शनिवार, 1 फ़रवरी 2025

261. रॉलेट सत्याग्रह-1

राष्ट्रीय आन्दोलन

261. रॉलेट सत्याग्रह-1



1919

प्रवेश :

यूरोप में शत्रुता समाप्त होने से शांति नहीं आई, बल्कि बाजारों पर कब्ज़ा करने और दुनिया पर हावी होने के लिए एक साम्राज्यवाद के खिलाफ़ दूसरे साम्राज्यवाद का संघर्ष शुरू हो गया। उत्पीड़क और उत्पीड़ित के बीच संघर्ष गहरा गया। 1918 के अंत तक भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन में अखिल भारतीय स्तर पर जिन्ना, तिलक और एनी बेसेंट की तुलना में गांधीजी की दखलंदाज़ी कम ही रही थी। जिन्ना कांग्रेस में शीर्ष स्थान पाने के लिए तेज़ी से उभर रहा था। तिलक और बेसेंट होमरूल लीग आन्दोलन के तेज़ी से बढ़ते प्रभाव के कारण शीर्ष पर बने थे। एनी बेसेंट कान्ग्रेस की अध्यक्ष बन चुकी थीं। वर्ष 1919 में सभी वर्ग के लोग कार्रवाई के लिए तैयार थे। किसान कीमतों में वृद्धि से बुरी तरह पीड़ित थे। औद्योगिक श्रमिक उन भयावह परिस्थितियों से नाराज़ थे जिनके तहत उन्हें काम करना पड़ता था और वर्ष की शुरुआत में हड़तालों का एक अभूतपूर्व प्रकोप देखा गया। मुसलमान पराजित खलीफा के साथ ब्रिटेन द्वारा किए गए व्यवहार से नाराज़ थे और कांग्रेस में चरमपंथी लोग टूटे हुए वादों से नाराज़ थे। लेकिन 1919 में गांधीजी देश के राजनीतिक आकाश पर एक स्वर्णिम प्रकाश की तरह उभरे, तेजी से बढ़े और फैलते-फैलते सारे आकाश में छा गए। देश को दिशा दिखाने के लिए महात्मा अवतरित हो चुके थे। उस वर्ष गांधीजी ने ब्रिटिश हुक़ूमत के ख़िलाफ़ जो आवाज़ उठाई थी, वह उस समय के प्रचलित आन्दोलन के तौर-तरीकों से बिलकुल जुदा थी। यह एक शांत और धीमी आवाज़ थी, कोमल और मधुर आवाज़ थी, लेकिन उसमें फौलादी ताक़त थी। शांति और मित्रता की उनकी भाषा में शक्ति और कर्म की छाया थी, अन्याय के सामने सिर न झुकाने का संकल्प था। यह एक नई आवाज़ थी। लंबे-लंबे भाषणों से बिलकुल अलग। लोग रोमांचित थे, क्योंकि गांधीजी की राजनीति कर्म की राजनीति थी, बातों की नहीं। उस साल उन्होंने जो कुछ किया और कहा वह भारतीय राष्ट्रीय स्वतन्त्रता संग्राम की दिशा और दशा तय कर रहा था। इसने पूरे देश की राजनीति का आचरण ही बदल डाला।

पृष्ठभूमि :

