राष्ट्रीय आन्दोलन
266. अमृतसर-कांग्रेस
1919
यह एक अजीब संयोग था कि जिस साल जालियांवाला हत्या-कांड हुआ उसी साल दिसंबर के
महीने में कांग्रेस का अधिवेशन भी अमृतसर में हुआ। मोतीलाल ने तो पंजाब में ही
डेरा डाल रखा था, इसलिए उन्हें ही अध्यक्ष चुना गया। 27 दिसंबर 1919 से 1 जनवरी
1920 तक अमृतसर में आयोजित भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस
का चौंतीसवाँ अधिवेशन, इसके इतिहास में
एक मील का पत्थर है। स्वामी
श्रद्धानंद स्वागत समिति के अध्यक्ष थे। प्रथम महायुद्ध समाप्त हो चुका था। इस
अधिवेशन में कोई महत्वपूर्ण निर्णय नहीं लिया गया। इसका कारण यह था कि बहुत सी
बातों की जांच की गई थी और उसके रिपोर्ट का इंतज़ार था। फिर भी एक बात तो साफ थी ही
कि कांग्रेस अब पहले वाली कांग्रेस नहीं रह गई थी। उसमें सामूहिक और जन-व्यापकता आ गई थी।
उस अधिवेशन में लोकमान्य
बालगंगाधर तिलक भी मौज़ूद थे। वे किसी भी तरह से समझौते के लिए तैयार नहीं थे।
वह आख़िरी अधिवेशन था जिसमें उन्होंने भाग लिया था। अगले अधिवेशन के पहले ही उनकी मृत्यु
हो गई थी। उस अधिवेशन में गांधीजी भी उपस्थित थे। अबतक गांधीजी जब भी कांग्रेस
अधिवेशन में भाग लेते तो प्रेक्षक के रूप में लेते। लेकिन चंपारण सत्याग्रह, खेड़ा
सत्याग्रह, स्वराज सभा, रॉलेट बिल और जालियांवाला बाग कांड
के बाद स्थिति बदल चुकी थी। वे जनता के बीच लोकप्रिय हो चुके थे। दिसंबर में, जिन
क़ैदियों पर हिंसा का अभियोग नहीं था, उन्हें आम माफ़ी प्रदान कर जेल से रिहा कर
दिया गया था। अधिवेशन में बहुत से ऐसे नेता भी भाग ले रहे थे जो सीधे जेल से आए थे
और सैनिक क़ानून के दिनों में उन्होंने षडयंत्र में शामिल होने के आरोप के कारण लंबी
सज़ा हुई थी लेकिन माफ़ कर दिए जाने के कारण बाहर आए थे। प्रसिद्ध अली बंधु, लाला लाजपत राय
और लाला हरिकिशन लाल आदि छूट कर आए थे।
मांटेग्यू-चेम्सफ़ोर्ड सुधार पर
कांग्रेस अधिवेशन में प्रस्ताव
कांग्रेस के विचार-विमर्श का सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा भारत सरकार अधिनियम, 1919 के प्रति अपना दृष्टिकोण परिभाषित करना था। सरकार को लगा कि शासन में कुछ सुधार कर भारतीयों को
बहला-फुसला लिया जाएगा। इसीलिए ब्रिटिश सरकार ने लॉर्ड मांटेग्यू और लॉर्ड
चेम्सफ़ोर्ड के मातहत एक समिति का गठन किया, ताकि यह समिति भारत मे शासन में सुधार
के उपाय सुझाए। इस समिति ने कुछ रियायतें देने का वादा किया था। ‘उत्तरदायी सरकार’ लाने की
समस्याओं का समाधान के लिए ‘द्विशासन’ का एक अनोखा उपाय इस समिति ने सुझाया था, जिसके तहत
प्रांतीय सरकारों के कुछ विभाग जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि, स्थानीय निकाय
मंत्रियों को सौंप दिए गए थे जो विधायिकाओं के प्रति उत्तरदायी थे, जबकि अन्य
विषयों ओ ‘आरक्षित’ रखा गया था।
देश में प्रमुख राजनीतिक राय मोंटफोर्ड योजना से बहुत निराश थी, क्योंकि यह भारतीयों की जिम्मेदार सरकार की मांग से बहुत कम
थी। कांग्रेस के अमृतसर अधिवेशन में इन रियायतों पर भी चर्चा
हुई। पिछले वर्ष कांग्रेस अपने दिल्ली अधिवेशन में इन सुधारों के प्रति आलोचनात्मक
रवैया अपना चुकी थी। इस कारण नरमदलीय तत्व कांग्रेस से अलग होकर सप्रू, जयकर और
चिंतामणि ने नेशनल लिबरल एसोसिएशन की स्थापना की थी। हालांकि गांधीजी को ये सुधार
पसंद तो नहीं थे, लेकिन अमृतसर कांग्रेस के समय उनका मानना था कि सरकार के प्रयास
को सद्भाव से देखना चाहिए। अगर कांग्रेस इन सुधारों को मान लेती है, तो आगे की
