गांधी और गांधीवाद
87. बोअर-युद्ध- 4
घायलों की मरहम-पट्टी
प्रवेश
दक्षिण अफ़्रीका में बोअर और ब्रिटिश के बीच सर्वोच्चता की लड़ाई
अधिराज्य के इर्द-गिर्द ठहरी हुई थी। प्रिटोरिया कन्वेंशन के आधार पर ब्रिटिश इस
गणराज्य पर अपना अधिराज्य का दावा करता रहा और बोअर उन दावों का खंडन करते रहे। इन
दावों–प्रतिदावों के बीच दोनों ही पक्ष प्रवासी भारतीयों की स्थिति का इस्तेमाल
करते रहे। वस्तुस्थिति यह थी कि गणराज्य द्वारा स्वीकार किए अधिकारों के अलावे
उन्हें कोई अधिकार नहीं प्राप्त था। शक्ति प्रदर्शन की राजनीति में बिछे कूटनीति
के बिसात पर भारतीयों की स्थिति एक मामूली प्यादे के समान थी।
साम्राज्यवाद के प्रति धारणा
दिसंबर 1899 के मध्य में, ब्रिटिश सेना को स्टॉर्मबर्ग , मैगर्सफोंटेन और कोलेंसो की लड़ाई में हार का सामना
करना पड़ा। चैंबरलेन औपनिवेशिक कार्यालय से युद्ध का निर्देशन कर रहा था। अन्य वादों (ism) की तरह विक्टोरिया युग की साम्राज्यवाद के प्रति अपनी धारणाएं थीं। जोसेफ
चैम्बरलेन ने ख़ुद को साम्राज्य का प्रचारक घोषित कर रखा था। युद्ध के दौरान, साम्राज्यवादी एकता का समर्थक
चेम्बरलेन ने "एक झंडा, एक रानी, एक जीभ" के नारे के तहत ब्रिटेन और उसके स्वशासित उपनिवेशों
के बीच संबंधों को मजबूत करने के लिए काम किया।
दक्षिण अफ्रीका का उच्चायुक्त और केप कॉलोनी का गवर्नर और कट्टर साम्राज्यवादी अल्फ्रेड
मिलनर ने साम्राज्यवाद को मानव विचारधारा का महान आन्दोलन कहा था। गंभीर, शांत,
स्पष्ट, मज़बूत और अक्खड़ स्वभाव का मिलनर जौन रस्कीन की विचारधारा से प्रभावित
शासक था। मिलनर का मानना था कि दक्षिण अफ्रीका में शांति और प्रगति की कोई उम्मीद तब
तक नहीं हो सकती, जब तक कि "एक गणराज्य में ब्रिटिशों की डचों के प्रति स्थायी
अधीनता" बनी रहे। उसे डर था कि अगर पूरे दक्षिण अफ्रीका को जल्दी से ब्रिटिश नियंत्रण
में नहीं लाया गया, तो अफ्रीकनर्स (बोअर) द्वारा नियंत्रित नव धनी ट्रांसवाल, केप
अफ्रीकनर्स के साथ एकजुट हो सकता है और दक्षिण अफ्रीका में पूरे ब्रिटिश स्थान को
खतरे में डाल सकता है। मिलनर ने अफ़्रीकनर्स के प्रति शत्रुतापूर्ण विचार रखे, और इस क्षेत्र पर ब्रिटिश नियंत्रण को सुरक्षित करने के लिए बोअर
गणराज्यों के साथ युद्ध की वकालत करने वाली ब्रिटिश सरकार की
सबसे प्रमुख आवाज़ बन गए। साम्राज्यवाद
की वेदी पर वह अपनी जान तक न्यौछावर करने को तैयार था। सड़सठ साल की उम्र में उसने
शादी की, अपनी मौत के चार साल पहले, ताकि उसके साम्राज्यवाद के काम में वैवाहिक जीवन बाधा न बन सके। फरवरी
1921 को उसने लॉर्ड एडवर्ड सेसिल की विधवा लेडी वायलेट सेसिल से विवाह किया।
