गांधी और गांधीवाद
81. व्यापार और रंगभेद
1897
प्रवेश
अपने हमलावरों को सजा दिलाने से इनकार करने की गांधीजी की
घोषणा के बाद नेटाल में भारतीय प्रवासियों और श्वेत उपनिवेशवादियों के बीच सौहार्द
का युग शुरू हो सकता था, अगर उपनिवेशवादी ऐसा
चाहते। वास्तव में यूरोपीय समुदाय के नेताओं में से कोई भी ऐसा नहीं था जो शांति
और सद्भाव के लिए व्यापक अभियान चला सके। इसके विपरीत, बहुत से ऐसे थे जिनके प्रभाव में एशिया विरोधी उपायों के लिए शोर
बढ़ता जा रहा था। जल्द ही गुस्से से भरी आवाजें गूंजने लगी। 1897 में दक्षिण अफ़्रीका की राजनीतिक स्थिति में कई परिवर्तन हुए। 14 फरवरी 1897 को सर जौन रौबिन्सन ने नेटाल
के प्रमुख के पद से इस्तीफ़ा दे दिया था। वे 1893 से, जब वे 34 वर्ष के थे, इस पद को सुशोभित कर रहे थे। उनकी जगह हैरी एस्कॉम्ब ने प्रधान
मंत्री का पदभार ग्रहण किया। उसके कुछ ही दिनों बाद,
23 फरवरी 1897 को संसद का विशेष सत्र बुलाया गया। इस सत्र में तीन प्रमुख बिल पारित
किए गए और तीनों ही प्रवासी भारतीयों के विरुद्ध थे।
क्वारंटीन
संशोधन अधिनियम (Quarantine Amendment Act)
1897 में नेटाल विधानमंडल द्वारा पारित पहला कानून क्वारंटीन संशोधन अधिनियम था, जिसका उद्देश्य
नियमों को कड़ा करना था, न कि प्लेग के जीवाणुओं
के प्रवेश को रोकना, बल्कि अवांछित भारतीयों
को दूर रखना। इस अधिनियम के तहत यह प्रावधान था कि जो जहाज प्लेग आदि संक्रामक
बीमारी ग्रसित क्षेत्र की तरफ़ से आता है उसे यात्रियों को बिना उतारे, वापस वहीं भेजा जा सकता है। प्रधानमंत्री ने खुले तौर पर कहा भी था कि
इससे सरकार को उपनिवेश में स्वतंत्र भारतीयों के आव्रजन को रोकने में मदद मिलेगी।
इमिग्रेशन रेस्ट्रिक्शन अधिनियम (Immigration Restriction Act)
दूसरा इमिग्रेशन रेस्ट्रिक्शन अधिनियम था जिसके तहत ऐसा व्यक्ति जो
अंग्रेज़ी नहीं लिख सकता था, को वहां जाने से निषेध किया गया था। इसलिए, कोई भी भारतीय, चाहे वह अपने देश की
किसी भी भाषा में पारंगत क्यों न हो, यदि वह यूरोपीय
भाषा नहीं जानता तो अस्थायी रूप से भी नेटाल नहीं आ सकता था, जब तक कि उसे विशेष अनुमति न दी जाए। यदि वह सौ पाउंड जमा करता तो उसे अनुमति दी जा सकती थी। यह
प्रमाण-पत्र नेटाल में प्रवेश के एक सप्ताह के भीतर हासिल करना ज़रूरी था। इसका
सीधा सा असर यह था कि अपने बच्चों को शिक्षा प्रदान करने के लिए मुसलमान किसी
मौलवी को और हिन्दू किसी शास्त्री को दक्षिण अफ़्रीका नहीं भेज सकता था, क्योंकि अमूमन इन्हें अंग्रेज़ी लिखना
नहीं आता था।
डीलर्स लाइसेंसिंग अधिनियम (Dealers’ Licensing Act)
तीसरा था डीलर्स लाइसेंसिंग अधिनियम। इसने खुदरा और थोक व्यापारियों के लिए अपने बही-खाते अंग्रेजी में
रखना अनिवार्य कर दिया और स्थानीय निकायों द्वारा व्यापार लाइसेंस जारी करने और
नवीनीकरण के लिए नियुक्त किए जाने वाले अधिकारियों को पूर्ण अधिकार प्रदान कर दिए, तथा पीड़ित पक्ष को न्यायालय में अपील करने का कोई अधिकार नहीं दिया।
