गुरुवार, 13 फ़रवरी 2025

278. भय और अभय

राष्ट्रीय आन्दोलन

278. भय और अभय



1920

गांधी जी के नेतृत्व में देश के राजनैतिक संघर्ष ने एक नया रूप ग्रहण कर लिया। जब उन्होंने कहा, जो लोग किसानों और मज़दूरों का शोषण करके जीवित रहते हैं, वे उन पर से अपना बोझ हटा लें और उस कुरीति को मिटा दें, जो उनकी निर्धनता और विपदा को जन्म देती है, तो लोगों को लगा कि उनकी बातें सदा जनता के कल्याण को दृष्टि में रखते हुए होती हैं। उन्होंने लोगों से कहा अभय और सत्य से काम करो। अभय व्यक्ति और राष्ट्र की सबसे बड़ी निधि है। उसका अभिप्राय केवल शारीरिक साहस से ही नहीं, बल्कि मानसिक निर्भयता से भी है। चाणक्य और याज्ञवल्क्य ने कहा था कि जन-नेताओं का कर्तव्य जनता को अभय दान देना है। किंतु ब्रिटिशराज में भारत में सबसे प्रमुख भावना भय की थी। भारत में साम्राज्यवाद की विशेषता यह थी कि ब्रिटिश शासकों के भयानक दमनचक्र ने भय और आतंक का साम्राज्य फैला रखा था। चारों तरफ सर्वव्यापी, दुखदायी और गला घोंटने वाला भय पसरा हुआ था। फौज और उनकी गोलियों का भय तो था ही, कोने-कोने में फैली हुई खुफ़िया पुलिस का भय था, बे-वजह क़ैद में डाल दिए जाने का भय था, ज़मींदार के गुमाश्ते का भय था, कोड़े लगाए जाने का भय था, महाजन का भय था और बेकारी, भूख और अकाल का भय था। गांधीजी ने इस भय के विरुद्ध अपनी आवाज़ बुलंद की, कहा डरो मत! ... और भयभीत लोगों को एक मन्त्र दिया, ‘सत्याग्रह का मन्त्र ! इस मन्त्र ने अभय का वरदान दिया और इस वरदान ने उस आधारशिला को उखाड फेंका जिस पर ब्रिटिश साम्राज्यवाद की इमारत टिकी थी।

महात्मा गांधी ने जनता के समक्ष स्वराज्य के रूप में रामराज्य का रूपक प्रस्तुत किया था। उनकी परिकल्पना में न्याय आधारित समाज की अवधारणा थी। महात्मा गांधी राम के नाम पर पारदर्शी और जवाबदेह लोकतंत्र चाहते थे जिसकी स्थापना सत्य पर आधारित हो।

अभय यानी निर्भयता के बारे में मनोवैज्ञानिक बताते हैं कि डर सभी जीवों में भूख, नींद और यौन इच्छा के समान एक स्वाभाविक प्रतिक्रिया है। फिर कोई यह कैसे प्रतिज्ञा कर सकता है कि "मैं डर का अनुभव नहीं करूँगा"? और फिर भी निर्भयता अधिकांश अन्य गुणों की रीढ़ है। गांधीजी ने निर्भयता के महत्व को आंशिक रूप से इसलिए समझा क्योंकि वे बचपन में डरपोक थे, हर तरह के डर से भरे हुए। बाद में उन्होंने सचेत रूप से खुद को निर्भयता के लिए प्रशिक्षित किया। गीता में अभय को दैवी गुणों में सबसे ऊपर रखा गया है। अनेक भक्त कवि आध्यात्मिक जीवन में निर्भयता का गुणगान करते हैं। भय असंख्य हैं। कुछ लोग इनमें से कुछ भय से छुटकारा पा लेते हैं, जबकि अन्य लोग अन्य भय पर विजय पाने के लिए संघर्ष करते हैं। सत्य को प्राप्त करने के लिए सभी भय को दूर करना आवश्यक है, जो शायद ही संभव हो। इसलिए, एक सत्याग्रही को यथासंभव सभी प्रकार के भय से खुद को मुक्त करने का प्रयास करना चाहिए।