1919 में जहां एक ओर, ब्रिटिश सरकार ने भारतीयों के समक्ष संवैधानिक सुधारों के गाजर को लटका दिया, वहीं दूसरी ओर, इसने सुधारों के खिलाफ किसी भी अप्रिय आवाज़ को दबाने के लिए खुद को असाधारण शक्तियों से लैस करने की छडी भी उठा ली। पहला महायुद्ध समाप्त हो गया था। गांधीजी ने युद्ध में ब्रिटिश को सैन्य सहायता की अपील की थी। इस युद्ध में भारत के वीरों ने बड़ी बहादुरी से भाग लिया था। इसलिए प्रथम महायुद्ध में ब्रिटिश के विजयी होने से लोगों के मन में यह आशा जगी थी कि भारत में शासन-व्यवस्था को उदार बनाया जाएगा। लेकिन जनता को ब्रिटिश सरकार द्वारा उपहार में जस्टिस सिडनी रॉलेट की अध्यक्षता में 10 दिसंबर 1917 को देशद्रोह के बारे में क़ानून बनाने के लिए एक समिति मिली। भारत सरकार ने राजद्रोह के प्रश्न की जांच के लिए न्यायमूर्ति रॉलेट, एक अंग्रेज न्यायाधीश के अधीन एक आयोग नियुक्त किया। अंग्रेज़ आतंकवादी गतिविधियों को दबाने के नाम पर भारतीयों के मौलिक अधिकारों का हनन करना चाहते थे। जुलाई 1918 में आयोग ने अपनी रिपोर्ट जारी की। रॉलेट की अध्यक्षता वाली इस कमेटी ने जो बिल तैयार किया था उसका नाम दिया गया रॉलेट बिल। रॉलेट कमेटी को जाँच कमेटी के रूप में नियुक्त किया गया था और इसे भारत में राजद्रोह की जाँच करने और इससे निपटने के उपाय सुझाने का काम सौंपा गया था। अस्वस्थ गांधीजी को पता चला कि राजद्रोह समिति रिपोर्ट प्रकाशित हो गयी है। बीमारी के बिछौने पर ही उन्होंने रॉलेट बिल की प्रति पढ़ी।  उन्होंने पाया कि नागरिकों की स्वतंत्रता पर प्रतिबन्ध लगाने के लिए सरकार विधेयक पेश करने जा रही है। भारतीय नेताओं में शायद अकेले गांधीजी ने ब्रिटेन की संकट की घड़ी में बिना किसी शर्त के सहयोग देने का आग्रह किया था, क्योंकि उन्हें आशा थी कि युद्ध की समाप्ति पर ब्रिटेन की ओर से सद्भावना का उचित प्रदर्शन होगा। अब उन्हें लगा कि रोटी के बदले पत्थर मिले हैं। युद्ध-काल में किसी भी तरह के संघर्ष से दूर रहने का उन्होंने हर संभव प्रयत्न किया था। अब शान्ति-काल में जो अन्याय किया गया, उसके विरोध में लड़ने के लिए वह तड़प उठे। उन्हें लगा, यदि शान्तिकाल में भारत को यही पुरस्कार मिलना था, तो होमरूल की आशा कैसे की जा सकती थी?

1919 में इंपीरियल लेजिस्लेटिव काउंसिल में बिल (रॉलेट विधेयक) पेश किया गया था जो भारत की रक्षा विनियम अधिनियम 1915 का विस्तार था। यह बिल वही था जिसे आधिकारिक तौर पर अराजक और क्रांतिकारी अपराध अधिनियम कहा जाता था, लेकिन लोकप्रिय रूप से रॉलेट एक्ट के रूप में जाना जाता था। गांधीजी दिल्ली आए। उन्होंने लेजिस्लेटिव काउंसिल में विधेयक पर हुई बहस के तहत भारतीय नेताओं के इस भयानक क़दम को वापस लेने के लिए दिए गए भावपूर्ण भाषण सुने। जिन्ना, जो काउंसिल का 1909 से ही सदस्य था, ने इस विधेयक का ज़ोरदार विरोध करते हुए  कहा, शांतिकाल में ऐसा दमनकारी क़ानून बनाने वाली सरकार निरी असभ्य और जंगली सरकार है आप लोगों को यह बता देना मेरा कर्तव्य है कि अगर यह क़ानून बन गया, तो आप देश के इस किनारे से उस किनारे तक ऐसी नाराज़गी और आन्दोलन पैदा कर देंगे जैसा कि आपने देखा नहीं है सर तेज बहादुर सप्रू ने कहा, यह बिल सैद्धांतिक दृष्टि से ग़लत, व्यावहारिक दृष्टि से दोषपूर्ण और अति व्यापक है। विट्ठलभाई पटेल ने कहा, यदि यह बिल पास हो जाए तो संवैधानिक सुधारों के लिए किए जानेवाले हमारे वैधानिक आंदोलन का गला ही घुट जाएगा। वायसराय मंत्रमुग्ध होकर भारतीय नेताओं की दलीलें सुन रहा था। गांधीजी को एक क्षण के लिए लगा कि शायद वायसराय प्रभावित हो रहा है। इम्पीरियल लेजिस्लेटिव काउंसिल के सभी निर्वाचित भारतीय सदस्यों ने बिल के खिलाफ मतदान किया, लेकिन वे अल्पमत में थे और आधिकारिक नामांकित व्यक्तियों द्वारा आसानी से खारिज कर दिए गए।  रॉलेट एक्ट पारित होने के साथ बहस समाप्त हो गयी। गांधीजी ने इसे वैधानिक औपचारिकताओं का नाटक कहा। उन्होंने आगे कहा, आसन्न सरकारी कानून अन्यायपूर्ण है, स्वतंत्रता के सिद्धांत को नष्ट करने वाला है और व्यक्तियों के उन बुनियादी अधिकारों को नष्ट करने वाला है, जिन पर समग्र रूप से समुदाय और राज्य की सुरक्षा आधारित है।

