राष्ट्रीय आन्दोलन
269. असहयोग आन्दोलन-2
1920-22
आन्दोलन की विशेषता
गांधी जी के सिद्धांत में शांतिवाद के साथ
स्फूर्ति और कर्मण्यता थी। वे नेताओं को एक
जगह टिक कर बैठने नहीं देते थे। उन्हें गाँवों में भेजते थे। ये लोग गांधी जी के
कर्म-सिद्धांत के संदेश-वाहक
होते थे। इन संदेश-वाहकों के क्रिया-कलापों
से किसानों की आंखें खुल गईं। उस समय के अधिकांश कांग्रेसी नेताओं को इसकी सफलता
पर संदेह था। उस समय के प्रमुख नेताओं में से सिर्फ़ मोतीलाल नेहरू का समर्थन मिला
था। किंतु आम कांग्रेसियों और जन-साधारण के ऊपर गांधी जी का जादू-सा प्रभाव था। मुसलमानों का भी
अभूतपूर्व सहयोग मिला। अली बंधुओं के नेतृत्व में ख़िलाफ़त कमेटी से भी ज़ोरदार
समर्थन मिला। जूडिथ ब्राउन हमें बताती हैं कि गांधीजी ने शुरू में मध्यस्थ की
भूमिका निभाकर खुद को दोनों समूहों के लिए महत्वपूर्ण बना लिया था। वह हिंदू
राजनेताओं के साथ भी एक अपरिहार्य कड़ी थे और खिलाफत नेता हिंदू-मुस्लिम एकता के
लिए बेहद उत्सुक थे, जिसके बिना सेवाओं या परिषदों के बहिष्कार से
जुड़ा कोई भी असहयोग आंदोलन स्पष्ट रूप से असंभव था।
यह बात तो तय थी कि हिंसात्मक संघर्ष से भारत
ब्रिटिश-सरकार के ख़िलाफ़ चाहे कितना भी
ज़ोर लगा लेता, उसके ताक़त की बराबरी नहीं कर सकता था। इस आंदोलन
ने भारत के लोगों को अपने पर भरोसा रखना और अपनी शक्ति बढ़ाना सिखाया। यह एक
शांतिपूर्ण विद्रोह था, लेकिन शासक वर्ग के स्थायित्व के लिए
बहुत खतरनाक था। लोग निडर होकर ब्रिटिश हुक़ूमत से आंख मिलाने लगे। असहयोग आंदोलन
ने गांधीजी को देश का प्रमुख नेता बना दिया। इस आंदोलन ने
देश को राष्ट्रीय स्वतंत्रता और पददलितों के शोषण के अंत का लक्ष्य दिया।
अबतक भारत का राष्ट्रीय आंदोलन
धनिक वर्ग का आंदोलन था। गांधीजी ने इस आंदोलन की इस दशा और दिशा में बदलाव लाया।
वे आम जनता का प्रतिनिधित्व करते थे। गांधीजी भारत की आत्मा और मर्यादा के प्रतीक
बन गए थे। वे जन-साधारण की आवाज़ बन कर सामने आए। वे आम जनता को ऊंचा उठाने की
आकांक्षा रखते थे। उन्होंने दलित, पिछड़े, ग़रीब, निराश जनता को ऐसा बना दिया जिसमें
आत्म-सम्मान की भावना जाग उठी। एक बड़े हित के लिए लोग मिलकर काम करने लगे।
उनमें खुद पर भरोसा जगा। गांधीजी ने उन्हें इस योग्य बना दिया कि वे अब देश की
राजनीतिक और आर्थिक समस्याओं पर भी विचार करने लगे। यह एक अद्भुत मनोवैज्ञानिक
परिवर्तन था। इस काल में अद्भुत जन-जागृति हुई। अब सामाजिक समस्याओं को गंभीरतापूर्वक देखा जाने लगा। उसे
महत्व दिया जाने लगा। चाहे उससे धनी वर्ग को नुकसान ही क्यों न पहुंचता हो,
आम जनता को ऊपर उठाने की बात बार-बार ज़ोर देकर
कही जाने लगी। राष्ट्रीय आंदोलन की प्रकृति में यह जबर्दस्त परिवर्तन था। उन्होंने
राष्ट्रीय आंदोलन को एक नई उड़ान दी।
गांधीजी
द्वारा शुरू किए गए नए कार्यक्रम और नीति ने कांग्रेस के लिए एक बड़ी छलांग लगाई।
अब यह राष्ट्रीय स्वतंत्रता प्राप्ति के संघर्ष में जनता का नेतृत्व करने वाली एक
शक्तिशाली राजनीतिक पार्टी के रूप में उभरी। कार्यक्रम की सफलता न केवल असहयोग
आंदोलन के तेजी से विकास में बल्कि देश के कई हिस्सों में जन संघर्ष के रूपों में
भी प्रदर्शित हुई। अकाली किसानों ने पंजाब में सरकार द्वारा संरक्षित अमीर महंतों
के खिलाफ विद्रोह किया। मार्च 1921 में एक गुरुद्वारे में एकत्रित शांतिपूर्ण सिख
तीर्थयात्रियों पर अचानक हमला किया गया और कई को गोली मार दी गई। अकाली आंदोलन देश
