राष्ट्रीय आन्दोलन
289. किसान और
आदिवासी आंदोलन
1922
स्थापित सत्ता के खिलाफ किसानों का असंतोष उन्नीसवीं सदी की
एक जानी-पहचानी विशेषता थी। बीसवीं सदी में, इस असंतोष से
उभरे आंदोलनों की एक नई विशेषता थी: वे राष्ट्रीय स्वतंत्रता के लिए चल रहे संघर्ष
से गहराई से प्रभावित थे और बदले में उनका उस पर एक उल्लेखनीय प्रभाव था। असहयोग
आंदोलन से अनजाने ही अनेक क्षेत्रों में आदिवासियों और किसानों का स्वतःस्फूर्त
विद्रोह उठ खड़ा हुआ। यह आंदोलन असहयोग आंदोलन के वापस ले लेने के बाद भी शांत नहीं
हुआ। गोदावरी के क्षेत्र में अल्लूरी सीताराम राजू ने छापामार युद्ध छेड़
रखा था। वे एक विलक्षण व्यक्ति थे। अपने विरोध के कारण वे आंध्र में लोकनायक बन
गए। वे गांधीजी की बड़ी प्रशंसा किया करते थे। 6 मई, 1924 को उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया
और कुछ ही दिनों में उनको गोली मार दी गई। स्वामी विद्यानंद ने ज़मींदारी
प्रथा समाप्त करने की मांग उठाई थी। किसानों की मांग मुख्यतः लगानों में कमी करने
की होती थी। बंटाईदार फसल का अधिक न्यायपूर्ण बंटवारा चाहते थे। तटीय आंध्र प्रदेश में एन.जी. रंगा ने किसानों के ऊपरी
वर्ग के बीच कार्य किया था। बाद में सरदार पटेल भी किसानों के लोकप्रिय नेता के
रूप में उभरे और गांधीजी के सहयोगी के रूप में काम किया। बीसवीं सड़ी के दूसरे और
तीसरे दशक में उभरे देश के तीन महत्वपूर्ण किसान संघर्षों में से एक था उत्तर
प्रदेश के अवध में किसान सभा और एका आंदोलन, दूसरा मालाबार
में मप्पिला विद्रोह और तीसरा गुजरात में बारडोली सत्याग्रह।
अवध
में ‘एका आंदोलन’
1856 में अवध के विलय के बाद, उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में प्रांत के कृषि
समाज पर तालुकदारों या बड़े जमींदारों की पकड़ मजबूत होती गई। इससे ऐसी स्थिति
पैदा हो गई थी जिसमें अत्यधिक किराया, अवैध कर, नवीनीकरण शुल्क या नज़राना और मनमाने ढंग से बेदखली ने
अधिकांश किसानों का जीवन दयनीय बना दिया था। प्रथम विश्व युद्ध के साथ-साथ
खाद्यान्न और अन्य आवश्यक वस्तुओं की ऊँची कीमतों ने उत्पीड़न को और भी अधिक कठिन
बना दिया और अवध के काश्तकारों को प्रतिरोध का संदेश देने की ज़रूरत थी।
कृषि-उत्पादों के मूल्यों में गिरावट से देश के
अनेक भागों में किसानों के बीच असंतोष गहरा रहा था। इस बात के स्पष्ट संकेत मिलने
लगे थे कि अब राजस्व के पुनर्मूल्यांकन का समय आ गया था। किसानों की मांगों के
प्रति कांग्रेस के दृष्टिकोण में भी बदलाव दिख रहा था। अवध में ज़मींदार किसानों का
बेइंतहा शोषण कर रहे थे। मनमाना लगान वसूल करते थे। जब चाहते, जिसे चाहते, उसे
ज़मीन से बेदखल कर देते। ज़मींदारों के लठैत उन पर तरह-तरह के जुल्म ढ़ाते। होमरूल के
