राष्ट्रीय आन्दोलन
292. श्रमिक वर्ग
का आंदोलन
19वीं सदी के अंत में भारतीय
राष्ट्रवादी बुद्धिजीवियों द्वारा मजदूर वर्ग के आंदोलनों से जुड़ने से पहले, कई आंदोलन हुए थे, जिनमें बंबई, कलकत्ता, अहमदाबाद, सूरत, मद्रास, कोयंबटूर, वर्धा आदि की कपड़ा मिलों, रेलवे और बागानों में मजदूरों की
हड़तालें शामिल थीं। हालाँकि, वे ज़्यादातर छिटपुट, स्वतःस्फूर्त और असंगठित विद्रोह
थे जो तात्कालिक आर्थिक शिकायतों पर आधारित थे और उनका कोई व्यापक राजनीतिक
निहितार्थ नहीं था। श्रमिकों की स्थिति सुधारने के लिए संगठित प्रयास भी किए गए। ये
सभी प्रयास निश्चित रूप से परोपकारी प्रकृति के थे। मुख्यधारा का राष्ट्रवादी
आंदोलन अभी तक श्रम के सवाल के प्रति काफी हद तक उदासीन था। इस समय साम्राज्यवाद-विरोधी आंदोलन अपनी प्रारंभिक
अवस्था में था इसलिए राष्ट्रवादी किसी भी तरह से भारतीय लोगों के बीच विभाजन पैदा करके ब्रिटिश
शासन के खिलाफ आम संघर्ष को कमजोर नहीं करना चाहते थे।
1903-08 का स्वदेशी उभार मजदूर
आंदोलन के इतिहास में एक अलग मील का पत्थर था। इस समय हड़तालों की संख्या में तेजी
से वृद्धि हुई और कई स्वदेशी नेताओं ने स्थिर ट्रेड यूनियनों, हड़तालों, कानूनी सहायता और धन संग्रह अभियानों के आयोजन के
कार्यों में खुद को पूरी तरह झोंक दिया। हालांकि, यूरोपीय उद्यमों और भारतीय उद्यमों में कार्यरत
श्रमिकों के प्रति अलग-अलग रवैया इस अवधि के दौरान बना रहा। स्वदेशी के दिनों में
मजदूर आंदोलन की शायद सबसे महत्वपूर्ण विशेषता यह थी कि विशुद्ध आर्थिक मुद्दों पर
आंदोलन और संघर्ष से मजदूर वर्ग की उस समय के व्यापक राजनीतिक मुद्दों में
भागीदारी की ओर बदलाव हुआ। मजदूर आंदोलन आर्थिक मुद्दों पर अपेक्षाकृत असंगठित और
स्वतःस्फूर्त हड़तालों से राष्ट्रवादियों के समर्थन से आर्थिक मुद्दों पर संगठित
हड़तालों और फिर व्यापक राजनीतिक आंदोलनों में मजदूर वर्ग की भागीदारी में बदल गया
था। 1908 के बाद राष्ट्रवादी जन-उभार में गिरावट के साथ, श्रमिक आंदोलन को भी ग्रहण लगा।
प्रथम विश्व युद्ध के तुरंत बाद अगले राष्ट्रवादी उभार के आने के बाद ही श्रमिक
वर्ग आंदोलन को अपनी गति वापस मिल पाई।
1920 में शुरू हुए असहयोग आंदोलन के
कारण जनआंदोलनों ने ज़ोर पकड़ा। 1921 में जनआंदोलनों के परिणामस्वरूप राष्ट्रीय स्तर पर
व्यापक मज़दूर आंदोलन छिड़ा। मजदूर वर्ग ने अब अपने वर्ग
अधिकारों की रक्षा के लिए अपना राष्ट्रीय स्तर का संगठन बनाया। इसी अवधि में मजदूर
वर्ग भी राष्ट्रवादी राजनीति की मुख्यधारा में काफी हद तक शामिल हो गया। प्रिंस ऑफ
वेल्स की भारत यात्रा के दौरान मज़दूरों की साम्राज्यवादी भावना ज़ोरदार ढंग से
प्रदर्शित हुई। बंबई, कलकत्ता और मद्रास में मज़दूरों ने हड़ताल मनाई। असहयोग आंदोलन
के अंतिम दिनों में दर्शनानंद और विश्वानंद ने ईस्ट इंडियन रेलवे
