राष्ट्रीय आन्दोलन
262. रौलेट
सत्याग्रह-2
1919
देश भर में सत्याग्रह दिवस मनाया गया
गांधीजी 3 अप्रैल को बंबई पहुंचे, जहां उन्हें
शंकरलाल बैंकर से सत्याग्रह के उद्घाटन के लिए वहां उपस्थित होने का तार मिला। जिस दिन बंबई में हड़ताल का आयोजन
हुआ उस दिन को यानी 6 अप्रैल को देश भर में सत्याग्रह दिवस के
रूप में मनाया गया। यह अपने ढंग का पहला अखिल भारतीय प्रदर्शन था।
लोगों पर इसका जबर्दस्त प्रभाव पड़ा। सभी वर्ग के लोगों ने इसमें भाग लिया। इसकी सफलता पर लोग स्तंभित थे। पूरे देश में एक
नए वातावरण का सृजन हुआ। लगभग सारा भारत हड़ताल पर था।
महानगरों में कोई काम पर नहीं गया। न जहाज़ों पर काम हुआ, न बैंकों में, यहाँ तक कि डाकघर में भी कोई कम-काज नहीं हुआ। सारा कारोबार ठप्प हो गया।
लोगों में अदम्य उत्साह था। 6 तारीख की
सुबह बंबई के नागरिक हजारों की संख्या में समुद्र में स्नान करने के लिए चौपाटी पर
आए, जिसके बाद वे जुलूस के रूप में ठाकुरद्वार की ओर चले गए। जुलूस
में महिलाओं और बच्चों की अच्छी खासी तादाद थी, जबकि मुसलमान भी बड़ी संख्या में इसमें शामिल हुए। उस दिन, 6 अप्रैल को, गांधीजी मुंबई में
थे। उन्होंने स्वयं इस कार्यक्रम का संचालन किया। चौपाटी पर एक मस्जिद में सरोजिनी
नायडू और गांधीजी के भाषण हुए। शाम को, सरोजिनी नायडू
के साथ एक धीमी गति से चलने वाली कार में ड्राइव करते हुए, गांधीजी ने
अपनी कृतियों, हिंद स्वराज और सर्वोदय की प्रतियां बेचीं, जो कि रस्किन
की अनटू दिस लास्ट थी, क्योंकि उन पर प्रतिबंध लगा दिया गया था और इसलिए उन्हें
अवैध रूप से वितरित किया गया था, जिससे वितरक को रॉलेट एक्ट के तहत सजा हो सकती थी। खरीद
मूल्य चार आने था, लेकिन लोगों ने अपनी प्रतियों के लिए दस रुपये का भुगतान
किया। अधिकारियों ने कानून के इस जानबूझकर उल्लंघन पर आंखें मूंद लीं। हालाकि थोड़ा खून-खराबा भी हुआ, बंबई में हड़ताल पूरी तरह सफल रही। गांधीजी ने तुरन्त उपद्रवकारियों
तथा स्थानीय अधिकारियों, दोनों की ज्यादतियों की भर्त्सना की और कहा कि अधिकारियों ने तो मक्खी
मारने के लिए हथौड़े का प्रयोग किया। पंजाब में उत्तेजना बहुत बढ़ी और वहां के
नेताओं का विचार था कि वहां गांधीजी की उपस्थिति से शान्ति स्थापना में बड़ी
सहायता मिलेगी।
अगले दिन, 7 अप्रैल की शाम को स्वामी
श्रद्धानंद के निमंत्रण पर, गांधीजी पंजाब जाने के लिए महादेव देसाई के साथ दिल्ली के
लिए ट्रेन से रवाना हुए। 30 मार्च को हुए प्रदर्शन को सरकार ने सख्ती से, बेगुनाह प्रदर्शनकारियों पर
गोलियां चला कर कुचल दिया था। इधर सरकार ने गांधीजी को पंजाब पहुंचने ही नहीं दिया। अभी वह दिल्ली भी नहीं
पहुंचे थे कि रास्ते में 8 अप्रैल को पलवल के पास ट्रेन को
रोककर उन्हें पंजाब जाने से रोक दिया गया। गांधीजी ने महादेव देसाई को दिल्ली भेजा
ताकि वे स्वामी श्रद्धानंद की सहायता कर सकें। गांधीजी ने कहा, 'मैं एक जरूरी निमंत्रण के जवाब में पंजाब जाना
चाहता हूं, अशांति फैलाने के लिए नहीं, बल्कि इसे
शांत करने के लिए। इसलिए मुझे खेद है कि मेरे लिए इस आदेश का पालन करना संभव नहीं
है।' गांधीजी ने जब