रॉलेट बिल क़ानून बना

राज पर जिन्ना की चेतावनी या गांधीजी की अपील का असर नहीं हुआ। काउंसिल तो मनोनीत लोगों से बनी थी। इम्पीरियल लेजिस्लेटिव काउंसिल ने चुन कर आये सभी भारतीयों का कड़ा विरोध होने पर भी रॉलेट विधेयक पास कर दिया। इस विधेयक द्वारा सरकार का उद्देश्य युद्धकालीन भारत रक्षा अधिनियम (1915) के दमनकारी प्रावधानों को स्थायी कानून द्वारा प्रतिस्थापित करना था। इस विधेयक में ब्रिटिश नीति का एक ऐसा प्रस्ताव था जिसमें क्रांतिकारी आंदोलन को दबाने के लिए खास क़ानून पास करने की व्यवस्था की गई थी। प्रेस पर सख्त नियंत्रण था और सरकार आतंकवाद या क्रांतिकारी रणनीति के रूप में विचार करने के लिए अधिकारियों द्वारा चुनी गई किसी भी चीज़ से निपटने के लिए कई तरह की शक्तियों से लैस थी। इसका साफ़ मतलब था कि अब अधिक स्वतंत्रता के बदले अधिक दमन होने वाला था। 22 मार्च, 1919 को वायसराय के हस्ताक्षर हो जाने बाद यह क़ानून बन गया जिसका नाम था Anarchical & Revolutionary Crime Act, 1919 (अराजक और क्रांतिकारी अपराध अधिनियम 1919)। जिस तरह से बिल पास किया गया था उसने गांधीजी की आंखें खोल दीं। गांधीजी ने लिखा था, सच में कोई सो गया हो तो उसे आप जगा सकते हैं, लेकिन अगर कोई सोने का बहाना मात्र कर रहा हो तो उसके कान पर ढोल बजाने से क्या होगा?

विधेयक के प्रावधान :

18 मार्च 1919 को रॉलेट एक्ट देश का कानून बन गया। पूरे भारत में बिजली का झटका लगा। क्या यह डोमिनियन स्टेटस की शुरुआत थी? क्या यह युद्ध में हुए खून-खराबे का इनाम था? यह विधेयक मार्च 1919 में पारित हुआ और सरकार के साथ इस पर चर्चा करने वाले लगभग सभी भारतीयों के आक्रोशपूर्ण विरोध के बावजूद यह देश का कानून बन गया। 1914-18 के विश्व युद्ध के दौरान अंग्रेजों ने प्रेस पर प्रतिबंध लगा दिया था और बिना जाँच के कारावास की अनुमति दे दी थी। अब सर सिडनी रॉलेट की अध्यक्षता वाली समिति की संस्तुतियों के आधार पर इन कठोर उपायों को जारी रखा गया। रॉलेट बिल में देशद्रोह की व्याख्या इतनी व्यापक रखी गई थी कि किसी प्रकार का आंदोलन या विरोध देशद्रोह में गिना जाता। अन्याय के प्रति आवाज़ उठाना गुनाह माना जाता। बिना वारंट के तलाशी, गिरफ़्तारी तथा बंदी प्रत्यक्षीकरण के अधिकार को रद्द करने की शक्ति थी। ऐसे अपराध की कड़ी सज़ाएं रखी गयी थी।