में एक सशक्त हड़ताल का नेतृत्व किया था। ईस्ट
इंडिया और नार्थ वेस्टर्न रेलवे के मज़दूरों की आम हड़ताल को तोड़ने के लिए प्रबंधकों
ने ऐसी-ऐसी रियायतें दीं जिसकी मज़दूरों ने कभी कल्पना भी नहीं की थी।
सबसे महत्वपूर्ण विकास 1920 में
अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस (एआईटीयूसी) का गठन था। लोकमान्य तिलक, जिन्होंने बॉम्बे के काम से घनिष्ठ संबंध विकसित किए
थे, एआईटीयूसी के गठन में प्रेरक
शक्तियों में से एक थे, जिसके पहले अध्यक्ष पंजाब के
प्रसिद्ध उग्रवादी नेता लाला लाजपत राय थे और दीवान चमन लाल, जो भारतीय श्रमिक आंदोलन में एक प्रमुख नाम बन गए थे, इसके महासचिव थे। लाजपत राय के अलावा, उस समय के कई प्रमुख राष्ट्रवादी AITUC के साथ घनिष्ठ रूप से जुड़े। सी.आर. दास ने इसके
तीसरे और चौथे सत्र की अध्यक्षता की, और अन्य प्रमुख नामों में सी.एफ. एंड्रयूज, जे.एम. सेनगुप्ता, सुभाष बोस, जवाहरलाल नेहरू और सत्यमूर्ति शामिल थे। भारतीय
राष्ट्रीय कांग्रेस ने 1922 में अपने गया अधिवेशन में AITUC के गठन का स्वागत किया और इसके काम में सहायता के लिए
प्रमुख कांग्रेसियों की एक समिति बनाई। इन वर्षों की कोई भी चर्चा गांधीजी द्वारा
1918 में अहमदाबाद टेक्सटाइल लेबर एसोसिएशन (टीएलए) की स्थापना का उल्लेख किए बिना
अधूरी रहेगी, जो 14,000 श्रमिकों के साथ, शायद उस समय का सबसे बड़ा एकल ट्रेड यूनियन था।
1922 तक बड़े-बड़े सैंकड़ो मज़दूर संगठन बन
चुके थे। 1920 में, 125 यूनियनें थीं जिनकी कुल सदस्य
संख्या 250,000 थी, और इनमें से बड़े हिस्से का गठन
1919-20 के दौरान हुआ था। मज़दूर आंदोलन राष्ट्रीय मुक्ति संघर्ष की मुख्य-धारा से
जुड़ा हुआ था। उनकी सभाओं में ‘वंदे मातरम्’ गाया जाता, खादी का प्रयोग होता। टाटा
उद्योग में सितंबर 1922 में कामगार वर्ग द्वारा एक
स्वतःस्फूर्त हड़ताल हुई। जमशेदपुर लेबर एसोसिएशन अपनी मान्यता प्राप्त करने के लिए
इस अवसर का लाभ उठाया और इसका नेतृत्व अपने हाथों में ले लिया। फलस्वरूप
स्वराजियों के समर्थन से सी.आर. दास और सी.एफ़. एण्ड्र्यूज़ के नेतृत्व में एक
कंशीलिएशन बोर्ड की स्थापना हुई। बाद में 1925 में इस यूनियन को मान्यता मिल गई
और सी.एफ़. एण्ड्र्यूज़ इसके अध्यक्ष बने। उस समय गांधीजी जमशेदपुर आए थे। उन्होंने
कहा था, “पूंजी और श्रम के बीच सामंजस्य होना चाहिए।” कामगारों को समझाते हुए उन्होंने
यह भी कहा था, “व्यापार में मंदी के समय वे अपने मालिकों को सांसत में न डालें।” अनेक बाधाओं के बावज़ूद श्रमिक
आंदोलन चलता रहा। कर्नाटक मिल्स में हड़तालें हुईं। मद्रास के समुद्र तट पर सिंगारवेलु
द्वारा आयोजित सभा में 1923 में पहला मई
दिवस मनाया गया था। 1925 में नॉर्थ वेस्टर्न रेलवे की
हड़ताल में लाहौर में एक जुलूस निकाली गई थी, जिसमें कामगार अपने ही ख़ून से लाल किए
गए झंडे लेकर निकल पड़े थे। 1925 में बंबई की कपड़ा मिलों में बोनस को लेकर हुई हड़ताल
