मंगलवार, 17 सितंबर 2024

78. अस्पताल में नर्स का काम

 

गांधी और गांधीवाद

78. अस्पताल में नर्स का काम

1897

प्रवेश


सादगी और पवित्रता वे दो पंख हैं जिन पर चढ़कर कुछ असाधारण व्यक्ति सामान्य से ऊपर उठ गये हैंपहले अफ्रीका और फिर भारत में गांधीजी ने हिंदुस्तानियों और विशेष रूप से तरह-तरह के अत्याचार और अन्याय से प्रताडित लोगों के अधिकारों और मानवीय गरिमा के लिए अंग्रेजों और देशवासियों से लगातार संघर्ष किया। इस समय के आसपास उन्होंने फैसला किया कि उन्हें अपने जीवन को सरल बनाना चाहिए, और उन्होंने अपनी विशेषता के अनुसार और भी अधिक बोझ उठाकर इस समस्या का समाधान किया। पत्नी और बच्चे दक्षिण अफ़्रीका आ चुके थे। गांधीजी ने पहली बार बाकायदा एक घर बसाया। दक्षिण अफ़्रीका में गांधी जी का वकालत का काम चल पड़ा। अपने कानूनी कार्य से वह प्रति वर्ष पांच से छह हजार पाउंड कमाते थे - जो उन दिनों दक्षिण अफ्रीका में बहुत बड़ी आय थी। उनकी प्रसिद्धि और प्रतिष्ठा भी बढ़ती गई। किन्तु उससे उन्हें सन्तोष नहीं हो रहा था। गांधी जी के जीवन में बदलाव तेजी से आ रहा था। उन्होंने आराम और सुख-सुविधा की जिंदगी शुरू की थी, लेकिन यह ज्यादा दिनों तक नहीं चला। उदर पूर्ति में तो सच्ची सेवा हो ही नहीं सकती थी। वे सोचने लगे कि मानवता की सेवा के लिए कुछ करना चाहिए। इसके लिए वे सादा जीवन जीना चाहते थे। कुछ शारीरिक सेवा का काम करना चाहते थे। आत्मनिरीक्षण का दौर शुरू हुआ और धीरे-धीरे उनका जीवन सरल होता गया। समय ने उन्हें यह अवसर भी प्रदान कर दिया।

कपड़ों में कलफ़

उनके मन में यह ख़्याल आया कि जनसेवा के काम के लिए स्वयं को अनुशासित करना होगा। उन्होंने सादा जीवन बिताने का निश्चय किया। एक सरल जीवन की तलाश कभी-कभी असाधारण जटिलताओं की ओर ले जाती है। इतने बड़े घर में कपड़े धोने का खर्च महंगा होना तय था। एक कॉलर या शर्ट को धुलवाने में लगभग उतना ही खर्च आता था जितना कि नया कॉलर या शर्ट बनवाने में आता। कॉलर को हर दिन बदलना पड़ता था और शर्ट को कम से कम एक दिन छोड़कर। धोबी अपनी सेवा में बहुत ही अनियमित था। ऐसी स्थिति में दो या तीन दर्जन कॉलर और शर्ट भी अपर्याप्त होते। उन्होंने धोबी बनने का फैसला किया, कपड़े धोने पर एक किताब खरीदी, इस कला का ध्यानपूर्वक अध्ययन किया और अपनी पत्नी को सिखाया। कपड़े धोने के उनके प्रयोग के पहले परिणाम विनाशकारी थे। एक दिन उन्होंने स्वयं अपने कपड़ों में कलफ़ लगाया और उन पर इस्तरी भी की। कपड़े पर बहुत ज़्यादा ही कलफ़ लग गया था। इस्तरी भी पूरी तरह गर्म नहीं थी। कॉलर के जल जाने के डर से अच्छी तरह चलाई नहीं गई थी। इसके कारण कमीज़ का कालर कड़ा होकर ऊपर उठ गया और कॉलर से स्टार्च टपक रहा था। वह कालर उन्हीं की धुलाई-कला का पहला नमूना था। गर्मी के मौसम में स्टार्च पिघलकर चिपचिपी धार के रूप में उनकी गर्दन से नीचे बहने लगता था। उसी कपड़े में वे कचहरी पहुंचे। उनके साथी वकील ने जब उनकी वेश-भूषा देखी तो उनकी हंसी उड़ाने लगे। गांधी जी भी उनके साथ हंसने लगे और उन्हें बताया कि वे अपना सारा काम खुद करने लगे हैं। उन्होंने उस दोस्त को समझाया: कॉलर धोने का शुल्क लगभग उसकी कीमत के बराबर है, और फिर भी धोबी पर हमेशा निर्भरता बनी रहती है। मैं अपनी चीज़ें खुद धोना ज़्यादा पसंद करता हूँ।गांधीजी इस वाकए को याद करते हुए कहते हैं, मैं उस कॉलर को कभी नहीं भूलूंगा जो मैंने खुद धोया था। लेकिन समय के साथ मैं एक विशेषज्ञ बन गया ... और मेरी धुलाई किसी भी तरह से कपड़े धोने वाले से कमतर नहीं थी। मेरे कॉलर दूसरों की तुलना में कम सख्त या चमकदार नहीं थे।"

