राष्ट्रीय आन्दोलन
286. जन नेता
गांधी
1922 तक गाँधी जी ने भारतीय राष्ट्रवाद को एकदम परिवर्तित
कर दिया और इस प्रकार फ़रवरी 1916 में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में अपने भाषण में
किए गए वायदे को उन्होंने पूरा किया। अब यह व्यावसायिकों व बुद्धिजीवियों का ही
आंदोलन नहीं रह गया था, अब हजारों की संख्या में किसानों, श्रमिकों और कारीगरों
ने भी इसमें भाग लेना शुरू कर दिया। इनमें से कई गाँधी जी के प्रति आदर व्यक्त
करते हुए उन्हें अपना ‘महात्मा’ कहने लगे। उन्होंने इस बात की प्रशंसा की कि गाँधीजी
उनकी ही तरह के वस्त्र पहनते थे, उनकी ही तरह रहते थे और उनकी ही भाषा में बोलते थे।
अन्य नेताओं की तरह वे सामान्य जनसमूह से अलग नहीं खड़े होते थे बल्कि वे उनसे
समानुभूति रखते तथा उनसे घनिष्ठ संबंध भी स्थापित कर लेते थे। सामान्य जन के साथ
इस तरह की पहचान उनके वस्त्रों में विशेष रूप से परिलक्षित होती थी। जहाँ अन्य
राष्ट्रवादी नेता पश्चिमी शैली के सूट अथवा भारतीय बंद गला जैसे औपचारिक वस्त्र
पहनते थे वहीं गाँधी जी लोगों के बीच एक साधारण धोती में जाते थे। इस बीच, प्रत्येक दिन का कुछ
हिस्सा वे चरखा चलाने में बिताते थे। अन्य राष्ट्रवादियों को भी उन्होंने ऐसा करने
के लिए प्रोत्साहित
किया। सूत कताई के कार्य ने गाँधी जी को पारंपरिक जाति व्यवस्था में प्रचलित
मानसिक श्रम और शारीरिक श्रम की दीवार को तोड़ने में मदद दी।
इतिहासकार शाहिद
अमीन ने एक मंत्रमुग्ध कर देने वाले अध्ययन में स्थानीय प्रेस द्वारा ज्ञात रिपोर्टरों
और अफ़वाहों के जरिए पूर्वी उत्तर प्रदेश के किसानों के मन में महात्मा गाँधी की जो
कल्पना थी, उसे
ढूँढ़ निकालने की कोशिश की है। फ़रवरी 1921 में जब वे इस क्षेत्र से गुजर रहे थे तो हर जगह भीड़
ने उनका बड़े प्यार से स्वागत किया। उनके भाषणों के दौरान वैसा माहौल होता था इस पर
गोरखपुर के एक हिंदी समाचारपत्र ने यह रिपोर्ट लिखी है: भटनी में गाँधी जी ने
स्थानीय जनता को संबोधित किया और इसके बाद ट्रेन गोरखपुर के लिए रवाना हो गई।
नूनखार, देवरिया, गौरी बाजार, चौरी-चौरा और कुसुमही ;स्टेशनों पर 15 से 20 हजार से कम लोग नहीं थे— महात्मा जी कुसुमीही के
दृश्य को देखकर बहुत प्रसन्न हुए क्योंकि जंगल के बीच स्थित होने के बावजूद उस
स्टेशन पर 10,000 से
कम लोग नहीं थे। प्रेम में अभिभूत होकर कुछ लोग रोते हुए देखे गए।
देवरिया में लोग
गाँधी जी को भेनी ;दान देना चाहते थे किंतु इसे उन्होंने उनसे गोरखपुर
में देने को कहा। लेकिन चौरी-चौरा में एक मारवाड़ी सज्जन ने किसी तरह उन्हें कुछ दे
दिया। इसके बाद यह क्रम रुका ही नहीं। एक चादर फ़ैला दी गई जिस पर रुपयों और
सिक्कों की बारिश होने लगी। यह दृश्य था— गोरखपुर स्टेशन के बाहर महात्मा एक ऊँची गाड़ी पर
खड़े हो गए और लोगों ने कुछ मिनटों के लिए उनके दर्शन कर लिए। गाँधीजी जहाँ भी गए
वहीं उनकी चमत्कारिक शक्तियों की अफ़वाहें फ़ैल गई। कुछ स्थानों पर यह कहा गया कि
उन्हें राजा द्वारा किसानों के दुख तकलीफ़ों में सुधार के लिए भेजा गया है तथा उनके
पास सभी स्थानीय अधिकारियों के निर्देशों को अस्वीकृत करने की शक्ति है। कुछ अन्य
स्थानों पर यह दावा किया गया कि गाँधीजी की शक्ति अंग्रेज बादशाह से उत्कृष्ट है
और यह कि उनके आने से औपनिवेशिक शासक भाग जाएंगे। गाँधीजी का विरोध करने वालों के
लिए भयंकर परिणाम की बात बताती कहानियाँ भी थीं। इस तरह की अफ़वाहें फैलीं कि गाँधीजी