मांगों में सुविधा होगी। गांधीजी इस प्रचलित राय से सहमत थे कि "सुधार
निस्संदेह अधूरे हैं; वे हमें पर्याप्त नहीं देते" लेकिन उन्हें लगा कि
उन्हें अस्वीकार नहीं किया जाना चाहिए। उन्होंने घोषणा की कि सुधार अधिनियम, 24 दिसंबर 1919 को जारी शाही उद्घोषणा के साथ मिलकर, भारत के साथ न्याय करने के लिए ब्रिटिश लोगों की एक
ईमानदारी थी। इसलिए गांधीजी सी.आर. दास के संकल्प को स्वीकार नहीं कर
सके। उन्होंने पैराग्राफ 2
में "निराशाजनक" शब्द को
हटाते हुए एक संशोधन पेश किया। गांधीजी का तर्क
था कि अगर कांग्रेस सुधारों पर काम करने जा रही है, तो वह उन्हें
निराशाजनक नहीं कह सकती। सुधारों पर सहयोग की भावना से काम किया जाना चाहिए।
लोकमान्य तिलक और देशबंधु चितरंजन दास को यह सुधार ज़रा भी मान्य नहीं था। महामना निष्पक्ष
थे। कांग्रेस दो पक्षों में बंट गई। गांधीजी इस मतभेद से क्षुब्ध थे। उन्हें लगा
कि यदि वे अधिवेशन छोड़कर अहमदाबाद चलें जाएं तो कांग्रेस की दुविधा टल जाएगी।
लेकिन अध्यक्ष मोतीलाल नेहरू और मालवीयजी ने गांधीजी के चले जाने के प्रस्ताव को
नामंज़ूर कर दिया। गांधीजी ने देशबंधु, लोकमान्य और जिन्ना से काफ़ी चर्चाएं की।
जिन्ना और गांधीजी पिछले कुछ समय से एक-दूसरी की मदद कर रहे थे। अपने खिलाफ राज
द्वारा अदालत की मानहानि का दावा कर देने पर गांधीजी ने जिन्ना की मदद माँगी थी।
उन दिनों जिन्ना इंगलैंड में अपनी पत्नी रत्ती के साथ छुट्टियां मना रहा था।
जिन्ना को गांधीजी की चिट्ठी मिली जिसमें गांधीजी ने उम्मीद ज़ाहिर की थी कि वापस
लौटने पर बेगम जिन्ना चरखा चलाने की कक्षा में शामिल होंगी और जिन्ना जल्दी से
जल्दी गुजराती सीख लेंगे। कांग्रेस के इस अमृतसर अधिवेशन में चेम्सफोर्ड सुधारों
के मत पर जिन्ना ने गांधीजी के रुख का समर्थ करते हुए अपने भाषण में उन्हें
`महात्मा गांधी’ कहा था। जिन्ना के ही पहल पर चितरंजन दास आदि की आलोचनाओं
के बावजूद कांग्रेस ने सुधारों पर अमल करने पर सहमति दी थी।
जयराम-दौलतराम ने एक संशोधन सुझाया, जो सबको मान्य था और समस्या का समाधान हो
गया। प्रस्ताव में रॉलेट एक्ट को निराशाजनक बताते हुए एक समझौता सूचक धारा जोड़
दिया गया। इस बैठक में जो प्रस्ताव पारित हुआ, उसमें महत्त्वपूर्ण बातें थीं,
जालियांवाला बाग स्मारक फंड एकत्रित करना, हाथ कताई और हाथ बुनाई को प्रमुखता देना
और कांग्रेस का संविधान तैयार करना। अब तक गांधीजी कांग्रेस के कार्य से अलग-थलग
थे। पर अब वे कांग्रेस में फंसने लगे थे। प्रस्ताव में पारित तीनों काम गांधीजी के मत्थे आ पड़ा।
गांधीजी को फंड इकट्ठा करने का अनुभव तो अफ़्रीका से ही था। कुछ ही दिनों में
पांच लाख से ज़्यादा रुपया फंड के नाम आ गया। कांग्रेस के संविधान बनाने का काम भी
उन्हें मिला था। अब तक कांग्रेस गोखलेजी के बनाए कुछ नियमों पर चल रहा था।
कांग्रेस का कार्यक्षेत्र बढ़ चुका था। अधिवेशन में जो प्रस्ताव पारित होते उसके
अनुपालन की कोई व्यवस्था नहीं थी। इसलिए ज़रूरी था कि कांग्रेस का पक्का संविधान
तैयार किया जाए। गांधीजी ने लोकमान्य और देशबंधु से आग्रह किया कि वे अपने
प्रतिनिधियों को संविधान समिति में नामित करें। लोकमान्य ने केलकर और देशबंधु ने
आई.वी. सेन को नामित किया। एकमत से कांग्रेस का संविधान तैयार हुआ और 1920 की नागपुर कांग्रेस ने इसे स्वीकार कर लिया।
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मनोज कुमार
पिछली कड़ियां- राष्ट्रीय आन्दोलन
संदर्भ : यहाँ पर
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