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों के प्रति सहानुभूति जताते हुए एक प्रस्ताव पेश किया और डॉ. भंडारकर, खुद और प्रोफेसर गोखले की एक समिति को अधिकृत किया कि वह दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों की कठिनाइयों पर एक ज्ञापन तैयार करके भारत सरकार को सौंपे। पूना (पुणे) से लौटने के बाद वे परिवार को लेने राजकोट आ गए। उन्हें राजकोट में ढेर सारी तैयारियां करनी थी।

इस बीच 26 नवम्बर 1896 को डरबन में मेयर की अध्यक्षता में वहां के यूरोपवासियों की एक आम सभा हुई। इस सभा में एशियाई आप्रवास की भर्त्सना की गई। गांधीजी का नाम आने पर उपस्थित श्रोताओं ने सी-सी कर फुफकार भरा। कोलोनियल पैट्रियोटिक यूनियन (Colonial Patriotic Union) का गठन हुआ। 30 नवम्बर को कलकत्ता के वायसराय को तार द्वारा सूचित किया कि ट्रांसवाल की सरकार प्रवासी भारतीयों को लोकेशन में रहने को बाध्य कर रही है जबकि उपनिवेश सचिव ने कहा था कि जब तक टेस्ट केस का निर्णय नहीं आ जाता इस तरह का कोई कदम न उठाया जाए। उन्होंने वायसराय से शीघ्र कार्रवाई करने की मांग की।

कस्तूरबाई के लिए विकट स्थिति

अपने परिवार के साथ गांधीजी की यह पहली समुद्री यात्रा थी। इस बार उनके साथ कस्तूरबाई, उनके दो पुत्र (नौ साल के हरिलाल और चार साल के मणिलाल) एवं उनकी विधवा बहन गोर्की (रालियात बेन) का एकमात्र दस साल का पुत्र गोकुलदास भी जाने वाले थे। बच्चे तो इस समुद्री यात्रा का नाम सुनकर ही काफ़ी उत्तेजित थे। किन्तु कस्तूरबाई के लिए बड़ी ही विकट स्थिति पैदा हो गई थी। उन्होंने आज तक सौ मील से अधिक की दूरी कभी तय नहीं की थी, न कभी पोरबंदर और राजकोट की सीमा से बाहर गई थी।

घर के बुजुर्गों ने 13 साल की उम्र में शादी करवा दी थी। बालिका से वधु बनीं कस्तूरबाई दो जेठानियों और उनके बच्चों के बड़े परिवार में आ गईं। पति तो बीच-बीच में उन्हें छोड़कर लंबी अवधि के लिए बाहर चले जाते रहे। जून 1888 में हरिलाल का जन्म हुआ और उसके कुछ दिन बाद से ही बैरिस्टरी की पढाई के लिए तीन साल विलायत में रहे। वहां से लौटे तो वकालत के व्यवसाय के लिए बंबई (मुंबई) गए। 25 अक्तूबर 1892 में मणिलाल का जन्म हुआ। मुंबई में वकालत नहीं जमा तो 1893 में एक साल के लिए दक्षिण अफ़्रीका गए। लेकिन वहां वकालत अच्छी चलने लगी और भारतीयों की तकलीफ़ें दूर करने के लिए तीन साल रहना पड़ गया। अब 1896 में आए, परिवार को दक्षिण अफ़्रीका ले जाने। अब तक इस संयुक्त परिवार की सभी असुविधाओं का अनुभव कस्तूरबा को अकेले झेलना पड़ा। सारे घर का बोझ कस्तूरबा के नाज़ुक कंधों पर था। जेठ के बच्चे और जेठानियों की निष्क्रियता के कारण छोटी कस्तूरबा को इतना काम रहता कि नन्हे हरिलाल और मणिलाल का मुंह धोने की फ़ुरसत भी उन्हें नहीं मिलती थी। हरिलाल बेचारा नंग-धड़ंग घूमा करता था। अब उन्हें पानी के जहाज से हजारों मील दूर समुद्र पार कर जाना था, वह भी अपने घर-परिवार और रिश्तेदारों से दूर। क्या पता अपने माता-पिता, भाइयों से फिर भेंट-मुलाक़ात हो भी पाएगी या नहीं। किन्तु अपनी ये चिन्ताएं वे किसी को ज़ाहिर नहीं होने देतीं।