युद्ध का औपचारिक ऐलान
11 अक्तूबर 1899 को युद्ध का
औपचारिक ऐलान हो चुका था। बोअर की तरफ़ से 40,000 सैन्य बल मैदान में मोर्चा संभाल चुका था। बोअर की सेना का नेतृत्व पिट
जोबर्ट कर रहा था। वह काफ़ी बहादुर और चालाक सिपाही था। बोअर की नियमित सेना
इकाइयों की संख्या ब्रिटिशों से 3:1 अधिक थी और उन्होंने लेडीस्मिथ , माफ़ेकिंग और किम्बरली के शहरों को जल्दी से घेर लिया। अक्टूबर 1899 तक, लगभग 20,000
ब्रिटिश सैनिक दक्षिण अफ्रीकी उपनिवेशों में तैनात थे और हजारों
और रास्ते में थे। ब्रिटिश सेना का कमान जनरल सर आर. हेनरी बुलर के हाथों में
था। 31 अक्तूबर को वह केप टाउन पहुंचा। जिस जहाज से वह उतर रहा था, उसी से एक नौजवान भी उतर रहा था।
उसका नाम था – विन्सटन चर्चिल!
विन्सटन चर्चिल बोअर युद्ध में
सर विंस्टन
लियोनार्ड स्पेंसर चर्चिल (विन्सटन चर्चिल) वहां “मॉर्निन्ग पोस्ट” के युद्ध संवाददाता के रूप में गए थे। अक्टूबर में, उन्होंने कोलेंसो जाने से पहले लेडीस्मिथ के पास संघर्ष क्षेत्र की
यात्रा की , जो तब बोअर सैनिकों द्वारा घेर लिया गया था। चिवले की लड़ाई में, 14 अक्तूबर 1899 को अस्त्र-शस्त्र
से भरी एक रेल गाड़ी युद्ध-स्थल की ओर जा रही थी। इसी गाड़ी में 25 वर्षीय चर्चिल भी
जा रहे थे। किन्तु बीच रास्ते में ही बोअरों ने इस ट्रेन पर लूट-पाट मचाई और इस अचानक
हुए हमले और बोअर तोपखाने की गोलाबारी से ट्रेन पटरी से उतर गई। चर्चिल को जनरल
बोथा ने युद्ध बंदी बना लिया। वहां से उन्हें प्रिटोरिया में एक युद्धबंदी शिविर में नजरबंद कर दिया गया। दिसंबर
में, चर्चिल
मालगाड़ियों में छुपकर और एक खदान में छिपकर अपने अपहरणकर्ताओं से बच निकले। वह
पुर्तगाली पूर्वी अफ्रीका में सुरक्षित पहुंच गए। उन्होंने अपने अनुभवों का उल्लेख 'लंदन टु लेडीस्मिथ वाया प्रिटोरिया' (1900) में किया है।
जनवरी 1900 में, वे कुछ समय के लिए दक्षिण अफ़्रीकी लाइट हॉर्स रेजिमेंट में लेफ्टिनेंट के
रूप में सेना में शामिल हो गए , और लेडीस्मिथ की घेराबंदी को हटाने और प्रिटोरिया पर कब्ज़ा करने के लिए रेडवर्स बुलर की लड़ाई में शामिल हो गए। वे दोनों जगहों पर पहुँचने
वाले पहले ब्रिटिश सैनिकों में से थे। उन्होंने और उनके चचेरे भाई, चार्ल्स स्पेंसर-चर्चिल, मार्लबोरो के 9वें ड्यूक ने 52 बोअर जेल कैंप गार्डों के
आत्मसमर्पण की मांग की और उन्हें आत्मसमर्पण करवा लिया। पूरे युद्ध के दौरान, उन्होंने सार्वजनिक रूप से बोअर
विरोधी पूर्वाग्रहों की निंदा की, और उनसे "उदारता और सहिष्णुता" के साथ व्यवहार करने का
आह्वान किया, और बाद में अंग्रेजों से जीत में उदार होने का आग्रह किया।