चंपारण, खेडा, अहमदाबाद और रॉलेट सत्याग्रह की सफलता के बाद ब्रिटिश-साम्राज्यवाद के विरुद्ध सशक्त संघर्ष शुरू करने के उद्देश्य से गांधीजी ने 1 अगस्त, 1920 से असहयोग आन्दोलन शुरू करने की घोषणा की उन्होंने कहा, कुशासक को किसी भी तरह का सहयोग देने के प्रजा के अनंतकालीन अधिकार का उपयोग करेंगे। गांधीजी ने लोगों को समझाते हुए कहा था, मनुष्यों की तरह राष्ट्र भी अपनी ख़ुद की कमज़ोरी के कारण आज़ादी खोते हैं। अंग्रेज़ों ने भारत को नहीं पाया है; हमने उनको दिया है। वे भारत में अपनी ताकत के बल पर नहीं हैं, बल्कि हमने उनको रखा हुआ है। भारतीय जनता इतने वर्षों से स्वेच्छापूर्वक और चुप साधकर जो सहयोग देती आ रही है, अगर उसे देना बंद कर दे तो ब्रिटिश साम्राज्य का भहराकर गिरना अनिवार्य है।

गांधीजी के सत्याग्रह के दो प्रमुख तत्त्व थे, सत्य और अहिंसा। गांधीजी ने इसकी विशेषता को समझाते हुए कहा था, कि सत्याग्रह आत्मा की शक्ति है, जो सत्य और अहिंसा से जन्मी है। एक सत्याग्रही हर उस चीज़ के सामने झुकाने से इंकार कर देगा जो उसकी दृष्टि में ग़लत होगी। वह सत्य का प्रतिपादन करेगा, लेकिन विरोधी को आघात पहुंचाकर नहीं, वरण स्वयं को पीड़ित करके। सत्याग्रही के लिए ज़रूरी है कि वह भय, घृणा और असत्य से पूरी तौर पर मुक्त रहे। उनके अनुसार सत्याग्रह कमजोरों का नहीं, बलवानों का हथियार है। इसमें कोई शक नहीं कि ब्रितानी सरकार एक शक्तिशाली सरकार थी। लेकिन सत्याग्रह अंग्रेजों के अत्याचार का मुकाबला करने के लिए सबसे कारगर उपाय साबित हुआ। चंपारण, अहमदाबाद और खेडा में इसका उपयोग किया गया। शताब्दियों से निष्क्रियता में सोते हुए गांवों को इसने जगा दिया। गांधीजी ने किसानों को सत्याग्रह करने के लिए संगठित किया। किसानों ने लगान देने से इंकार किया। इसके एवज़ में वे कोई भी परिणाम भुगतने को तैयार थे। यहाँ तक कि जो लोग लगान अदा कर सकते थे उन्होंने ने भी सिद्धांत के नाम पर सख्ती और कुर्की की सारी धमकियों के बावजूद उसका भुगतान करने मना कर दिया। सरकार झुकी और समझौता करने को विवश हुई। किसानों और मज़दूरों का मनोबल जागा।

