रविवार, 8 सितंबर 2024

69. फिर दक्षिण अफ़्रीका की ओर

 गांधी और गांधीवाद

69. फिर दक्षिण अफ़्रीका की ओर

नवम्बर 1896

दादा अब्दुल्ला की फर्म ने कैसल कंपनी से एक एस.एस. कुरलैण्ड’ नाम का स्टीमर ख़रीद लिया था। दादा अब्दुला के अनेक साहसिक कामों में से नेटाल और बंबई के बीच जहाज चलाने का यह पहला साहस था। उन्होंने गांधीजी से इसी से दक्षिण अफ़्रीका जाने का आग्रह किया। गांधीजी ने इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया। परिवार के साथ राजकोट से बंबई लौटते ही, 30 नवंबर 1896 को बंबई में गांधीजी ने गवर्नर जनरल को एक टेलीग्राम भेजा जिसमें उन्हें बताया कि ट्रांसवाल सरकार भारतीयों को जबरन उन स्थानों पर भेज रही है, जबकि उपनिवेश सचिव ने परीक्षण मामले के निर्णय होने तक कार्रवाई रोकने का आदेश दिया था। गांधीजी ने वायसराय से इस मामले पर तत्काल संज्ञान लेने का अनुरोध किया था। ठीक उसी दिन,  30 नवम्बर 1896 को एस.एस. कुरलैंड से गांधीजी एक बार फिर दक्षिण अफ़्रीका के लिए प्रस्थान किए। नवम्बर 1896 के अंतिम दिनों में गांधीजी को नेटाल से संदेश मिला कि वे शीघ्र नेटाल आ जाएं। वहां कुछ ऐसी घटनाएं हो रही थी कि उनका वहां होना ज़रूरी था। अतः गांधीजी को एक बार पुनः दक्षिण अफ्रीका की यात्रा करनी पड़ी। इस बार उनके साथ कस्तूरबाई, उनके दो पुत्र (नौ साल के हरिलाल और पांच साल के मणिलाल) एवं उनकी विधवा बहन गोर्की (रालियात बेन) का एकमात्र दस साल का पुत्र गोकुलदास भी था।

रास्ते के लिए शाकाहारी भोजन, ढेर सारे फल और भारतीय मिठाइयां भी रख ली गईं। जिस समय कुरलैण्ड’ रवाना हुआ था ठीक उसी समय पर्शियन नेविगेशन कंपनी का स्टीमरएस.एस. नादरी’ नेटाल के लिए रवाना हुआ था। (हालाकि जोसेफ जे. डोक ने लिखा है कि ‘कुरलैण्ड’ 28 को चला था जबकि ‘नादरी’ दो दिन बाद, यानी 30 को) दादा अब्दुल्ला इस स्टीमर के एजेण्ट थे। दोनों स्टीमरों पर कुल मिला कर लगभग 800 यात्री थे, जो ट्रान्सवाल जाने वाले थे।

नए परिधान में

स्टीमर पर गांधीजी ने कस्तूरबाई और बच्चों को निर्देश दिया कि सुबह सोकर उठने के बाद से लेकर रात को सोने जाने वक़्त तक नए परिधान और जूते-मोज़े पहने रहना होगा। किसी ने भी पहले जूते नहीं पहने थे। उन्हें काफ़ी दर्द हो रहा था। पैरों की उंगलियां दर्द करने लगीं। जुराबों से पसीना दुर्गंध मारने लगा। यह सब असहनीय हो गया। पतलून में उन्हें चलने में कठिनाई होती। इन नए वेश-भूषा से उन्हें सहजता हो जाए इस उद्देश्य से गांधीजी उन्हें लेकर स्टीमर पर घंटों इधर-उधर घूमा करते थे और अन्य लोगों से भी मिलते रहते थे। गांधीजी बहुत ही गहनता से कस्तूरबाई के चलने आदि के ढंग का निरीक्षण भी करते रहते थे। वे उन्हें कहा करते, “सीधी तरह चलो और सिर को सामने ताने रहो। कई दिनों तक कस्तूरबा को लगता कि वो चलते वक़्त गिर ही पड़ेंगीं। वे रात का इंतज़ार करतीं और जूते मोज़े फेंक कर अपने दुखते पैर को आराम देतीं। राजकोट में यह सब झमेला नहीं था, जो जी में आया पहन लिए, जहां मन किया बैठ गए, लेट गए।