अपने बाल खुद काटने लगे

एक दिन प्रिटोरिया में वे बाल कटवाने गये। नाई गोरा था। उसने गांधी जी को टका सा जवाब दिया, “हम कुली (भारतीयों) के बाल नहीं काटते। गांधीजी इस अपमान से तिलमिला गए। उन्होंने तुरंत एक बाल काटने वाली कैंची और कतरनी खरीदी और घर चले आए। शीशे के सामने खड़े होकर अपने बाल काटने लगे। परिणाम विनाशकारी था, क्योंकि यद्यपि वह अपने सिर के सामने के हिस्से को काटने में कुछ हद तक सफल रहे, लेकिन पीछे के हिस्से को काटने में वह बुरी तरह विफल हो गए। पीछे के बाल बहुत ही अव्यवस्थित और सीढ़ियाँ जैसे थे। बच्चे और कस्तूरबाई यह सब देख कर हंस रहे थे। पर गांधी जी पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा। दूसरे दिन जब वे अदालत पहुंचे तो एक वकील ने उनकी खिंचाई शुरु कर दी, “गांधी! तुम्हारे बालों को क्या हुआ है? इसे चूहों ने कुतर दिया है क्या? गांधी जी ने सादगी से जवाब दिया, ‘नहीं। श्वेत नाई मेरे काले बालों को छूने की हिम्मत नहीं जुटा सका। इसलिए मैंने खुद ही बाल काटना पसंद किया, चाहे वे कितने भी खराब क्यों न हों।’ वकील दोस्तों की तुच्छता समाप्त हो गई। उन्होंने देखा कि गांधीजी के द्वारा दिखाए गए गरिमापूर्ण उदासीनता के पीछे एक गंभीर वास्तविकता थी, जो कि एक बहुत ही दर्दनाक अनुभव रहा होगा। गांधीजी को बहुत दुख हुआ था। लेकिन व्यर्थ के क्रोध को अपने दिल में ज़हर बनने देने के बजाय, उन्होंने इसका इस्तेमाल अपने अंदर की खोज की रोशनी को मोड़ने के लिए किया। हंसने वाले तो हंसते रहे। पर गांधी जी सादगी में विश्वास करते रहे। अपने काम की सहायता के लिए कोई सहायक नहीं रखा। उन्होंने बाएं हाथ से भी लिखने की आदत डाली। जब कभी उनका दाहिना हाथ थक जाता तो वह बाएं हाथ से लिखने लगते। घर के ख़र्च में कमी लाने के लिए अपने व्यक्तिगत ख़र्च में कटौती करनी शुरु कर दी। पैदल ही दफ़्तर जाने लगे। बच्चों को साथ ले जाते और रास्ते में उनसे बात करते-करते उन्हें पढ़ाते भी जाते। अपनी सहायता आप करना उनके समाज-दर्शन का बुनियादी तत्त्व बन गया। लेकिन उस गोरे हज्जाम को इलजाम देना तो दूर की बात थी, उन्होंने उसके साथ हमदर्दी ही जताई। ‘मेरे बाल कटाने से इंकार करके उस हज्जाम ने कुछ ग़लत नहीं किया। अगर वह कालों के बाल काटता तो उसका धंधा चौपट होने की पूरी संभावना थी।’

कोढ़ से पीड़ित व्यक्ति की सेवा

क़ानूनी पेशे से आमदनी लगातार बढ़ने के साथ ही गांधीजी के अन्दर का मिशनरी देशवासियों की सेवा के ठोस कामों के लिए बेचैन था। गांधीजी ग़रीब और बीमार लोगों के घर आ जाने पर उनकी सेवा-शुश्रुषा करना शुरू कर दिया। संयोगवश एक दिन एक कोढ़ से पीड़ित  अपंग व्यक्ति उनके घर पहुंचा। उन्होंने गर्मजोशी से उसका स्वागत किया। उसके अंग इस महारोग से गल रहे थे। उसने भोजन की मांग की। सिर्फ़ उसे भोजन देकर विदा करने को उनका मन नहीं मान रहा था। गांधी जी ने उस व्यक्ति को घर के भीतर बुलाया और एक कमरे में उसे ठहराया। उसके घाव को साफ़ किया, दवा लगाई। उसकी मरहम-पट्टी और सेवा-टहल की। पर यह अधिक दिन तक नहीं चल सका। उस समय न तो उसे घर में रखने की सुविधा उनके पास थी और न ही उतनी हिम्मत। इसलिए उसे वे गिरमिटियों के लिए चलने वाले सरकारी अस्पताल में उसे भेज दिया। उनके मन में कहीं न कहीं इस बात का अफ़सोस भी था कि उसकी पूरी तरह सेवा न कर पाए। उनके मन में यह विचार घर कर गया कि वे सेवा-शुश्रुषा का काम करते रहें।