गांधीजी के राष्ट्रीय आन्दोलन की बागडोर लेने के पहले तक भारत का राष्ट्रीय आंदोलन शहरों के निम्न और मध्यवर्ग तथा शिक्षित लोगों का विषय था। गांधीजी ने इस आंदोलन की इस दशा और दिशा में बदलाव लाया। उनके आने के साथ-साथ जनता सहसा आन्दोलन की सक्रिय भागीदार बन गयी। वे आम जनता का प्रतिनिधित्व करते थे। उन्होंने अपने निजी जीवन को जिस ढर्रे पर चलाया उससे ग्रामीणों ने खुद को एकाकार कर लिया। उन्होंने जिस भाषा का प्रयोग किया उसे वे आसानी से समझ लेते थे। गांधीजी भारत की आत्मा और मर्यादा के प्रतीक बन गए थे। वे जन-साधारण की आवाज़ बन कर सामने आए। वे आम जनता को ऊंचा उठाने की आकांक्षा के साथ सामने आए। उन्होंने दलित, पिछड़े, ग़रीब, निराश जनता को ऐसा बना दिया जिसमें आत्म-सम्मान की भावना जाग उठी, जिसे अपने पर भरोसा होने लगा। उनके अन्दर एक मानसिक निर्भयता की भावना का विकास हुआ। एक बड़े हित के लिए वे मिलकर काम करने लगे। उनमें खुद पर भरोसा जगा। गांधीजी ने उन्हें इस योग्य बना दिया कि वे अब देश की राजनीतिक और आर्थिक समस्याओं पर भी विचार करने लगे। यह एक अद्भुत मनोवैज्ञानिक परिवर्तन था।  इस काल में अद्भुत जन-जागृति हुई। अब सामाजिक समस्याओं को गंभीरतापूर्वक देखा जाने लगा। उसे महत्व दिया जाने लगा। चाहे उससे धनी वर्ग को नुकसान ही क्यों न पहुंचता हो, आम जनता को ऊपर उठाने की बात बार-बार ज़ोर देकर कही जाने लगी। राष्ट्रीय आंदोलन की प्रकृति में यह जबर्दस्त परिवर्तन था। उन्होंने राष्ट्रीय आंदोलन को एक नई दिशा दिखाई।

गांधीजी जिस राह पर राष्ट्रीय आन्दोलन को ले जा रहे थे, उस पर सत्य और अहिंसा का प्रकाशपुंज फैला हुआ था। इससे भय का काला अन्धेरा लोगों की आंखों पर से हटने लगा। जिस तरह भय और झूठ में घनिष्ठ मित्रता है, उसी तरह सत्य और अभय में भी। जैसे-जैसे असत्य कमता गया, सत्य पर चलने की भावना बढ़ती गई, वैसे-वैसे परिवर्तन की लहर चारों ओर दिखाई देने लगी। गांधीजी कट्टर सत्य के प्रतीक बने। वे लोगों को सहारा देते रहे। उन्हें सत्य की डगर पर चलने की आदत डालते रहे। ज्यों-ज्यों असहयोग आंदोलन ज़ोर पकड़ता जा रहा था, त्यों-त्यों अंग्रेज़ी सत्ता का भय लोगों के मन से ग़ायब होता जा रहा था। ‘एक साल में स्वराज्य’ के नारे लगाए जा रहे थे। 1920 में गांधीजी द्वारा एक वर्ष के भीतर स्वराज लाने के वादे ने आशाओं और आकांक्षाओं को बहुत बढ़ा दिया था। असहयोग आंदोलन ने अंग्रेज़ी राज के ख़िलाफ़ पूरे देश में बिजली-सी लहर पैदा की। लोगों में अभूतपूर्व उत्साह की भावना पैदा हुई। जनता में, उसकी आर्थिक समस्याओं और राजनीतिक मसलों, विशेषकर साम्राज्यवाद की चेतना जगाने में उस आंदोलन ने महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की। यहां तक कि सीधे-सादे ग्रामीणों ने भी यह महसूस करना शुरु किया कि उनकी तकलीफ़ों को दूर करने की सबसे अच्छी दवा स्वराज है। राष्ट्रीय संघर्ष में हिस्सा लेकर उन्होंने स्वाधीनता के एक नये बोध का अनुभव किया। राज के डर पर विजय पा ली गयी थी। इस आंदोलन ने भारत के लोगों को अपने पर भरोसा रखना और अपनी शक्ति बढ़ाना सिखाया। साधारण लोगों ने, स्त्रियों और पुरुषों ने, धनिक और ग़रीब ने, सरकार की अवज्ञा करके दंड के रूप में तकलीफ़ें बर्दाश्त करने की इच्छा और क्षमता दिखाई। सारे देश को गांधीजी ने ‘साहस और बलिदान’ के गुरुमंत्र से दीक्षित कर दिया था। एक तरफ़ गांवों में कृषक आन्दोलन था, तो दूसरी तरफ़ शहरों में मज़दूर आंदोलन था। हां इन सब के बीच राष्ट्रीयता और आदर्शवाद की लहर भिन्न-भिन्न और एक दूसरे के विरोधी असंतुष्ट तत्वों को एक सूत्र में बांधे रखने का काम कर रहे थे। सरकार चिंतित और परेशान थी।

