राष्ट्रीय आन्दोलन
265. ‘यंग इंडिया’ और ‘नव जीवन’ का सम्पादन
1919
प्रसिद्ध शायर अकबर इलाहाबादी ने लिखा था, "जब तोप मकुाबिल हो तो अखबार निकालो"। अहिंसा में अटूट विश्वास रखने वाले गांधीजी भी अखबार को तोप के मुकाबले अधिक असरदार अहिंसक हथियार मानते थे इसीलिए उन्होंने अफ्रीका
में मौका मिलते ही 1904 में इंडियन ओपिनियन साप्ताहिक अखबार की शुरूआत की थी। 1915 में अफ्रीका का काम पूरा होने पर भारत आने के बाद यहां भी गांधीजी
ने मौका मिलते ही ‘नवजीवन’ और ‘यंग इंडिया’ अखबारों की शुरूआत की ताकि
अपने लेखों के माध्यम से वह जनता से सीधे संवाद
कर जनता को जागरूक कर सकें और अपने विचारों और आंदोलनों का प्रचार प्रसार कर सकें। यह दोनों अखबार ‘बॉम्बे क्रोनिकल’ अखबार निकालने वाले
उमर सुभानी के थे जो उन्होंने गांधीजी
को सौंप दिये थे।
1919 में बंबई से ‘बॉम्बे क्रोनिकल’ नाम से एक अंग्रेज़ी पत्र निकलता था। उसके मालिक उमर सुभानी
थे। इसका संपादन एक आयरिश सज्जन होर्निमन करते थे। वे भारत की पराधीनता के विरोधी
थे और अपने संपादकीय में रौलट बिल का उग्र विरोध भी किया करते थे। हॉर्निमैन ने
कभी भी अराजकता को मंजूरी नहीं दी और न ही हिंसा के किसी भी कृत्य का समर्थन किया।
लेकिन वे सरकार के निडर आलोचक थे। सरकार ने प्रेस
एक्ट के तहत बॉम्बे क्रॉनिकल के खिलाफ़ कार्रवाई की और 26 अप्रैल को सरकार का विरोध और भारतीय प्रजा का पक्ष लेने के कारण सरकार
ने होर्निमन को गिरफ़्तार कर इंग्लैंड जाने वाली स्टीमर में क़ैद कर देश पार करा
दिया। बॉम्बे क्रॉनिकल और उसके प्रेस पर सरकारी सेंसरशिप लगा दी गई। उनके अचानक निर्वासन ने गांधीजी को बहुत पीड़ा और आश्चर्य
दिया। समय-समय पर गांधीजी इस अखबार में लेख लिखते थे। उन दिनों उमर सुभानी एक और
अखबार ‘यंग इंडिया’ भी चलाते थे। वे चाहते थे कि होर्निमन की अनुपस्थिति में
गांधीजी इन दोनों अखबार का संपादन संभाल लें। लेकिन सरकार ने क्रोनिकल के दफ़्तर को
सील कर दिया। उमर सुभानी की मालिकी का एक और समाचार पत्र ‘नवजीवन’ अहमदाबाद से
निकलता था, जिसके संपादक इंदुलाल याज्ञिक थे। उमर सुभानी ने अहमदाबाद की पत्रिका
गांधीजी को दे दी। इंदुलाल याज्ञिक ने गांधीजी के साथ काम करना स्वीकार कर लिया।
इस तरह गांधीजी बंबई से ‘यंग इंडिया’ और अहमदाबाद से ‘नवजीवन’ साप्ताहिक निकालने लगे। दो जगह से पत्र निकालने में काफ़ी कठिनाइयां
हो रही थीं। इसी बीच ‘क्रोनिकल’ से सरकार का प्रतिबंध भी हट गया। तब यह तय हुआ कि ‘यंग इंडिया’ और ‘नवजीवन’ अहमदाबाद से ही
निकाला जाएगा।
इंडियन ओपिनियन के अनुभव से गांधीजी पहले से जानते थे कि ऐसी पत्रिकाओं को