सरकारी आदेश मानने से इंकार किया, तो उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया। पुलिस गांधीजी
को एक मालगाड़ी में बैठाकर वापस बंबई ले गई।
लोग भड़क उठे
गांधीजी को पुलिस ने पकड़ ली है, यह
समाचार सुनते ही लोग भड़क उठे। गांधीजी रेवाशंकर झवेरी के घर मोटर से जा रहे थे,
लेकिन उत्तेजित लोगों की भीड़ ने उन्हें घेर लिया और पायधूनी ले गए। गांधीजी को
देखकर लोग नाच रहे थे। वंदेमातरम् और अल्लाहो अकबर की ध्वनि सारे शहर में गूंज
रही थी। गांधीजी ने लोगों से शांत रहने की अपील की। सारी भीड़ जुलूस बनकर चलने लगी।
एक घुड़सवार दस्ते ने भीड़ पर आक्रमण कर दिया। कई लोग कुचले गए। अनेकों घायल हुए।
गांधीजी किसी तरह से निकल कर पुलिस कमिश्नर के दफ़्तर गए। गांधीजी ने पुलिस बर्बरता
की शिकायत की। लेकिन कमिश्नर गुस्से से आगबबूला था। उसने गांधीजी से कहा, जनता
बेकाबू जानवर की तरह व्यवहार कर रही थी। उन्हें लाठी-भाले से ही काबू किया जा सकता
था। अमृतसर और अहमदाबाद में भी दंगे हो रहे हैं। ये दंगे आपकी ग़लत सीख के परिणाम
हैं। गांधीजी ने कहा, मैं तो दिल्ली से आगे उत्तर कभी गया नहीं, अमृतसर के
लोगों ने तो मुझे न देखा है, न सुना है। आपके आरोप बेबुनियाद हैं। शाम को
चौपाटी की सभा में गांधीजी ने लोगों से शांत रहने की अपील की। सत्याग्रही में
असली हिम्मत चाहिए, जो आक्रमण में भी उत्तेजित न हों और धैर्य से अपना प्रतिकार
करे। ।
दूसरी जगहों में भी दंगे
गांधीजी को शाम तक पता चला कि उनकी
अनुपस्थिति में बम्बई, अहमदाबाद, नडियाद और दूसरी जगहों में दंगे हो गए
हैं। 11 अप्रैल को गांधीजी ने बंबई में अपने
अनुयायियों को चेतावनी दी। उन्होंने कहा, 'हम पत्थर फेंक
रहे हैं।' 'हमने रास्ते में अवरोध डालकर ट्रामगाड़ियों को रोका है। यह
सत्याग्रह नहीं है। हमने हिंसा के लिए गिरफ्तार किए गए लगभग पचास लोगों की रिहाई
की मांग की है। लेकिन हमारा कर्तव्य मुख्य रूप से खुद को गिरफ्तार करवाना है।
हिंसा करने वालों की रिहाई सुनिश्चित करने का प्रयास करना धार्मिक कर्तव्य का
उल्लंघन है... अगर हम अपनी ओर से थोड़ी सी भी हिंसा की, तो इस आंदोलन को नहीं चला सकते हैं,' गांधीजी ने चेतावनी दी, 'तो आंदोलन को
छोड़ना पड़ सकता है... इससे भी आगे जाना आवश्यक हो सकता है। मेरे लिए खुद के खिलाफ
सत्याग्रह की पेशकश करने का समय आ सकता है... मैंने अभी सुना है कि कुछ अंग्रेज
सज्जन घायल हो गए हैं। कुछ ऐसी चोटों से मर भी गए होंगे। अगर ऐसा हुआ, तो यह सत्याग्रह पर एक बड़ा धब्बा होगा। मेरे लिए, अंग्रेज भी हमारे भाई हैं।'
उपद्रवों का सबसे अधिक प्रभाव
अमृतसर, लाहौर, गुजरांवाला और पंजाब के अनेक छोटे नगरों में, गुजरात के वीरगाम,
अहमदाबाद और नाडियाड में, दिल्ली, बंबई और कलकत्ता में पड़ा। अहमदाबाद में यह ख़बर
फैल गई कि गांधीजी गिरफ़्तार हो गए हैं। लोग बेकाबू हो गए। एक सार्जेंट को मार डाला
गया। अहमदाबाद में कमिश्नर के दफ़्तर को जला दिया
गया था, टेलीग्राफ़ के
तार काट दिए गए थे और मिल के कर्मचारी सड़कों पर दंगा कर रहे थे। ट्रेन की पटरियां उखाड़ दी गईं।