में आम जागृति का परिणाम था।
सरकार ने दमन का
रास्ता अपनाया
असहयोग आन्दोलन ने देश में नई ऊर्जा भर दी थी।
आंदोलनकारियों का हौसला बढ़ता जा रहा था। विद्यार्थियों, वकीलों, किसानों, मज़दूरों,
आदि द्वारा अनेकों आंदोलन चलाए जा रहे थे। अब तक सरकार यह मानती आ रही थी कि दमन
से विद्रोह की आग भड़केगी। जो लोग मारे जाएंगे उन्हें शहीद का दर्ज़ा दे दिया जाएगा।
इसलिए समझाने-बुझाने की नीति अपनाई जा रही थी। लेकिन 1921 के आख़िरी महीने में सरकार ने दमन का
रास्ता अपना लिया। स्वयंसेवी संगठनों को ग़ैरक़ानूनी घोषित कर दिया गया और इसके
सदस्यों को गिरफ़्तार किया जाने लगा। सबसे पहले सी.आर. दास गिरफ़्तार किए गए। उनकी
पत्नी बसंती देवी को गिरफ्तार किया गया, जिनकी गिरफ्तारी से बंगाल के युवा इतने भड़क गए कि हजारों
लोग गिरफ्तारी देने के लिए आगे आए। देश के अन्य भागों में भी कमोबेश यही हाल था। हज़ारों
लोगों ने गिरफ़्तारियां दीं। दो महीने के भीतर 30 हज़ार से ज़्यादा लोग जेल के अन्दर थे। लगभग सभी बड़े नेता गिरफ़्तार कर लिए
गए थे, केवल गांधीजी ही जेल के बाहर थे। बैठकों और सभाओं पर प्रतिबंध लगा दिया
गया। कांग्रेस और ख़िलाफ़त कमेटी को गैर-कानूनी घोषित कर उनके कार्यालयों पर छापे
मारे जाने लगे। कांग्रेस और खिलाफत कार्यालयों पर आधी रात को छापे पड़ना आम बात हो
गई।
फूट डालने की नीति
अंग्रेजों ने आन्दोलन के प्रभाव को कम करने के लिए फूट
डालने की नीति अपनाई। लॉर्ड एस.पी. सिन्हा और तेजबहादुर सप्रू जैसे कुछ अँग्रेज़
परस्त भारतीयों को सरकारी पद दिया गया। देशी रियासतों से सक्रिय सहयोग पाने के लिए
नरेंद्र मंडल का गठन किया गया। आन्दोलन के विरोध में प्रचार करने के लिए अमन सभा
की स्थापना की गयी। हिन्दू-मुस्लिम एकता को भंग करने के लिए साम्प्रदायिक दंगे
भड़काए गए।
चौरी-चौरा कांड- सत्याग्रह आन्दोलन स्थगित
गांधीजी के अहिंसा का जादू चमत्कार दिखा रहा था। सारा देश उत्साह
से भरा हुआ था। इसी बीच 5 फरवरी 1922 में उत्तरप्रदेश के चौरी चौरा नामक जगह पर उत्तेजना की एक घटना
घट गई। उस घटना से एकाएक सारे देश के राष्ट्रीय आंदोलन का सारा दृश्य ही बदल गया। एक स्वयंसेवक दस्ते ने अनाज की बढ़ती क़ीमत और
शराब की बिक्री के विरोध में स्थानीय बाज़ार में धरना दिया और उसके बाद एक शांत
अहिंसक जुलूस निकाला गया। पुलिस चौकी के पास से जुलूस गुज़रने लगा। जुलूस का मुख्य
हिस्सा थाने के सामने से आगे निकल गया था। जो पीछे रह गए थे, कुछ पुलिसवालों ने उन
पर ताना मारा, ‘फटीचर फ़ौज’ कहकर उनकी खिल्ली उड़ाई। उस जुलूस में कुछ युवक
भी थे। उनसे यह ओछा मज़ाक़ बर्दाश्त नहीं हुआ। उन्होंने भी कुछ सुना दिया। पुलिस ताव
में आ गई। स्वयंसेवकों के नेता व एक भूतपूर्व सैनिक भगवान अहीर को पुलिस ने
पीटा और विरोध करने वाले लोगों पर थानेदार ने गोली चलाने का हुक्म दे दिया। गोली
चली और एक सत्याग्रही वहीं शहीद हो गया। जब गोला-बारूद ख़त्म हो गया तो, पुलिस ने थाने
में घुसकर अंदर से किवाड़ बंद कर लिया। इतने में जुलूस लौट आया। इस शांत समुदाय से
वह निरीह मौत सहन नहीं हुआ। अहिंसक भीड़ उत्तेजित हो गई। इन लोगों ने पुलिस से बदला
लेने के लिए उस पुलिस स्टेशन पर आक्रमण कर उसमें आग लगा दी। इस अग्निकांड में 22 पुलिसवाले जल गए। इसे चौरी-चारा काण्ड कहा
जाता है।