कस्तूरबा को छोड़ सब ख़ुश थे

अपनी-अपनी जगह सब ख़ुश थे। बच्चे तो बालसुलभ मन में उल्लास लिये उस दिन का इंतज़ार कर रहे थे, जब वे जहाज में सवार होंगे। जेठ-जेठानी इसलिए खुश थे कि चलो मोहन अब खुद का परिवार संभालेगा और विदेश से आर्थिक मदद भी भेजेगा। गांधीजी खुश थे कि अब परिवार के साथ रहेंगे। अगर कोई चिन्तित था, तो वह थीं कस्तूरबाई। उनके मन में कई शंकाएं जन्म ले रहीं थीं। जब देश में ही परिस्थितियां इतनी विकट रहीं तो विदेश में न जाने क्या होगा? कैसे निभेगा विदेश में? वहां कोई परिचित भी नहीं होगा। दिन कैसे बीतेंगे? कोई ऐसा चमत्कार हो जाए कि जाना ही न पड़े।

हां, उन्हें इस बात का संतोष था कि जब यह यात्रा पूरी हो जाएगी तब उनका वहां पर अपना घर होगा, और उनका अपना परिवार साथ में होगा। उन्हें इस बात की ख़ुशी भी थी कि उनका भतीजा भी साथ जा रहा था। दस वर्षीय गोकुलदास कुछ ही महीनों का तो हरिलाल से बड़ा था। हां, विधवा ननद रालियात बेन की उन्हें चिंता ज़रूर थी कि वे अब अकेले कैसे रहेंगी।

गांधीजी की चिंता

इधर गांधीजी की एक चिंता बढ़ गई। अब उन्हें अपनी पत्नी और बच्चों को अपने जीवन के ढर्रे के अनुरूप ढालना था। गांधीजी तो खुद को कस्तूरबाई का शिक्षक मानते ही थे। पत्नी निरक्षर जो थी। इस बार की यात्रा में उन्हें न सिर्फ़ पत्नी बल्कि बालकों की वेश-भूषा, खान-पान और बोलचाल का ख्याल रखना था। नए परिवेश के रीति-रिवाज़ सिखाने थे। क्या खाना है, क्या नहीं खाना है और खाने के तौर-तरीक़े क्या होंगे, यह सब गांधीजी को तय करना था।

चूंकि कस्तूरबाई बीच ग्रोव विला की गृह-स्वामिनी बनने जा रही थीं, इसलिए गांधीजी इस नतीजे पर पहुंचे कि उन्हें ठीक से कपड़े पहनने चाहिए। सबसे पहली समस्या यह थी कि कस्तूरबाई और बच्चे दक्षिण अफ़्रीका में कौन सी पोशाक पहनेंगे? जाहिर है कि वह यूरोपीय कपड़े नहीं पहन सकती थीं, और जाहिर है, चूंकि वह हिंदू थीं, इसलिए वह मुस्लिम पोशाक नहीं पहन सकती थीं। हालाकि गांधीजी चाहते थे कि यूरोपीय लोग भारतीयों का भारतीयों के रूप में सम्मान करें। उस समय भी वे अपनी अधिक या बिल्कुल भी परवाह नहीं करते थे। लेकिन वे ख़ुद को समाज का प्रतिनिधि मानते थे। संघर्ष का प्रतीक मानते थे, जो वास्तव में वे थे भी। इसलिए उस समय तक गांधीजी यह मानते थे कि जिन्हें समाज सेवा में लगना है उन्हें कायदे के लिबास में रहना चाहिए तभी लोग उनके आदेशों-निर्देशों का पालन करेंगे। सभ्य माने जाने के लिए, गांधीजी का मानना था, कि हमारा बाहरी आचार-व्यवहार यथासंभव यूरोपियनों से मिलता-जुलता होना चाहिए। ऐसा करने से ही लोगों पर प्रभाव पड़ेगा और बिना प्रभाव पड़े देश सेवा नहीं हो सकती। इसलिए पत्नी और बच्चों की वेश-भूषा गांधीजी ने खुद ही पसन्द की। काठियावाड़ के बनिया परिवार का पारंपरिक पोशाक तो चल ही नहीं सकता था। लेकिन पूरा-का-पूरा पाश्चात्य परिधान भी सही नहीं था। उन्होंने फैसला किया कि उन्हें पारसी साड़ी पहननी चाहिए, जबकि उनके दोनों बेटों ने पारसी कोट और पतलून पहनी। तब पारसियों को भारतीयों में सबसे सभ्य लोग माना जाता था, और उनकी पोशाक, औपचारिक, अच्छी तरह से कटी हुई और बहुत विशिष्ट होने के कारण, यूरोपीय लोगों द्वारा प्रशंसा के साथ देखी जाती थी। हिंदू धोती हमेशा एक अव्यवस्थित मामला होता है, जबकि पतलून में कम से कम एक निश्चित लालित्य होता है। पतलून, जूते और मोजे पहनने के लिए मजबूर होने पर, दोनों लड़कों ने विद्रोह कर दिया लेकिन गांधीजी ने कभी भी अपने परिवार में विद्रोह की अनुमति नहीं दी। उन पर उनका अधिकार पूरा था। किसी ने भी कभी जूते नहीं पहने थे। उन्हें काफी दर्द होने लगा। पैरों की उंगलियाँ दुखने लगीं। जुराबों से पसीने की दुर्गन्ध आने लगीं। यह सब असहनीय होने लगा।