देश के विभिन्न भागों का दौरा कर गांधीजी छोटे-से-छोटे कार्यकर्ताओं से सम्पर्क बनाए हुए थे तथा उन्हें उचित दिशा-निर्देश दे रहे थे। ‘यंग इंडिया’ और ‘नवजीवन’ में लगातार लेख लिखकर आंदोलन के महत्त्व को समझाते रहते। उन्होंने कहा था, भारत अंग्रेज़ों की तोपों की ज़ोर से नहीं, ख़ुद हिन्दुस्तानियों की खामियों और कमज़ोरियों की वजह से ग़ुलाम हुआ है। जिस दिन भारत अपने को अस्पृश्यता, क़ौमी झगड़े, नशाखोरी, विदेशी कपड़ों और अंग्रेज़ी सरकार द्वारा संचालित या सहायता प्राप्त संस्थानों की ग़ुलामी से मुक्त कर लेगा, उसमें एक नई शक्ति का संचार हो जाएगा। स्वराज्य ब्रिटिश पार्लियामेंट से इनाम के तौर पर मिलने वाला नहीं है। स्वराज भगवान भी नहीं दे सकता। उसे तो हमीं को अर्जित करना होगा।

बड़ौदा के एक भूतपूर्व मुख्य न्यायाधीश, अब्बास तैयबजी ने एक गांव से लिखा था : लगता है, मेरी आयु बीस वर्ष कम हो गई है।हे भगवान ! कैसा विलक्षण अनुभव है। साधारण व्यक्ति के लिए मेरे हृदय में प्यार उमड़ रहा है और स्वयं भी साधारण व्यक्ति हो जाना कितने बड़े सम्मान की बात है। यह फकीरी पहनावे का जादू है, जिससे सारे भेद-भाव समाप्त हो गए हैं। असहयोग के इन्हीं दिनों के बारे में जवाहरलाल नेहरू ने अपनी आत्मकथा में लिखा है मैं आन्दोलन में इस प्रकार तल्लीन हो गया था कि पुराने सम्बन्धों, मित्रों और पुस्तकों को छोड़ बैठा। अखबार भी केवल आन्दोलन के समाचार के लिए पढ़ता थायहां तक कि अपने परिवार, पत्नी और बेटी को भी करीब-करीब भूल बैठा था।

यह बात तो तय थी कि हिंसात्मक संघर्ष के लिए भारत ब्रिटिश-सरकार के ख़िलाफ़ चाहे कितना भी ज़ोर आजमाइश कर लेता, उसके संगठित बल की बराबरी नहीं कर सकता था। इस आंदोलन ने भारत के लोगों को अपने पर भरोसा रखना और अपनी शक्ति बढ़ाना सिखाया। सत्याग्रह और असहयोग यह एक शांतिपूर्ण विद्रोह था, लेकिन शासक वर्ग के स्थायित्व के लिए बहुत खतरनाक था। लोग निडर होकर ब्रिटिश हुक़ूमत से आंख मिलाने लगे। एक रैयत ने जांच समिति के समक्ष कहा था, अब गांधीजी आ गए हैं, तो काश्तकारों को राक्षस निलहों का कोई भय नहीं है। असहयोग आंदोलनों ने न सिर्फ महात्मा गांधी को देश का प्रमुख नेता बना दिया, बल्कि देश को दो बातें दीं राष्ट्रीय स्वतंत्रता का लक्ष्य और पददलितों के शोषण का अंत। अतः हम निश्चित तौर पर यह कह सकते हैं कि गांधीजी द्वारा चलाए गए सत्याग्रहों ने भारतीयों के बीच भय के दौर को समाप्त किया था और इस प्रकार साम्राज्यवाद के एक महत्त्वपूर्ण खम्भे के उखाड़ फेंका था

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मनोज कुमार

 

पिछली कड़ियां-  राष्ट्रीय आन्दोलन

संदर्भ : यहाँ पर

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