वीनमगाम में एक सरकारी अधिकारी की हत्या कर दी गई। अहमदाबाद में सरकार द्वारा
मार्शल लॉ लगा दिया गया। सारे शहर में सशस्त्र सैनिक तैनात कर दिए गए। सरकार जुल्म
ढा रही थी। गांधीजी अहमदाबाद गए। पुलिस कमिश्नर से मिले। दंगों
के लिए क्षमा मांगी। सारा दोष अपने सिर लिया। एक आम सभा कर लोगों को समझाया और
शांत रहने की अपील की। अहमदाबाद शहर से मार्शल लॉ उठा लिया गया। गांधीजी ने
मज़दूरों से अपना गुनाह क़बूल करने को कहा और पुलिस कमिश्नर से क्षमा कर देनी की
गुजारिश की। दोनों पक्षों ने उनकी बात नहीं मानी। उनके
अपने ही प्रान्त के लोग अहिंसा के सिद्धांत को भूल जाएंगे, इसकी तो गांधीजी को स्वप्न में भी आशंका नहीं थी। गांधीजी क्षुब्ध हो गए।
उन्हें लगा अहमदाबाद के मज़दूर सत्याग्रह के अर्थ को समझ नहीं पाए। उन्होंने कहा था, “यदि मेरे शरीर में खंजर उतरता चला जाता, तो भी मुझे इतनी
पीड़ा नहीं हुई होती।” वह इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि लोगों के अन्दर हिंसा के छिपे
आवेग को सही-सही आंकने में उनसे भूल हो गई है।
सत्याग्रह स्थगित - लोग शांतिपूर्ण आंदोलन के रहस्य
को नहीं समझ सके
बड़ी उम्मीदों से उन्होंने आन्दोलन शुरू किया था। उन्होंने
सोचा था कि भारतीय जनता बलिदान के ऐसे उदाहरण प्रस्तुत करेगी जिससे ब्रिटिश सरकार
दमनकारी कानून को रद्द करने के लिए राज़ी हो जाएगी। लेकिन इसके उलट देश के अपने ही
लोग वहशीपन पर उतारू हो गए। गांधीजी को लगा कि भारत के लोग अभी भी शांतिपूर्ण
आंदोलन के रहस्य को नहीं समझे हैं। वह मानते थे कि समाज द्वारा आंदोलन के इस
बुनियादी तत्व को आत्मसात किए बिना देशव्यापी हड़ताल का आह्वान कर उन्होंने ग़लती कर
दी है। अहमदाबाद से
गांधीजी नाड़ियाद गए। वहां की बर्बादी देख कर वे दंग रह गए। गांधीजी यह मानते थे कि
सत्याग्रही को दूसरे की गज वत (हाथी जैसी बड़ी) भूल भी रजवत (धूल सी हल्की) माननी
चाहिए और अपनी रजवत भूल पहाड जैसी माननी चाहिए। तब एक सभा में उन्होंने अपनी
हिमालय के स्तर की ग़लती को सार्वजनिक कर दिया। गांधीजी का मानना था कि क़ानून
के सविनय भंग के लिए लोगों को पूरा प्रशिक्षण नहीं मिला है, इसलिए आंदोलन चालू
रखना ग़लत होगा। उसी व्यक्ति को क़ानून का सविनय भंग करने का अधिकार है जो स्वेच्छा
से क़ानून का पालन करता हो। अधिकांश लोग तो सज़ा के डर और सरकार के भय से क़ानून का पालन
करते हैं। जो व्यक्ति समझदारी और स्वेच्छा से क़ानून का पालन करता है उसे क़ानून की
नीति, अनीति के भेद की सूक्ष्म शक्ति प्राप्त होती है। देश का आम नागरिक अभी
सत्याग्रह के इस सूक्ष्म लेकिन गहरे महत्व के अंतर को समझ नहीं पाया है।
प्रायश्चित स्वरूप उन्होंने तीन दिन का उपवास व्रत रखा और रॉलेट बिल के विरोध में
किए गए सत्याग्रह को स्थगित कर दिया। बंबई में उन्होंने सविनय सत्याग्रह और अहिंसक
लड़ाई का बुनियादी प्रशिक्षण आरंभ कर दिया। कुछ लोग रॉलेट बिल के विरोध के
आंदोलन के बंद किए जाने से निराश हुए। कई लोगों ने उन्हें उलाहना भी दिया। शायद तब
वे गांधीजी के उद्देश्य को समझ नहीं पाए थे। जिस दिन गांधीजी ने तीन दिन के व्रत
की घोषणा की थी, वह दिन 13 अप्रैल, 1919 का था!