अपराधी को उसके खिलाफ मुक़दमा दर्ज करने वाले का नाम जानने का अधिकार नहीं था। मुकदमे के फैसले के बाद किसी उच्च न्यायालय में  अपराधी को अपील करने का भी अधिकार नहीं था। जजों को बिना जूरी की सहायता से सुनवाई करने का अधिकार दिया गया। कार्यवाही की रिपोर्ट प्रकाशित नहीं की जाएगीइन केसों को बंद कोर्टों में चलाने का प्रावधान था, ताकि किसी को इसका पता भी न चले। राजद्रोही दस्तावेज़ रखना एक गंभीर अपराध था जिसके लिए दो साल की कैद की सजा हो सकती थी उसे ऐसा कोई भाषण नहीं देना चाहिए या कुछ भी नहीं लिखना चाहिए जिससे सार्वजनिक उत्तेजना या शांति भंग हो, और उसे वहीं रहना चाहिए जहाँ सरकार चाहती है। ग़ुलामी की बेड़ियां और सख़्त करने की यह चाल थी। उन दिनों इस बिल का वर्णन आम तौर पर इन शब्दों में किया जाता था, न वकील, न अपील, न दलीलअभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जैसे मौलिक अधिकारों पर अंकुश लगाया गया और प्रेस की स्वतन्त्रता का दमन करने का प्रावधान था। भारतीय स्वाभिमान और स्वातंत्र्य को कुचलने की अंगेज़ों की यह कुचाल थी। यह नग्न तानाशाही था। भारतीयों ने इसे ‘काला बिल या ‘काला क़ानून कहना शुरू कर दिया था।

गांधीजी ने भारत के राष्ट्रीय आंदोलन की बागडोर संभाली :

जब भारतीयों ने युद्ध में अपने योगदान के लिए एक पुरस्कार के रूप में स्वशासन की दिशा में एक बड़ी प्रगति की उम्मीद की, तो उन्हें बहुत ही सीमित दायरे के साथ मोंटफोर्ड सुधार दिए गए और चौंकाने वाला दमनकारी रॉलेट एक्ट। भारतवासी उत्सुकता के साथ प्रतीक्षा कर रहे थे कि देखें गांधी जी क्या क़दम उठाने को कहते हैं। हालाकि जनवरी से गांधीजी बीमार थे। बीमारी के बाद अभी वे पूरी तरह स्वस्थ नहीं हो पाए थे और बिस्तर पर पड़े थे। लेकिन रॉलेट विधेयक कानून बन चुका था। गांधीजी को लगने लगा कि अब इस विधेयक के ख़िलाफ़ एक राष्ट्रीय स्तर पर संघर्ष छेड़ना ज़रूरी हो गया है। औपनिवेशिक शासकों ने गाँधीजी की झोली में एक ऐसा मुद्दा डाल दिया जिससे वे कहीं अधिक विस्तृत आंदोलन खड़ा कर सकते थे। इस घटना के बाद गांधीजी का यह विश्वास पक्का हो गया कि सरकार जनता की भावनाओं की ओर से पूरी तरह उदासीन है। इस सरकार को लोकमत की ज़रा-सी भी परवाह नहीं है। अनुभव और लोकप्रियता ने गांधीजी को अदम्य साहसी बना दिया। इसी साहस और विश्वास के कारण उन्होंने भारत के राष्ट्रीय आंदोलन की बागडोर संभाली। उन्हें लगा कि जब वैधानिक उपायों से रॉलेट विधेयकों के विरोध का कोई परिणाम नहीं निकला और वे पास हो गये, तो रॉलेट कानूनों को रद्द कराने के लिए सत्याग्रह के अस्त्र का प्रयोग करना ज़रूरी हो गया है। महात्मा गाँधी ने कहा कि यह मेरा दृढ़ विश्वास है कि हम मुक्ति केवल संघर्ष के द्वारा ही प्राप्त करेंगे न कि अंग्रेजों द्वारा हमें प्रदान किये जा रहे सुधारों से

"बहुत प्रार्थनापूर्ण विचार-विमर्श के बाद, और सरकार के रुख़ की बहुत सावधानीपूर्वक जाँच के बाद, मैंने विधेयकों के ख़िलाफ़ सत्याग्रह करने का संकल्प लिया है, और उन सभी पुरुषों और महिलाओं को आमंत्रित करता हूँ जो मेरे साथ सोचते और महसूस करते हैं कि वे भी ऐसा ही करें। इस बीच, उन्होंने पत्र और प्रेस के माध्यम से वायसराय से कानून को मंजूरी न देने की अपील की।

