राष्ट्रीय आन्दोलन
267. खिलाफत
आंदोलन
प्रवेश :
13 अप्रैल, 1919 को हुई अमृतसर
के जालियांवाला बाग़ हत्याकांड के बाद, सन् 1920 में गांधीजी ने
अंग्रेज़ी हुक़ूमत के ख़िलाफ़ अहिंसक असहयोग आंदोलन की सलाह दी, जो साफ-साफ शब्दों में
यह कह रहा था कि गांधीजी और ब्रितानी हुकूमत बीच के संबंध का अंत हो चुका है। गांधीजी
का ब्रिटिश साम्राज्य से सम्बन्ध इस तरह एक झटके से नहीं टूटता, यदि इसी बीच उस
समय की भारतीय राजनीतिक परिदृश्य में ख़िलाफ़त आन्दोलन का प्रश्न सामने न
आता। गांधीजी ने तुर्की के सुल्तान के पराजय से क्षुब्ध भारतीय मुसलमानों के दुख
को अपनाया। ख़िलाफ़त ही वह मुद्दा था जिस पर गांधीजी ने पहली बार अपने देशवासियों का
(हिंदू-मुसलमान दोनों का) आह्वान किया कि वे ब्रिटिश सरकार से असहयोग करें। इसके
बाद तो ख़िलाफ़त का प्रश्न भी भारतीय राजनीति का एक ज्वलंत प्रश्न बन गया। उस समय जो
परिस्थिति निर्मित हुई थी, उसमें सारा देश सुलग रहा था। युद्ध के बाद के वर्षों
में देश की आर्थिक स्थिति बहुत ही खतरनाक ढंग से गंभीर हो गई थी। वस्तुओं की
कीमतों में वृद्धि, भारतीय उद्योगों के उत्पादन में कमी, करों और किराए के बोझ में वृद्धि आदि के साथ युद्ध के कारण
समाज के लगभग सभी वर्गों को भयंकर आर्थिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा था। फलस्वरूप
देश में ब्रिटिश विरोधी रवैया काफी मजबूत हो रहा था। रौलेट एक्ट, जलियांवाला बाग़
काण्ड, मोंटफोर्ड सुधार, हंटर कमिटी आदि कुछ ऐसे मुद्दे थे जो
परिस्थिति की गंभीरता को और बढ़ा रहे थे। इस माहौल में खिलाफत का मुद्दा उभरा, जिसके इर्द-गिर्द भारतीय राष्ट्रीयता में ऐतिहासिक असहयोग
आंदोलन का विकास हुआ।
पृष्ठभूमि :
यह आंदोलन तुर्की के सुल्तान के भाग्य का विरोध करने के लिए
अस्तित्व में आया था, जो
1914 में पहला विश्व
युद्ध शुरू हुआ था। तुर्की के सुल्तान को खलीफा कहा जाता था। वह सारे विश्व के
‘सुन्नी’ मुसलमानों का धार्मिक प्रमुख माना जाता था। वह खलीफा की उपाधि धारण करता था और मुस्लिम समुदाय का सर्वोच्च
प्रमुख और पैगंबर मुहम्मद का उत्तराधिकारी या उप-शासक माना जाता था। इस्लामी जगत में उसकी प्रतिष्ठा बहुत
अधिक थी। भारतीय मुसलमान उससे भावनात्मक और धार्मिक रूप से उससे जुड़े थे। विश्व
युद्ध में वह जर्मनी बादशाह कैसर और ऑस्ट्रिया के साथ था और इंग्लैंड
आदि मित्रराष्ट्रों के ख़िलाफ़ उसने युद्ध घोषित कर दिया था। भारतीय मुसलमान बड़ी
असमंजस की स्थिति में थे। उनका ख़लीफ़ा शाहे बरतानिया के ख़िलाफ़
था। युद्ध आरंभ होने तक मुस्लिम
सम्प्रदाय ब्रिटिश साम्राज्य के प्रति वफादार था। भारतीय मुसलमानों के समक्ष यह
धर्मसंकट था कि वे साम्राज्य के प्रति वफादार रहें या अपने धर्मगुरु के आदेश का
पालन करें। युद्ध शुरू होते ही, स्वभावतः इंग्लैंड और तुर्किस्तान एक-दूसरे के दुश्मन हो गए थे। इंग्लैंड
की फौज में भारतीय सिपाही भी थे, और उनमें मुसलमान भी थे। तुर्किस्तान के युद्ध
में शामिल होते ही भारतीय मुसलमानों में खलबली मच गई। उनके सामने यह प्रश्न था कि
अब अपने धर्म-प्रमुख ख़लीफ़ा के दुश्मन ब्रिटेन का साथ कैसे दे सकते हैं? इससे इंग्लैंड
को चिंता हुई। अंग्रेज़ी सरकार ने मुसलमानों का समर्थन पाने के लिए उन्हें प्रलोभन
दिया। भारत के मुसलमानों की नाराज़गी दूर करने के लिए उस समय के ब्रिटिश
प्रधानमंत्री लायड जार्ज ने घोषणा की थी, “हम तुर्की को उसमें एशिया-माइनर और
थ्रेस के प्रसिद्ध और समृद्ध द्वीपों से वंचित करने के लिए यह लड़ाई नहीं लड़ रहे
हैं। सरकार तुर्की की अखंडता और सार्वभौमता को बनाए रखेगी और एशियाई प्रदेशों पर
उसकी स्थिति यथावत बनी रहेगी।” मुसलमानों का कहना था कि जज़ीरतुल-अरब, जिसमें