ब्रिटिश सेना पर गहरा संकट
ब्रिटिश सेना पर संकट के बादल
गहराते जा रहे थे। शत्रु एस्टकोर्ट के नज़दीक पहुंच गई थी। स्ट्रोमबर्ग की लड़ाई वे
हार चुके थे। कई अन्य मोर्चों पर भी उनकी हालत खस्ता थी। अब उनकी सारी आशाएं जनरल
बुलर पर टिकी थी। लेडी स्मिथ में घिरे हुए जनरल व्हाइट को छुड़ाने के लिए जनरल
बूलर महा-प्रयास करने के उद्देश्य से अपनी सारी फ़ौज को लेकर कोलेन्सो के निकट
टुगेला नदी पार करने के इरादे से आगे बढ़ रहा था। भयंकर युद्ध की संभावना को देखते
हुए ब्रिटिश को सबकी मदद की आवश्यकता थी। राष्ट्रपति क्रूगर के बोअरों का बल
बढ़ता ही जा रहा था। वे उफनती नदी की बाढ़ के पानी की तरह बढ़ते जा रहे थे। उनका
नेटाल की राजधानी तक पहुंच जाने का खतरा दिखाई दे रहा था।
भारतीय एम्बुलेंस कॉर्प्स
ऐसी स्थिति में गांधीजी की
मांग “एम्ब्युलेंस कोर” (घायलों को उठाने वाले और उनकी सेवा-शुश्रुषा करने वाला दल) के रूप में स्वीकार
कर ली गई। इस वक्त तो सरकार को जितने आदमी मिल सकें उतने की ज़रूरत थी। जिस भयंकर युद्ध की संभावना
थी उसमें इतने आदमियों के घायल होने का डर था कि स्थाई सेवादल उन्हें संभाल नहीं
सकता था। लड़ाई ऐसे प्रदेश में हो रही थी जहां युद्धक्षेत्र और केन्द्र के बीच
पक्की सड़क भी नहीं थी। इसलिए घोड़ा-गाड़ी आदि सवारियों से घायलों को ले जाना भी संभव
नहीं था।
गांधीजी ने 1899 के बोअर युद्ध में अंग्रेज़ों की सहायता के लिए भारतीय एम्बुलेंस कॉर्प्स
की स्थापना की। उनकी इस टुकड़ी में लगभग ग्यारह सौ आदमी थे। 37 स्वतंत्र भारतीयों को
नेता माना गया, क्योंकि सरकार को दिया
गया प्रस्ताव उनके हस्ताक्षरों के माध्यम से पारित हो चुका था और उन्होंने ही अन्य
लोगों को एकजुट किया था। इसमें तीन सौ स्वतंत्र भारतीय
भी रंगरूटों में भरती हुए। अन्य 800 गिरमिटिया थे। डॉ. बूथ तो मेडिकल सुपरिन्टेन्डेन्ट की भूमिका में साथ में थे ही। खाकी यूनिफॉर्म
में हैट के साथ सर्जेण्ट मेजर गांधीजी तो थे ही। उनकी बांह पर रेड क्रॉस की पट्टी बंधी थी। डॉ. बूथ, जो पारसी रुस्तमजी के धर्मार्थ अस्पताल के अधीक्षक थे, ने भारतीय स्वयंसेवकों को प्रशिक्षित करने में मदद की, जिनकी संख्या लगभग एक हज़ार थी। उन्हें स्ट्रेचर-वाहक के रूप में काम
करना था। नेताओं में बैरिस्टर, क्लर्क, मुनीम आदि थे। बाक़ी के लोगों में
कारीगर, राज, बढ़ई और मामूली मज़दूर वगैरह थे। इनमें हिन्दू, मुसलमान, मद्रासी, उत्तर भारत वाले आदि सभी वर्गों के
लोग थे। यह विशाल दस्ता डरबन से रवाना हुआ। मोर्चे पर सक्रिय सेवा
के लिए पहला आह्वान 13 दिसंबर, 1899 को आया। प्रस्थान
की पूर्व संध्या पर, भारतीय एम्बुलेंस कोर के