इस घटना का समाचार गांधीजी को मिला। उन्हें लगा कि असहयोग का अहिंसक आन्दोलन अगर बेकाबू होकर हिंसक हो गया तो सत्याग्रह का शक्तिपुंज नष्ट हो जाएगा। सरकार तो ऐसी किसी ग़लती की ताक में रहती ही है। वे जानते थे कि हिंसक भीड़ को ज़्यादा हिंसा से अंकुश में लाना तो सत्ताधारी के लिए बहुत सुलभ है। वह इस नतीजे पर पहुंचे कि देश का वातावरण अभी जन-सत्याग्रह के उपयुक्त नहीं है। उन्हें लगा कि अहिंसक आंदोलन में हिंसा भड़के उसके पहले ही सत्याग्रह को स्थगित कर देना अच्छा रहेगा। कांग्रेस की कार्यकारिणी के जो सदस्य जेल से बाहर थे, उनसे उन्होंने सलाह मशविरा किया। 11 फरवरी को दिल्ली में महासमिति की बैठक हुई। नागरिक अवज्ञा स्थगित करके एक रचनात्मक कार्यक्रम पर सहमति
हुई। चौरी-चौरा कांड पर खेद प्रकट किया गया। सत्याग्रह-स्थगन का प्रस्ताव मंज़ूर कर लिया गया। सामूहिक सविनय अवज्ञा के
कार्यक्रम को रद्द करने और उसकी जगह कताई, संयम,
सुधार और शैक्षिक गतिविधियों का रचनात्मक कार्यक्रम शुरू करने का निर्णय लिया
गया। गांधीजी ने 12 फरवरी को पांच दिन का उपवास रखा।
गांधीजी द्वारा आन्दोलन
समाप्त करने की घोषणा से सारा देश स्तब्ध रह गया। सुभाषचंद्र बोस ने अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा था, “यह राष्ट्र के दुर्भाग्य के सिवा कुछ नहीं था ...।” नेहरू, चित्तरंजन दास और लाजपत राय भी स्तब्ध रह गए। वे समझ नहीं पा रहे थे कि दूरदराज के गांव में कुछ लोगों के पागलपन भरे
व्यवहार की कीमत पूरे देश को क्यों चुकानी पड़ रही है। देश में कई लोगों ने
सोचा कि महात्मा एक नेता के रूप में बुरी तरह विफल हो गए हैं और उनके गौरव के
दिन खत्म हो गए हैं। गांधीजी पर आरोप लगाया गया कि इस आन्दोलन को बुर्जुआवर्ग
और ज़मींदार-सामंतवर्ग के विशुद्ध वर्गस्वार्थों के लिए बंद कर दिया गया। इन वर्गों के स्वार्थ के लिए देश के स्वार्थ की बलि दे दी गयी। कई टिप्पणीकारों ने गांधीजी द्वारा लिए गए निर्णय की निंदा की और इसमें भारतीय
समाज के संपत्तिवान वर्गों के लिए महात्मा की चिंता का प्रमाण देखा। उनका तर्क था
कि गांधीजी ने अहिंसा की आवश्यकता में अपने विश्वास के कारण आंदोलन वापस नहीं
लिया। उन्होंने इसे इसलिए वापस लिया क्योंकि चौरी चौरा की कार्रवाई भारतीय जनता की
बढ़ती उग्रता, उनकी बढ़ती कट्टरता और
संपत्ति संबंधों की यथास्थिति पर हमला करने की उनकी इच्छा का प्रतीक और संकेत थी।
इस कट्टरपंथी संभावना से भयभीत और आंदोलन के उनके हाथों से निकलकर कट्टरपंथी
ताकतों के हाथों में जाने की संभावना से और जमींदारों और पूंजीपतियों के हितों की
रक्षा के लिए, जो अनिवार्य रूप से इस
हिंसा के शिकार होंगे, गांधीजी ने आंदोलन को
रोकने का आह्वान किया।
गांधीजी के आलोचक उनके
प्रति निष्पक्ष नहीं रहे हैं। सबसे पहले, यह तर्क कि दूरदराज के
गाँव में हिंसा इस निर्णय के लिए पर्याप्त कारण नहीं हो सकती,
अपने आप में एक कमज़ोर तर्क है। गांधीजी ने बारदोली में बड़े पैमाने पर सविनय
अवज्ञा का संचालन करते समय बार-बार चेतावनी दी थी कि वे देश के किसी अन्य हिस्से
में कोई अहिंसक आंदोलन भी नहीं चाहते हैं, और वास्तव में उन्होंने
आंध्र प्रदेश कांग्रेस कमेटी से सविनय अवज्ञा शुरू करने के लिए कुछ जिला कांग्रेस
समितियों को दी गई अनुमति वापस लेने के लिए कहा था। इसका एक स्पष्ट कारण यह था कि
बड़े पैमाने पर उग्रता और गतिविधि की ऐसी स्थिति में,
आंदोलन आसानी से हिंसक रूप ले सकता था, या तो अपनी अस्थिर प्रकृति
के कारण या संबंधित अधिकारियों द्वारा उकसावे के कारण (जैसा कि नवंबर 1921 में