मेसोपोटामिया, अरबिस्तान, सीरिया, फिलिस्तीन और उसके सारे धार्मिक स्थान शामिल
हैं, ख़लीफ़ा के सीधे अधिकार में रहना चाहिए। इसके अलावा मुसलमानों के पवित्र
स्थानों पर तुर्की के सुल्तान ख़लीफ़ा का नियंत्रण रहे और ख़लीफ़ा के अधीन इतना भूभाग
रहे कि वह इस्लाम की रक्षा कर सके। ब्रिटेन के प्रधान मंत्री लॉयड जॉर्ज और भारत
के वायसराय ने भी, वादा किया था कि मुस्लिम तीर्थ स्थानों की रक्षा की जाएगी।
1918 के नवंबर महीने
में प्रथम विश्व युद्ध समाप्त हो गया था और तुर्की
साम्राज्य, जो कभी अरब से
काला सागर तक फैला हुआ था, धुल-धूसरित हो चुका था। खलीफा कॉन्स्टेंटिनोपल में अपने महल
में एक कैदी था, जिसे सभी राजनीतिक और धार्मिक अधिकार से वंचित
किया गया था। शान्ति समझौतों
आदि के कारण ख़िलाफ़त के सवाल ने फिर ज़ोर पकड़ा। सरकार ने भारतीय मुसलमानों को दिए अपने
आश्वासन को नष्ट कर दिया। सारे देश में एक विराट विद्रोह की लहर दौड़ गयी। युद्ध
में मित्र राष्ट्रों की विजय और जर्मनी की हार हुई थी। जर्मनी और तुर्की दोनों को
समर्पण करना पडा। विजयी ब्रिटेन और उसके मित्रराष्ट्रों के साथ तुर्की में जिन शर्तों
पर शांति होने की संभावना थी और पश्चिम एशिया में मुसलमानों के तीर्थ स्थानों का
जो हाल होने को था, इन दो बातों पर भारत के मुसलमान बहुत क्षुब्ध थे। अस्थायी संधि की शर्तों
के फलस्वरूप तुर्की को अपने प्रदेशों से वंचित होना पड़ा। थ्रेस यूनान को दे दिया
गया और तुर्की साम्राज्य के एशियायी प्रदेशों को ब्रिटेन और फ्रांस ने लीग के
आज्ञा पत्रों के बहाने आपस में बांट लिया। मित्र-राष्ट्रों द्वारा एक हाई कमीशन
नियुक्त किया गया, जो हर लिहाज से तुर्की का असली शासक ही बना दिया गया था।
सुल्तान की हैसियत एक क़ैदी मात्र की थी। इतना ही नहीं, ब्रिटेन के
उकसावे पर अरबों ने भी खलीफा के खिलाफ बगावत कर दी। इस्लाम की पवित्र भूमि अरब पर छल
से अंग्रेजों और फ्रान्सिसियों ने अधिकार प्राप्त कर लिया। भारत के मुसलमान ब्रिटिश
प्रधानमंत्री के इस विश्वासघात से क्रुद्ध हो गए थे। वे तुर्की के सुलतान की शक्ति
और प्रतिष्ठा की पुन: स्थापना के लिए संघर्ष करने लगे। मुस्लिम नेताओं का
प्रतिनिधि मंडल जब वायसराय से मिला तो उसने यह कह कर पल्ला झाड़ लिया कि मुसलमानों
का कोई प्रतिनिधि मंडल इंग्लैंड जाना चाहे तो वह इंतजाम कर देगा। हज़ारों भावुक
मुसलमान ऐसे अन्यायी राज्य में रहना पाप समझकर अफ़ग़ानिस्तान के लिए चल दिए। किंतु
अफ़ग़ानिस्तान ने अपनी सीमाएं बंद कर दी। इस कारण से उन्हें बहुत तकलीफ़ें झेलनी
पड़ीं। अंततः अधिकांश मुसलमान लौट आए। देश के मुसलमानों में एक जबर्दस्त बेचैनी फैल
गई। उन्हें चिंता थी कि अंग्रेज़ों के विश्वासघात का कैसे जवाब दिया जाए और किस
प्रकार ख़िलाफ़त-ख़लीफ़ा के साम्राज्य की रक्षा की जाए। इस तरह खिलाफत आन्दोलन का
सूत्रपात हुआ।
ख़िलाफ़त आन्दोलन का उद्देश्य
खलीफा की सर्वोच्चता और उसकी शक्ति
की स्थापना करना इस आन्दोलन का उद्देश्य था। वे चाहते थे कि ख़लीफा अपने सिंहासन पर बहाल हो, अरब के पवित्र
शहरों पर आध्यात्मिक और लौकिक शक्ति रखे, और तुर्की साम्राज्य की मूल सीमाओं को बहाल किया जाए। सबसे
बढ़कर, खलीफा को
युद्ध में जर्मनी का साथ देने के लिए दंडित नहीं किया जाना चाहिए। इसकी शुरुआत एक प्रतिक्रियावादी
आन्दोलन के रूप में हुई। जल्द ही यह साम्राज्यविरोधी और राष्ट्रीय आन्दोलन का एक अंग
बन गया।
ख़िलाफ़त कमिटी की स्थापना
भारत के मुसलमानों ने ब्रिटेन को
तुर्की संबंधी नीति में परिवर्तन के लिए विवश करने का फैसला लिया। 1919 की शुरुआत
में, अली बंधुओं (शौकत
अली और मुहम्मद अली), मौलाना आज़ाद, अजमल