कार्यकर्ताओं ने किसानों को संगठित करना शुरू कर दिया। गौरी शंकर मिश्रा और इंद्र
नारायण द्विवेदी के प्रयासों और मदन मोहन मालवीय
के सहयोग से फरवरी 1918 में एक संगठन बना जिसका नाम ‘किसान सभा’ दिया गया। जून
1919 तक उत्तर प्रदेश प्रांत की 173 तहसीलों में कम से कम 450 शाखाएँ स्थापित कर
लीं। इस गतिविधि का परिणाम यह हुआ कि दिसंबर 1918 और 1919 में भारतीय राष्ट्रीय
कांग्रेस के दिल्ली और अमृतसर अधिवेशनों में उत्तर प्रदेश से बड़ी संख्या में
किसान प्रतिनिधियों ने भाग लिया। इसके प्रयासों से किसानों में जागरूकता फैली। 1919
के अंत में, जमीनी स्तर पर किसानों की सक्रियता के पहले
संकेत प्रतापगढ़ जिले की एक जागीर पर नाई-धोबी गिरोह (सामाजिक बहिष्कार का एक रूप)
के गठन की खबरों से स्पष्ट हुए।
बीस के दशक में किसान खुलकर विरोध करने लगे। 1920
की गर्मियों तक, तालुकदारी अवध के गांवों में, ग्राम पंचायतों द्वारा बुलाई जाने वाली किसान
बैठकें आम हो गईं। इस विकास के साथ थिंगुरी सिंह और दुर्गापाल सिंह के नाम जुड़े। महाराष्ट्र
के एक ब्राह्मण बाबा रामचंद्र एक घुमक्कड़ थे, जिन्होंने
तेरह साल की उम्र में घर छोड़ दिया था, फिजी
में एक गिरमिटिया मजदूर के रूप में कुछ समय बिताया और अंत में यूपी के फैजाबाद
पहुंचे। 1920 के मध्य में, वे
अवध के किसानों के नेता के रूप में उभरे, और
जल्द ही उन्होंने काफी नेतृत्व और संगठनात्मक क्षमताओं का प्रदर्शन किया। जून 1920
में बाबा रामचंद्र जौनपुर और प्रतापगढ़ जिलों से कुछ सौ काश्तकारों को लेकर
इलाहाबाद पहुंचे। वहां उन्होंने गौरीशंकर मिश्रा और जवाहरलाल नेहरू से मुलाकात की
और उनसे गांवों में जाकर काश्तकारों की जीवन स्थितियों को देखने को कहा। इसका
नतीजा यह हुआ कि जून और अगस्त के बीच जवाहरलाल नेहरू ने ग्रामीण इलाकों का कई बार
दौरा किया और किसान सभा आंदोलन के साथ घनिष्ठ संपर्क विकसित किया।
इस बीच, कलकत्ता में कांग्रेस
ने असहयोग का रास्ता चुना था। लेकिन मदन मोहन मालवीय सहित कई अन्य लोग थे, जो संवैधानिक आंदोलन
से चिपके रहना पसंद करते थे। ये मतभेद उत्तर प्रदेश किसान सभा में भी परिलक्षित
हुए और जल्द ही असहयोगियों ने 17 अक्टूबर 1920 को प्रतापगढ़ में एक वैकल्पिक अवध
किसान सभा की स्थापना की। यह नया निकाय पिछले कुछ महीनों में अवध के जिलों में
उभरी सभी जमीनी किसान सभाओं को अपने झंडे तले एकीकृत करने में सफल रहा; मिश्रा, जवाहरलाल नेहरू, माता बादल पांडे, बाबा रामचंद्र, देव नारायण पांडे और
केदार नाथ के प्रयासों से, नए संगठन ने अक्टूबर
के अंत तक 330 से अधिक किसान सभाओं को अपने अधीन कर लिया। कांग्रेस और ख़िलाफ़त ने