के कारण उत्पादन ठप्प पड़ गया था। सरकार द्वारा बिठाए गए जांच आयोग ने श्रमिक
विरोधी फैसला दिया था। एम.एन. जोशी ने श्रमिकों को हड़ताल बंद करने की सलाह
दी थी। लेकिन पुलिस के दमन और गोलियों के बावज़ूद भी श्रमिकों ने हड़ताल ज़ारी रखी। बाद
में भुखमरी से विवश हो वे काम पर लौटे। बंबई के कपड़ा उद्योग क्षेत्र में ही
श्रमिकों के सतत संघर्ष और हड़ताल के कारण सरकार को साढ़े तीन प्रतिशत का उत्पादन
शुल्क हटाने का फैसला लेने पर विवश होना पड़ा।
पूरे विश्व में आर्थिक मंदी का दौर
था। इसलिए 1923 के बाद से मज़दूरों के आंदोलन का
आक्रामक रुख नरम पड़ने लगा। सरकार ने मज़दूर आंदोलन को कमज़ोर करने के लिए सुधारवादी
और अलगाववादी नीति अपनाई। इस तरह उन्हें राष्ट्रीय आंदोलन से अलग करने की कोशिश की
गई। रेल औपनिवेशिक सत्ता के लिए बहुत बड़ी ज़रूरत थी। अंग्रेज़ शासक इस पर अपनी पकड़
मज़बूत बनाए रखना चाहते थे। रेल सेवाएं सरकारी नियंत्रण में रहे इसकी हर संभव कोशिश
की जाती थी। इससे ब्रिटिश हुक़ूमत को शोषण की गति तेज़ करने में मदद मिलती थी।
भारतीय रेल के मज़दूरों ने औपनिवेशिक सत्ता के दमन और शोषण के खेल को बख़ूबी पहचाना।
उन्हें एहसास हो गया कि उन्हें सताया जा रहा है, अपमानित किया जा रहा है, वेतन और
काम के घंटे के मामले में उनके साथ भेद-भाव किया जाता है। उन्होंने शोषण के ख़िलाफ़
आवाज़ उठानी शुरू कर दी। देश भर में जगह-जगह हड़तालें हुईं। रेल मज़दूर के नेता
विवादों के निपटारे के लिए गांधीजी से भी मदद मांगते थे। गांधीजी उस समय
साम्राज्यवादी सत्ता के विरोध के प्रतीक बन चुके थे। 1922 से एन.एम. जोशी के नेतृत्व में
सांविधानिक मज़दूर वाद ने मज़दूरों के आंदोलन के बीच अपनी जगह बनानी शुरू कर दी।
ज़्यादातर हड़तालें आर्थिक मांग को लेकर होती थी, लेकिन सारे मुद्दे ‘राष्ट्रीय
सम्मान’ के मुद्दे से जुड़ जाते थे। इस तरह आर्थिक और राष्ट्रीय संघर्ष में समन्वय
बढ़ता गया। इससे ब्रिटिश हुक़ूमत का चिंतित होना लाजिमी था। उन्हें मज़दूरों के
संघर्ष में ‘बोल्शेविक क्रांति’ की झलक दिखने लगी। मज़दूर आंदोलनों को राष्ट्रीय राजनीति से
अलग-थलग करने की रणनीति बनाई जाने लगी। विवादों के निपटारे के लिए समझौता मंडल,
पंचाट आदि गठित किए गए। मजदूर वर्ग की बढ़ती उग्रता और राजनीतिक भागीदारी से घबराई
सरकार ने, खास तौर पर राष्ट्रवादी और वामपंथी
प्रवृत्तियों के एक साथ आने से, मजदूर आंदोलन पर दोतरफा हमला किया। एक तरफ तो उसने पब्लिक सेफ्टी एक्ट
और ट्रेड डिस्प्यूट्स एक्ट जैसे दमनकारी कानून बनाए और मजदूर आंदोलन के लगभग पूरे
कट्टरपंथी नेतृत्व को एक झटके में गिरफ्तार कर लिया और उनके खिलाफ प्रसिद्ध मेरठ
षडयंत्र केस चलाया। दूसरी तरफ, उसने रियायतों (उदाहरण के लिए 1929 में रॉयल कमीशन ऑन लेबर की नियुक्ति) के जरिए मजदूर