यात्रा की तैयारियां

पारसी साड़ी, लम्बी बांहों वाला ब्लाउज, जुराबें और जूते कस्तूरबाई के लिए, कोट, पतलून और जूते बच्चों के लिए। तैयारी भी होने लगी। जूते, मोजे आ गए और पारसी ढंग के कपड़े सिले गए। इन्हें देखकर जेठानी और ननद ने कस्तूरबाई को विदेशन कहकर खूब मज़ाक भी उड़ाया। यह भी निश्चय किया गया कि खाने की मेज पर छुरी, कांटा और चम्मच का प्रयोग करना होगा। उन दिनों को याद कर कस्तूरबाई ने बाद में कहा भी किसभ्य दिखने के लिए हमें क्या-क्या क़ीमतें चुकानी होती है?’ बाद के दिनों में जब गांधीजी की विचारधारा में बदलाव और परिपक्वता आई तो अपनी इन धारणाओं को याद कर उन्हें भी हंसी आती थी।

हरिलाल और मणिलाल तो अभी बच्चे थे। वे कुछ कह सकते नहीं थे। कस्तूरबाई को जैसा गांधीजी कहते वैसा वह करतीं, बल्कि वे वैसा करने के लिए बाध्य थीं। ‘नहीं’ के लिए कोई जगह ही नहीं थी। बच्चों के कपड़े, अपने कपड़े, जूते, मोजे, छुरी-कांटे, अटपटी पोशाकें, न जाने क्या-क्या, सब बांधा जा रहा था। इस नयापन और नई शैली को धारण करने के चक्कर में कस्तूरबाई अन्दर से कटती रहती थीं। जब असह्य हो जाता तो पूछ ही देतीं, वहां क्या हमें सर्कस में काम करना है? गांधीजी कहते तहज़ीब भी कोई चीज़ होती है। अब कस्तूरबाई को समझ में नहीं आता कि तहज़ीब क्या कपड़ों से ही आती है। विश्वास नहीं होता कि मोहन को दिखावा कब से रास आने लगा है? मुझे तो दिखावा बिल्कुल ही पसंद नहीं है। दिखावे में आदमी आदमी नहीं रहता, वह तो दिखावटी हो जाता है। फिर गांधीजी समझाते कि यह सब वहां के समाज में उठने बैठने के लिए ज़रूरी है। बड़े-बड़े लोग आते-जाते हैं। पर कस्तूरबाई को यह समझ में नहीं आता कि वे (गोरे) हमारे जैसा खुद को क्यों नहीं ढालते जो हमें उनके जैसा दिखना पड़े।

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मनोज कुमार

 

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संदर्भ : यहाँ पर

 

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