खान और हसरत मोहानी के नेतृत्व में खिलाफ़त समिति का गठन किया गया, ताकि ब्रिटिश सरकार को तुर्की के प्रति अपना रवैया बदलने के लिए मजबूर
किया जा सके। इसका उद्देश्य तुर्की साम्राज्य के बंटवारे के खिलाफ और खलीफा के
पक्ष में जनमत तैयार करना था।
ख़िलाफ़त के प्रश्न पर कांग्रेस और लीग
यह बिल्कुल स्पष्ट था कि खिलाफत
आंदोलन की सफलता के लिए कांग्रेस का समर्थन आवश्यक था। 1918 में कांग्रेस और लीग
की एक साथ बैठक हुई। लीग के डॉक्टर एम.ए. अंसारी ने अरब को खलीफा को लौटाने की
मांग की। कांग्रेस के हकीम अजमल खान ने भी अंसारी का समर्थन किया। ख़िलाफ़त के मसले
ने कांग्रेस और लीग को एक-दूसरे के निकट ला दिया। सभी राष्ट्रवादी मुसलमान इस
आन्दोलन में शरीक हुए।
ख़िलाफ़त के मसले पर गांधीजी की सलाह
मौलाना अबुल कलाम आज़ाद, जो उन दिनों
‘अलहिलाल’ नामक उर्दू अख़बार का संपादन करते थे, ने एक बैठक बुलाई। इसमें
शामिल होने के लिए हकीम अजमल ख़ां और आसफ़अली की तरफ़ से गांधीजी को भी निमंत्रण
मिला। 24 नवंबर, 1919 को दिल्ली
पहुंचे। गांधीजी खिलाफत
आन्दोलन को सत्य और न्याय पर आधारित मानते थे। इसलिए उनका कहना था, हिंदू खिलाफत के अन्याय के निवारण की मांग में मुसलमानों के
साथ खड़े होने के लिए बाध्य हैं। गांधीजी को आशंका थी कि कोई रास्ता न मिलने से मुसलमानों का
नैराश्य बांध तोड़ कर हिंसा का रूप ग्रहण कर लेगा। इसलिए उन्होंने प्रस्ताव रखा कि
यदि मुसलमान उनकी प्रविधि अपनाएं तो वह ख़िलाफ़त के प्रश्न पर छेड़े गए आन्दोलन में
उनका नेतृत्व करेंगे। 24 नवंबर, 1919 को दिल्ली में हुए ऑल इंडिया ख़िलाफ़त सम्मेलन में गांधीजी अध्यक्ष
चुने गए। गांधीजी ने सरकार को चेतावनी दी कि यदि खलीफा के साथ न्याय नहीं किया गया, तो वे सरकार के साथ असहयोग करेंगे। उनके लिए ख़िलाफ़त का प्रश्न संवैधानिक
सुधारों और पंजाब की घटनाओं से भी अधिक महत्त्वपूर्ण था। गांधीजी ने समझ लिया था
कि इस इस्लामी सवाल को भारतीय हिन्दू-मुस्लिम एकता का ब्रह्मास्त्र बनाया जा सकता
है। ख़िलाफ़त सम्मेलन में जब अंग्रेजों ने गांधीजी की हिन्दू-मुस्लिम एकता की हुंकार
सुनी तो घबरा गए। गांधीजी ने मुसलमानों से कहा कि वे मित्र राष्ट्रों की विजय के
उपलक्ष्य में आयोजित सार्वजनिक उत्सवों में भाग न लें। उन्होंने अंग्रेजों को
चेतावनी दी कि यदि तुर्की के साथ न्याय नहीं किया गया, तो बहिष्कार
और असहयोग शुरू होगा।
अगला कदम क्या हो, यह काम गांधीजी
ने एक उपसमिति के जिम्मे सौंपने की सलाह दी। जो उपसमिति बनाई गई उसमें अबुल कलाम
आज़ाद, हकीम अजमल ख़ान और गांधीजी को रखा गया। असहयोग का विचार सबसे पहले उस उपसमिति
में ही पैदा हुआ था। गांधीजी ने कहा, “तलवार के द्वारा यदि सरकार का प्रतिकार नहीं करना है, तो फिर उसका साथ न देना ही उसका प्रतिकार है। जब ख़िलाफ़त जैसे मजहबी मामलों में हमें नुकसान पहुंचता हो, तो हम उसकी मदद कैसे कर सकते हैं? इसलिए अगर ख़िलाफ़त का
फैसला हमारे ख़िलाफ़ जाता है, तो सरकार को मदद न देने का हमें हक़ है।” दूसरे दिन गांधीजी ने “ब्रिटिश सरकार से असहयोग का कार्यक्रम” मुस्लिम नेताओं के सामने रखा। बहुत से नेता घबरा गए। उन्होंने इस पर विचार करने के लिए समय मांगा।
कलकत्ता ख़िलाफ़त सम्मेलन
फरवरी, 1920 में मौलाना अबुल
कलाम की अध्यक्षता में कलकत्ता में ख़िलाफ़त सम्मेलन हुआ। उन्होंने यह प्रस्ताव रखा
कि गांधीजी की सलाह को मंज़ूर कर लिया जाना चाहिए। इसी बीच तुर्की के साथ संधि की
जो शर्तें प्रकाशित हुईं थी उससे मुसलमानों का असंतोष और बढ़ गया था। तुर्की के साथ
नर्मी का बर्ताव नहीं किया गया था। उस पर जले पर नमक छिड़कने का काम किया वायसराय