आंदोलन के एक बड़े हिस्से को अलग करने और उसे संविधानवादी और कॉर्पोरेटवादी ढांचे
में ढालने की कोशिश की, जिसमें उसे कुछ हद तक सफलता भी
मिली।
इस तरह 1926 तक मज़दूर आंदोलनकारियों ने कुछ
रियायतें ज़रूर हासिल कर ली, लेकिन मज़दूर आंदोलन सत्ता के नियंत्रण में चला गया।
विदेशी हुक़ूमत मज़दूर आंदोलन को राष्ट्रवादी राजनीतिक आंदोलन से अलग करने की कोशिश
में कामयाब हो गई। 1928 तक मज़दूर आंदोलन निष्क्रिय रहा।
वह समाज में किसी तरह की हलचल पैदा करने में नाक़ामयाब रहा।
1927-28 से साम्यवादी मज़दूर नेताओं ने
वामपंथी कांग्रेसी नेताओं के सहयोग से राष्ट्रवादी मज़दूर आंदोलन को मज़बूत बनाना
शुरू कर दिया था। उस दौरान बड़ी-बड़ी रेल हड़तालें हुईं। सत्याग्रह भी उनके संघर्ष के
हथियार थे। आम सभाओं में वे कहते उनका संघर्ष स्वराज के लिए जंग है। उन दिनों
एन.एम. जोशी के नेतृत्व वाली ‘बंबे टेक्स्टाइल लेबर यूनियन, गिरणी कामगार महामंडल
और शेतकारी कामगार पार्टी काफी सक्रिय और महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे थे। इन्हीं
दिनों एशिया की सबसे बड़ी यूनियन ‘गिरणी कामगार यूनियन’ का जन्म हुआ। इसके
नेतृत्व में एक बहुत बड़ी हड़ताल हुई थी जिसका नेतृत्व एस.ए. डांगे और एस.एच.
झाबवाला ने किया था। उन्होंने मज़दूरों से अपील की कि वे गांधीजी द्वारा सुझाए
हुए अहिंसक प्रतिरोध का रास्ता अपनाएं और औपनिवेशिक सत्ता के काले क़ानून को मानने
से इंकार कर दें। समय के साथ मज़दूरों के बीच वामपंथी व लड़ाकू ताकतों का प्रभाव
बढ़ता गया और सांविधानिक मज़दूर संघ वादियों का प्रभाव ख़त्म होता गया।1929 में एटक अधिवेशन के समय दोनों
खेमों के बीच की दूरी स्पष्ट दिखी। नेहरूजी के समर्थन से वामपंथी खेमे की जीत हुई।
संविधानवादी खेमा एटक से अलग हो गया।
देश के विभिन्न भागों में श्रमिकों
के अलग-अलग समूहों के एक संगठित, आत्म-चेतन, अखिल भारतीय वर्ग के रूप में उभरने
की प्रक्रिया भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के विकास और भारतीय 'राष्ट्र-निर्माण' की प्रक्रिया के साथ अभिन्न रूप से जुड़ी हुई है। मज़दूर
आंदोलन को तीसरे दशक के अंतिम वर्षों में आंशिक रूप से सरकारी हमले के कारण और
आंशिक रूप से आंदोलन के कम्युनिस्ट नेतृत्व वाले विंग के रुख में बदलाव के कारण
बड़ा झटका लगा। 1928 के अंत से कम्युनिस्टों ने राष्ट्रीय आंदोलन की मुख्यधारा के
साथ जुड़ने और उसके भीतर काम करने की अपनी नीति को पलट दिया। इससे कम्युनिस्ट
राष्ट्रीय आंदोलन से अलग-थलग पड़ गए और मज़दूर वर्ग पर भी उनकी पकड़ बहुत कम हो
गई। कम्युनिस्ट एआईटीयूसी के भीतर अलग-थलग पड़ गए और 1931 के विभाजन में उन्हें
बाहर निकाल दिया गया।
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मनोज कुमार
पिछली कड़ियां- राष्ट्रीय आन्दोलन
संदर्भ : यहाँ पर
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