की आलोचना करने वाले गाँव के लोगों के घर रहस्यात्मक रूप से गिर गए अथवा उनकी फ़सल
चौपट हो गई।
‘गाँधी बाबा’, ‘गाँधी महाराज’ अथवा सामान्य ‘महात्मा’ जैसे अलग-अलग नामों से
ज्ञात गाँधीजी भारतीय किसान के लिए एक उद्धारक के समान थे जो उनकी ऊँची करों और
दमनात्मक अधिकारियों से सुरक्षा करने वाले और उनके जीवन में मान-मर्यादा और
स्वायत्तता वापस लाने वाले थे। गरीबों विशेषकर किसानों के बीच गाँधीजी की अपील को
उनकी सात्विक जीवन शैली और उनके द्वारा धोती तथा चरखा जैसे प्रतीकों के विवेकपूर्ण
प्रयोग से बहुत बल मिला। जाति से महात्मा गाँधी एक व्यापारी व पेशे से वकील थे, लेकिन उनकी सादी
जीवन-शैली तथा हाथों से काम करने के प्रति उनके लगाव की वजह से वे गरीब श्रमिकों
के प्रति बहुत अधिक समानुभूति रखते थे तथा बदले में वे लोग गाँधीजी से समानुभूति
रखते थे। जहाँ अधिकांश अन्य राजनीतिक उन्हें कृपा की दृष्टि से देखते थे वहीं ये न
केवल उनके जैसा दिखने बल्कि उन्हें अच्छी तरह समझने और उनके जीवन के साथ स्वयं को
जोड़ने के लिए सामने आते थे।
महात्मा गाँधी
का जन अनुरोध निस्संदेह कपट से मुक्त था और भारतीय राजनीति के संदर्भ में तो बिना
किसी पूर्वोदाहरण के यह भी कहा जा सकता है कि राष्ट्रवाद के आधार को और व्यापक
बनाने में उनकी सफ़लता का राज उनके द्वारा सावधानीपूर्वक किया गया संगठन था। भारत
के विभिन्न भागों में कांग्रेस की नई शाखाएँ खोली गयी। रजवाड़ों में राष्ट्रवादी
सिद्धान्त को बढ़ावा देने के लिए ‘प्रजा मंडलों’ की एक श्रृंखला स्थापित
की गई। गाँधीजी ने राष्ट्रवादी संदेश का संचार शासकों की अंग्रेजी भाषा की जगह
मातृ भाषा में करने को प्रोत्साहित किया। इस प्रकार कांग्रेस की प्रांतीय समितियाँ
ब्रिटिश भारत की कृत्रिम सीमाओं की अपेक्षा भाषाई क्षेत्रों पर आधारित थीं। इन
अलग-अलग तरीकों से राष्ट्रवाद देश के सुदूर हिस्सों तक फ़ैल गया और अब इसमें वे
सामाजिक वर्ग भी शामिल हो गए जो अभी तक इससे अछूत थे।
अब तक कांग्रेस
के समर्थकों में कुछ बहुत ही समृद्ध व्यापारी और उद्योगपति शामिल हो गए थे। भारतीय
उद्यमियों ने यह बात जल्दी ही समझ ली कि उनके अंग्रेज प्रतिद्वंद्वी आज जो लाभ पा
रहे हैं, स्वतंत्र
भारत में ये चीजें समाप्त हो जाएंगी। जी- डी- बिड़ला जैसे कुछ उद्यमियों ने
राष्ट्रीय आंदोलन का खुला समर्थन किया जबकि अन्य ने ऐसा मौन रूप से किया। इस
प्रकार गाँधीजी के प्रशंसकों में गरीब किसान और धनी उद्योगपति दोनों ही थे हालांकि
किसानों द्वारा गाँधीजी का अनुकरण करने के कारण उद्योगपतियों के कारणों से कुछ
भिन्न और संभवत: परस्पर विरोधी थे। हालाँकि महात्मा गाँधी की स्वयं बहुत
महत्वपूर्ण भूमिका थी लेकिन ‘गांधीवादी राष्ट्रवाद’ का विकास बहुत हद तक
उनके अनुयायियों पर निर्भर करता था।
1917 और
1922 के बीच भारतीयों के एक बहुत ही प्रतिभाशाली वर्ग ने स्वयं
को गाँधीजी से जोड़ लिया। इनमें महादेव देसाई, वल्लभ
भाई पटेल, जे- बी- कॄपलानी, सुभाष
चंद्र बोस, अबुल कलाम आजाद, जवाहरलाल नेहरू, सरोजिनी
नायडू, गोविंद वल्लभ पंत और सी- राजगोपालाचारी
शामिल थे। गाँधी जी के ये घनिष्ठ सहयोगी विशेषरूप से भिन्न-भिन्न
क्षेत्रों के साथ ही भिन्न-भिन्न धार्मिक परंपराओं से आए
थे। इसके बाद उन्होंने अनगिनत अन्य भारतीयों को कांग्रेस में शामिल होने और इसके
लिए काम करने के लिए प्रेरित किया।
*** *** ***
मनोज कुमार
पिछली कड़ियां- राष्ट्रीय आन्दोलन
संदर्भ : यहाँ पर
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
आपका मूल्यांकन – हमारा पथ-प्रदर्शक होंगा।