आन्दोलन के लिए कारण और सत्याग्रह सभा

उस समय भारत में ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ सभी स्तरों पर गहरा आक्रोश था। युद्ध के दौर में एक तरफ जहां विदेशी आयात लगभग बंद हो गया था वहीं दूसरी तरफ ब्रिटेन की युद्धकालीन आवश्यकताएं बढ़ गई थीं। इसकी भरपाई भारत में उत्पादन बढाकर किया गया। इससे यहाँ का उद्योग व्यापार कुछ संपन्न हुआ और भारतीय पूंजीपति औद्योगिक नीति में एक बड़े परिवर्तन की आशा कर रहे थे, जो उन्हें नहीं मिला। विश्वयुद्ध के दौरान लाखों की संख्या में भारतीय सैनिकों की भर्ती की गई थी। इतनी बड़ी सेना के रख-रखाव में भारी खर्च आ रहा था। भारी रक्षा व्यय का बोझ आम जनता को उठाना पड रहा था। सैनिकों के लिए भारी मात्रा में खाद्यान्न बाहर जा रहा था, जिसके कारण देश में खाद्यान्न में कमी आ गई थी। इसके परिणामस्वरूप आवश्यक सामानों की मूल्य वृद्धि हो रही थी। हर तरफ ज़रूरी सामानों की कमी हो गई थी। ऊपर से प्रकृति का कहर भी देशवासियों को झेलना पडा। अकाल और महामारी के कारण देश में काफी जन-धन की हानि हुई। पीपुल्स बैंक का दिवाला पिट गया था। कारखानों की बंदी और बेरोज़गारी बढ़ी। किसान लगान और कर के भारी बोझ से दबे हुए थे। राजनैतिक क्षेत्र में भी जनता का मोहभंग हुआ। युद्ध के बाद लोगों को यह स्पष्ट हो गया कि सरकार उपनिवेशवाद की समाप्ति के लिए तैयार नहीं है। रूस में क्रान्ति हो चुकी थी और यह तथ्य उजागर हुआ था की आम जनता में अपार बल और शक्ति है। सुधारों के लिए जो प्रयत्न हुए थे वह काफी निराशाजनक थे। सुधारों को लेकर गांधीजी की शुरूआती प्रतिक्रिया अनुकूल थी, लेकिन इन सब परिस्थितियों के बीच ब्रिटिश शासन ने रॉलेट एक्ट के रूप में एक अत्याचारी क़ानून दे दिया था। इसने गांधीजी की आंखें खोल दी। आन्दोलन खड़ा करने के लिए देश में वातावरण तैयार था। गांधीजी ने कहा था, वे नागरिक सेवा के आघात करने वाले साधन हैं, हमारे गले पर अपनी गिरफ्त को मज़बूत बनाए रखने के लिए। मेरे विचार से विधेयक हमारे लिए एक खुली चुनौती है। अखिल भारतीय स्तर पर रॉलेट एक्ट का विरोध करने के लिए एक अनूठा और व्यावहारिक ढंग गांधीजी ने सुझाया, वह था सत्याग्रह। 25 फरवरी 1919 को उदारवादी नेता दिनशॉ वाचा लिखे पत्र में उन्होंने इस तर्क के साथ अपना कार्यक्रम स्वीकार करने का आग्रह किया कि ‘बढ़ती पीढ़ी याचिकाओं आदि से संतुष्ट नहीं होगी.... मुझे लगता है कि आतंकवाद को रोकने के लिए सत्याग्रह ही एकमात्र रास्ता है’। चूंकि मौजूदा संस्थाओं में से किसी के भी सत्याग्रह जैसे नए हथियार को अपनाने की सारी उम्मीदें गांधीजी को व्यर्थ लग रही थीं, इसलिए उनके कहने पर 24 फरवरी 1919 को बंबई में सत्याग्रह सभा नामक एक अलग संस्था की स्थापना की गई। इसके मुख्य सदस्य बंबई से चुने गए, इसलिए इसका मुख्यालय वहीं तय किया गया। गांधीजी सत्याग्रह सभा के अध्यक्ष बने। इस सभा में श्रीमती नायडू, हॉर्नीमैन, जमनादास द्वारकादास, एल.आर. तारसी, शंकरलाल बैंकर, वल्लभभाई पटेल और कई अन्य लोग शामिल थे। गांधीजी अब सार्वजनिक जीवन में एक प्रमुख स्थान पर आ गए थे। आगामी सुधारों का मुद्दा पृष्ठभूमि में चला गया और रॉलेट बिल आलोचना का लक्ष्य बन गए।

एक प्रतिज्ञा-पत्र तैयार किया गया। इस बिल के विरोध में सभी भारतीय नेताओं ने अभूतपूर्व एकता दिखाई। फरवरी में गांधी जी ने रॉलेट विधेयकों के विरोध में प्रतिज्ञापत्र का प्रारूप तैयार करके प्रकाशित कर दिया। प्रमुख लोगों ने इस पर हस्ताक्षर किए। इसमें कहा गया थाः यदि ये विधेयक कानून बन गए तो जब तक इन्हें वापस नहीं लिया जाएगा तब तक हम इन तथा अन्य ऐसे कानूनों को भी, जिन्हें इसके बाद नियुक्त की जाने वाली समिति उचित समझेगी, मानने से नम्रता पूर्वक इनकार कर देंगे। हम यह प्रतिज्ञा भी करते हैं कि इस संघर्ष में दृढ़ता से सत्य का पालन करेंगे और किसी की जान माल को हानि नहीं पहुंचाएंगे।