के इस वक्तव्य ने, “अपने तुर्की बिरादरों की बद-क़िस्मती को चुपचाप और धीरज से बर्दाश्त कर लेना ही भारतीय मुसलमानों के लिए वाजिब
है”। ख़िलाफ़त के नेता अपने विरोध और
गुस्से को किसी भी तरीक़े से ज़ाहिर करने के लिए बेताब हो उठे। 17 मार्च को मोहम्मद अली के नेतृत्व में खिलाफत
प्रतिनिधिमंडल को लॉयड जॉर्ज के जवाब ने मुसलमानों को नाराज कर दिया। उन्होंने कहा
कि तुर्की को तुर्की की भूमि पर लौकिक प्रभाव डालने की अनुमति दी जाएगी, लेकिन उसे अपनी शाही संपत्ति से वंचित कर दिया जाएगा। इन
शर्तों का मतलब था कि तुर्की का सुल्तान इस्लामी दुनिया का खलीफा नहीं रहेगा। इसने
भारत में खिलाफत भावना की जड़ पर प्रहार किया और 19 मार्च को राष्ट्रीय शोक का दिन
तय किया गया - उपवास और प्रार्थना और आम हड़ताल का दिन। 19 मार्च को विरोध
प्रदर्शन का दिन बहुत सफल रहा और शांतिपूर्ण ढंग से संपन्न हुआ।
ख़िलाफ़त कमेटी की बैठक
14 मई 1920 को तुर्की शांति संधि की शर्तें भारत के गजट ऑफ
इंडिया एक्स्ट्राऑर्डिनरी में प्रकाशित की गईं। मई 1920 में तुर्की के साथ सेव्रेस की संधि हुई जिसके द्वारा तुर्की को
पूरी तरह से विघटित कर दिया गया। अखिल भारतीय
खिलाफत समिति ने गांधीजी के असहयोग कार्यक्रम पर विचार-विमर्श करने के लिए बम्बई
में बैठक की और 28 मई को इसे अपना लिया, क्योंकि अब मुसलमानों के पास यही एकमात्र उपाय बचा था। 9 जून, 1920 में इलाहाबाद में इस कार्यक्रम पर विचार-विमर्श के लिए एक मुस्लिम सभा
हुई थी। बैठक सैयद रज़ा अली के घर पर हुई। पं. जवाहरलाल नेहरू उस सभा में मौज़ूद थे।
मौलाना मुहम्मद अली उस समय यूरोप में थे। शौकत अली बैठक में मौज़ूद थे। शौकत अली तो
इस कार्यक्रम को लेकर काफ़ी उत्साहित थे, लेकिन अधिकांश लोग हैरान-परेशान थे।
हालाकि किसी में असहमत होने का साहस नहीं था, फिर भी ऐसा लग रहा था कि वे जल्दबाज़ी
में कोई कदम नहीं उठाना चाहते थे।
गांधी जी ने उनके बीच भाषण दिया।
गांधीजी की बातें सुनने के बाद लोग डरे से दिख रहे थे। गांधीजी ने चेतावनी दी थी, “एक असहयोग आंदोलन के रूप में एक अत्यंत शक्तिशाली शत्रु से लड़ी जाने वाली यह बहुत बड़ी लड़ाई होगी। अगर आप इसे लड़ना चाहते हैं, तो आपको सब कुछ खोने के लिए और साथ ही कड़ी-से-कड़ी
अहिंसा और अनुशासन का पालन करने के लिए तैयार रहना चाहिए। ... जिस तरह युद्ध की
घोषणा होने पर फौजी क़ानून ज़ारी किया जाता है, उसी तरह यदि हम जीतना चाहते हैं, तो
हमें भी अपनी अहिंसात्मक लड़ाई में तानाशाही और फौजी क़ानून का प्रयोग करना होगा।”
उन्होंने यह भी कहा, “आपको इस बात का पूरा अधिकार है कि आप मुझे ठोकर मार कर निकाल दें, मेरा सिर मांग लें और जब चाहें या जैसे चाहें मुझे दंड दें। किंतु जब तक आप मुझे नेता बनाकर रखना चाहते हैं, आपको मेरी शर्तें माननी होंगी और तानाशाही और फौजी क़ानून के अनुशासन को स्वीकार करना होगा।
किंतु वह तानाशाही सदा आपकी सद्भावना, आपकी स्वीकृति और आपके सहयोग पर निर्भर
होगी। जैसे आप यह समझें कि आपको मेरी ज़रूरत नहीं रह गई, आप मुझे निकाल फेंकें,
मुझे पैरों तले कुचल दें, मैं रत्ती भर भी शिकायत नहीं करूंगा।”
‘नन-कोऑपरेशन’ या ‘असहयोग’ शब्द का प्रयोग
इसी सभा में गांधीजी ने सबसे पहले
‘नन-कोऑपरेशन’ या ‘असहयोग’ शब्द का प्रयोग किया था। सरकार की दमनकारी प्रवृत्तियों
के विरुद्ध सत्याग्रह करना एक अलग बात है, लेकिन उसके किसी काम में सहयोग न देना
और असहयोग करना अलग बात है। यह एक प्रकार का अहिंसक अस्त्र था। 'असहयोग' भारत और गांधी
के जीवन में एक युग का नाम बन गया। असहयोग इतना नकारात्मक था कि वह शांतिपूर्ण था, लेकिन इतना सकारात्मक था कि वह प्रभावी था। इसमें इनकार, त्याग और आत्म-अनुशासन शामिल था। यह स्व-शासन के लिए प्रशिक्षण