13 अप्रैल को जालिया वाला बाग ह्त्या-कांड
6
अप्रैल को देश भर में मनाये गए सत्याग्रह दिवस के बाद देश भर में बड़ी तेज़ी से
घटनाओं में परिवर्तन हुआ। रॉलेट सत्याग्रह आंदोलन पंजाब के अमृतसर में जोर पकड़ रहा था। अमृतसर
में 30 मार्च और 6 अप्रैल को हुई हड़तालें शांतिपूर्ण
थीं, लेकिन बहुत सफल रहीं। शुरुआत में प्रदर्शनकारियों ने कोई हिंसा नहीं की। भारतीयों
ने अपनी दुकानें और सामान्य व्यापार बंद कर दिया और खाली सड़कों ने अंग्रेजों के
विश्वासघात पर भारतीयों की नाराजगी को दिखाया। पंजाब
में स्थानीय कांग्रेसजनों को गिरफ़्तार कर लिया गया था। प्रांत की यह स्थिति
धीरे-धीरे और तनावपूर्ण हो गई तथा अप्रैल 1919 में
अमृतसर में यह खूनखराबे के चरमोत्कर्ष पर ही पहुँच गई। 9 अप्रैल को, दो राष्ट्रवादी नेताओं, सैफुद्दीन किचलू और डॉ सत्यपाल को ब्रिटिश अधिकारियों ने रौलट-एक्ट
के तहत गिरफ्तार कर लिया। उसी
शाम उन्हें शहर से निकाल दिया गया। इसके कारण अमृतसर के साथ पंजाब के लोगों में
रोष फैल गया था। क्रोध से उन्मत्त लोगों की भीड़ सड़कों पर निकल पड़ी। बदले के उन्माद में यह भीड़ अनियंत्रित
हो गयी। गुस्साये लोगों ने रेलवे स्टेशन, टाउन हॉल सहित कई बैंकों और अन्य सरकारी इमारतों पर हमले
किये और आग लगा दी। स्थिति इतनी विस्फोटक हो गई कि सेना को बुलाना पड़ा। ब्रिगेडियर-जनरल रेजिनाल्ड डायर वरिष्ठ ब्रिटिश अधिकारी थे
जिनके पास मार्शल लॉ लागू करने और व्यवस्था बहाल करने की जिम्मेदारी थी। 11 अप्रैल को पंजाब में मार्शल लॉ लगा
दिया गया जिसकी कमान जनरल डायर के हाथ में थी।
13 अप्रैल सन 1919 का दिन बैसाखी का पारंपरिक त्यौहार का
दिन था। बैसाखी का त्यौहार मनाने के लिए गुरुद्वारे में इकठ्ठा हुए थे।
इस गुरूद्वारे के पास में ही एक बगीचा था जिसका नाम था जलियांवाला बाग़। वहाँ गाँव
के लोग अपने परिवार वालों के साथ, तो कुछ अपने दोस्तों के साथ घूमने के लिए गए थे।
वहाँ विरोध प्रदर्शन के लिए एक शांतिपूर्ण सभा भी हो रही थी। जनरल डायर ने वहाँ
उपस्थित लोगों पर अंधाधुंध गोलियां चलाने का आदेश दे दिया। लगभग 10 मिनिट
तक भीड़ पर गोलियां दागी, जिससे वहां भगदड़ मच गई। इसके
चलते लगभग 1000 से ज्यादा लोगों की मौत हो गई थी और 1500 लोग
गंभीर रूप से घायल हुए। सर बैलेंताइन शिरोल ने उस दिन को, “ब्रिटिश
भारत के इतिहास का काला दिन”
कहा था। पंजाब पर
मार्शल लॉ लाद दिया गया। अमृतसर हत्याकांड पर जांच की हंटर समिति ने सर्वसम्मति से
डायर के कार्यों की निंदा की। कमांडर जनरल डायर पर लंदन की ब्रिटिश पार्लियामेंट
में केस चला और उसको नौकरी से बरख़ास्त कर दिया गया। पंजाब की इस जालियांवाला बाग
कांड ने लोगों में स्वराज पाने की लगन को और अधिक गहरा किया।
अमृतसर-कांग्रेस