टेबुल मैनर्स

अब तो और भी संकट थे। राजकोट में घर के सारे सदस्य जमीन पर बैठ कर पीतल के प्लेट में भोजन ग्रहण करते थे। अब तो कस्तूरबा और बच्चों को टेबुल-कुर्सी पर बैठ कर भोजन करना पड़ता था, वह भी पैर को नीचे झूलते हुए रखकर। चाइना प्लेट छोटा था, और हाथ से नहीं कांटे-छुरी से खाने की आदत उन्हें डालनी थी। इन सब के बीच गांधीजी की गिद्ध दृष्टि उन पर जमीं रहती थी। छुरी-कांटे ठीक ढंग से नहीं पकड़ने पर गांधीजी की डांट-फटकार चलती रहती थी। सख़्त निर्देश होता, “भोजन करते वक़्त तुम्हारा मुंह बन्द रहना चाहिए और कोई आवाज़ नहीं निकलनी चाहिए। कस्तूरबा के लिए तो यह लगभग असंभव ही था। बिना मुंह खोले खाना और वह भी इस तरह से कि खाने की आवाज़ बाहर नहीं आनी चाहिए  ऐसा कैसे हो सकता है! उस पर सारे खाने का स्वाद भी अलग तरह का, लगभग बे-स्वाद। उबली सब्जियां और ब्रेड! उफ़्फ़! ऐसा न कभी देखा था, न चखा था। कब यह यात्रा खत्म हो और कब अपने मन का बनाकर खाने का अवसर मिले। वे दिन गिनती रहतीं।

इस सब के बावज़ूद पत्नी और बच्चों के साथ गांधीजी को यात्रा करने में बड़ा आनंद आ रहा था। यात्रा में गांधीजी आपने परिवार के जितने निकट थे, उतने वे कभी नहीं रह पाए थे। वे उन्हें प्रायः डेक पर ले जाते और कहानियां सुनाते। वे सब भी समुद्र यात्रा का खूब आनंद उठा रहे थे। सहयात्रियों में उनके कुछ रिश्तेदार और परिचित भी थे। चूंकि स्टीमर गांधीजी के मुवक्किल और मित्र का था, इसलिए घर का-सा लगता था और वे हर जगह आज़ादी से घूम-फिर सकते थे। जहाज पर घर जैसा माहौल था और सब कुछ सहज चल रहा था।

जबर्दस्त तूफ़ान

दिसंबर का सूरज नीले आसमान से चमक रहा था, तब 1896 का ठंडा मौसम था। जहाज किसी दूसरे बन्दरगाह पर ठहरे बिना सीधा नेटाल पहुंचने वाला था। केवल अठारह दिन की यात्रा थी। मध्यवर्ती रेखा के नीचे मौसम उलट जाता है। जल्द ही जहाज के यात्री खुद को मध्य गर्मियों में पाने लगे। दिसंबर से फरवरी दक्षिणी समुद्र में सबसे गर्म महीने होते हैं, जब बड़े और छोटे तूफान अक्सर आते हैं। पहुंचने में अभी तीन-चार दिन बाक़ी थे। यह एक घटनारहित यात्रा होनी चाहिए थी, लेकिन एस.एस. कुरलैण्ड, 760 टन, 120 नाममात्र हॉर्स पावर का सामान्य माल का वाहक और 255 भारतीय यात्रियों के साथ, मानसून के तूफानों के दौरान आरामदायक होने के लिए बहुत छोटा जहाज था। अचानक आए जबर्दस्त तूफान से, जहाज कॉर्क की तरह डगमगाने लगा और गांधीजी को छोड़कर सभी को भय के गर्त में डाल दिया। समुद्र में आया तूफ़ान, मानों गांधीजी को दक्षिण अफ़्रीका पहुंचने पर आने वाले तूफ़ान की चेतावनी दे रहा हो। दक्षिणी गोलार्ध के उस प्रदेश में दिसम्बर का महीना गरमी और वर्षा का होता है। इसलिए छोटे-मोटे ज्वार उठना स्वाभाविक बात थी। उस पर से यह उच्च ज्वार का समय था। बादल आ घिरे, सूरज बादलों के पीछे छुप गया। जहाज कोई छोटी-मोटी नौका तो थी नहीं कि डगमगाता। लेकिन समुद्र की लहरों का रूप इतना विकराल था कि विशाल और ऊंचा जहाज भी लहरों के थपेड़ों में डांवांडोल होने लगा। स्टीमर बड़ी ज़ोर से ऊपर-नीचे करने लगा और सुरक्षित बच पाना असंभव लगने लगा। लग रहा था कि जहाज अब उल्टा कि तब। यह काफ़ी देर तक चला।