बॉम्बे में और बाद में चौरी चौरा में हुआ था);
इसके अलावा, अगर कहीं भी हिंसा हुई तो
सरकार द्वारा पूरे आंदोलन पर बड़े पैमाने पर हमला करने के लिए इसे आसानी से बहाना
बनाया जा सकता था। गांधीजी मानते थे कि प्रमुख नेताओं के जेल चले जाने से जनता
दिशाहीन और हिंसक हो गयी थी और हिंसा के आधार पर सरकार का मुकाबला नहीं किया जा
सकता था। संघर्ष को अहिंसक रखकर ही
ब्रिटिश साम्राज्यवाद पर विजय प्राप्त की जा सकती थी। अगर गांधीजी ने आंदोलन वापस नहीं लिया होता,
तो यह आगे बढ़ता, बजाय इसके कि इसे कुचला
जाता और इस निष्कर्ष पर पहुंचा जाता कि सरकारी दमन के सामने एक जन आंदोलन का सफल
होना संभव नहीं था। यह याद रखना आवश्यक है कि आखिरकार,
असहयोग आंदोलन अंग्रेजों के खिलाफ अखिल भारतीय जन संघर्ष का पहला प्रयास था,
और इस प्रारंभिक चरण में एक गंभीर उलटफेर से मनोबल और निष्क्रियता का एक लंबा
दौर शुरू हो सकता था। गांधीजी के जीवनीकार रॉबर्ट पेन कहते हैं, “कांग्रेस के नेता निराश थे, जबकि गांधीजी चुपचाप खुश थे।
वह जानते थे, जबकि अन्य नहीं जानते थे, कि सविनय अवज्ञा अभियान एक
हजार और चौरी चौरा पैदा करेगा।”
गांधीजी के आलोचक अक्सर यह
पहचानने में विफल रहते हैं कि जन आंदोलनों में एक निश्चित ऊंचाई पर पहुंचने के बाद
क्षीण होने की अंतर्निहित प्रवृत्ति होती है, कि जनता की दमन का सामना करने, पीड़ा सहने और बलिदान देने की
क्षमता असीमित नहीं होती, कि एक समय ऐसा आता है जब संघर्ष के अगले दौर के लिए एकजुट
होने, स्वस्थ होने और ताकत जुटाने के लिए सांस लेने की जगह की
आवश्यकता होती है, और इसलिए, वापसी या गैर-टकराव के चरण में बदलाव राजनीतिक कार्रवाई की
रणनीति का एक अंतर्निहित हिस्सा है जो जनता पर आधारित है। वापसी विश्वासघात के बराबर
नहीं है; यह रणनीति का एक अपरिहार्य हिस्सा है। 12 फरवरी, 1922 को जो वापसी का आदेश दिया गया था, वह केवल अस्थायी था। लड़ाई खत्म हो गई थी, लेकिन युद्ध जारी रहा।
अब चूंकि गांधीजी
शक्तिशाली आंदोलन की कमान नहीं संभाल रहे थे, इसलिए सरकार ने उन्हें
गिरफ्तार करने का फैसला किया। किसी भी अन्य समय उनकी गिरफ्तारी के साथ व्यापक
अव्यवस्था और रक्तपात होता, लेकिन अब नहीं,
क्योंकि वे इसका स्वागत करते थे। गांधीजी ने शांति से कहा,
"उनके बीच से मेरा हटना लोगों के लिए फायदेमंद होगा।" 10 मार्च, 1922 की
रात को अहमदाबाद के पुलिस अधीक्षक डैन हीली एक ड्राइवर को लेकर अकेले ही साबरमती
आश्रम पहुंचे। उन्होंने संदेश भेजा कि गांधीजी को गिरफ्तार कर लिया गया है,
लेकिन जेल जाने से पहले वे जितना चाहें उतना समय ले सकते हैं। गांधीजी ने
आश्रम के लोगों से वैष्णव गीत गाने को कहा, एक अतिरिक्त लंगोटी,
दो कंबल और सात किताबें लीं और फिर अंधेरे में अधीक्षक की कार तक चले गए।
असहयोग आंदोलन की उपलब्धियां
एकाएक
सत्याग्रह-संघर्ष बंद कर देने से बहुत से कार्यकर्ताओं को निराशा हुई। लेकिन अल्प काल में ही इस आन्दोलन ने अनेक
उपलब्धियां हासिल की। इस आंदोलन ने पहली बार देश की जनता को इकट्ठा किया। इसने यह
दिखाया कि हिंदुस्तान की आम जनता आधुनिक राष्ट्रवादी राजनीति को आगे ले जाने में
समर्थ है। इस आन्दोलन ने बताया कि भारतीय जनता त्याग और बलिदान के मार्ग पर किसी
भी हद तक जाने के लिए तैयार है। इसने दमनकारी
सत्ता को बता दिया कि देश की गुलामी भारत के हर निरक्षर, गरीब और आम जनता को भी
सताती है। इस आन्दोलन ने बताया कि मज़दूर, किसान, दस्तकार, व्यापारी, व्यवसायी,