नर्स का काम किया

उनकी इच्छा किसी अस्पताल से जुड़ने की थी जहाँ वह सक्रिय और नियमित रूप से बीमारों की तीमारदारी कर सकें। डॉक्टर बूथ सेण्ट एडम्स मिशन के मुखिया थे। दीन-दुखियों के प्रति उनके मन में अपार दया और करुणा थी। वे उनके पास आने वाले मरीज़ों को मुफ़्त में दवा आदि दिया करते थे। वे बहुत ही अच्छे इंसान और दयालु प्रवृत्ति के व्यक्ति थे। पारसी रुस्तमजी की मदद से डॉ. बूथ की देखरेख में एक छोटा सा धर्मार्थ अस्पताल खोला गया। गांधीजी भी कहां चूकने वाले थे। उनकी इच्छा तो थी ही कि वे मरीज़ों की सेवा करें। गांधी जी ने उस अस्पताल में पुरुष नर्स का काम करना स्वीकार किया। उस अस्पताल में दवा देने के लिए एक-दो घंटे का काम रहता था। गांधी जी ने यह काम एक स्वयंसेवक की हैसियत से अपने जिम्मे ली। वकालत का उनका काम तो दफ़्तर में बैठकर सलाह देने का, दस्तावेज़ तैयार करने का या झगडों का फैसला कराने का होता था। इन कामों में मि. खान उनकी मदद करने लगे। और इससे बचे हुए समय में गांधी जी अस्पताल में नियमित काम करने लगे। वह दवाइयाँ बाँटते थे, मरीजों की शिकायतों का पता लगाते थे और उन्हें प्रभारी डॉक्टर को रिपोर्ट करते थे। अस्पताल के काम से गांधी जी को मानसिक शांति मिलती थी। इसके परिणामस्वरूप वे दुखी और पीड़ित भारतीयों के काफ़ी करीब से सम्पर्क में आये। मरीज़ों में अधिकांश तो तमिल, तेलुगु या उत्तर भारतीय गिरमिटिया ही होते थे। कानून के कार्यालय में उन्होंने अमीरों को देखा; अस्पताल में उन्होंने गरीबों को देखा। गांधी जी बड़ी लगन से उन पीड़ितों की सेवा-शुश्रुषा करते थे। उन ग़रीबों के तन और मन से कष्ट दूर करने का उनका हर संभव प्रयास होता था। इससे उन्हें काफ़ी संतोष मिलता था। न सिर्फ़ ग़रीब देशवासियों के वे एक अनन्य मित्र बन गये बल्कि उनकी सेवा-कार्य का यह अनुभव भविष्य में बहुत उपयोगी सिद्ध हुआ। वहां काम करने से उन्हें रोगी का इलाज करना, मरहम-पट्टी लगाना, किस रोग में कौन-सी और कितनी दवाई देनी है, आदि का अनुभव हो गया। बोअर युद्ध और जुलू विद्रोह के समय बीमारों और घायलों की सेवा-शुश्रुषा के काम में और दूसरे बीमारों की परिचर्या में उन्हें यह अनुभव बड़ा काम आया। मा-ने शिखामण - गुजराती में लिखी गई एक माँ को सलाह, (Advice to a Mother) जिसमें सुरक्षित प्रसव का विवरण और नवजात शिशुओं की देखभाल के निर्देश दिए गए थे, की सहायता से प्रारंभिक दाईगिरी और बच्चों की देखभाल का ज्ञान भी प्राप्त कर लिया था। अपने चौथे और आख़िरी बेटे के प्रसव के समय यह ज्ञान काफ़ी काम आया क्योंकि उस वक़्त पेशेवर चिकित्सक उपलब्ध नहीं था।

यह अनुभव घर में भी काम आया। इसकी चर्चा हम आगे करेंगे।

उपसंहार

वह धीरे-धीरे उस चरण में पहुँच रहे थे जब उनके कानूनी पेशे का उनके जीवन की समग्र योजना में केवल एक गौण स्थान रह गया था। बेशक, वह इसे अपने सार्वजनिक कार्यों में मिलने वाले समर्थन के लिए महत्व देते थे। इसने उन्हें जीवन के विभिन्न क्षेत्रों के अपने हमवतन लोगों के संपर्क में ला दिया। हर तरह के लोगों के साथ रोज़ाना संपर्क ने उन्हें मानव स्वभाव के सूक्ष्म पहलुओं की गहरी समझ दी और उनके पास आने वाले लोगों के बीच जटिल भावनाओं और उद्देश्यों के मिश्रण को बेहतर ढंग से समझा। जिस तरह से वह उनके साथ पेश आते थे और उनकी समस्याओं पर प्रतिक्रिया करते थे, वह उनके नेतृत्व में उनके अटूट विश्वास को दर्शाता था जिसने बाद में उन्हें उनसे ऐसी माँगें करने में सक्षम बनाया जिनमें बहुत कठिनाई और पीड़ा शामिल थी।

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मनोज कुमार

 

पिछली कड़ियां- गांधी और गांधीवाद

संदर्भ : यहाँ पर

 

 

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