अपना प्रेस चाहिए। इसके अलावा उस समय भारत में प्रेस कानून ऐसे थे कि अगर वह अपनी
बात बिना किसी बाधा के कहना चाहते तो मौजूदा प्रिंटिंग प्रेस, जो स्वाभाविक रूप से व्यवसाय के लिए चलाई जाती थीं, उन्हें छापने में हिचकिचाहट महसूस करतीं। इसलिए अपना खुद का
प्रेस स्थापित करने की आवश्यकता और भी बढ़ गई और चूंकि यह काम केवल अहमदाबाद में
ही हो सकता था, इसलिए यंग इंडिया को भी वहीं ले जाना पड़ा। यंग इंडिया का मुख्यालय अहमदाबाद में स्थानांतरित कर दिया
गया, ताकि बेहतर प्रबंधन हो सके और गांधीजी सत्याग्रह आश्रम को कुछ समय दे सकें।
इसके अलावा, दो अलग-अलग स्थानों पर दो अखबारों का संपादन करना हर दृष्टि
से अलाभकारी था। वह अपने विचारों को बिना किसी बाधा के व्यक्त करना चाहते थे और
इसलिए उन्होंने अहमदाबाद में अपना खुद का प्रेस स्थापित किया। गांधीजी ने नवजीवन
में लिखा था, "चूंकि नवजीवन को मुद्रण में काफी कठिनाई हो रही थी और
अहमदाबाद में यंग इंडिया को छापने की व्यवस्था की जा रही थी, इसलिए अहमदाबाद के मनोहर प्रेस को अब खरीद लिया गया है और
इसका नाम बदलकर 'नवजीवन प्रेस' कर दिया गया है।"
गांधीजी के हाथ में आते ही इन अखबारों की किस्मत चमक गयी। गांधीजी ऐसे पारस व्यक्ति थे जिनके सानिध्य में जो भी आया
वह सोने सा चमक गया चाहे वह अखबार हो या गांधीजी
के करीबी जन। गांधीजी ने नवजीवन और यंग इंडिया अखबारों से जनता को सत्याग्रह की शिक्षा
दी ताकि सविनय अवज्ञा के दौरान
सत्याग्रही अपने आंदोलन को ठीक से चला सकें। गांधीजी ने शुरू से ही इन पत्रिकाओं
में विज्ञापन लेने के खिलाफ़ आवाज़ उठाई। इससे उन्हें अपनी आज़ादी बनाए रखने में
काफ़ी मदद मिली।
इस प्रकार रौलट एक्ट की दमन की नीति के फलस्वरूप भारत की प्रजा को सत्याग्रह
का रहस्य समझाने के लिए 7 सितंबर 1919 से अहमदाबाद से “नवजीवन” साप्ताहिक प्रकाशित होने लगा। गांधीजी उसके संपादक बने। अक्टूबर
1919 से “यंग इंडिया” भी अहमदाबाद से निकलने लगा। गांधीजी दो पत्रिकाओं के
संपादक थे, महादेव देसाई प्रकाशक और शंकरलाल बैंकर प्रिंटर। इंदुलाल याज्ञिक गांधीजी के सहायक बन गए। पत्रिकाओं की कीमत एक आना प्रति थी और जल्द ही भारत के
दूर-दराज के इलाकों में पढ़ी जाने लगीं,
कभी-कभी समूहों में। यंग इंडिया की तुलना
में नवजीवन की बिक्री काफी तेजी से बढी। गांधीजी ने लिखा था, “यंग इंडिया के पास 1,200 से कुछ
ज़्यादा ग्राहक हैं, जबकि नवजीवन के पास 12,000 ग्राहक हैं। यह
दर्शाता है कि स्थानीय भाषा का अख़बार एक ज़रूरत है। मुझे यह सोचकर गर्व होता है
कि मेरे पास किसानों और मज़दूरों में से कई पाठक हैं। वे भारत बनाते हैं। उनकी