बच्चे डरकर कस्तूरबाई से लिपट गए। कस्तूरबाई और बच्चों समेत कई यात्रियों की तबीयत खराब हो गई। संकट के ऐसे पल भी आए जब लगा कि जहाज डूब जाएगा। सारे यात्री घबरा उठे। जहाज के यात्रियों ने धर्म, सम्प्रदाय आदि के भेदभाव भूला कर ईश्वर से दया के लिए प्रार्थना करना शुरु कर दिया। कुछ लोगों ने मनौतियां भी मानीं। दुख में सब एक हो गए थे। जहाज के कप्तान कैप्टन मिल्ने, ने आकर सबको आश्वासन दिया, ‘760 टन का यह बहुत मज़बूत जहाज है। हमने बड़े-बड़े तूफान झेले हैं। इस तरह के मौसम से इसको कोई खतरा नहीं है’। पर इससे लोगों को तसल्ली नहीं हुई। ऐसी-ऐसी आवाज़ हो रही थी कि लग रहा था स्टीमर में छेद हो जाएगा। हिचकोले इतने जबर्दस्त थे कि ऐसा लग रहा था मानों जहाज अभी डूब जाएगा।

सिर्फ़ एक ऐसा व्यक्ति था तो जो इस काल की घड़ी में भी अविचलित था  मोहनदास! गांधीजी को समुद्री यात्रा के दौरान कोई बीमारी नहीं होती थी। उन्होंने कई लंबी समुद्री यात्राएं कर रखी थी। इसलिए वे तूफान से भयभीत नहीं थे। परिवार के सभी सदस्यों को केबिन में पहुंचाकर उन्होंने उन्हें ढाढ़स बंधाया। कस्तूरबाई भी बच्चों को हौसला बढ़ाती रहीं। काल का समय कट नहीं रहा था। वे केबिन में लेटी रहीं। जब भी जहाज उछलता, उन्हें लगता बस यह डूबने ही वाला है। मन को तसल्ली देतीं कि जो भी हो सब साथ में हैं, अगर डूबा भी तो सब साथ ही रहेंगे। मन ही मन उन्होंने क़सम खाई कि अगर बच गए तो दुबारा जहाज से यात्रा नहीं करेंगी।

इधर संकट की घड़ी में गांधीजी ने जहाज पर घूम-घूम कर सबको धैर्य बंधाया और उन्हें खुश रखने की कोशिश की। चिन्ता में चौबीस घंटे बीते। अंततोगत्वा जब आसमान साफ़ हुआ तो लोगों ने चैन की सांस ली। सूर्यनारायण के दर्शन हुए। कप्तान ने आकर घोषणा की, “तूफान चला गया है।’ लोगों के चेहरे से चिन्ता दूर हुई। तब तक तो गांधीजी स्टीमर में काफ़ी प्रसिद्ध हो गए थे और सहयात्रियों का उनपर विश्वास भी बढ़ चुका था।

लेकिन एक अलग ही तूफ़ान डरबन में उनका इंतज़ार कर रहा था।

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मनोज कुमार

 

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संदर्भ : यहाँ पर

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