था। सरकार चाहे जैसे क़ानून बना ले, लेकिन जब तक जनता क़ानून को
स्वीकार कर उसपर अनुपालन न करे, तब तक वह क़ानून किताबों में रह जाता है। इस बात को
उस सभा में गांधीजी ने अच्छी तरह समझाया। असहयोग के चार चरणों वाला कार्यक्रम
घोषित किया गया, जिसमें उपाधियों, सिविल सेवाओं, सेना और पुलिस का बहिष्कार और
करों की नाअदायगी शामिल था। गांधीजी की नज़र में ब्रिटिश साम्राज्य आज शैतानवाद का प्रतिनिधित्व करता है, और जो लोग
ईश्वर से प्रेम करते हैं, वे शैतान के प्रति कोई प्रेम नहीं रख सकते। यह साम्राज्य
इतने भयानक अत्याचारों का दोषी है कि अगर यह ईश्वर और देश से उनके लिए माफ़ी नहीं
मांगता, तो यह निश्चित
रूप से नष्ट हो जाएगा। मैं आगे यह भी कहूंगा कि जब तक यह माफ़ी नहीं मांगता, तब तक इसे
नष्ट करना हर भारतीय का कर्तव्य है। गांधीजी का मानना था कि यदि मुसलमान और हिंदू एकजुट हो सकते हैं - उदाहरण के लिए, यदि वे समान
उद्देश्यों के साथ एक ही राजनीतिक पार्टी बना सकते हैं - तो सरकार को भारतीय लोगों
की आकांक्षाओं पर काफी अधिक ध्यान देना होगा। ब्रिटिश साम्राज्य आज शैतानवाद का
प्रतिनिधित्व करता है, और जो लोग ईश्वर से प्रेम करते हैं, वे शैतान के प्रति प्रेम नहीं रख सकते। इस साम्राज्य ने
इतने भयानक अत्याचार किए हैं कि अगर इसने ईश्वर और देश से उनके लिए माफ़ी नहीं
मांगी, तो यह निश्चित रूप से नष्ट हो जाएगा। मैं आगे यह भी कहूंगा
कि जब तक यह माफ़ी नहीं मांगता, तब तक इसे नष्ट करना हर भारतीय का कर्तव्य है। खिलाफत
समिति ने सर्वसम्मति से असहयोग के सुझाव को स्वीकार कर लिया और गांधीजी को आंदोलन
का नेतृत्व करने के लिए कहा।
वायसराय को ख़त
22 जून को गांधीजी ने
वायसराय लॉर्ड चेम्सफ़ोर्ड को ख़त लिख कर कहा, “भ्रष्ट शासक को सहयोग देने से इंकार करने का अधिकार हर आदमी को है। ब्रिटिश सरकार ने ख़िलाफ़त को
अक्षुण्ण रखने के बारे में जो वचन दिया है, उसका यदि पालन नहीं किया गया तो वे
मुसलमानों को सरकार से असहयोग करने की और हिंदुओं को उनका साथ देने की सलाह देंगे।” वायसराय को एक महीने का नोटिस दिया
गया।
असहयोग आन्दोलन के प्रश्न पर बनारस में सम्मेलन और राष्ट्रीय संघर्ष में
‘असहयोग’ और ख़िलाफ़त का समन्वय
कांग्रेस की बैठक बनारस में हुई।
इसमें ख़िलाफ़त और पंजाब के प्रश्नों पर रोष प्रकट किया गया। लोकमान्य तिलक उन दिनों
बनारस से होकर गुज़र रहे थे, लेकिन उन्होंने इस महासमिति में भाग नहीं लिया क्योंकि
ख़िलाफ़त आन्दोलन उन्हें रुचा न था। लेकिन उन्होंने यह ज़रूर कहा कि वे महासमिति के
निर्णय का पालन करेंगे। कांग्रेस में लोगों के अलग-अलग विचार थे। अब तक असहयोग
आन्दोलन केवल ख़िलाफ़त से ही संबंध रखता था। इस प्रश्न को गांधीजी ने देश के अन्य
नेताओं के सामने रखा। उस बैठक में जब राय देने का समय आया तो अधिकांश लोगों ने गांधीजी के
प्रस्ताव का समर्थन किया। इस सम्मेलन में असहयोग की नीति अपनाने का निश्चय किया
गया। असहयोग का कार्यक्रम बनाने के लिए एक कमेटी बना दी गई, जिसमें अबुल कलाम
आज़ाद, हकीम अजमल ख़ान और गांधीजी को रखा गया। इस कमेटी ने स्कूल-कॉलेजों और अदालतों
के बहिष्कार की सिफ़ारिश की। उपाधियों, सरकारी नौकरियों, आनरेरी पदों और धारा-सभाओं
के बहिष्कार का निर्णय पहले ही हो चुका था।
गांधीजी को इस आन्दोलन का नेतृत्व
करने के लिए कहा गया। यह महत्वपूर्ण बात है कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस द्वारा
अनुमोदन किए जाने के पहले ही खिलाफत-आन्दोलन के नेताओं ने गांधीजी के अहिंसात्मक
असहयोग के कार्यक्रम को स्वीकार कर लिया था। अली बंधुओं, मौ. मुहम्मदअली और मौ.