इस अधिनियम का एकमात्र उद्देश्य भारतीय व्यापारियों के आप्रवासन को हतोत्साहित
करना तथा नगरपालिकाओं को नेटाल में पहले से ही अपना व्यवसाय स्थापित कर चुके
व्यापारियों से छुटकारा दिलाना था। दक्षिण अफ़्रीका
के गोरे व्यापारी खुले बाज़ार में माल बेचकर भारतीय व्यापारियों का मुक़ाबला नहीं कर
पा रहे थे। इसलिए राजनीतिक सत्ता से लाभ उठाकर वे रंग-भेद के अनुसार क़ानून बनाते
थे और भारतीय व्यापारियों के ख़िलाफ़ तरह-तरह का दुष्प्रचार करते थे। भारतीय
व्यापारियों के जीविका उपार्जन के रास्ते में हर प्रकार की बाधा डालने का सबसे
प्रमुख कारण व्यापारिक ईर्ष्या ही था। भारतीय व्यापारी अपनी होड़ से और कम ख़र्च
करने की आदतों के कारण वस्तुओं के दाम घटाने में समर्थ हुए। वे अपनी सीधी-सादी
आदतों के कारण थोड़े-से लाभ से ही संतुष्ट रहते थे। जबकि दूसरी तरफ़ गोरे व्यापारी
अधिक से अधिक मुनाफ़ा कमाना चाहते थे।
गोरे व्यापारियों का भय
भारतीयों के प्रति दक्षिण
अफ़्रीकी लोगों में बड़ा तीव्र द्वेष था। वे उन्हें कोसते थे। रंगभेद की नीति का मूल
कारण गोरे व्यापारियों का यह भय था कि बाहर से व्यापारी आ गए तो उनका कारोबार चौपट
हो जाएगा। भारतीय व्यापारियों को किसी तरह की सुविधा न मिले, इसके लिए संगठित प्रयास किए जा रहे
थे। 1897 में नेटाल की विधान सभा ने एक क़ानून बनाया जिसके अनुसार लोगों को
व्यापार करने से पहले सरकार से लाइसेंस प्राप्त करना ज़रूरी था। जो अधिकारी परवाना
बनाता था, वह जिसे चाहे परवाना दे सकता था, जिसे न चाहे, परवाना देने से इंकार कर सकता था। उसे पूरा अधिकार था कि वह थोक या
फुटकर व्यापार का परवाना अपनी मरज़ी के अनुसार दे या देने से इनकार कर दे। उसके
निर्णय पर वही नगर-परिषद या नगर-निकाय पुनर्विचार कर सकता था जिसे उसकी नियुक्ति
करने का अधिकार था। परवानों के ऐसे मामलों में इन संस्थाओं के निर्णय के ख़िलाफ़
अदालत में अपील करने का कोई अधिकार नहीं दिया गया था। परवाने के बिना व्यापार करने
का दण्ड 20 पाउंड था। दंड न देने पर मजिस्ट्रेट को अधिकार था कि वह अपराधी को
जेल भेज दे।
राशनिंग म्युनिसिपल संस्थाओं
पर गोरे व्यापारी हावी थे। परवाना अधिकारी किसी भारतीय को परवाना न दे तो इन्हीं
संस्थाओं से अपील की जा सकती थी। उनसे न्याय की आशा करना ही बेमानी था। ये
संस्थाएं गोरों के साथ ही पक्षपात करती थी। इस “डीलर्स लाइसेंसिंग एक्ट” के तहत भारतीय व्यापारियों को परवानों से वंचित करने का प्रयत्न तेज़
हो गया। परवाना केवल साल भर के लिए मिलता था, इसलिए नया साल शुरु होते ही भारतीय व्यापारी डर और चिंता में डूब
जाते थे। भारतीय व्यापारियों को परवाना नहीं दिए जाने के जो कारण बताए जाते थे वे
भी बड़े बेतुके होते थे, जैसे उनकी दुकानें गंदी हैं, उनके घर गंदे हैं।
इसी तरह के आधार पर जब कुछ
भारतीय व्यापारी को परवाना दिए जाने से मना कर दिया गया, तो गांधीजी ने ज़िला सर्जन को बुलाकर
उनके घर दिखाए, दुकानें दिखाईं और उसका बयान प्रकाशित किया। उस बयान में कहा गया था, “मैंने जो कुछ देखा, उसमें मैं कोई दोष नहीं बता सकता।