कर्मचारी, पुरुष, महिलाएं, बच्चे, बूढ़े, सभी लोग देश की आज़ादी के संघर्ष में जुड़
गए हैं। इस आंदोलन में मुसलमानों की भागीदारी भी एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि थी। इस
आंदोलन ने जनता को आधुनिक राजनीति से परिचित कराया। ... और सबसे ऊपर यह कि इस
आन्दोलन से जो कुछ भी हासिल हुआ, वह आगामी संघर्ष की पृष्ठभूमि तैयार करने में
सहायक हुआ।
स्थगन के द्वारा गांधीजी ने चेतावनी दी थी कि वह सत्याग्रह के
पवित्र सिद्धान्त की बलि देकर स्वराज नहीं लेंगे। वह एक सशस्त्र शक्ति के विरुद्ध
अस्त्रहीन संघर्ष का नेतृत्व कर रहे थे। वह जानते थे कि हिंसा की बागडोर ढ़ीली करने
के बाद कौन जीतेगा? चौरीचौरा की घटना और उसके परिणामों ने उस समय के शीर्ष नेताओं को
अहिंसा पर एक प्रणाली के रूप में सोचने के लिए विवश किया।
हमें उस समय की परिस्थिति को ध्यान में रखकर असहयोग के इस महान
प्रयोग के महत्त्व को आंकना चाहिए। पुराने और अनुभवी कांग्रेसी नेताओं को इस नए
कार्यक्रम की सफलता पर शुरू से ही संदेह था। वे इससे अलग-थलग रहे। जवाहरलाल नेहरू
को भी इस तरह के कार्यक्रम की सफलता के प्रति आशंका थी। “क्या
एक बड़े संघर्ष को शुरू करने का यही ढंग है? मुझे
तो उम्मीद थी कि बड़े-बड़े
जोशीले भाषण होंगे।” किसी भी राजनैतिक कार्यक्रम
की सफलता के लिए उपयुक्त राजनैतिक संगठन होना चाहिए। गांधीजी का मानना था कि देश
को वार्षिक समारोहों और लच्छेदार भाषण करने का मंच प्रदान करने वाली कांग्रेस की ज़रुरत
नहीं है। बल्कि जनता के सतत सम्पर्क में रहने वाले और जीवन्त लड़ाई कर सकने की
योग्यता वाले कांग्रेस की आवश्यकता थी। गांधीजी
ने विधान में परिवर्तन कर कांग्रेस को सशक्त बनाया।
कुछ लोगों को ‘असहयोग’ नाम ही नकारात्मक लग रहा था। गुरुदेव
रवीन्द्रनाथ टैगोर इस सारे कार्यक्रम को नकारात्मक (निगेटिव) मानते थे। न तो
असहयोग कार्यक्रम नकारात्मक था और न ही उसके नेता गांधीजी नकारात्मक नेता थे।
बल्कि वे कहीं अधिक रचनात्मक थे। असहयोग आन्दोलन के साथ-साथ उन्होंने
अस्पृश्यता-निवारण, राष्ट्रीय शिक्षा संस्थाओं की स्थापना, शराबबंदी, खादी, ग्राम
पंचायतों की स्थापना आदि के रूप में राष्ट्र के निर्माण में सहायक तथा समाज को
शुद्ध करके उसका बल बढ़ाने वाली अनेक गतिविधियाँ भी जारी कर दी थी।
कुछ लोग, जैसे मालवीयजी, श्रीनिवास शास्त्री और देशबंधु स्कूल
कॉलेज के बहिष्कार को अनावश्यक और हानिकारक मानते थे। उन्हें लगा कि स्थापित
संस्थाओं को तोड़ा जा रहा है। लेकिन गांधीजी के कार्यक्रम में उन संस्थाओं की जगह
नई संस्थाओं का निर्माण भी था। साबरमती के अपने सत्याग्रह आश्रम में उन्होंने एक
राष्ट्रीय पाठशाला खोली थी। काकासाहब कालेलकर उसके आचार्य थे। सरकारी स्कूलों और
कॉलेजों को छोड़ने वाले शिक्षकों और विद्यार्थियों के लिए राष्ट्रीय विद्यापीठ में
सम्मिलित होने के लिए कहा गया। शिक्षालयों के बहिष्कार की लहर आने पर भारत में
जगह-जगह नए-नए स्कूल-कॉलेज खुले। अहमदाबाद में गुजरात विद्यापीठ बना।
अदालतों का बहिष्कार करने वाले वकीलों और मुवक्किलों को अपने मुकदमे पंचायत में
ले जाने का आग्रह किया गया। सेना और पुलिस से इस्तीफ़ा देने वालों को कांग्रेस और
ख़िलाफ़त-समिति के स्वयंसेवक दलों में भर्ती होने के लिए कहा गया। विदेशी वस्त्रों
का बहिष्कार करने वालों को गांव के लोगों द्वारा बुने गए कपड़े पहनने के लिए तथा
खादी और कताई-बुनाई को प्रोत्साहन देने के लिए कहा गया। इस तरह यह नकारात्मक नहीं,
