गांधी और गांधीवाद
91. ब्रह्मचर्य का विचार
गांधी जी का जीवन उनका अपना चुना हुआ जीवन था। वे खुद के प्रति
ईमानदार थे। वकालत तो वे करते थे, पर उनका यह मानना था कि एक वकील का कर्तव्य सिर्फ़ अपने क्लायण्ट को
केस, चाहे सही हो या
ग़लत, जिता भर देना
नहीं होता। किसी भी केस के ब्रिफ़ को स्वीकार करने के पहले वे खुद को संतुष्ट कर
लेना चाहते थे कि उसका केस नैतिक आधार पर खरा ठहरता है या नहीं। अपने मुवक्किल को
वो भलि-भांति चेता देते थे कि यदि कार्रवाही के दौरान किसी भी समय उन्हें जानकारी
मिली कि उसका केस किसी झूठे तथ्यों पर आधारित है तो वे उस केस को उसी स्तर पर छोड़
देंगे। इस व्यवहार के कारण भले ही उन्हें आर्थिक नुकसान उठाना पड़ता हो, फिर भी वे स्तरीय जीवन जी रहे थे।
धीरे-धीरे वे एक ऐसी अवस्था में पहुंच रहे थे जहां उनका वकालत का पेशा उतना
महत्वपूर्ण नहीं रह गया था। उनके जीवन के और भी कई महत्वपूर्ण उद्देश्य थे।
बेटे
का प्रसव खुद कराया
1900 में जब कस्तूरबाई को सबसे
छोटे बेटे देवदास, रामदास से तीन साल छोटा, का जन्म होने वाला था तब गांधी जी ने खुद ही नर्स का काम करने का
निर्णय लिया। अचानक प्रसव पीड़ा शुरु हुई। डॉक्टर घर पर नहीं थे। दाई वहां दुर्लभ
थी। गांधी जी खुद दाई बन गए। सारा काम खुद किया। नाल काटने से लेकर शिशु को नहलाने
तक। देवदास के जन्म के बाद उन्होंने निश्चय
किया कि अब कोई और संतान नहीं होनी चाहिए। किसी गर्भनिरोधक उपाय के वे सख़्त खिलाफ़
थे, उन्हें संयम के
द्वारा इस लक्ष्य में सफलता चाहिए था।
ब्रह्मचर्य
का विचार
गांधी जी के दिल में एकपत्नी व्रत का विचार तो शादी के समय से ही था।
पत्नी के प्रति वफ़ादारी उनके सत्यव्रत का अंग था। दक्षिण अफ़्रीका के प्रवास के
दौरान उन्हें इस बात का बोध हुआ कि पत्नी के साथ भी ब्रह्मचर्य का पालन करना
चाहिए। गांधी जी को याद नहीं कि ब्रह्मचर्य का विचार उनके मन में किस किताब से
आया। उनके इस विचार पर शायद रायचन्द्रभाई का प्रभाव रहा हो। उनसे गांधी जी की मुलाक़ात तब
हुई थी जब रायचन्द्रभाई पच्चीस वर्ष के थे। स्वयं गांधी जी की आयु तब तक लगभग उतनी ही रही
होगी। वे पेशे से जवाहरात के व्यापारी थे। हीरे-मोती के इस कारोबारी के
अध्यात्म-ज्ञान ने गांधी जी को काफ़ी प्रभावित किया था। जब वह धर्म के बारे में
चर्चा करते, तो गांधी जी मुग्ध भाव से उन्हें देखते रह जाते थे।
ऐसे ही किसी क्षण में गांधी
जी ने रायचन्द्र भाई के सामने दंपति प्रेम पर चर्चा छेड़ दी। गांधी जी रायचन्द्र भाई
को ग्लैडस्टन के प्रति मिसेज ग्लैडस्टन के प्रेम की प्रशंसा कर रहे थे।
पार्लियामेंट की मीटिंग में भी मिसेज ग्लैडस्टन अपने पति को चाय बनाकर पिलाती थी।
यह सुनकर रायचन्द्रभाई बोले, “इसमें तुम्हें महत्व की कौन सी बात मालूम
होती है? मिसेज ग्लैडस्टन का पत्नीत्व या उनका सेवाभाव? यदि वे ग्लैडस्टन की बहन होतीं तो? या उनकी वफ़ादार नौकरानी होतीं और
उतने ही प्रेम से चाय देतीं तो? ऐसी बहनों, ऐसी नौकरानियों के दृष्टान्त क्या हमें आज नहीं मिलते? और,
नारी-जाति के बदले ऐसा प्रेम यदि तुमने नर-जाति में देखा
होता, तो क्या तुम्हें सानन्द आश्चर्य न होता? मेरे इस कथन पर विचार करना।”
गांधी जी को यह वचन बहुत कठोर लगा। पर ये बातें उनके दिमाग में
उथल-पुथल मचाती रहीं। उन्हें लगा कि पुरुष सेवक की ऐसी स्वामीभक्ति या मूल्य पत्नी
की पति-निष्ठा के मूल्य से हजार गुना अधिक है। अगर पति-पत्नी एक हैं तो उनमें
परस्पर प्रेम होने में अनोखापन क्या है? अगर प्रेम नहीं है, तो उसे विकसित किया जा सकता है। जैसे मालिक के प्रति कोई वफ़ादार नौकर
प्रेम प्रयत्न-पूर्वक विकसित करता है। वैवाहिक प्रेम के बारे में उन्होंने गंभीरता
से विचार करना शुरु किया। उन्होंने अपने-आप से पूछा कि उन्हें अपनी पत्नी के साथ
कैसा संबंध रखना चाहिए। पत्नी को विषय-भोग का वाहन बनाने में उनके प्रति वफ़ादारी
