मंगलवार, 11 फ़रवरी 2025

274. जिन्ना और गांधी

राष्ट्रीय आन्दोलन

274. जिन्ना और गांधी



1920

सितम्बर 1920 में ही लीग का भी कलकत्ते में विशेष अधिवेशन था। उसमें भाग लेने के लिए जैसे ही हावड़ा स्टेशन पर जिन्ना उतरा उसे मोतीलाल नेहरू दिखे जो उससे मिलने पहुंचे थे। मोतीलाल को कांग्रेस अधिवेशन में गांधीजी को पराजित करने की रणनीतियों में जिन्ना से सहयोग की उम्मीद थी। कलकत्ता और नागपुर के अधिवेशनों में कांग्रेस और लीग ने असहयोग के पक्ष में फैसला लिया था। तब के लगभग सभी दिग्गज नेता गांधीजी के साथ थे, सिवाय जिन्ना, एनी बेसेंट और मालवीयजी के। हालाकि कलाकाते में जिन्ना ने कोई स्पष्ट राय नहीं रखी थी। उसने कहा था, मिस्टर गांधी ने, मुल्क के सामने असहयोग का प्रोग्राम रखा है। इसे कबूल करना, न करना आपके ऊपर है। मैं अभी भी सरकार से यह गुजारिश करूंगा कि वह हिन्दुस्तान के लोगों को बेबस न करें, वरना उनके लिए असहयोग की नीति पर अमल करने के अलावा कोई और रास्ता नहीं रह जाएगा।

महीने भर बाद ही गांधीजी और जिन्ना में भिडंत हुई। होमरूल की अध्यक्षता गांधीजी को दे दी गई थी। अक्तूबर में गांधीजी के सुझाव पर इस संगठन का नाम स्वराज सभा कर दिया गया था। इसके संविधान में भी फेर-बदल कर इसका उद्देश्य ‘साम्राज्य के अधीन स्वशासन की जगह ‘स्वराज्य हासिल करना घोषित कर दिया गया था। 19 के मुक़ाबले 42 मतों से ये सुधार पास हो गए। विरोध में मत देने वालों 19 में से एक जिन्ना था। जिन्ना चाहता था कि ‘साम्राज्य के अधीन वाली बात रहने दी जाए। उसका यह भी मानना था कि इस बैठक को संविधान बदलने का अधिकार नहीं है। गांधीजी इससे सहमत नहीं थे। गांधीजी पर तानाशाह जैसा व्यवहार करने वाला व्यक्ति का आरोप लगाते हुए जिन्ना ने इस्तीफा दे दिया। विरोध करने वाले अन्य 18 लोगों ने भी इस्तीफा दे दिया था। गांधीजी ने जिन्ना समेत सभी को इस्तीफों पर पुनर्विचार करने के लिए पत्र लिखा।

नागपुर वार्षिक अधिवेशन

दिसंबर के नागपुर वार्षिक अधिवेशन, जिसके अध्यक्ष वयोवृद्ध विजयराघवाचारी थे। इस समय तक असहयोग को लेकर कांग्रेस के अंदरूनी विरोध लगभग ख़त्म हो चुके थे। कलकत्ता अधिवेशन में असहयोग का विरोध करने वाले सीआर दास ने ही इस सम्मेलन में असहयोग आंदोलन से संबद्ध प्रस्ताव रखा था।  सम्मेलन में असहयोग आन्दोलन की पुष्टि की गई थी। असहयोग आन्दोलन का बुनियादी सिद्धान्त यह था कि ब्रिटिश सरकार को उसके शासन-कार्य और भारत के शोषण में सहायता देने से इन्कार कर दिया जाए। इस प्रकार के 1920 के अंत तक अहिंसक आंदोलन को देश ने अपना लक्ष्य बना लिया था। गांधीजी ने कहा था, मनुष्यों की तरह राष्ट्र भी अपनी ख़ुद की कमज़ोरी के कारण आज़ादी खोते हैं। अंग्रेज़ों ने भारत को नहीं पाया है; हमने उनको दिया है। वे भारत में अपनी ताकत के बल पर नहीं हैं, बल्कि हमने उनको रखा हुआ है। भारतीय जनता इतने वर्षों से स्वेच्छापूर्वक और चुप साधकर जो सहयोग देती आ रही है, अगर उसे देना बंद कर दे तो ब्रिटिश साम्राज्य का भहराकर गिरना अनिवार्य है। अध्यक्ष विजयराघवाचारी ने अपने समापन भाषण में कहा था, गांधीजी की प्रेरणा से लोग स्वयं इतने आगे बढ़ गए हैं कि अध्यक्ष और नेताओं को उनके पीछे घिसटना पड़ रहा है।