इनके आंदोलन को एक नई शक्ल दी। इसका नाम दिया ‘एका आंदोलन’। किसानों से 50 फीसदी अधिक लगान
वसूला जाता था। इन्होंने इसके ख़िलाफ़ आंदोलन चलाया। एका बैठकों में एक धार्मिक
अनुष्ठान होता था जिसमें जमीन में एक गड्ढा खोदा जाता था जो गंगा नदी का प्रतीक
होता था और उसमें पानी भरा जाता था, अध्यक्षता करने के लिए एक पुजारी
को बुलाया जाता था और इकट्ठे हुए किसानों से यह दायित्व लिया जाता था कि वे केवल
दर्ज लगान ही देंगे, निर्धारित लगान से एक पैसा अधिक नहीं देंगे, लेकिन उसे समय पर
चुकाएंगे, बेदखल किए जाने पर ज़मीन
नहीं छोड़ेंगे, बेगार करने से मना
करेंगे, अपराधियों की मदद नहीं
करेंगे और पंचायत के निर्णयों का पालन करेंगे। आंदोलन बाद में अनुशासित और अहिंसक
नहीं रहा। आंदोलन ने जल्द ही अपना स्वयं का जमीनी नेतृत्व विकसित कर लिया, जो कांग्रेस और खिलाफत
नेताओं द्वारा बताए गए अहिंसा के अनुशासन को स्वीकार करने के लिए विशेष रूप से
इच्छुक नहीं थे। परिणाम यह हुआ कि राष्ट्रवादी नेता इस आंदोलन से अलग हो गए। असहयोग आंदोलन
का एक हिस्सा बन कर चल रहा यह आंदोलन असहयोग आंदोलन के वापस लिए जाने के बाद भी
चलता रहा। सरकार ने दमन के बल पर 1922 के बाद इस आंदोलन को
कुचल डाला।
मप्पिला विद्रोह
केरल के मालाबार ज़िले में भी ज़मींदारों का कहर किसानों पर
टूटता रहता था। ज़मींदार जब चाहते उन्हें बेदखल कर देते। मनमाना लगान वसूलते। अगस्त
1921 में यहाँ किसान असंतोष भड़क उठा। यहाँ मप्पिला (मुस्लिम) काश्तकारों ने
विद्रोह कर दिया। उनकी शिकायतें काश्तकारी की सुरक्षा न होने, नवीनीकरण शुल्क, उच्च किराए और अन्य दमनकारी जमींदारी वसूली से संबंधित थीं।
अप्रैल 1920 में मंजेरी में ज़िला कांग्रेस ने प्रस्ताव पारित कर किसानों की वाजिब
मांगों का समर्थन किया और जमींदार-किराएदार संबंधों को विनियमित करने के लिए कानून
बनाने की मांग की। यहां के किसान आंदोलन भी ख़िलाफ़त आंदोलन के साथ जुड़ गए। वास्तव
में, खिलाफत और काश्तकारों की बैठकों के बीच कोई अंतर नहीं था, नेता और श्रोता एक ही थे, और दोनों आंदोलन एक में विलीन हो गए थे। माप्पिला किसानों
के ख़िलाफ़त से जुड़ जाने से सरकार बौखला गई। गांधीजी, मौलाना आज़ाद और शौकत अली ने इन आंदोलनों का समर्थन किया था। 5
फरवरी 1921 को सरकार ने निषेधाज्ञा लागू कर खिलाफत बैठकों और सभाओं पर प्रतिबंध
लगा दिया था। 18 फरवरी को, सभी प्रमुख खिलाफत और कांग्रेस नेताओं, याकूब हसन, यू. गोपाल मेनन, पी. मोइदीन कोया और के. माधवन नायर को गिरफ्तार कर लिया गया। आंदोलन का
नेतृत्व स्थानीय मप्पिला नेताओं के हाथ से चला गया।
फिर भी मप्पिलाओं का विद्रोह ज़ारी रहा। सरकारी आदेशों की
अवहेलना की जाती रही। 20 अगस्त 1921 को एरानाड तालुक़ के जिला मजिस्ट्रेट ई.एफ.