बम्बई में छह सौ पुरुषों और महिलाओं ने सत्याग्रह प्रतिज्ञा पर हस्ताक्षर किए। गांधी खुश थे। उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में कम संख्या के साथ जीत हासिल की थी। अन्य शहरों और कई गांवों में शपथ ली जा रही थी। गांधी ने बम्बई में घोषणा की, 'भारत सरकार जैसी शक्तिशाली सरकार को भी झुकना पड़ेगा, अगर हम अपनी प्रतिज्ञा के प्रति सच्चे हैं। क्योंकि, प्रतिज्ञा कोई छोटी बात नहीं है। इसका मतलब है हृदय परिवर्तन। यह राजनीति में धार्मिक भावना को शामिल करने का एक प्रयास है। हम अब "जैसे को तैसा" के सिद्धांत पर विश्वास नहीं कर सकते हैं; हम नफरत का जवाब नफरत से, हिंसा का जवाब हिंसा से, बुराई का जवाब बुराई से नहीं दे सकते हैं, लेकिन हमें बुराई के बदले अच्छाई का जवाब देने के लिए निरंतर और लगातार प्रयास करना होगा... कुछ भी असंभव नहीं है।'

महात्माजी का राजाजी से परिचय

सत्याग्रह सभा काफ़ी नहीं था। सिर्फ़ दिल्ली और मुंबई की जनता से यह आन्दोलन प्रभावकारी नहीं होने वाला था। पूरे देश में अवज्ञा के लिए जनता को जगाना होगा। दक्षिण को इस आन्दोलन में शामिल करना बहुत ही ज़रूरी हो गया था। इसलिए गांधीजी कस्तूरी रंगा के निमंत्रण को स्वीकार कर कस्तूरबा और महादेव देसाई के साथ मद्रास गए। उन्हें राजगोपालाचारी के घर ठहराया गया। इस प्रकार महात्माजी का परिचय राजाजी से हुआ। गांधीजी दिन-रात रॉलेट एक्ट के विरोध के तौर-तरीक़े के बारे में सोचते रहते थे। वह यह नहीं समझ पा रहे थे कि अगर रॉलेट बिल कानून बन जाता है तो उसके खिलाफ सविनय अवज्ञा कैसे पेश की जाए। एक दिन वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि इस काले क़ानून के विरोध में सारे देश में हड़ताल होनी चाहिए। उन्होंने अपने विचार से राजाजी को अवगत कराया। सत्याग्रह आत्म शुद्धि की प्रक्रिया है। स्वमान का रक्षण करना धर्मयुद्ध है। इसलिए सारे देश को एक दिन की हड़ताल करनी चाहिए। उस दिन उपवास और प्रार्थनाएं होनी चाहिए। राजाजी को यह प्रस्ताव पसंद आया। अंततः इस सत्याग्रह के तहत चुने गए विरोध के रूपों में उपवास और प्रार्थना के साथ एक राष्ट्रव्यापी हड़ताल का पालन, और विशिष्ट कानूनों के खिलाफ सविनय अवज्ञा, और गिरफ्तारी और कारावास को शामिल किया गया।

हड़ताल का दिन घोषित

रॉलेट क़ानून बन जाने के बाद 23 मार्च को गांधीजी ने एक छोटे-से वक्तव्य द्वारा 30 मार्च, 1919 को हड़ताल का दिन घोषित कर दिया। पांच दिन बाद, 27 मार्च को जिन्ना ने इस `काले क़ानून के खिलाफ इम्पीरियल काउंसिल से इस्तीफा दे दिया। गांधीजी के पास समय कम था, और तैयारियां पूरी नहीं हो पाई थीं, इसलिए इस दिन को बदलना पड़ा और 6 अप्रैल को हड़ताल का दिन रखा गया। तार द्वारा इसकी सूचना सभी को भेजी गई। गांधीजी की हड़ताल का विचार पूरे भारत में फैल गया। इसने आम कार्रवाई में बहुत से लोगों को एकजुट किया; इसने लोगों को शक्ति का अहसास कराया। भारतीय लोगों को जिस चीज की सबसे ज्यादा जरूरत थी और जिसकी सबसे ज्यादा कमी थी, वह था खुद पर भरोसा। गांधीजी ने उन्हें यह दिया।