रचनात्मक आंदोलन था।
असहयोग को अनुशासन व आत्म-त्याग के एक साधन के रूप में पेश
किया गया था। हालाकि उच्च और मध्य वर्गों से जो अपील की गई थी उसका विशेष प्रभाव
नहीं हुआ, सिर्फ 24 लोगों ने ही उपाधियों का बहिष्कार
किया, फिर भी सरकारी उपाधियों और अवैतनिक पदों के त्याग से
आरंभ करके आंदोलन को सामूहिक सविनय अवज्ञा और करबंदी तक पहुंचाने के बीच में कई सीढ़ियां
रखी गई थीं। हर ज़िले या प्रांत को उसके अनुशासन और संगठन की स्थिति के ही अनुसार
एक बाद दूसरा कदम उठाने की अनुमति दी जाती थी। पूरा नियंत्रण गांधीजी के हाथ में
था। यदि आंदोलन के ज़रा सा भी उग्र रूप धारण करने की संभावना दिखी कि आंदोलन बंद कर
दिया जाएगा, ऐसी हिदायत थी। असहयोग ब्रिटिश राज्य से किया जा रहा था, लेकिन
अंग्रेज़ों से नफ़रत या बुरा व्यवहार करने की मनाही थी। गांधीजी
ने आत्म-शुद्धि पर बार-बार ज़ोर दिया। आंदोलन के नैतिक और आध्यात्मिक पक्ष पर लोगों
का ध्यान आकर्षित किया। सितंबर के कलकत्ता अधिवेशन में उन्होंने कहा, “यदि देश ने असहयोग के कार्यक्रम को सही ढंग से अपनाया तो एक साल में स्वराज्य प्राप्त किया जा सकता है”। सुभाष चंद्र बोस भले ही कहते कि “एक साल के भीतर स्वराज न केवल नासमझी है बल्कि बचकाना है”, लेकिन गांधीजी का मानना था कि सदियों से सोई हुई जनता को
जगाने, उन्हें निडर बनाने और कमर सीधी करके खड़ा करने में एक साल का समय बहुत काफी
है। लॉर्ड रीडिंग के भारत पहुंचने के कुछ समय बाद ही गांधीजी के मन में यह
विचार आया कि भारतीय ध्वज सफेद, हरा और लाल होना चाहिए - सफेद शुद्धता का
प्रतिनिधित्व करता है, हरा मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करता है और लाल
हिंदुओं का प्रतिनिधित्व करता है - और इसमें चरखे का चित्र होना चाहिए, क्योंकि “एक राष्ट्र के
रूप में भारत केवल चरखे के लिए ही जी सकता है और मर सकता है।”
प्रभाव और उपसंहार
इस आन्दोलन के दरम्यान आम कांग्रेसियों और
जन-साधारण के ऊपर गांधीजी का जबर्दस्त प्रभाव पड़ा। ऐसा लगता था जैसे गांधीजी ने
उनपर कोई जादू कर दिया हो। 1919-20 में गांधीजी देश के सबसे
बड़े राजनैतिक नेता बन गए। गांधीजी के साहस और त्याग की अपील पर लोगों ने
अपने को न्यौछावर कर दिया। लोगों को लगा कि वे किसी शिखर से उतरे मानव नहीं बल्कि
देश के करोड़ों लोगों में से ही प्रकट हुए हैं। उनकी भाषा, उनकी बोली, उनके हाव-भाव
लोगों को आकर्षित करते। आन्दोलन के दौरान मुसलमानों ने भी कम उत्साह नहीं दिखाया। वैभवशाली जीवन
जीने वाले देश के नेताओं ने सादगी का जीवन अपना कर उदाहरण प्रस्तुत किया।
गांधीजी ने
बहुत यात्राएँ कीं और जहाँ भी वे गए, चाहे बड़े
शहरों में हों या दूर-दराज के गाँवों में, हज़ारों-हज़ार
लोग उन्हें सुनने के लिए इकट्ठे हुए। अद्भुत दृश्य देखने को मिले। बिहार के एक
गाँव में जब गांधीजी और उनके साथी बारिश में फँसे हुए थे, तो एक बूढ़ी औरत गांधीजी को ढूँढ़ने आई। उसने कहा, "महाराज, अब मैं एक सौ
चार साल की हो गई हूँ, और मेरी
दृष्टि धुंधली हो गई है। मैंने कई पवित्र स्थानों की यात्रा की है। अपने घर में
मैंने दो मंदिर स्थापित किए हैं। जैसे हमारे यहाँ राम और कृष्ण अवतार के रूप में
थे, वैसे ही
महात्मा गांधी भी अवतार के रूप में प्रकट हुए हैं, मैंने सुना है। जब तक मैं उन्हें नहीं देख लेती, मृत्यु मुझे दिखाई नहीं देगी।" इस सरल आस्था ने भारत के