यह एक अजीब संयोग था कि जिस साल
जालियांवाला हत्या-कांड हुआ उसी साल दिसंबर के महीने में कांग्रेस का अधिवेशन भी
अमृतसर में हुआ। मोतीलाल ने तो पंजाब में ही डेरा डाल रखा था, इसलिए उन्हें ही
अध्यक्ष चुना गया। स्वामी श्रद्धानंद स्वागत समिति के अध्यक्ष थे। इस अधिवेशन में
कोई महत्वपूर्ण निर्णय नहीं लिया गया। इसका कारण यह था कि बहुत सी बातों की जांच
की गई थी और उसके रिपोर्ट का इंतज़ार था। फिर भी एक बात तो साफ थी ही कि कांग्रेस
अब पहले वाली कांग्रेस नहीं रह गई थी। उसमें सामूहिक और जन-व्यापकता आ गई थी।
उस अधिवेशन में लोकमान्य बालगंगाधर
तिलक भी मौज़ूद थे। वे किसी भी तरह से समझौते के लिए तैयार नहीं थे। वह आख़िरी
अधिवेशन था जिसमें उन्होंने भाग लिया था। अगले अधिवेशन के पहले ही उनकी मृत्यु हो
गई थी। उस अधिवेशन में गांधीजी भी उपस्थित थे। अब तक गांधीजी जब भी कांग्रेस
अधिवेशन में भाग लेते तो प्रेक्षक के रूप में लेते। लेकिन चंपारण सत्याग्रह, खेड़ा
सत्याग्रह, स्वराज सभा, रॉलेट बिल और जालियांवाला बाग कांड के बाद स्थिति बदल चुकी
थी। वे जनता के बीच लोकप्रिय हो चुके थे। दिसंबर में, जिन क़ैदियों पर हिंसा का
अभियोग नहीं था, उन्हें आम माफ़ी प्रदान कर जेल से रिहा कर दिया गया था। अधिवेशन
में बहुत से ऐसे नेता भी भाग ले रहे थे जो सीधे जेल से आए थे और सैनिक क़ानून के
दिनों में उन्होंने षडयंत्र में शामिल होने के आरोप के कारण लंबी सज़ा हुई थी लेकिन
माफ़ कर दिए जाने के कारण बाहर आए थे। प्रसिद्ध अली बंधु, लाला लाजपत राय और लाला
हरिकिशन लाल आदि छूट कर आए थे।
मांटेग्यू-चेम्सफ़ोर्ड सुधार पर कांग्रेस अधिवेशन में प्रस्ताव
अमृतसर का नरसंहार एक दुखद लेकिन
निर्णायक घटना थी। भारतीयों को लगाने लगा कि ब्रिटिश सरकार से उम्मीद करना बेकार
है। इस घटना ने कई अंग्रेजों को भी अपराधबोध से ग्रसित कर दिया था। उनमें इस
नृशंसता के लिए पश्चाताप का भाव पैदा हुआ। सरकार को लगा कि शासन में कुछ सुधार कर
भारतीयों को बहला-फुसला लिया जाएगा। इसीलिए ब्रिटिश सरकार ने एडविन मांटेग्यू और लॉर्ड चेम्सफ़ोर्ड (वायसराय) के
मातहत एक समिति का गठन किया, ताकि यह समिति भारत को संविधान देने और शासन साझेदारी
के उपाय सुझाए। इस समिति ने कुछ रियायतें देने का वादा किया था। ‘उत्तरदायी सरकार’
लाने की समस्याओं का समाधान के लिए ‘द्विशासन’ का एक अनोखा उपाय इस समिति
ने सुझाया था, जिसके तहत प्रांतीय सरकारों के कुछ विभाग जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य,
कृषि, स्थानीय निकाय मंत्रियों को सौंप दिए गए थे जो विधायिकाओं के प्रति
उत्तरदायी थे, जबकि अन्य विषयों को ‘आरक्षित’ रखा गया था।
कांग्रेस के अमृतसर अधिवेशन में इन
रियायतों पर भी चर्चा हुई। पिछले वर्ष कांग्रेस अपने दिल्ली अधिवेशन में इन