शौकतअली के नेतृत्व में ख़िलाफ़त कमेटी ने इस कार्यक्रम को अपना लिया था। जब
कांग्रेस ने गांधीजी के अहिंसात्मक असहयोग को अपनाया तो दोनों एक में मिल गए।
ख़िलाफ़त कमेटी ने असहयोग के कार्यक्रम की शुरुआत के लिए पहली अगस्त, 1920
निश्चित की थी।
असहयोग आन्दोलन आरंभ
1 अगस्त 1920 को उन्होंने चुनौती पेश की। वाइसराय लॉर्ड
चेम्सफोर्ड को लिखे पत्र में उन्होंने अमृतसर में हुए नरसंहार और खिलाफत की
अनसुलझी समस्या से निपटने के लिए भारतीय नेताओं और उच्च सरकारी अधिकारियों का
सम्मेलन बुलाया और साथ ही उन्होंने असहयोग आंदोलन शुरू करने की अपनी मंशा भी जाहिर
की। यह पत्र एक अल्टीमेटम था। सावधानीपूर्वक लिखा गया यह पत्र आने वाले तूफ़ान की
घोषणा करने वाली पहली गड़गड़ाहट थी।
गांधीजी एक साथ राष्ट्रीय और ख़िलाफ़त
दोनों ही संघर्षों के नेता थे। गांधीजी ने अंग्रेज़ी हुकूमत के
ख़िलाफ़ असहयोग आन्दोलन की शुरुआत की। जो भारतीय उपनिवेशवाद को ख़त्म करना चाहते थे,
उनसे आग्रह किया गया कि वे विदेशी सरकार द्वारा दी गई उपाधियों का बहिष्कार,
सरकारी उत्सवों का बहिष्कार, स्कूलों, कॉलेजों और न्यायालय का बहिष्कार और मांटेग्यू-चेम्सफ़ोर्ड
सुधार के अंतर्गत बनाई गई नई काउंसिल का बहिष्कार करें। बाद में नौकरियों से भी
बहिष्कार किए जाने की घोषणा की गई। संक्षेप में सभी को अंग्रेजी सरकार को उसके
शासन कार्य और भारत के शोषण में सहायता देने से इंकार करने के लिए कहा गया।
आंदोलन की औपचारिक शुरुआत 1 अगस्त 1920 को हुई, जब गांधीजी ने 22 जून को वायसराय को लिखे पत्र में जो सूचना दी थी, उसकी अवधि समाप्त हो गई थी। लोकमान्य तिलक का निधन 1 अगस्त
की सुबह हुआ और शोक और आंदोलन की शुरुआत का दिन एक साथ आ गया, क्योंकि पूरे देश में लोगों ने हड़ताल की और जुलूस निकाले।
कई लोगों ने उपवास रखा और प्रार्थना की।
अंग्रेज इस बात को अच्छी तरह समझते
थे, कि यदि
असहयोग-आन्दोलन सफल हो गया, तो उनकी प्रशासनिक व्यवस्था ठप्प
हो जाएगी। लॉर्ड चेम्सफोर्ड ने पहले तो “हद दर्जे की बेवकूफी” कह कर इस आन्दोलन की खिल्ली उड़ाई और इसे प्रभावहीन दिखाने का प्रयत्न
किया। साथ ही उसने यह भी कहा कि जिनका देश में कुछ भी स्वार्थ है, उन्हें यह बरबाद कर देगा। नरम दल के कई नेताओं ने भी इस आलोचना में सरकार
का साथ दिया और गांधीजी द्वारा प्रस्तावित जन-आन्दोलन के खतरों पर जोर दिया। लेकिन
गांधीजी के आह्वान ने जादू की छड़ी का काम किया। कुछ ही दिनों में जनता में
अभूतपूर्व उत्साह का तूफान पैदा हो गया।
मोतीलाल नेहरू और राजगोपालाचारी ने अपनी प्रैक्टिस छोड़ दी।
परिणामस्वरूप उन्हें आर्थिक कठिनाई का सामना करना पड़ा। अपने भाषणों
में गांधीजी ने "शैतानी साम्राज्य" के खिलाफ गरजते हुए कहा, इसने तुर्की
में इस्लाम और भारत में भारतीयों को धोखा दिया है। असहयोग के
माध्यम से हम स्वराज लाएंगे।
चार साल पहले हुए लखनऊ कांग्रेस में
गांधीजी एक प्रेक्षक की तरह बैठे थे, जो देखकर नेहरूजी को बहुत दूर स्थित और भिन्न
और अराजनीतिक लगे थे, वही गांधीजी आज राष्ट्रीय आन्दोलन के मैदान में छाए हुए थे।
उन्होंने राष्ट्रीय कांग्रेस को पूरी तरह बदल कर रख दिया था। महज बातें करने वाले
राजनीतिज्ञों को सक्रिय सिपाही और समाज के अंग्रेज़ी रंग में रंगे नेताओं को सफेद
खद्दरधारी जनसेवक बना दिया था।
सांप्रदायिक दंगे
प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान और रॉलेट
क़ानून के विरोध में राष्ट्रवादी धारा को बल मिला। ख़िलाफ़त और असहयोग आंदोलन के
दौरान यह प्रक्रिया और मज़बूत होती दिखी। हिन्दू-मुसलिम एकता के नारे लगाए जाते थे।
जहां एक ओर अर्यसमाजी नेता स्वामी श्रद्धानंद को जामा मस्जिद के मंच से भाषण देने
के लिए आमंत्रित किया था, तो वहीं दूसरी ओर डॉ. सैफ़ूद्दीन किचलू को अमृतसर के
स्वर्ण मंदिर में बुलाया गया। ‘हिंदू-मुसलिम की जय’ के नारे चारों तरफ़ गूंज रहे
थे। ख़िलाफ़त समिति के कारण लीग का महत्त्व कम होता जा रहा था। धार्मिक आंदोलन होते
हुए भी ख़िलाफ़त आंदोलन ने मुसलिम मध्य वर्ग में साम्राज्यवाद विरोधी भावना जगाया।
लेकिन चूक यह हुई कि राष्ट्रवादी नेतृत्व मुसलमानों के इस धार्मिक-राजनीतिक चेतना