नेताओं को हैरी एस्कोम्बे ने अपने बंगले के विशाल लॉन में दोपहर 4.30 एक चाय
पार्टी में आमंत्रित कर सम्मानित किया। इससे पहले दिन में गांधीजी, मनसुखलाल नज़र, आर. के. खान, डॉ. बूथ और
भारतीय एम्बुलेंस कोर के अन्य नेताओं को कांग्रेस हॉल में भावभीनी विदाई दी गई थी।
रात को पारसी रुस्तमजी ने उन्हें शानदार भोजन कराया।
अंग्रेजी अखबारों को तो यह सब
चमत्कार जैसा ही लगा। उन्हें यह आशा नहीं थी कि हिन्दुस्तानी लोग इस युद्ध में कोई भाग लेंगे। एक अंग्रेज ने वहाँ
के एक प्रमुख दैनिक में हिन्दुस्तानियों की स्तुति करने वाली एक कविता लिखी। उसकी टेक की एक
पंक्ति का आशय यह था
: ‘अंत में तो हम सब एक ही साम्राज्य
के बालक हैं।ʼ
दस्ते को फौजी भत्ता मिलता
था। नेताओं ने तो बिना किसी राशि के ग्रहण किए सेवादल में काम किया। अन्य स्वयं
सेवकों को एक पाउंड प्रति सप्ताह का भत्ते के साथ राशन मिलता था। हालाकि उनमें से
अधिकांश ऐसे थे जो अपने-अपने व्यवसाय में चार पाउंड प्रति सप्ताह कमाते थे। उनके यूरोपीय
समकक्षों को पैंतीस शिलिंग या वेतन का दोगुना मिलता था। उसके अलावे अन्य दूसरी ज़रूरतों को पूरा करने का भार व्यापारी वर्ग ने
अपने सिर पर लिया। घायलों के लिए भी मिठाई, बीड़ी-सिगरेट आदि देने में भी उन्होंने मदद की। इस दस्ते को
हिन्दुस्तानी दस्ता कहा गया। यूरोपियनों का भी दस्ता था। दोनों एक ही जगह काम करते
थे। हिन्दुस्तानी दस्ते के लिए कहा गया कि उन्हें बंदूकों की मार की हद में जाकर
काम नहीं करना होगा। इसका अर्थ यह हुआ कि युद्ध के मैदान में जो सैनिक घायल हों, उन्हें सेना के साथ रहने वाला स्थायी एम्बुलेंस दल उठाकर सेना के बहुत पीछे लाकर छोड़
जाए, उसके बाद भारतीय
कॉर्प उन्हें सँभाले।
भारतीय महिलाओं ने अस्पतालों में बीमारों और घायलों के आराम
के लिए आवश्यक सामान तैयार करने की पेशकश की, यह सामान भारतीय
व्यापारियों द्वारा उपलब्ध कराया गया। उन्होंने कपड़े, किताबें और पत्रिकाएँ एकत्र कीं, रूमाल, तकिए, तकिए के कवर और चादरें
और बुने हुए मोज़े सिले, और मोर्चे पर लड़ने वाले
सैनिकों के लिए पट्टियाँ तैयार कीं। भारतीय
व्यापारियों ने रसद और यूनिफॉर्म की आपूर्ति की। प्रशिक्षण के दौरान ली
गई एक तस्वीर में गांधी खाकी वर्दी में हैं और डॉ. बूथ के बगल में एक ढीली टोपी
पहने हुए हैं। उन्होंने अपनी मूंछें इतनी लंबी कर ली हैं कि वे उनके होंठों के
चारों ओर घुंघराला हो गया है। वे एक सफल वकील की तरह नहीं दिखते, बल्कि ऐसे व्यक्ति की तरह दिखते हैं जिसने अपना जीवन रेड क्रॉस में
बिताया है और जो जिम्मेदारियों के बोझ तले दबा हुआ है। उनकी आंखें चौकन्नी हैं और