सुधारों के प्रति आलोचनात्मक रवैया अपना चुकी थी। इस कारण नरमदलीय तत्व कांग्रेस
से अलग होकर सप्रू, जयकर और चिंतामणि ने नेशनल लिबरल एसोसिएशन की स्थापना की थी।
हालांकि गांधीजी को ये सुधार पसंद तो नहीं थे, लेकिन अमृतसर कांग्रेस के समय उनका
मानना था कि सरकार के प्रयास को सद्भाव से देखना चाहिए। अगर कांग्रेस इन सुधारों
को मान लेती है, तो आगे की मांगों में सुविधा होगी। लोकमान्य तिलक और देशबंधु
चितरंजन दास को यह सुधार ज़रा भी मान्य नहीं था। महामना निष्पक्ष थे। कांग्रेस दो
पक्षों में बंट गई। गांधीजी इस मतभेद से क्षुब्ध थे। गांधीजी ने चेताया, “मैं कहता हूँ, पागलपन का जवाब पागलपन
से मत दीजिए बल्कि पागलपन का जवाब होशमंदी से दीजिए, और फिर पूरी स्थिति आपके काबू
में होगी”। उन्हें लगा कि यदि वे अधिवेशन छोड़कर
अहमदाबाद चलें जाएं तो कांग्रेस की दुविधा टल जाएगी। लेकिन अध्यक्ष मोतीलाल नेहरू
और मालवीयजी ने गांधीजी के चले जाने के प्रस्ताव को नामंज़ूर कर दिया। गांधीजी ने
देशबंधु, लोकमान्य और जिन्ना से काफ़ी चर्चाएं की। जिन्ना और गांधीजी पिछले कुछ समय
से एक-दूसरी की मदद कर रहे थे। अपने खिलाफ राज द्वारा अदालत की मानहानि का दावा कर
देने पर गांधीजी ने जिन्ना की मदद माँगी थी। उन दिनों जिन्ना इंगलैंड में अपनी
पत्नी रत्ती के साथ छुट्टियां मना रहा था। जिन्ना को गांधीजी की चिट्ठी मिली
जिसमें गांधीजी ने उससे भारत आने का निवेदन किया था। कांग्रेस के इस अमृतसर
अधिवेशन में चेम्सफोर्ड सुधारों के मत पर जिन्ना ने गांधीजी के रुख का समर्थ करते
हुए अपने भाषण में उन्हें `महात्मा गांधी’ कहा था। जिन्ना के ही पहल पर चितरंजन दास
आदि की आलोचनाओं के बावजूद कांग्रेस ने सुधारों पर अमल करने पर सहमति दी थी।
जयराम-दौलतराम ने एक संशोधन सुझाया,
जो सबको मान्य था और समस्या का समाधान हो गया। प्रस्ताव में रौलट एक्ट को
निराशाजनक बताते हुए एक समझौता सूचक धारा जोड़ दिया गया। इस बैठक में जो प्रस्ताव
पारित हुआ, उसमें महत्त्वपूर्ण बातें थीं, जालियांवाला बाग स्मारक फंड एकत्रित
करना, हाथ कताई और हाथ बुनाई को प्रमुखता देना और कांग्रेस का संविधान तैयार करना।
अब तक गांधीजी कांग्रेस के कार्य से अलग-थलग थे। पर अब वे कांग्रेस में फंसने लगे
थे। प्रस्ताव में पारित तीनों काम गांधीजी
के मत्थे आ पड़ा।
गांधीजी को फंड इकट्ठा करने का
अनुभव तो अफ़्रीका से ही था। कुछ ही दिनों में पांच लाख से ज़्यादा रुपया फंड के नाम
आ गया। कांग्रेस के संविधान बनाने का काम भी उन्हें मिला था। अब तक कांग्रेस
गोखलेजी के बनाए कुछ नियमों पर चल रहा था। कांग्रेस का कार्यक्षेत्र बढ़ चुका था।
अधिवेशन में जो प्रस्ताव पारित होते उसके अनुपालन की कोई व्यवस्था नहीं थी। इसलिए