गरीबी भारत का अभिशाप और अपराध है। उनकी समृद्धि ही भारत को रहने लायक देश बना
सकती है। वे भारत की लगभग अस्सी प्रतिशत आबादी का प्रतिनिधित्व करते हैं।
अंग्रेज़ी पत्रिकाएँ भारत की आबादी के एक छोटे से हिस्से को छूती हैं।” अगस्त 1921 से हिंदी नवजीवन भी छपने लगा। हरिभाऊ उपाध्याय इसके संपादक बने। महादेव देसाई
यंग इंडिया के संपादक थे। स्वामी आनंद ने भी इन पत्रिकाओं के सुचारू प्रकाशन में
अपना जी-जान लगा दिया। पहले दोनों अख़बारों की थोड़ी ही प्रतियां छपती थीं,
बढ़ते-बढ़ते इसकी संख्या 40,000 के आसपास पहुंच गई। लेकिन गांधीजी के जेल जाने पर यह काफी कम हो जाती थी। यह तथ्य
प्रमाणित करता है कि गांधीजी के लेख ही इन अखबारों की जान थे। नवजीवन गांधीजी के विचारों का एक उत्कृष्ट माध्यम बन गए और
जनता के साथ-साथ सत्याग्रहियों की शिक्षा का एक प्रभावी साधन बन गए, जब तक कि 1931
में उनका प्रकाशन बंद नहीं हो गया। बाद
में फरवरी-मार्च 1933 में उनकी जगह अंग्रेजी हरिजन, हिंदी हरिजन सेवक
और गुजराती हरिजनबंधु ने ले ली।
इन पत्रों के महत्त्व को स्वीकारते हुए गांधीजी कहते हैं, “संयोग से इन पत्रिकाओं ने मुझे कुछ हद तक अपने आप में शांति
बनाए रखने में भी मदद की,
क्योंकि सविनय अवज्ञा का तत्काल सहारा
लेना संभव नहीं था, लेकिन उन्होंने मुझे अपने विचार खुलकर व्यक्त करने और लोगों
में अपना दिल लगाने में सक्षम बनाया। इस प्रकार मुझे लगता है कि दोनों पत्रिकाओं
ने इस कठिन समय में लोगों की अच्छी सेवा की और मार्शल लॉ के अत्याचार को कम करने
में अपना विनम्र योगदान दिया।”
जिस नियमितता के साथ वे प्रकाशित होते थे और जिस तरह से गांधीजी यात्राओं के
दौरान उनके लिए लिखते थे और जिस तरह से वे लेखों को विशेष रेलवे स्टेशनों से पोस्ट
करवाते थे ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि ये लेख समय पर अहमदाबाद पहुँचें, जहाँ उन्होंने नवजीवन कार्यालय में एक प्रिंटिंग प्रेस
स्थापित की थी, यह उनके साथ काम करने वाले सभी लोगों के लिए आश्चर्यजनक और
सबसे शिक्षाप्रद था। साप्ताहिक पत्रिकाओं का उद्देश्य जनमत को शिक्षित करना और
सत्याग्रहियों, मित्रों और समर्थकों के साथ-साथ विरोधियों को गांधीजी की
सोच और उनके और उनके सहयोगियों द्वारा की जा रही विभिन्न गतिविधियों की प्रगति से
अवगत कराना था। साप्ताहिक पत्रिकाओं ने जन शिक्षा और जन संचार के प्रभावी साधन के
रूप में काम किया, जैसा कि इंडियन ओपिनियन ने दक्षिण अफ्रीका में किया था।
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मनोज कुमार
पिछली कड़ियां- राष्ट्रीय आन्दोलन
संदर्भ : यहाँ पर
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