‘सत्याग्रह सभा’ के नाम से जो नया संगठन बनाया गया था, उस संगठन में कुछ चुने हुए लोग थे जो क़ानून को भंग कर अपने आपको गिरफ़्तार कराने के लिए तैयार थे। उस समय भारत में यह बिलकुल नया विचार था। सत्याग्रह के नाम पर जहां एक ओर बहुत से लोग उत्तेजित हुए वहीं दूसरी ओर कई पीछे भी हटे। दोनों होमरूल लीग, कुछ अखिल भारतीय इस्लामी समूहों और सत्याग्रह सभा ने सत्याग्रह के आयोजन में गांधीजी का सहयोग देने का आश्वासन किया। जमनादास द्वारकादास, शंकरलाल बैंकर, उमर सोभानी और बी.जी. हर्निमन जैसे बंबई के होमरूल के कार्यकर्ताओं ने सत्याग्रह सभा के लिए धन जुटाया। तिलक किसी केस के सिलसिले में लंदन में थे। उनके कुछ सहयोगी जैसे एन.सी. केलकर और जी.सी. खपर्डे इससे अलग ही रहे। अब्दुल बारी ने सत्याग्रह का समर्थन करने का निर्णय लिया। स्वयं गांधीजी जनता को `सत्याग्रह` का अर्थ समझाने के लिए देश-व्यापी दौरा पर निकल पड़ेउनके भाषण अक्सर महादेव देसाई द्वारा पढ़े जाते थे, क्योंकि उनकी आवाज़ अभी भी कमज़ोर थी और उनका शरीर अभी भी कमज़ोर था। बंबई, दिल्ली, इलाहाबाद, लखनऊ और दक्षिण भारत का दौरा समाप्त कर वे 4 अप्रैल को बंबई (मुंबई) पहुंचे। गांधीजी को इतना समय नहीं था कि वे पंजाब की यात्रा कर पाते। ऐसा प्रतीत होता है कि संगठनात्मक तैयारी सीमित और अपर्याप्त थी।

सत्याग्रह आंदोलन

गांधीजी द्वारा प्रेरित और आरंभ किया गया रॉलेट एक्ट सत्याग्रह, राष्ट्रीय स्तर पर उनका पहला राजनीतिक अभियान था। भारतीय राष्ट्रीय स्वतन्त्रता संग्राम की अब तक की स्थिति में आमूल-चूल परिवर्तन आ चुका था। जनता को गांधीजी के द्वारा एक दिशा मिल गई थी; अब वे अपनी शिकायतों को केवल मौखिक अभिव्यक्ति देने के बजाय कार्यात्मक रूप से व्यक्त कर सकते थे। अब से, किसानों, कारीगरों और शहरी गरीबों को संघर्ष में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभानी थी। अब राष्ट्रीय आंदोलन का झुकाव स्थायी रूप से जनता की ओर हो गया। गांधीजी का कहना था कि अंग्रेजों से मुक्ति तब मिलेगी जब जनता जागृत होगी और राजनीति में सक्रिय होगी। कुछ ही दिनों में यह बिल देश के कोने-कोने में काले बिल के नाम से पुकारा जाने लगा। सभी वर्ग के लोगों ने इसकी निंदा की। गांधीजी के आह्वान पर देश के देश के कोने-कोने में रॉलेट बिल के विरोध का स्वर गूंज उठा। सबसे पहले गांधीजी ने वायसराय के पास एक अपील भेजी एक नम्र अपील, पर उसमें चेतावनी भी थी। जब उन्होंने देखा कि सभी वर्गों के विरोध के बावज़ूद ब्रिटिश हुक़ूमत रॉलेट बिल को क़ानून का रूप देने तुली हुई है, तो उन्होंने क़ानून बनाने के बाद के पहले रविवार को ही सारे देश में शोक मनाने, हड़ताल करने, हर तरह का काम बंद रखने और सभाएं करने की अपील की। अपील में कहा गया था रविवार 6 अप्रैल 1919 को सारे देश में गांव-गांव, शहर-शहर में सत्याग्रह दिवस मनाया जाए। इसे प्रार्थना और उपवास दिवस के रूप में मनाया जाए। इस अपील में एक प्रकार की धार्मिकता का भाव था। इसका परिणाम भी वैसा हुआ जैसा पहले कभी नहीं सुना गया था। समूचा भारत हड़ताल पर था। महानगरों में कोई काम-काज नहीं हुआ। उत्तरी और पश्चिमी भारत के कस्बों में चारों तरफ़ बंद के समर्थन में दुकानों और स्कूलों के बंद होने के कारण जीवन लगभग ठहर सा गया था। पंजाब में, विशेष रूप से कड़ा विरोध हुआ, जहाँ के बहुत से लोगों ने युद्ध में अंग्रेजों के पक्ष में सेवा की थी और अब अपनी सेवा के बदले वे इनाम की अपेक्षा कर रहे थे। लेकिन इसकी जगह उन्हें रॉलेट एक्ट दिया गया।