जहां तक सोने के स्थान की बात है, मुझे कोई भीड़-भाड़ नहीं दिखाई पड़ती। प्रत्येक व्यापार स्थान के पीछे
उससे अलग, मैंने एक प्रकार का भोजन गृह देखा जिसमें 5 से 8
आदमियों तक बैठने का स्थान है और हरेक में उसका रसोई घर
है। ये सब भी साफ़-सुथरे रखे जाते हैं।” इससे पता चलता है कि प्रवासी भारतीयों को किन विपरीत परिस्थितियों में
जीवन-यापन करना पड़ रहा था। यहां तक कि कुछ गोरों की दुकानें व्यापार की मंदी के कारण
बंद हो गए, पर उसके लिए उन्होंने दोष एशियाइयों को दिया।
पहले से ही कई ऐसे क़ानून थे
जिनके कारण एशियाई मूल के लोगों का जीना मुहाल था। 1885
का ट्रांसवाल में एशियाइयों के अधिकारों पर प्रतिबंध
लगाने वाला क़ानून जिसके तहत एशियाइयों को अलग बस्तियों में रखा जाए। भारतीय
व्यापारियों को अफ़्रीकी आदिवासियों के वर्ग में रखा गया और रंगभेद के आधार पर उन
पर प्रतिबंध लगाए गए। 1888 में उन्हें रात के 9 बजे के बाद सड़कों पर चलने-फिरने पर पाबंदी लगाने वाला नियम लाया गया।
1894 के अधिनियम के
तहत भारतीयों को शहर की पैदल-पटरियों (फ़ुटपाथ) पर चलने के अधिकार से वंचित किया
गया। 1897 के अधिनियम के तहत गोरों और ग़ैर गोरों के बीच विवाह वर्जित किया गया।
सोमनाथ
महाराज का मामला
सोमनाथ महाराज नामक एक भारतीय व्यापारी का मामला, इस बात का एक अच्छा उदाहरण है कि क्या हो रहा था। उसने 1898 के आरंभ
में डरबन में खुदरा दुकान के लिए लाइसेंस के लिए आवेदन किया था। वह एक बंधुआ मजदूर के रूप में नेटाल आया था।
अनुबंध पर पाँच वर्ष की सेवा पूरी करने के बाद, वह एक स्वतंत्र
भारतीय के रूप में तेरह वर्षों तक कॉलोनी में रहा था। बड़ी मेहनत से उसने एक
दूरदराज के शहर में एक छोटा सा व्यवसाय खड़ा किया था। उसके पास लगभग छह वर्षों के
लिए वैध लाइसेंस था। जिस दुकान के लिए उसने आवेदन किया था, उसे खोलने के लिए उसके पास पर्याप्त पूंजी थी। उसके पास अपना घर था
और नगर में एक स्वतंत्र भूमि का टुकड़ा था। उसने कानून की आवश्यकताओं को पूरा करने
के लिए एक यूरोपीय मुनीम की सेवाएँ ली थीं। उसकी दुकान एक ऐसे क्षेत्र में स्थित
होनी थी जहाँ अधिकांश भारतीय रहते हों। सैनिटरी इंस्पेक्टर इस बात से संतुष्ट था
कि परिसर उस तरह की दुकान के लिए उपयुक्त है जिसे सोमनाथ महाराज ने देखा था। तीन
प्रसिद्ध यूरोपीय व्यापारियों ने उसके सम्मान और ईमानदारी के बारे में प्रमाणित
किया था।
लाइसेंसिंग अधिकारी ने कोई कारण बताए बिना उसे लाइसेंस देने
से इनकार कर दिया। उसने नगर परिषद में अपील दायर की,
तो
लाइसेंसिंग अधिकारी के दृष्टिकोण को बरकरार रखा गया। सोमनाथ महाराज की ओर से पेश
हुए गांधीजी ने न्यायिक न्यायाधिकरण की हैसियत से बैठी परिषद के समक्ष जोरदार ढंग
से तर्क दिया कि लाइसेंस देने से इनकार करना उनकी ओर से कितना अन्यायपूर्ण था।
उन्होंने यह भी मुद्दा उठाया कि नगर क्लर्क ने इस निर्णय के कारणों को बताने और
केस रिकॉर्ड की एक प्रति प्रदान करने से इनकार कर दिया। सर्वोच्च न्यायालय ने पहले
