सोमवार, 23 सितंबर 2024

84. बोअर-युद्ध - 1 अंग्रेज़ों के दिल का नासूर

 

गांधी और गांधीवाद

84. बोअर-युद्ध - 1

अंग्रेज़ों के दिल का नासूर

1899

एक तरफ नेटाल में भारतीय समुदाय किसी तरह अपना अस्तित्व बचाए रखने में कामयाब हो रहा था, दूसरी तरफ पड़ोसी गणराज्य में ऐसी घटनाएँ घट रही थीं जो बहुत जल्द दक्षिण अफ्रीका की सूरत बदलने वाली थीं और ट्रांसवाल को भारतीय संघर्ष और गांधीजी की गतिविधियों का मुख्य रंगमंच बनाने वाली थीं। इन घटनाओं के साथ भारतीय प्रश्न भी अभिन्न रूप से जुड़ गया। बोअर और ब्रिटन के बीच वर्चस्व के लिए अंतिम संघर्ष जिस मुद्दे पर टिका था, वह था आधिपत्य का मुद्दा। ब्रिटिशों ने प्रिटोरिया कन्वेंशन (1881) के आधार पर गणराज्य पर आधिपत्य का दावा किया बोअर्स ने उस दावे को चुनौती दी बोअर गणराज्य की आपत्तियाँ उनके बीच लगातार तनाव का कारण रही थीं। दोनों पक्षों ने ब्रिटिश भारतीय नागरिकों और ट्रांसवाल में रहने वाले केप कलर्ड्स की स्थिति को अपने रुख की वैधता साबित करने के लिए परीक्षण के आधार के रूप में इस्तेमाल किया। ये सभी ट्रांसवाल आबादी के महत्वपूर्ण घटक थे। अपनी आधिपत्य के प्रतीक के रूप में ब्रिटिश सरकार ने ब्रिटिश नागरिकों के रूप में भारतीयों के अधिकारों के लिए अखंडता का दावा किया अपनी संप्रभुता के दावे में बोअर्स ने उस दावे पर सवाल उठाया और तर्क दिया कि गणराज्य में भारतीय और केप कलर्ड्स को गणराज्य के कानूनों द्वारा मान्यता प्राप्त अधिकारों से परे कोई अधिकार नहीं हो सकता है। इस प्रकार भारतीयों की स्थिति सत्ता की राजनीति के खेल में एक मोहरा बन गई, और प्रमुख खिलाड़ियों का रवैया कूटनीतिक शतरंज की बिसात पर उनकी चालों और जवाबी चालों का प्रतिबिंब बन गया।

आगे बढ़ने से पहले थोड़ा रुककर हमें दक्षिण अफ़्रीका के बारे में संक्षिप्त जानकारी रख लेनी चाहिए, तभी हम दक्षिण अफ़्रीका के सत्याग्रह को ठीक से समझ सकेंगे।

दक्षिण अफ़्रीका – भूगोल

दक्षिण अफ्रीका में अफ़्रीकी लोग दो प्रमुख वर्गों में विभाजित थे - अंग्रेज़ी बोलने वाले वर्ग और डच वर्ग, जिन्हें कॉन्टिनेंटल के नाम से भी जाना जाता था। केप कॉलोनी में बॉन्ड में अंग्रेजों का प्रभुत्व था। दक्षिण अफ़्रीका में उन दिनों दो हुकूमतें थीं – ब्रिटिश और पुर्तगाली। पुर्तगाली हिस्से को डेलागोआ बे कहा जाता था। भारत से दक्षिण अफ़्रीका जाते हुए वह दक्षिण अफ़्रीका का पहला बन्दरगाह माना जाता था। वहां से दक्षिण की ओर बढ़ने पर ब्रिटिश शासित राज्य नेटाल आता था। इसका बन्दरगाह पोर्ट नेटाल कहलाता था। इसे डर्बन के नाम से जाना जाता था। डर्बन नेटाल का सबसे बड़ा नगर था। नेटाल की राजधानी पीटर मारित्सबर्ग थी। नेटाल से और आगे अंदर की तरफ़ बढ़ने पर ट्रांसवाल आता था। यहां पर दुनिया का सबसे अधिक सोना पाया जाता था। वहां हीरों की खाने भी थीं। उससे दुनिया का सबसे बड़ा हीरा निकला। वह कोहनूर से भी बड़ा हीरा था और रूस के पास था। उसका नाम खान के मालिक के नाम क्लीनन पर रखा गया और वह क्लीनन’ हीरा कहलाया। क्लीनन का वजन तीन हजार कैरट था। कोहनूर का वजन एक सौ कैरट और रूस के राजमुकुट के हीरे ओर्लफ़’ का दो सौ कैरेट के लगभग था।