लाखों लोगों को प्रभावित किया और हर जगह उनका स्वागत "महात्मा गांधी- की जय"
के नारे के साथ किया। बारीसाल की वेश्याएँ, कलकत्ता के
मारवाड़ी व्यापारी, उड़िया कुली, रेलवे हड़ताली, खादी की
चादरें भेंट करने के लिए उत्सुक संथाल, सभी ने उनका
ध्यान आकर्षित किया।
1920 में गांधीजी द्वारा एक वर्ष
के भीतर स्वराज लाने के वादे ने आशाओं और आकांक्षाओं को बहुत बढ़ा दिया था। यह
नतीज़ा निकालना भी एक भूल होगी कि यह पहला असहयोग आंदोलन असफल रहा। इसने अंग्रेज़ी
राज के ख़िलाफ़ पूरे देश में बिजली-सी लहर पैदा की। लोगों में अभूतपूर्व उत्साह पैदा
हुई। जनता में, उसकी आर्थिक समस्यायों और राजनीतिक मसलों, विशेषकर साम्राज्यवाद का
विरोध, की चेतना जगाने में निश्चय ही इस आंदोलन की देन है। यहां
तक कि सीधे-सादे ग्रामीणों ने भी यह महसूस करना शुरु किया कि उनकी तकलीफ़ों को दूर
करने की सबसे अच्छी दवा स्वराज है। राष्ट्रीय संघर्ष में हिस्सा लेकर उन्होंने
स्वाधीनता के एक नये बोध का अनुभव किया। राज के डर पर विजय पा ली गयी थी। साधारण
लोगों ने, स्त्रियों और पुरुषों ने, धनिक और ग़रीब ने, सरकार की अवज्ञा करके दंड के
रूप में तकलीफ़ें बर्दाश्त करने की इच्छा और क्षमता दिखाई।
विदेशी कपड़ों का बहिष्कार अधिक तीव्र और सफल रहा। खादी पर बल देना गांवों की आवश्यकताओं का एक वास्तविक
मूल्यांकन था। इसका एकाएक स्थगित कर दिए जाने का बहुत महत्व नहीं था, क्योंकि वह
केवल अस्थाई ही हो सकता था। गांधी जी ने स्वयं व्याख्या की, “जो संघर्ष 1920 में शुरु हुआ वह
निर्णयात्मक संघर्ष है, चाहे वह एक महीना या एक साल चले, चाहे कई महीनों या कई
वर्षों तक।”
1922
तक गाँधी जी ने
भारतीय राष्ट्रवाद को एकदम परिवर्तित कर दिया और अब यह व्यावसायिकों व
बुद्धिजीवियों का ही आंदोलन नहीं रह गया था, अब हजारों की
संख्या में किसानों,
श्रमिकों और
कारीगरों ने भी इसमें भाग लेना शुरू कर दिया। ग़रीबों
विशेषकर किसानों के बीच गाँधी जी की अपील को उनकी सात्विक जीवन शैली और उनके
द्वारा धोती तथा चरखा जैसे प्रतीकों के विवेकपूर्ण प्रयोग से बहुत बल मिला।
इस
आंदोलन ने उस समय के राष्ट्रवाद के आधार को और व्यापक बनाया। इस सफ़लता का राज गांधीजी द्वारा सावधानीपूर्वक पुनर्गठित
किया गया संगठन था। भारत के विभिन्न भागों में कांग्रेस की नयी शाखाएँ खोली गयी।
रजवाड़ों में राष्ट्रवादी सिद्धान्त को बढ़ावा देने के लिए ‘प्रजा मंडलों’ की एक श्रृंखला
स्थापित की गई। गाँधी जी ने आम जनता को संदेश देने के लिए शासकों की अंग्रेजी भाषा
की जगह मातृभाषा का चयन किया। इन अलग-अलग तरीकों से राष्ट्रवाद देश के सुदूर
हिस्सों तक फ़ैल गया और अब इसमें वे सामाजिक वर्ग भी शामिल हो गए जो अभी तक इससे
अछूते थे।
व्यापारी
वर्ग का समर्थन मिलने से कांग्रेस की आर्थिक स्थिति में निश्चय ही सुधार हुआ। कांग्रेस के समर्थकों में कुछ बहुत ही समृद्ध
व्यापारी और उद्योगपति शामिल हो गए। भारतीय उद्यमियों ने यह बात जल्दी ही समझ ली
कि उनके अंग्रेज प्रतिद्वन्द्वी आज जो लाभ पा रहे हैं, स्वतंत्र भारत में
ये चीजें समाप्त हो जाएंगी। जी.डी. बिड़ला जैसे कुछ उद्यमियों ने राष्ट्रीय आंदोलन
का खुला समर्थन किया। इस प्रकार गाँधीजी के प्रशंसकों में गरीब किसान और धनी
उद्योगपति दोनों ही थे।
1917
और 1922 के बीच भारतीयों
के एक बहुत ही प्रतिभाशाली वर्ग ने स्वयं को गाँधी जी से जोड़ लिया। इनमें महादेव
देसाई,
वल्लभ भाई पटेल, जे.बी. कॄपलानी, सुभाष चंद्र बोस, अबुल कलाम आजाद, जवाहरलाल नेहरू, सरोजिनी नायडू, गोविंद वल्लभ पंत