ही यह मान लिया था कि डीलर्स लाइसेंसिंग अधिनियम के अनुसार, किसी मामले के
गुण-दोष के आधार पर अपील सुनना उसके अधिकार क्षेत्र में नहीं आता। इस मामले में
दायर अपील पर सर्वोच्च न्यायालय ने प्रक्रियागत अनियमितताओं पर विचार किया, जैसे कि लाइसेंस
देने से इनकार करने के कारणों का खुलासा न करना, केस रिकॉर्ड की एक प्रति
न देना, और यह तथ्य कि जब अपील पर सुनवाई हो रही थी, तो पार्षद टाउन
सॉलिसिटर, टाउन क्लर्क और लाइसेंसिंग अधिकारी के साथ एक निजी कमरे में गुप्त
विचार-विमर्श के लिए चले गए थे। सर्वोच्च न्यायालय ने अपीलकर्ता के पक्ष में लागत
के साथ नगर परिषद की कार्यवाही को रद्द कर दिया और फिर से सुनवाई का आदेश दिया।
निर्णय सुनाते हुए, कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश ने परिषद की कार्रवाई को दमनकारी
बताया था।
नगर परिषद ने अपील पर पुनः सुनवाई की। देश के सर्वोच्च
न्यायिक न्यायाधिकरण द्वारा पारित सख्त आदेशों के पीछे की भावना पर ध्यान न देते
हुए, उसने सोमनाथ महाराज को लाइसेंस देने से फिर इनकार
कर दिया। लाइसेंस देने से इनकार करने का एकमात्र कारण यह बताया गया था: आवेदक का
डरबन पर कोई दावा नहीं था, क्योंकि वह जिस प्रकार
का व्यापार कर रहा था, उसके लिए शहर में
पर्याप्त व्यवस्था थी। इस तथ्य पर कोई ध्यान नहीं दिया गया कि जिस परिसर में दुकान
खोली जानी थी, वहां पहले भी एक स्टोर
कीपर था और वह कुछ महीने पहले ही डरबन से चला गया था। इसलिए, लाइसेंसों की संख्या बढ़ाने का कोई सवाल ही नहीं था। किसी भी मामले
में परिसर केवल एक स्टोर के लिए उपयुक्त था।
लगभग हर जगह हालात मुश्किल होते जा रहे थे। आव्रजन प्रतिबंध
और डीलर्स लाइसेंसिंग अधिनियम दोनों ही सिद्धांत रूप में सभी पर लागू थे, लेकिन व्यवहार में ज़्यादातर भारत से आने वाले अप्रवासियों के खिलाफ़
लागू किए गए। गांधीजी ने लाइसेंसिंग मुद्दे को दो कारणों से विशेष महत्व दिया। वे
इससे सीधे प्रभावित होने वाले व्यक्तियों की पीड़ा को गहराई से महसूस करते थे। वे
इस बात से भी अवगत थे कि भारतीय व्यापारियों को व्यापार में हिस्सा लेने से वंचित
करने से कॉलोनी में रहने वाले पूरे भारतीय समुदाय के भविष्य पर दीर्घकालिक प्रभाव
पड़ेगा। अप्रैल 1899 में भारतीय व्यापारियों के पास 683 लाइसेंस थे, जबकि 1897 के
लाइसेंसिंग अधिनियम के पारित होने से पहले इनकी संख्या 844 थी; भारतीयों के पास
फेरीवालों के लाइसेंस 465 से घटकर 191 रह गए; अन्य कानून द्वारा शासित
भोजनालयों के लाइसेंस 49 से घटकर 28 रह गए।
दुकान में आग
मार्च 1897 के दूसरे सप्ताह में गोरों के
एक गिरोह ने मज़ा लूटने के लिए वेस्ट स्ट्रीट की एक भारतीय वस्तु-भंडार में आग लगा
दी। आग लगाने का उद्देश्य स्पष्ट था, वे भारतीय व्यापारियों को वहां से भगा देना चाहते थे। गोरों की भीड़
खड़ी तमाशा देख रही थी। जब तक पुलिस अपने दस्ते के साथ वहां पहुंची, तब तक कई भारतीय दुकानें आग की भयंकर
लपटों से घिर चुकी थीं। उसी से सटा एक प्रवासी भारतीय के दो मंजिले मकान को भी आग