को धर्मनिरपेक्ष चेतना में बदलने में नाकामयाब रहा। ख़िलाफ़त आंदोलन के नेता धर्म के
नाम पर अपील करते थे। फ़तवा का इस्तेमाल करते थे। फलस्वरूप पुरानेपंथ की पकड़ मज़बूत
हुई। राजनीतिक सवालों को धार्मिक सवालों के रूप में देखने की आदत पड़ गई।
सांप्रदायिक विचारधारा और राजनीति के दरवाज़े खुल गए। 1922 में जब असहयोग
आंदोलन वापस ले लिया गया, तो चारों ओर निराशा फैल गई। अवसाद के इस माहौल में सांप्रदायिकता
ने अपना सिर उठाया।
प्रभाव
और उपसंहार
असहयोग और ख़िलाफ़त आन्दोलन साथ-साथ
चले लेकिन असहयोग आन्दोलन के बढ़ते प्रभाव के समक्ष ख़िलाफ़त आन्दोलन दब-सा गया। ख़िलाफ़त
के नेताओं को भी सरकार के दमन का शिकार होना पडा। अधिकतर नेताओं के जेल में होने के
कारण पहला असहयोग आंदोलन बिना जन-व्यापी नागरिक अवज्ञा आंदोलन की शुरुआत के ही
ख़त्म हो गया। उसके तुरंत बाद ही ख़िलाफ़त का प्रश्न भी महत्वपूर्ण नहीं रह गया। खिलाफत आंदोलन खत्म हो चुका था, इसे ब्रिटेन
ने नहीं बल्कि मुस्लिम तुर्की के शासक कमाल पाशा (अतातुर्क) ने खत्म किया था। मुस्तफा कमालपाशा का शासन हो गया और नवंबर 1922 में सुल्तान के
सारे राजनैतिक अधिकार छीन लिए गये। कमाल
ने एक धर्मनिरपेक्ष गणराज्य बनाया, कर्सिव अरबी लिपि का लैटिनीकरण किया, फेज और अन्य
ओरिएंटल हेड-ड्रेस पर प्रतिबंध लगाया और खलीफा को पदच्युत करके उसे नवंबर 1922 में
ब्रिटिश युद्धपोत में माल्टा द्वीप पर भागने की अनुमति दी। नए शासक ने तुर्की के आधुनिकीकरण
करने और उसे एक धर्मनिरपेक्ष राज्य बनाने का काम शुरु किया। ख़िलाफ़त की परम्परा भी
समाप्त कर दी गयी। बिना किसी कारण के, खिलाफत आंदोलन
बिखर गया। इसके साथ ही, बड़े पैमाने पर हिंदू-मुस्लिम राजनीतिक सहयोग समाप्त हो
गया।
1924 में ख़िलाफ़त आन्दोलन समाप्त हो
गया। ख़िलाफ़त
आन्दोलन और उसे गांधीजी द्वारा राष्ट्रीय आन्दोलन से जोड़ने के तरीके पर विवाद रहा
है। अनेक
विचारकों ने ख़िलाफ़त आन्दोलन को राष्ट्रीय आन्दोलन के साथ जोड़ने के गांधीजी के प्रयासों
को एक राजनीतिक भूल मानी है। रॉलेट क़ानून का विरोध और प्रजा पर अत्याचार के ख़िलाफ़
असहयोग एक अलग बात थी और पराजित तुर्क साम्राज्य के विभाजन से उपजी स्थिति बिल्कुल
दूसरी और जुदा बात थी। उस समय गांधीजी के अनेक प्रशंसकों ने एक राष्ट्रीय संघर्ष
में दोनों प्रश्नों के समन्वय की नैतिक वैधता पर आपत्तियां जताई थी।
कुछ लोग महसूस करते हैं कि खिलाफ़त
आंदोलन सुविचारित नहीं था, प्रतिगामी था क्योंकि अंततः एक समय उसने एक राजनैतिक
आंदोलन में धार्मिक भावधारा का समावेश किया। ऐसे लोगों का तो यहां तक कहना था कि
तुर्की का सुलतान सिद्धांत में भले ही धार्मिक नेता हो, लेकिन वास्तव में तो वह एक
पतनशील और निरंकुश साम्राज्य का प्रतिक्रियावादी प्रतीक ही था। अरब के लोगों को
उसके शासन से भले के लिए ही मुक्ति मिली थी। ऐसे लोग मानते हैं कि ख़िलाफ़त आन्दोलन से
हिन्दू-मुस्लिम एकता की उपलब्धि नहीं हुई।
इस मत के मानने वालों के अनुसार यह आंदोलन विचित्र रूप से अवास्तविक था, क्योंकि भारत
में मुसलमानों ने पहले खलीफा के साथ कोई बड़ा बंधन महसूस नहीं किया था, न ही इराक, फिलिस्तीन, तुर्की, हिज्ज़ाज़, मिस्र, त्रिपोली या
मोरक्को में - ये सभी मुस्लिम देश हैं - खलीफा के अधिकार को बहाल करने के लिए कोई
ठोस आंदोलन था। यह मूल रूप से एक भारतीय मुस्लिम आंदोलन था, और इसकी ताकत
काल्पनिक शिकायतों से मिलती थी। मुसलमानों का मानना था कि अंग्रेजों ने
मुस्लिम क्षेत्र के विशाल क्षेत्रों पर विजय प्राप्त करने या सत्ता संभालने के बाद, अपने अलावा
किसी और सत्ता को नहीं देना चाहते थे, और इसलिए उन्होंने सुल्तान को गद्दी से उतार दिया और उसे शक्तिहीन
बना दिया। वास्तव में, तुर्कों को खिलाफत को बनाए रखने की कोई इच्छा नहीं थी।
हिंदुओं का आमतौर पर मानना था कि अंग्रेजों का मुसलमानों के प्रति पक्षपात था, और बहुत कम
हिंदू थे जिन्होंने खिलाफत आंदोलन में कोई दिलचस्पी दिखाई।
दूसरी तरफ कुछ विचारक ऐसे भी हैं,
जो यह मानते हैं कि इस आन्दोलन ने राष्ट्रीय नेताओं को, मुसलमानों को यह विश्वास
दिलाने का सुअवसर दिया कि राष्ट्र उन समस्याओं के प्रति भी चिंतित है जिनसे वे (मुसलमान)