और सी. राजगोपालाचारी शामिल थे। गाँधी जी के ये घनिष्ठ सहयोगी विशेष रूप से भिन्न-भिन्न क्षेत्रों के साथ ही भिन्न-भिन्न
धार्मिक परंपराओं से आए थे। इसके बाद उन्होंने अनगिनत अन्य भारतीयों को कांग्रेस
में शामिल होने और इसके लिए काम करने के लिए प्रेरित किया।
गाँधीजी
ने यह आशा की थी कि असहयोग को खिलाफ़त के साथ मिलाने से भारत के दो प्रमुख समुदाय-
हिन्दू और मुसलमान मिलकर औपनिवेशिक शासन का अंत कर देंगे। चाहे थोड़े समय के लिए ही
क्यों नहीं,
इन आंदोलनों ने
निश्चय ही हिन्दू-मुस्लिम एकता को बढाने में मदद की।
विद्यार्थियों
ने सरकार द्वारा चलाए जा रहे स्कूलों और कॉलेजों में जाना छोड़ दिया। वकीलों ने
अदालत में जाने से मना कर दिया। कई कस्बों और नगरों में श्रमिक-वर्ग हड़ताल पर चले
गए। सरकारी आँकड़ों के मुताबिक 1921 में 396 हड़तालें हुई
जिनमें 6
लाख श्रमिक शामिल
थे और इससे 70
लाख कार्य-दिवसों
का नुकसान हुआ था। पहाड़ी जनजातियों ने वन्य कानूनों की अवहेलना कर दी। अवध के
किसानों ने कर नहीं चुकाए। कुमाउँ के किसानों ने औपनिवेशिक अधिकारियों का सामान
ढोने से मना कर दिया।
आंदोलन के दौरान जनता की राष्ट्रीय भावनाओं को अभिव्यक्त
करने वाले अछूतोद्धार, राष्ट्रीय विद्यापीठ की स्थापना, अदालतों का बहिष्कार,
पंचायतों में आपसी झगड़ों का निपटारा, स्वयंसेवकों का संगठन, शराब की दुकानों पर
धरना, विदेशी कपड़ों का बहिष्कार, खादी का प्रचार वाले जैसे कई कार्यक्रम थे, जिसने
जन-आंदोलन के लिए लोगों को तैयार किया। गांधीजी ने इन कार्यक्रमों को चलाए जाने के
साथ ही इस बात की भी सतर्कता रखी कि कहीं सामाजिक और आर्थिक विद्रोह की ज्वालाएं न
भड़क उठें। इसलिए उन्होंने करबंदी में सरकार को कर देने की मनाही के बावज़ूद किसानों
को यह सलाह दी कि वे अपने ज़मींदारों को बराबर कर देते रहें। मज़दूरों को सलाह दी कि
अपने मालिकों से छुट्टी लेकर ही हड़ताल में शरीक हों।
1857 के विद्रोह के बाद पहली बार असहयोग आंदोलन के परिणामस्वरूप अंग्रेजी राज की
नींव हिल गई। गांधीजी द्वारा असहयोग आन्दोलन के मार्फ़त स्वराज की मांग अपना असर
दिखा रहा था। तभी तो किसी ने कहा है, “हममें
से बहुत से जिन्होंने कांग्रेस के कार्यक्रमों में काम किया था, 1921 में एक प्रकार
के नशे में जीते रहे। हममें उत्साह और आशावाद भरा था
....। हमें स्वाधीनता का आभास होने लगा जिस पर हमें
गर्व था।” गांधीजी के लिए स्वराज का अर्थ था राजनैतिक स्वतंत्रता और
जनतंत्रीय शासन-प्रणाली। वे सादा चरित्र और पवित्रता का गुण-गान करते थे। उन्होंने
भारतीय जनता की रीढ़ की हड्डी को शक्ति प्रदान की। उन्हें चरित्रवान बनाया। पिछड़ी
और निराश जनता ने उनके नेतृत्व में अपनी आत्मशक्ति को पहचाना और गर्व से सर उठाकर
जीना सीखा। जनता एक देशव्यापी अनुशासित, अहिंसक और संयुक्त आंदोलन में भाग लेने
लगी। महात्मा गाँधी के अमरीकी जीवनी-लेखक लुई फ़िशर ने बहुत
सही लिखा है कि ‘असहयोग भारत और गाँधीजी के जीवन के एक युग का ही नाम हो गया। असहयोग शांति की
दृष्टि से नकारात्मक किन्तु प्रभाव की दृष्टि से बहुत सकारात्मक था। इसके लिए
प्रतिवाद,
परित्याग और स्व-अनुशासन आवश्यक थे। यह स्वशासन के लिए एक प्रशिक्षण था।’
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मनोज कुमार
पिछली कड़ियां- राष्ट्रीय आन्दोलन
संदर्भ : यहाँ पर
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