लगने का खतरा मंडराने लगा। वहां खड़ी गोरों की भीड़ इस नज़ारा को देख कर आनन्द और
हर्ष का अनुभव कर रही थी। कई ने तो इसे ‘A fine
Saturday evening’ तक कह डाला। आग की लपटें जब
तेज़ होतीं भीड़ में हर्ष का स्वर गूंज उठता, पर कोई भी आग बुझाने का ज़रा भी प्रयास करता न दिखा। दुकानों के समूह
में तिल्लोक सिंह की ज्वेलरी की दुकान थी। जब उस दुकान में आग लगी तो भीड़ कूद-कूद
कर मज़ा ले रही थी।
गांधीजी ने परिस्थिति के ख़तरे
को भांपते हुए 26 मार्च 1897 को नेटाल विधान सभा के पास पेंडिंग भारतीय विरोधी बिल के खिलाफ़
याचिका दायर की। सर विलियम हंटर, सर मनचुरजी भावनगरी और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की ब्रिटिश समिति
को सूचित करते हुए स्थिति पर हस्तक्षेप की मांग की। गांधीजी प्रवासी भारतीय की
समस्या को कभी भी नेटाल कांग्रेस का प्रश्न नहीं बनाया, बल्कि इसकी ब्रिटिश उपनिवेश की
समस्या के रूप में वकालत की। ब्रिटिश महारानी ने अपनी 1858 की घोषणा के द्वारा भारतीय
साम्राज्य के निवासियों को उन्हीं अधिकारों का आश्वासन दिया जो अन्य सब प्रजा जनों
को प्राप्त हैं। गांधीजी ने बताया कि कहने को तो ब्रिटिश साम्राज्य के सभी
नागरिकों के अधिकार समान थे परंतु यहां उपनिवेशों में भेद किया गया। गांधीजी के
सहयोगी मनसुखलाल नज़र ने लंदन में जहां एक तरफ़ भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के लोगों
से संपर्क बनाए रखा वही दूसरी तरफ़ उस समूह के लोगों के संपर्क में भी रहे जिनकी
कांग्रेस से उतनी सहानुभूति नहीं थी। सर मनचुरजी भावनगरी कांग्रेस के सदस्य नहीं
थे। पर उन्होंने दक्षिण अफ़्रीका के प्रवासी भारतीयों को खुले दिल से समर्थन प्रदान
किया। यही स्थिति सर विलियम हंटर के साथ भी थी। इस प्रकार विभिन्न समूहों का
समर्थन प्रवासी भारतीयों को मिलने लगा। इस सब के बावज़ूद मई-जून 1897 में तीनों बिल पर सरकारी मुहर
लग गई।
उपसंहार
नेटाल सरकार को तुरंत कार्रवाई के लिए मजबूर करना आसान नहीं
था। स्थानीय बोर्डों और नगर परिषदों को भारतीयों को लाइसेंस देने से मना करने में
सावधानी बरतने के लिए कहा गया ताकि स्थापित हितों में हस्तक्षेप न हो, ऐसा न करने पर सरकार को स्थानीय निकायों के निर्णयों के खिलाफ अपील
करने का अधिकार देने वाला कानून पेश करना पड़ता। यह भारतीय समुदाय के लिए लंबे समय
के बाद उम्मीद की पहली किरण थी, लेकिन गांधीजी इससे संतुष्ट नहीं थे। उन्हें पता था कि इस
चेतावनी से नगरपालिकाएं कुछ समय बाद फिर से वही पुराना खेल शुरू करने के लिए राजी
हो सकती हैं। इसलिए उन्होंने कानून में संशोधन के लिए दबाव बनाए रखा। मामला अभी भी
लटका हुआ था कि बोअर युद्ध छिड़ गया और जब तक यह चला, लाइसेंस देने से
इनकार करने के बारे में किसी ने कुछ करने के बारे में सोचा भी नहीं।
*** *** ***
मनोज कुमार
पिछली
कड़ियां- गांधी और गांधीवाद
संदर्भ : यहाँ पर
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
आपका मूल्यांकन – हमारा पथ-प्रदर्शक होंगा।