स्वामी श्रद्धानंद

आर्यसमाजी नेता स्वामी श्रद्धानंद ने सत्याग्रह के कार्यक्रम में लगान की नाअदायगी का अह्वान करने का सुझाव दिया था, जिसे गांधीजी ने अस्वीकार कर दिया। तार पहुंचने में देरी के कारण दिल्ली में स्वामी श्रद्धानंदजी ने 30 मार्च को ही हड़ताल कर दी। उन दिनों में दिल्ली के हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच गजब का भाईचारा था। स्वामी श्रद्धानंद, एक शिक्षक, जिनका हरिद्वार के पास गुरुकुल शांतिनिकेतन में टैगोर के स्कूल जितना ही प्रसिद्ध था, को जामा मस्जिद में बोलने के लिए आमंत्रित किया गया, और यह निमंत्रण एक क्रांतिकारी था, क्योंकि किसी भी हिंदू विद्वान को मस्जिद में बोलने के लिए आमंत्रित नहीं किया गया था। आर्यसमाज के नेता स्वामी श्रद्धानंद और हकीम साहब ने जामा मस्जिद में एक विशाल सभा को संबोधित किया। बाद में उन्होंने पुरानी दिल्ली की मुख्य सड़क चांदनी चौक पर मार्च करने वाले विशाल जुलूस का नेतृत्व किया। हिन्दू-मुसलमान एक होकर हड़ताल में शामिल हुए। दिल्ली शहर ठप्प हो गया। गोरखा सैनिकों ने जुलूस को तोड़ने का प्रयास किया। लोगों के प्रदर्शन को पुलिस सहन न कर पाई और निःशस्त्रों पर गोली चलाई गई। अनेकों लोग शहीद हुए। अनगिनत घायल हुए। स्वामी श्रद्धानंद ने चांदनी चौक में गुरखों की संगीनों का सामना करने के लिए अपनी छाती आगे कर दी। ये संगीनें उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकीं। श्रद्धानंदजी ने गांधीजी को तुरंत दिल्ली बुलाया। गांधीजी ने तार भेजा कि वह बंबई में 6 अप्रैल का समारोह समाप्त होते ही तुरंत दिल्ली के लिए रवाना हो जाएंगे।

सरकार का दमन-चक्र

ब्रिटिशों ने इस सत्याग्रह को ‘राजद्रोह’ की संज्ञा दी। इससे निपटने की हरसंभव कोशिश की।  सरकार ने दमन-चक्र तेज़ कर दिया। इस घटना से सारे देश में रोमांच फैल गया। सारे उत्तर भारत में जबरदस्त हड़ताल हुई। लाहौर, अमृतसर, अंबाला, जलंधर में आन्दोलन की आग तेज़ हो गई। जिन्ना के, जिसने इम्पीरियल काउंसिल से इस्तीफा दे दिया था, इस्तीफे से वैसा हंगामा नहीं मचा जैसा गांधीजी की अपील पर हुआ था। विरोध से भी आगे बढकर इस क़ानून का उल्लंघन करने के लिए तैयार देश ने गांधीजी की अपील को सुना और उन्हें महात्मा कहकर सम्मानित किया। गांधीजी का देश के क्षितिज पर नक्षत्र की भाँति उदय हो चुका था! गांधीजी वह जगह ले चुके थे, जिसका हमेशा से ही जिन्ना खुद को हक़दार मानता था, और जिसके लिए वह काफी समय से प्रयास कर रहा था और लगभग वहाँ पहुँच ही गया था।

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मनोज कुमार

 

पिछली कड़ियां-  राष्ट्रीय आन्दोलन

संदर्भ : यहाँ पर