वे स्पष्ट रूप से चिंतित हैं कि उनके लोग अपना सर्वश्रेष्ठ दें।
13 दिसम्बर 1899 को कोलेंसो, टुगेला नदी के तट पर बसे एक छोटे से गांव के पास, जो लेडी स्मिथ से सोलह मील की दूरी
पर दक्षिण
में था, लड़ाई छिड़ गई थी। जनरल रेडवर्स बुलर बीस हजार की सैन्य बल के साथ लेडी स्मिथ को मुक्त कराने के उद्देश्य
से बढ़ रहा था कि अचानक जनरल लुइस बोथा के नेतृत्व में
बोअरों ने धावा बोल दिया था। बोअर्स द्वारा घायल किए जाने के बाद ब्रिटिश
सैनिक पीछे हट रहे थे।
कोलेंसो की लड़ाई से एक दिन पहले ही मोर्चे पर बुलावा आया था और हज़ारों भारतीय समय रहते युद्ध स्थल
पर पहुँच गए और घायलों को निकालने में अमूल्य सेवा प्रदान की। 14 दिसंबर, 1899 को असाधारण उत्साह
के बीच सुबह 2.10 बजे की ट्रेन से सैनिक मोर्चे पर पहुंचे। ट्रेन से उतरते ही
लोगों को रेड क्रॉस बैज दिए गए और उन्हें फील्ड हॉस्पिटल ले जाया गया - जो पाँच
मील से ज़्यादा की दूरी थी। कोई गाड़ी या पानी की गाड़ियाँ उपलब्ध नहीं कराई गई
थीं। इसलिए लोगों को अपने साथ पखवाड़े या महीने भर का राशन, जिसमें जलाऊ
लकड़ी और कैंप की ज़रूरतें शामिल थीं, ले जाना पड़ा। अगले दिन
दोपहर 3.30 बजे कोर चीवले पहुँची और अपनी भूख मिटाने का इंतज़ार किए बिना ही
कोलेंसो की ओर बढ़ गए और फिर पूरी रात अपने परोपकारी काम में लगे रहे। वहां इस टुकड़ी ने कड़ी मेहनत की। स्ट्रेचर-वाहक घायलों को
रात के ग्यारह बजे तक फील्ड अस्पताल ले जाने के काम में लगे रहे और वे सुबह होते
ही फिर से काम पर लग गए। उन्होंने युद्ध
में घायलों की मरहम-पट्टी करना आरंभ किया। भारतीय कोर ने घायल सैनिकों और अधिकारियों को मैदान से बेस अस्पताल
तक पहुंचाने में शानदार काम किया। घायलों को 7-8 मील ले जाना पड़ता था। कई बार तो उन्हें पचीस-पचीस मील ले जाना पड़ता
था। रास्ते में उन्हें दवा भी देनी पड़ती थी। कूच सवेरे आठ बजे शुरू होता और शाम के
पांच बजे छावनी के अस्पताल पर पहुंचते। भूख, आराम की कमी या
किसी भी तरह की शारीरिक कठिनाई ने भारतीय स्ट्रेचर-वाहकों और उनके नेताओं को एक पल
के लिए भी परेशान नहीं किया। यह अनुभव बहुत भयानक था, क्योंकि घायलों की संख्या बहुत अधिक थी, और मरने की पीड़ा के दृश्य उन लोगों की यादों में अमिट रूप से अंकित
हो गए थे जिन्होंने इसे देखा था। हर जगह, मैदान से लेकर
नदी के किनारे तक, घायलों और मृतकों के ढेर
पड़े थे। इस मुठभेड़ में एक सौ पचास लोग मारे गए और सात सौ बीस घायल हुए। युद्ध के आरंभ में ब्रिटिश
सेना को हार पर हार खानी पड़ी और बहुत बड़ी तादाद में सैनिक घायल हुए। इस कारण से भारतीयों को तोप-बन्दूकों
की मार के भीतर न ले जाने का विचार भी अधिकारियों