प्रभावित हैं। गांधीजी खुद इस प्रश्न को अलग ढंग से देख रहे थे। उनके लिए यह
मुस्लिम भाइयों की इस संकट की घड़ी में उनके साथ हिंदुओं के खड़े होने का प्रश्न था।
उन्होंने कहा था, “उनके दुख हमारे दुख हैं।”
अच्छी तरह से देखने पर यह स्पष्ट हो
जाता है कि खिलाफ़त आंदोलन ने निश्चय ही शहरी मुसलमानों को राष्ट्रीय आन्दोलन में
शरीक़ किया। लोगों में राष्ट्रीय आन्दोलन के प्रति लगाव बोध जगा। ख़िलाफ़त आन्दोलन ने
थोड़े समय के लिए ही सही हिन्दू-मुस्लिम एकता की भावना को सुदृढ़ किया। उस समय सभी वर्गों के लोगों में राष्ट्रीय
आंदोलन के उत्साह का बोध जगा था। जिस व्यापक स्तर पर उत्साह था, उसका एक बड़ा कारण
ख़िलाफ़त ही था।
ख़िलाफ़त एक अन्यदेशीय मुद्दा था या
नहीं इस पर विवाद हो सकता है, लेकिन इस पर कोई विवाद हो ही नहीं सकता कि यह प्रश्न हमारे देश के
मुसलमानों के धार्मिक प्रमुख से संबंधित था और वह उन्हें क्षुब्ध कर रहा था। इसलिए
इस मुद्दे को गांधीजी द्वारा उठाया जाना और उसका समर्थन करना उचित ही था। यह बहुत
ज़रूरी है कि एक राष्ट्रीय आन्दोलन द्वारा हर सम्प्रदाय के लोगों को प्रभावित करने
वाले मामलों की पैरवी की जानी चाहिए। इस दृष्टिकोण से भी यदि देखा जाए तो, कांग्रेस ने न सिर्फ अल्पसंख्यकों को प्रभावित करने वाले मुद्दे को
(ख़िलाफ़त को) अपनाया बल्कि ब्रिटिश शासकों के समक्ष इसकी ज़ोरदार वकालत की। हमें यह
नहीं भूलना चाहिए कि राष्ट्रीय आन्दोलन और ख़िलाफ़त दोनों में साम्राज्यवाद का विरोध
शामिल था। तभी तो ब्रिटिश हुकूमत द्वारा देश में दोनों आन्दोलनों को दमनकारी नीति
से दबाने के प्रयास किए गए।
यह सही है कि तुर्की की घटनाओं ने
आन्दोलन के अंतिम लक्ष्य की प्राप्ति न होने दी और आन्दोलन को असफल कहा गया। यह भी
सही है कि देश के राष्ट्रीय नेतृत्व ने तुर्की में धर्मनिरपेक्ष और साम्राज्यवाद
विरोधी राज्य की स्थापना का स्वागत किया। लेकिन यह बिलकुल भी सही नहीं है कि गांधीजी
के द्वारा ख़िलाफ़त आन्दोलन के समर्थन ने भारतीय राष्ट्रीयता की जड़ों को ही काट दिया
था। उलटे हम यह पाते हैं कि इस आन्दोलन का असहयोग आन्दोलन से मिलाप के कारण
राष्ट्रीयता की जड़ें भलीभांति सिंचित हुई। राष्ट्रीयता की जड़ों को मज़बूत बनाती हैं
जनता की एकता और सहभागिता या भागीदारी। उस समय की विकसित होती परिस्थितियों का
आंकलन करने पर हम पाते हैं कि असहयोग और ख़िलाफ़त आंदोलन के मिलाप ने 1921-22 के युग
को, बंगाल में, राष्ट्रीय आन्दोलन के संपूर्ण इतिहास में, शक्ति और एकता का
सर्वोच्च बिन्दु बना दिया। लगभग बराबर की संख्या वाले बंगाल में हिन्दू-मुस्लिम
एकता अप्रतिम थी।
यह ठीक है कि खिलाफत का मुद्दा सीधे
तौर पर भारतीय राजनीति से जुड़ा नहीं था, लेकिन इसने राष्ट्रीय आंदोलन को
तत्काल पृष्ठभूमि प्रदान की और अंग्रेजों के खिलाफ हिंदू-मुस्लिम एकता को मजबूत
करने का अतिरिक्त लाभ दिया। खिलाफत के मुद्दे ने, मुसलमानों की युवा पीढ़ी और
पारंपरिक मुस्लिम विद्वानों के एक वर्ग के बीच, एक कट्टरपंथी राष्ट्रवादी
प्रवृत्ति के उद्भव के लिए मार्ग प्रशस्त किया, जो ब्रिटिश शासन के तेजी से आलोचक
बन रहे थे। दोनों आन्दोलनों के मिलाप से राष्ट्रवादी भावना देश के कोने-कोने तक
पहुंच गई और आबादी के हर वर्ग, कारीगर, किसान, छात्र, शहरी गरीब, महिलाएं, व्यापारी आदि की राष्ट्रीय आन्दोलन
में भागीदारी दिखी। यह लाखों पुरुषों और महिलाओं का राजनीतिकरण और सक्रियता थी
जिसने राष्ट्रीय आंदोलन को एक क्रांतिकारी चरित्र प्रदान किया। एक मिथक था कि
औपनिवेशिक शासन अजेय था। इस जन संघर्ष के माध्यम से इस मिथक को ज़बरदस्त चुनौती दी गई। अब, जनता ने औपनिवेशिक शासन और उसके शक्तिशाली दमनकारी भय को खो
दिया था। इसलिए जो यह सोच रखते हैं कि, “एम्.के. गांधी
द्वारा ख़िलाफ़त आन्दोलन का समर्थन एक बड़ी भूल थी, क्योंकि यह एक ऐसा अन्य-देशीय
मुद्दा था जिसने भारतीय राष्ट्रीयता की जड़ों को ही काट दिया था”, सही मायनों में निश्चित रूप से भूल तो
वे ही कर रहे हैं।
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मनोज कुमार
पिछली कड़ियां- राष्ट्रीय आन्दोलन
संदर्भ : यहाँ पर
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