जोहानिसबर्ग को स्वर्णपुरी कहते थे। यहां हीरों की खाने भी थीं। पर यह ट्रांसवाल की राजधानी नहीं थी। ट्रांसवाल की राजधानी प्रिटोरिया थी। जोहानिसबर्ग के लोगों में अधिक से अधिक कमाने का धुन सवार रहता थी। वे कम से कम समय में अधिक से अधिक कमा लेना चाहते थे। ट्रांसवाल से और पश्चिम बढ़ने पर आरेंज फ़्री स्टेट या आरेंजिया उपनिवेश आता था। उसकी राजधानी का नाम ब्लूमफोंटीन था। ऑरेंजिया में  सोने और हीरे की खदान नहीं थी। वहां से रेल द्वारा केप कॉलोनी जाया जा सकता था। केप कॉलोनी दक्षिण अफ़्रीका का सबसे बड़ा उपनिवेश था। इसकी राजधानी केप टाउन थी और यह वहां का सबसे बड़ा बन्दरगाह था। केप ऑफ गुड होप’ नाम का अंतरीप इसी राज्य में था। वास्को डी गामा जब पुर्तगाल से भारत की खोज पर चला था यहीं आकर रुका था और उसने समझा कि वह भारत पहुंच गया है। उसका यह नाम पुर्तगाल के राजा जॉन ने रखा था, क्योंकि वास्को डी गामा द्वारा उसकी खोज होने पर राजा के मन में यह आशा बंधी थी कि अब उसकी प्रजा हिंदुस्तान पहुँचने का एक नया और अधिक सरल मार्ग प्राप्त कर सकेगी। हिंदुस्तान उस युग के समुद्री अभियानों का चरम लक्ष्य माना जाता था।

हब्शी जाति के लोग

अमरीका में जिन दिनों गुलामी का ज़ोर पकड़ रहा था तब हब्शी जाति के लोग वहां से भाग कर दक्षिण अफ़्रीका आ गये और आबाद हुए। उनकी कई जातियां, जुलू, स्वाजी, बसूटो, बेकवाना आदि, यहां थे। उनकी भाषाएँ भी अलग अलग थीं। इन हब्शियों को दक्षिण अफ़्रीका का मूल निवासी माना जा सकता है। 1914 में हब्शियों की आबादी 50 लाख और गोरों की आबादी 13 लाख के क़रीब थी। हब्शियों में जुलू सबसे कद्दावर और सुंदर होते थे। यह बड़ी सरल और निर्दोष जाति थी जिन्हें बंदूक-गोली से कोई मतलब नहीं था और वे बड़े आदिम जीवन जी रहे थे।

डच दक्षिण अफ़्रीका में

पांच सौ साल पहले वालंदा (वालंदा के मानी डच होते हैं। वालंदा या डच लोग दक्षिण अफ़्रीका में बोअर के नाम से पुकारे जाने लगे) लोगों ने दक्षिण अफ़्रीका में पड़ाव डाला। वे दुनिया में अपने फैलाव के लिए अच्छी-अच्छी ज़मीनें ढूंढ़ रहे थे। वालंदा अपने साथ गुलाम रखते थे। जावा से अपने मलायी गुलामों के साथ ये लोग केप कॉलोनी आए। मलायी लोग मुसलमान होते थे। हालाकि वालंदा सारे दक्षिण अफ़्रीका में इक्के-दुक्के बिखरे दिखाई देते थे परन्तु उनका केन्द्र केप टाउन ही था। ये लोग जितने बहादुर योद्धा थे उतने ही कुशल किसान भी थे। उनके पास युद्ध कला भी थी, बंदूक भी थी। उन्होंने दक्षिण अफ़्रीका के मूल निवासियों की मज़दूरी के बल पर खेती करना शुरु कर दिया।

अंग्रेज़ भी दक्षिण अफ़्रीका पहुंचे

जैसे वालंदा दुनिया में अपना फैलाव के लिए अच्छी-अच्छी ज़मीनें ढूंढ़ रहे थे, वैसे ही अंग्रेज़ भी इसी फेर में फिर रहे थे। धीरे-धीरे अंग्रेज़ भी दक्षिण अफ़्रीका पहुंचे। चोर-चोर मौसेरे भाई तो थे ही। दोनों का स्वभाव एक ही था – लोभ। दोनों ही जातियां धीरे-धीरे दक्षिण अफ़्रीका में घुसती गईं और हब्शियों को वश में करते हुए एक दूसरे से टकरा गईं। इनमें झगड़े हुए, लड़ाइयां हुईं। इन दोनों के बीच जब पहली मुठभेड़ हुई तब बहुत से वालंदा लोग अंग्रेज़ों की हुक़ूमत क़बूल करने को तैयार नहीं थे। इसलिए वे दक्षिण अफ़्रीका के अज्ञात भीतरी भाग में चले गये। इसके फलस्वरूप ट्रांसवाल और ऑरेंज फ़्री स्टेट की उत्पत्ति हुई। मजूबा की पहाड़ी पर अंग्रेज़ ने हार भी खाई। इस हार का दाग अंग्रेज़ों के दिल में नासूर की तरह रह गया और 1899-1902 तक बोअर युद्ध के रूप में फूटा।

बोअर युद्ध अभी ज़ारी है …

***         ***    ***

मनोज कुमार

 

पिछली कड़ियां- गांधी और गांधीवाद

संदर्भ : यहाँ पर

 

 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

आपका मूल्यांकन – हमारा पथ-प्रदर्शक होंगा।