ज़रूरी था कि कांग्रेस का पक्का संविधान तैयार किया जाए। गांधीजी ने लोकमान्य और
देशबंधु से आग्रह किया कि वे अपने प्रतिनिधियों को संविधान समिति में नामित करें।
लोकमान्य ने केलकर और देशबंधु ने आई.वी. सेन को नामित किया। एकमत से कांग्रेस का
संविधान तैयार हुआ और 1920 की नागपुर कांग्रेस ने इसे स्वीकार कर लिया।
रॉलेट सत्याग्रह का परिणाम और उपसंहार
रॉलेट सत्याग्रह का उद्देश्य ब्रिटिश
शासन के खिलाफ लोगों की राजनीतिक चेतना को जगाना था। इस आंदोलन ने भारतीय राजनीति
में सत्याग्रह की शुरुआत की, जिसने न केवल भारत के स्वतंत्रता संग्राम की तकनीक और
कार्यक्रम को बदल दिया, बल्कि राजनीति की मूल विषय-वस्तु और लोगों के
दृष्टिकोण को भी बदल दिया। यद्यपि सत्याग्रह कांग्रेस के तत्वावधान में नहीं चलाया
गया था, लेकिन इसने गुणात्मक रूप से उस संगठन के चरित्र को
बदल दिया। इसने गांधीजी को भारतीय राजनीति के केंद्र में मजबूती से स्थापित किया
और देश के इतिहास में एक नए चरण, गांधीवादी चरण की शुरुआत की। गांधीजी ने इस सत्याग्रह के
लिए लोगों से प्रार्थना और उपवास करने की अपील की थी। इस आह्वान में एक धार्मिकता का भाव था। इसका परिणाम भी ऐसा हुआ जैसा
पहले कभी नहीं हुआ था। इस अपील ने प्रत्येक देशवासी के मर्म को गहराई में जाकर
स्पर्श किया था। यह पहला मौक़ा था जब देश के सभी वर्गों के लोग मिलकर खड़े हुए थे।
इस विषय पर ‘महात्मा गाँधी के जीवन और दर्शन’ की चर्चा करते हुए रोमां रोला कहते हैं, “भारत ने अपने आपको ढूंढ लिया था।”
सत्याग्रह का अर्थ है सत्य पर डटे रहना। जो
सत्याग्रही होता है, वह विनीत होता है। जो विनीत होता है वह अत्यंत शक्तिशाली होता
है। इस आन्दोलन द्वारा गांधीजी के सत्याग्रह रूपी
शक्तिशाली अस्त्र से न सिर्फ भारतीय बल्कि ब्रिटिश हुकूमत का भी सामना हुआ।
इसका प्रभाव विलक्षण और चमत्कारिक था। इससे भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में
निर्णायक भूमिका निबाहने वाला राष्ट्रीय नायक मिल गया। गांधीजी भारत तथा दुनिया
में एक राजनीतिक शक्ति के रूप में उभरे। उन्होंने रॉलेट सत्याग्रह के द्वारा अपने
महत्त्वपूर्ण औजार ‘सत्याग्रह’ की परीक्षा कर ली थी, और उन्हें विश्वास हो गया था कि अब इस सिद्धांत को और व्यापक स्तर पर अमल में लाने की घडी आ चुकी है। उन्होंने
अधिकांश भारत को मानसिक रूप से इतना तैयार कर लिया था कि अहिंसक-विरोध प्रदर्शन की
संभावना बन गई थी।
रॉलेट विधेयक के कारण खुद गांधीजी में भी
परिवर्तन आया। सम्राट का यह विनम्र और स्वामीभक्त नागरिक, एक विद्रोही बन चुका था। वे ब्रिटिश राज के प्रति
अपनी निष्ठा त्याग चुके थे। समूचे भारत में अंग्रेजों द्वारा किए गए भयंकर नरसंहार
ने उनके सामने एक ही विकल्प छोड़ा था, जो था – ‘संघर्ष’!