थॉमस ने पुलिस और सैनिकों की एक टुकड़ी के साथ खिलाफ़त नेता और एक बहुत सम्मानित
पादरी अली मुसलियार को गिरफ़्तार करने के लिए तिरुरंगडी की मस्जिद पर छापा मारा। धर्मगुरु
तो नहीं मिले लेकिन ख़िलाफ़त के अन्य नेताओं को गिरफ़्तार कर लिया गया। हालांकि यह
प्रयास असफल सिद्ध हुआ लेकिन लोगों में आक्रोश का ज़बरदस्त उबाल हुआ। यह खबर फैली
कि प्रसिद्ध मम्ब्रथ मस्जिद, जिसके पादरी औ. मुसलियार थे, पर ब्रिटिश सेना
ने छापा मारा और उसे नष्ट कर दिया। कोट्टाकल, तनूर और
परप्पनगडी के मप्पिला काफी बड़ी संख्या में इकट्ठा हुए और गिरफ़्तार नेताओं की रिहाई
की मांग करने लगे। लोग शांत और शांतिपूर्ण थे, लेकिन पुलिस ने
निहत्थे भीड़ पर गोलियां चलाईं और कई लोग मारे गए। मप्पिला भी हिंसा पर उतर आए। झड़प
हुई और सरकारी कार्यालयों को नष्ट कर दिया गया, रिकॉर्ड जला दिए
गए और खजाने को लूट लिया गया। ज़िलाधिकारी को जान बचाकर भागना पड़ा। विद्रोह जल्द ही
एरानाड, वल्लुवनाड और पोन्नानी तालुकों में फैल गया, जो सभी मप्पिला
के गढ़ थे। इलाक़े में सैनिक शासन (मार्शल लॉ) लागू कर दिया गया। दमन बढ़ने से विद्रोह
के चरित्र में एक निश्चित बदलाव आया। कई हिंदुओं पर या तो अधिकारियों की मदद करने
का दबाव डाला गया या उन्होंने स्वेच्छा से सहायता की और इससे गरीब अनपढ़ मप्पिलाओं
के बीच पहले से मौजूद हिंदू विरोधी भावना को और मजबूत करने में मदद मिली, जो किसी भी मामले में एक मजबूत धार्मिक विचारधारा से प्रेरित थे। मप्पिला में
हिन्दू विरोधी भावना बढ़ने लगी। सत्ता का दमन बढ़ता गया। हिंदुओं पर हमला की घटनाएं
भी बढ़ने लगी। जो संघर्ष सत्ता और ज़मींदारों के ख़िलाफ़ शुरू हुआ अब संप्रदायिक
संघर्ष में बदल गया था। विद्रोह के सांप्रदायिकरण ने मप्पिलाओं को अलग-थलग कर
दिया। असहयोग आंदोलन के नेता इस हिंसक आंदोलन से अलग हो गए। दिसंबर 1921 तक सभी
प्रतिरोध समाप्त हो गए। ब्रिटिश हुक़ूमत ने दमन से इस आंदोलन को बुरी तरह कुचल
डाला। 2337 माप्पिला मारे गए (अनौपचारिक
अनुमानों के अनुसार यह संख्या 10,000 से अधिक थी) और 1652 घायल हुए। कुल 45,404 विद्रोही पकड़े गए या उन्होंने आत्मसमर्पण कर दिया।
माप्पिलाओं का मनोबल पूरी तरह से इस तरह से गिरा दिया गया कि स्वतंत्रता मिलने तक
किसी भी तरह की राजनीति में उनकी भागीदारी लगभग शून्य थी। वे न तो राष्ट्रीय
आंदोलन में शामिल हुए और न ही किसान आंदोलन में, जो बाद के वर्षों में वामपंथी नेतृत्व में केरल में
बढ़ने वाला था।
उपसंहार
किसान आंदोलन किसी न किसी रूप से
राष्ट्रीय आंदोलन की राजनीति से जुड़े थे। लेकिन दोनों ही आंदोलनों ने हिंसा का
रास्ता अख़्तियार कर लिया था। इससे किसान आंदोलन राष्ट्रीय आंदोलन से अलग हो गया।
गांधीजी से बार-बार उनसे अपील की कि कोई चरमपंथी रास्ता न अपनाएं। लेकिन कई लोगों
ने इसका अर्थ यह लगाया कि राष्ट्रीय आंदोलन के नेता किसानों को हिंसा का रास्ता
छोड़ने के लिए और लगान देते रहने के लिए इसलिए सलाह दे रहे हैं ताकि वे ज़मींदारों
के हितों की रक्षा कर सकें। यह आरोप सरासर ग़लत था। राष्ट्रीय नेता जानते थे कि
हिंसा का रास्ता अपनाने का अंजाम क्या होगा। जिस तरह से इन आंदोलनों को कुचल दिया
गया वह ही इस बात का सबूत है कि राष्ट्रीय नेता सही थे।
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मनोज कुमार
पिछली कड़ियां- राष्ट्रीय आन्दोलन
संदर्भ : यहाँ पर
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