को छोड़ देना पड़ा। भारतीय तो खतरा उठाने को तैयार ही थे। खतरे के स्थान
से बाहर रहना उन्हें जरा भी पसंद नहीं था। अतः उन सब ने इस
अवसर का स्वागत किया। न तो उन में से किसी को गोली का घाव
लगा और न दूसरी कोई चोट पहुँची।
युवा घायल अधिकारी
एक दिन गांधीजी का दल चीवली
छावनी की तरफ़ जा रहा था। दोपहर का समय था। लेफ़्टिनेंट रॉबर्ट्स नामक एक गंभीर
रूप से युवा अधिकारी घायल पड़ा था। वह कंधार के
फील्ड मार्शल लॉर्ड रॉबर्ट्स के इकलौते बेटे थे,
जो
अफगानिस्तान के विजेता और भारत में पूर्व कमांडर इन चीफ थे। इस युवा अधिकारी ने
ब्रिटिश लड़ाकू उपकरणों को बचाने के लिए बोअर की गोलीबारी में एक टुकड़ी का
नेतृत्व किया था। तीन बार घायल होने के बाद, उन्होंने जोर देकर कहा
कि उन्हें वहीं छोड़ दिया जाए जहां वे गिरे थे, ताकि उनके हटने से
कार्रवाई में बाधा न आए। उसके शरीर से लहू
बह रहा था। वह तड़प रहा था। गांधीजी चार-छह स्वयंसेवकों के साथ उस तरफ़ बढ़े।
शत्रुपक्ष ने आक्रमण तेज़ कर दिया था। गांधीजी ने टुकड़ी के लोगों की सहायता से उसे
उठाकर डोली में रखा। चार लोग डोली उठाकर आगे बढ़े। उसे उठाकर युद्धक्षेत्र से बाहर
ले आए। एक सुरक्षित स्थान पर डोली रुकवाकर गांधीजी ने उसकी मरहम-पट्टी की। फिर
उसकी नब्ज टटोली। गांधीजी तड़प उठे। लेफ़्टिनेंट रॉबर्ट्स के प्राण पखेरू उड़ चुके
थे। वह दिन 16 अक्तूबर 1899 का था। अपने बेटे की मृत्यु से पाँच दिन पहले लॉर्ड रॉबर्ट्स दक्षिण
अफ्रीका में ब्रिटिश सेना की कमान संभालने के लिए इंग्लैंड से केप टाउन पहुँचे थे।
गांधीजी ब्रिटिश सैनिकों के अनुशासन और धैर्य की प्रशंसा करते
थे, क्योंकि वे तपती धूप में निर्जल और वृक्षविहीन
घास के मैदान में मार्च कर रहे थे। वे अपने भारी तोपखाने और परिवहन के साथ इतने
अच्छे क्रम में पीछे हट रहे थे कि वे पराजित भीड़ के बजाय विजयी योद्धाओं की तरह
लग रहे थे। उन्हें अपने उन सैनिकों के लिए दुख था,
जिन्हें
चिवली स्टेशन पर खुद के लिए छोड़ दिया गया था। थके हुए, भूखे और प्यासे, भारतीय स्वयंसेवकों को
खुद के लिए भोजन की तलाश करनी पड़ी। अगले दिन उन्हें खुले सामान के वैगनों में
भरकर एस्टकोर्ट भेज दिया गया।
टुकड़ी अस्थाई रूप से भंग कर दी गई
एक सप्ताह के बाद 19 दिसम्बर को आदेश
पारित कर टुकड़ी अस्थाई रूप से भंग कर दी गई। डरबन वापस भेजे जाने से
पहले, कर्नल गैलवे ने कोर
द्वारा किए गए काम के लिए व्यक्तिगत रूप से उन्हें धन्यवाद दिया, और उनसे कहा कि उन्हें जल्द ही एक और कॉल की उम्मीद हो सकती है। यह कहा गया कि जब आवश्यकता होगी उन्हें फिर बुलाया जाएगा। गांधीजी के
साथ दल डरबन वापस आ गए। युद्ध क्षेत्र से लौटने के बाद गांधीजी ने अपना सामान्य