कहां रहती है? उन्होंने सोचा कि जब तक वे विषय-वासना के अधीन रहते हैं, तब तक तो उनकी वफ़ादारी का मूल्य
साधारण ही माना जाएगा। गांधी जी बताते हैं कि शारीरिक संसर्ग की इच्छा के रूप में
पत्नी की ओर से कभी आक्रमण नहीं हुआ था। यानी ब्रह्मचर्य के लिए इच्छा शक्ति
जुटाने की ज़रूरत केवल उन्हें थी। उनकी खुद की आसक्ति ही उन्हें ब्रह्मचर्य का पालन
करने से रोक रही थी।
ब्रह्मचर्य
साधने का प्रयास
1901 में गांधी जी ने ब्रह्मचर्य
साधने का भरसक प्रयास करना शुरु कर दिया था। इस व्रत के पालन में शुरु-शुरु में तो
वे विफल रहे। प्रयत्न करते किन्तु गिर पड़ते। हालाकि इस प्रयत्न में उनका उद्देश्य
ऊंचा नहीं था। मुख्य उद्देश्य तो था संतानोत्पत्ति को रोकना। कृत्रिम गर्भ निरोधक
साधनों में गांधी जी का विश्वास नहीं था। उन्होंने कुछेक लेखकों के विचार पढ़ रखे
थे। डॉ. एलिन्सन के उपायों का प्रभाव तो दीर्घकालिक न रह सका पर हिल्स के संयम और
आन्तरिक साधन के बारे में जो विचार थे उसका प्रभाव गांधी जी पर बहुत पड़ा था। इसलिए
संतानोत्पत्ति का ख्याल आते ही गांधी जी ने संयम-पालन का अभ्यास शुरु कर दिया। एक
ही कमरे में अलग-अलग खाटें बिछने लग गईं। अपना ज़्यादा समय घर के बाहर ही बिताते।
रात में पूरी तरह थक कर ही लौटते और अलग सोने का प्रयत्न करते। उनके इस संयम व्रत
में कस्तूरबा कहीं नहीं थीं। इन सब प्रयत्नों का प्रभाव तुरत नहीं दिख सका। अंतिम
निश्चय तो वे 1906 में ही ले सके।
ज़ुलू
विद्रोह
बोअर-युद्ध के बाद नेटाल में ज़ुलू विद्रोह हुआ। उस समय गांधी जी
जोहन्सबर्ग में वकालत करते थे। उस समय भी गांधी जी को लगा कि अपनी सेवा नेटाल
सरकार को अर्पण करनी चाहिए। उन्होंने आवेदन किया जो स्वीकृत भी हो गया। इस सेवा के
सिलसिले में गांधी जी के मन में संयम-पालन का तीव्र विचार उत्पन्न हुआ। उन्होंने
साथियों से इसकी चर्चा की। उनका मानना था कि सन्तानोत्पत्ति और सन्तान का
लालन-पालन सार्वजनिक सेवा के विरोधी हैं। इस विद्रोह में शामिल होने के लिए गांधी
जी को जोहान्सबर्ग से अपनी गृहस्थी उजाड़ देनी पड़ी थी। इस जगह घर बसाए हुए मुश्किल
से एक महीना ही हुआ था कि उन्होंने उसका त्याग कर दिया। पत्नी और बच्चों को
फीनिक्स में छोड़कर खुद डोली उठानेवालों की टुकड़ी लेकर चल पड़े। कूच करते वक़्त
उन्होंने महसूस किया कि लोकसेवा के लिए उन्हें पुत्रैषणा और वित्तैषणा का त्याग कर
देना चाहिए और वानप्रस्थ-धर्म का पालन करना चाहिए।
ज़ुलू विद्रोह के दौरान बिताए
गए छह हफ़्ते का समय उनके जीवन का अत्यंत मूल्यवान समय था। इस समय उन्होंने
संयम-व्रत के महत्व को अधिक से अधिक समझा। उन्हें लगा कि यह व्रत बन्धन नहीं बल्कि
स्वतंत्रता का द्वार है। इसके पहले वे इसलिए असफल हुए थे कि वे दृढनिश्चयी नहीं
थे। उन्हें अपनी शक्ति पर भरोसा नहीं था। फलस्वरूप उनका मन अनेक तरंगों और अनेक
विकारों में उलझा रहता था। उन्हें लगा कि व्रत-वद्ध न रहने पर मनुष्य मोह में पड़ा
रहता है। व्रत में बंधना व्यभिचार से छुटकारा पाने के समान था।
ब्रह्मचर्य व्रत के पालन के
लिए गांधी जी का मानना था कि स्वादेन्द्रिय पर प्रभुत्व प्राप्त करना ज़रूरी है।
यदि स्वाद को जीत लिया जाय, तो ब्रह्मचर्य पालन बहुत सरल हो जाता है। इसलिए उनके आहार संबंधी
प्रयोग केवल आहार की दृष्टि से नहीं, बल्कि ब्रह्मचर्य की दृष्टि से होने लगे। उन्होंने प्रयोग करके पाया
कि आहार थोड़ा सादा, बिना मिर्च-मसाले का और प्राकृतिक स्थितिवाला होना चाहिए। वनपक्व फल
सबसे अच्छा है। जब वे सूखे और हरे वनपक्व फलों पर रहते थे, तो उन्हें निर्विकार अवस्था का अनुभव
होता था।
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मनोज कुमार
पिछली
कड़ियां- गांधी और गांधीवाद
संदर्भ : यहाँ पर
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