जब हण्टर
समिति की रिपोर्ट प्रकाशित हुई तो गांधीजी को लगा कि वह लीपापोती करने की कोशिश से
अधिक कुछ न थी। ब्रिटिश संसद में पंजाब पर हुई। बहस सुनने के बाद एक भारतीय संवाददाता ने गांधीजी को
लिखा था : “हमारे मित्रों ने अपना अज्ञान प्रकट किया, हमारे
शत्रुओं ने अपनी तिरस्कारपूर्ण ढिठाई।” 1919 की घटना,
रॉलेट एक्ट, जालियावाला बाग कांड और पंजाब में मार्शल लॉ ने यह जता दिया कि
अंग्रेज़ी हुकूमत से सिवा दमन के और कुछ नहीं मिलने वाला है। मांटेग्यू-चेम्सफॉर्ड
सुझाव भी एक छलावा मात्र ही था। इसका मकसद दोहरी शासन प्रणाली लागू करना था, न कि
जनता को राहत देना। दुखपूर्वक, गांधीजी को यह मानना पड़ा कि
जिस शासन-प्रणाली को वह सुधारने की कोशिश करते रहे थे, उसका
तो अन्त ही करना पड़ेगा। उन्होंने कहा था, “सर्वत्र मज़बूत विरोध के
बावजूद रॉलेट विधान को अस्तित्व में बनाए रखना राष्ट्र का अपमान है। राष्ट्रीय
गौरव की सांत्वना के लिए उसका निरसन (repeal) करना आवश्यक है।” इस क़ानून का आखिरकार निरसन
हुआ। दमनकारी कानून समिति की रिपोर्ट को स्वीकार करते हुए, ब्रिटिश
औपनिवेशिक सरकार ने मार्च 1922 में रॉलेट एक्ट, प्रेस एक्ट
और बाईस अन्य कानूनों को निरस्त कर दिया।
पंजाब के
अत्याचारों के बाद भूल-सुधार के बजाय ब्रिटिश सरकार अपने अफसरों की करतूतों पर
पर्दा डालने में लगी थी। ब्रिटिश संसद ने डायर के कारनामों को उचित करार दिया था।
‘मॉर्निन्ग पोस्ट’ ने जनरल डायर को अच्छी-खासी रकम भेंट देने के लिए 30 हज़ार पौंड
का कोष जुटाया था, चंदा देने वालों में से एक था रुडयार्ड किपलिंग। यह सब देखकर
गांधीजी की ब्रिटिश शासन में रही-सही आस्था भी चूर-चूर हो गई। उनका अब मानना था कि
ऐसे ‘शैतानी’ शासन से असहयोग करना प्रत्येक भारतीय का कर्तव्य था। लेकिन 13अप्रैल,1919 को घटित जलियांवाला
बाग हत्याकांड के बाद, रॉलेट विरोधी सत्याग्रह ने अपनी गति खो
दी। इसके अलावा पंजाब, बंगाल और गुजरात में हुई हिंसा ने गांधी जी को आहत किया। गांधीजी ने जब देखा था कि
पूरा माहौल हिंसा की चपेट में है, तो 18 अप्रैल 1919 को उन्होंने आन्दोलन वापस ले
लिया था। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं था कि गांधीजी का अहिंसक आंदोलन से विश्वास उठ
गया था। इसका यह भी मतलब नहीं था कि वे अंग्रेज़ों के कहर से डर गए थे। इसका यह भी
मतलब नहीं था कि वे भारतीय जनता से निराश हो गए थे। अमृतसर में जो हुआ उससे गांधीजी
ने घोषणा कर दी कि 'शैतानी शासन' के साथ सहयोग अब असंभव था। इस घटना के
बाद गांधीजी ने भारत से अंग्रेज़ों की जड़ उखाड़ फेंकने का दृढ़ संकल्प लिया और एक साल
बाद उन्होंने फिर एक राष्ट्रव्यापी आंदोलन छेड़ा, जो “रॉलेट सत्याग्रह” से भी अधिक व्यापक था! अब असहयोग
आंदोलन का रास्ता तैयार था।
*** *** ***
मनोज कुमार
पिछली कड़ियां- राष्ट्रीय आन्दोलन
संदर्भ : यहाँ पर
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