एनी बेसेंट इस अधिवेश में नहीं आई थीं। मालवीय जी ने विरोध ज़ाहिर किया था। जिन्ना भी विरोध में बोलता रहा। पर असहयोग पर फैसला हो गया। इसके साथ ही ‘साम्राज्य के अधीन शब्द को हटाते हुए कांग्रेस ने अपना लक्ष्य ‘स्वराज्य को निर्धारित किया। शाम होते ही नाराज़ जिन्ना रेलगाड़ी से मुंबई चला गया। कांग्रेस से उसका 14 साल पुराना रिश्ता समाप्त हो गया था। उसके अनुसार कांग्रेस गांधी की हो गयी थी। गांधीजी और जिन्ना दोनों ही गुजरात से थे। दोनों ने ही लन्दन से क़ानून की पढाई की थी। दोनों हिन्दू मुस्लिम एकता चाहते थे। अंतर भी था। गांधीजी अपनी धार्मिक आस्था को खुले तौर पर प्रकट करते थे। जिन्ना के बारे में ऐसा प्रत्यक्ष नहीं था। गांधीजी ने गरीबी को अपनाया। जिन्ना ने भरपूर कमाई की। गांधीजी किसानो वाली पोशाक पहनते थे। जिन्ना क़ीमती सूट पहनता था। गांधीजी किसानों की तरह झोंपड़ी में रहना पसंद करते थे। जिन्ना मालाबार हिल के एक शानदार घर में रहता था। गांधीजी कठिनतम परिस्थितियों में भी खुशमिजाज़ रहते थे। जिन्ना खुशी के माहौल में भी उदास रहता था। गांधीजी सहृदय व्यक्ति थे। जिन्ना दम्भी था। गांधीजी आम आदमी के साथ रहते थे। जिन्ना आभिजात्य वर्गों में दिलचस्पी रखता था।

कांग्रेस के विधान में परिवर्तन

अहिंसात्मक असहयोग के कुशल संगठक के रूप में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को नए सिरे से ढालने की आवश्यकता गांधीजी ने अनुभव की। उन्होंने कांग्रेस के विधान में पूर्ण परिवर्तन कर दिया। गांधीजी का तैयार किया हुआ कांग्रेस का संविधान नागपुर अधिवेशन (दिसंबर, 1920) में एकमत से स्वीकृत हो गया। उन्होंने उसे प्रजावादी और साधारण जनता की संस्था बना दिया। इसमें छह हज़ार डेलिगेट्स की व्यवस्था थी। नये विधान के अनुसार कांग्रेस का स्वरूप व्यापक आधार वाले पिरामिडीय ढांचे जैसा हो गया जिसमें विस्तृत आधार के रूप में तो गांवों, तालुको, जिलों और प्रान्तों की समितियां, और शिखर के रूप में 15 सदस्यीय कार्यकारिणी समिति तथा अखिल भारतीय कांग्रेस महासमिति थी। प्रदेश कांग्रेस समितियों का गठन भाषा के आधार पर किया गया था, जिससे स्थानीय लोगों की ज़्यादा-से-ज़्यादा भागीदारी हो। सस्यता फीस साल भर के लिए चार आने कर दी गई।  इस प्रकार के संगठन से कांग्रेस को न केवल अधिक व्यापक आधार मिला, बल्कि यह अपने दो वार्षिक अधिवेशनों के बीच की अवधि के कार्यों को कुशलता से करने योग्य भी हो गई। अब तक कांग्रेस उच्च और मध्यम वर्ग की ही बपौती थी, लेकिन अब पहली बार इसके दरवाजे गांवों और शहरों में बसने वाली उस जनता के लिए खोल दिए गए, जिसकी राजनैतिक चेतना गांधीजी जगा रहे थे। कांग्रेस में धड़ाधड़ किसान प्रवेश करने लगे। अब कांग्रेस एक महान ग्रामीण संस्था जैसी दिखाई देने लगी। कांग्रेस ने यह भी तय किया था कि जहां तक संभव हो हिंदी को ही बतौर संपर्क भाषा इस्तेमाल किया जाए। इसका उद्देश्य बदल गया था। पहले उद्देश्य था संविधानिक और वैधानिक तरीक़े, अब स्वशासन की स्थापना, अहिंसक और शांतिपूर्ण असहयोग आंदोलन से स्वराज की स्थापना। कर्म इस संस्था का उद्देश्य बन गया। अब जो कांग्रेस सिर्फ़ बातचीत करती थी, और उसके बाद एक प्रस्ताव पास कर देती थी, वह अब कर्म की बात करने लगी।