काम संभाल लिया। दिसम्बर 1899 के एक दिन जब गांधीजी 14, मरकरी लेन के अपने कार्यालय में प्रवेश कर रहे थे कि हैरी एस्कोम्ब
गली पार कर गांधीजी से बात करने के लिए उनकी तरफ़ बढ़ रहा था। वे अक्सर ऐसे ही
एक-दूसरे के पास से गुजरते थे, एस्कोम्ब बाहर जाता था, गांधीजी घर आते
थे, या इसके विपरीत। लेकिन विपरीत फुटपाथ पर होने के
कारण वे कभी एक-दूसरे से नहीं मिलते थे या बात नहीं करते थे। एस्कोम्ब ने गांधीजी से कहा, "श्री गांधी, मैं आपको लंबे समय से कुछ बताना चाहता था जो मेरे दिमाग में था। डरबन
में आपके उतरने के समय पॉइंट पर प्रदर्शन के दौरान आपके साथ जो हुआ, उसके लिए मुझे बहुत खेद है। मुझे यकीन नहीं था कि भारतीयों के दिल में इतनी उदारता और सेवा भावना भरी
हुई है।" इसके बाद उन्होंने खेद व्यक्त किया कि जब उन्होंने एशिया
विरोधी विधेयक पारित किया था, तब वे भारतीय समुदाय को
उस तरह से नहीं जानते थे, जैसा कि वे उस समय जानते
थे, और उन्होंने आशा व्यक्त की कि समय के साथ इस
विधेयक के कारण भारतीयों को होने वाली असुविधा दूर हो जाएगी। गांधीजी ने अपनी चिर परिचित मुस्कान के साथ कहा, जो बीत गई सो बात गई। उन्होंने यह भी
कहा कि हमें कई ऐसे मौक़े मिलेंगे जब हम एक दूसरे के साथ मिलकर काम करेंगे। इस सुखद
वार्तालाप के बाद दोनों ने अपने-अपने घर की राह पकड़ी। तीन घंटे के बाद जब गांधीजी
अपने घर पहुंचे थे, तो एस्कौम्ब के घर का एक नौकर दौड़ता हुआ आया। उसने बताया कि अभी-अभी
एस्कौम्ब की मृत्यु हो गई! उसे दिल का दौड़ा पड़ा था। कोई भी व्यक्ति उस
आंतरिक प्रेरणा से चकित रह जाएगा, जिसने हैरी एस्कोम्ब को
मृत्यु की छाया से घिरने से कुछ क्षण पहले, अपने मार्ग से
हटकर गांधी के प्रति अपना हृदय खोलने के लिए प्रेरित किया।
उपसंहार
गांधीजी की नेतृत्व क्षमता इस बात से स्पष्ट है कि नेटाल में
भारतीयों ने किस सहजता से एकजुट होकर एम्बुलेंस कोर का गठन किया था। गांधीजी ने कभी
भी ऐसी बात का उपदेश नहीं दिया जिसे वे स्वयं करने के लिए तैयार नहीं थे। उन्होंने अपने कार्य में इतनी सक्रियता से भाग
लिया कि जनरल बुलर ने उन्हें "सहायक अधीक्षक" के रूप में वर्णित किया। घायलों की सेवा मदद के लिए एक ऐसी
पुकार थी जिसका भारतीयों ने उत्सुकता से जवाब दिया और अपने यूरोपीय साथियों के साथ
मिलकर प्रतिद्वंदी समर्पण के साथ काम किया। इस एम्बुलेंस दल के 37 नेताओं
को युद्ध के तमगे भी दिये गये थे।
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मनोज कुमार
पिछली
कड़ियां- गांधी और गांधीवाद
संदर्भ : यहाँ पर
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