इस तरह कांग्रेस अब एक कार्य-सक्षम संस्था बन गई थी। कर्म जो शांतिपूर्ण युक्तियों पर आधारित होता था। गांधी जी एक शांतिवादी नेता थे। उनमें अपार विरोध शक्ति थी। लेकिन वह विरोध विनम्र और शांत होता था। उनके विरोध की पुकार एक तरफ़ तो विदेशी शासन को चुनौती देने के लिए और उनका विरोध करने के लिए होती थी वहीं दूसरी तरफ़ देश की सामाजिक बुराइयों से संघर्ष करने के लिए भी होती थी। उनके इन शांतिपूर्ण कार्य-पद्धति का लक्ष्य था राष्ट्रीय एकता, अल्पसंख्यकों की समस्या का निदान, दलितों का उत्थान और अस्पृश्यता का निराकरण। नागपुर कांग्रेस में अंत्यजों के बारे में प्रस्ताव पास हुआ। कांग्रेस द्वारा अस्पृश्यता निवारण का दायित्व भी लिया गया।

नागपुर से नाराज़ होकर जिन्ना मुंबई चला आया और एक सभा में उसने कहा, गांधी लोगों को ग़लत दिशा में ले जा रहे हैं। जन आन्दोलन से हिंसा फूट पड़ेगी। हिन्दुस्तानी लोग आदमी हैं, संत नहीं। अगले तीन वर्षों तक जिन्ना ने लीग की बैठकों में हिस्सा नहीं लिया। लेकिन उसने लीग नहीं छोड़ा। 

1919-20 में गांधीजी देश के सबसे बड़े राजनैतिक नेता बन गए, क्योंकि उन्होंने लोगों को मोहित कर लिया था। लोग उन्हें महात्माके रूप में श्रद्धा और भक्ति अर्पित करते। स्वेच्छा से अपनाई हुई गरीबी, सादगी, विनम्रता और साधुता आदि गुणों के कारण वह कोई ऐसे अतीत कालीन ऋषि प्रतीत होते थे, जो मानो देश की मुक्ति के लिए महाकाव्यों के बीते काल से वर्तमान में चले आए हों। देश के लाखों-करोड़ों लोग उन्हें अवतार मानने लगे थे।

 

लोग उनका सन्देश सुनने ही नहीं, किन्तु दर्शन कर पुण्य अर्जित करने भी आते थे। उनके दर्शन का पुण्यफल करीब-करीब काशी की तीर्थ-यात्रा के ही बराबर माना जाने लगा था। कभी-कभी तो गांधीजी जन-सामान्य की इस विचारहीन श्रद्धा-भक्ति से दुखी भी हो जाया करते थे। उन्होंने लिखा भी था : महात्मा होने के कष्ट को केवल महात्मा ही जान सकता है।लेकिन भारतीय जन-जीवन पर गांधीजी के अत्यधिक प्रभाव का मुख्य स्रोत यह अपार श्रद्धा-भक्ति ही थी।

 

गांधीजी ने भारतीय जनता के दिल के तारों को झनझना दिया था। वह ताज़ी हवा के एक जबर्दस्त झोंके की तरह थे। रोशनी की ऐसी किरण थे जिसने फैले अंधेरे को चीर दिया। लोगों की आंखों पर से परदा हटा दिया। गांधीजी के साहस और त्याग की अपील पर लोगों ने अपने को न्यौछावर कर दिया, क्योंकि गांधीजी स्वयं भी साहस और त्याग की सजीव मूर्ति थे। लोगों को लगा कि वे किसी शिखर से उतरे मानव नहीं बल्कि देश के करोड़ों लोगों में से ही प्रकट हुए हैं। उनकी भाषा, उनकी बोली, उनके हाव-भाव लोगों को आकर्षित करते।

 

चर्चिल ने कहा था, वह नंगे फकीरथे और उनकी इस फकीरी, संयम और आत्म-त्याग के कारण ही भारत की जनता उन्हें अपने प्राणों के इतना निकट अनुभव करती थी। उनकी प्रेरणा पाकर देश में ऐसे फकीरोंकी संख्या तेजी से बढ़ने वाली थी। वैभवपूर्ण जीवन का परित्याग कर गांधीजी के नेतृत्व में जेल जाने की प्रतिस्पर्धा करने वालों में मोतीलाल नेहरू, राजेन्द्र प्रसाद, चित्तरंजन दास, वल्लभ भाई पटेल और चक्रवर्ती राजगोपालाचारी थे। इन लोगों के लिए जीवन ने एक नई अर्थवत्ता ग्रहण कर ली थी।

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मनोज कुमार

 

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संदर्भ : यहाँ पर

 

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