राष्ट्रीय आन्दोलन
295. झंडा सत्याग्रह
1923
कांग्रेस
की आंतरिक कलह से गांधीजी का मन क्षुब्ध था। आंदोलन चलाने का उनका मन नहीं हो रहा था।
इसी बीच नागपुर के कुछ क्षेत्रों में स्थानीय सरकार ने कांग्रेसी झंडे के प्रयोग पर
प्रतिबंध लगा दिया था। इसका विरोध करने के लिए गांधीजी ने 1923 के जून
माह में झंडा
सत्याग्रह किया। इस आंदोलन की शुरुआत
मध्य प्रदेश के जबलपुर शहर में हुई थी। यह आंदोलन नागपुर में खत्म हुआ। यह आन्दोलन 1923 में नागपुर में बाबू कंछेदीलाल जैन (लाल
बंगला वाले) द्वारा मुख्यतः हुआ किन्तु भारत के अन्य स्थानों पर भी अलग-अलग समय पर
आन्दोलन हुए। झंडा सत्याग्रह, भारत के स्वतंत्रता आंदोलन का एक शांतिपूर्ण आंदोलन था। इसका मकसद, राष्ट्रीय ध्वज फहराने के अधिकार
और आज़ादी का इस्तेमाल करना था। 18 जून, 1923 को झंडा
सत्याग्रह ने झंडा दिवस के रूप में देशव्यापी आंदोलन का रूप ले लिया।
झंडा सत्याग्रह की पृष्ठभूमि और इतिहास का आरंभ
अक्टूबर 1922 से
ही हो गया था, जब
असहयोग आंदोलन की सफलता और प्रतिवेदन के लिए कांग्रेस ने एक जांच समिति बनाई थी। दर असल
हुआ यह था कि असहयोग आंदोलन (एक अगस्त, 1920 को
प्रारंभ) से भारत में अंग्रेजी शासन की नींव हिल गई थी। परंतु चौरी चौरा क्रांति
के बाद महात्मा गांधी ने नेताजी सुभाष चंद्र बोस व मोतीलाल नेहरू आदि के विरोध के
बावजूद आंदोलन वापस ले लिया था। 1922 में
असहयोग आंदोलन की सफलता का आकलन करने के लिए कांग्रेस की एक समिति का गठन किया
गया। यह समिति अक्टूबर 1922 में
जबलपुर आई और गोविंद भवन में ठहरी। इस समिति के अध्यक्ष हकीम अजमल खां थे, जबकि सदस्यों में मोतीलाल
नेहरू, विट्ठलभाई
पटेल, सी.
राजगोपालाचारी और कस्तूरी रंगा आयंगर प्रमुख थे। जबलपुर की जनता की ओर से इन
नेताओं को विक्टोरिया टाउन हाल में एक समारोह में अभिनंदन पत्र भेंट किया गया।
जबलपुर में इसी समारोह के दौरान झंडा सत्याग्रह आंदोलन
की शुरुआत हुई, जहां नगर निगम ने एक प्रस्ताव पारित किया जिसमें कहा
गया कि यूनियन जैक के ठीक बगल में नगरपालिका भवन पर राष्ट्रीय ध्वज फहराया जाना
चाहिए। जिला मजिस्ट्रेट ने इस कार्रवाई पर रोक लगाने का आदेश जारी किया। हालांकि, नगरपालिका
के कांग्रेस सदस्यों ने फिर भी आगे बढ़कर 18 मार्च, 1923 को भवन पर राष्ट्रीय ध्वज फहराया। इस ध्वज को
औपनिवेशिक पुलिस ने नीचे खींच लिया और रौंद दिया। इस अपमानजनक कृत्य से उत्पन्न
आक्रोश जबलपुर और नागपुर में झंडा सत्याग्रह के लिए ईंधन बन गया।
स्वदेशी ध्वजारोहण की खबरें समाचार पत्रों में
प्रकाशित होकर इंग्लैंड की संसद तक पहुंच गईं। हंगामा हुआ और
भारतीय मामलों के सचिव लॉर्ड विंटरटन ने सफाई देते हुए आश्वस्त किया कि अब भारत
में किसी भी शासकीय या अर्धशासकीय इमारत पर तिरंगा झंडा नहीं फहराया जाएगा। इसी
पृष्ठभूमि ने झंडा सत्याग्रह को जन्म दिया।
मार्च 1923 को
पुनः कांग्रेस की एक दूसरी समिति रचनात्मक कार्यों की जानकारी लेने जबलपुर आई
जिसमें डॉ. राजेंद्र प्रसाद, सी.
राजगोपालाचारी, जमना
लाल बजाज और देवदास गांधी प्रमुख लोग शामिल थे। तब कनछेदीलाल जैन जबलपुर में
म्यूनिसिपल कमेटी के अध्यक्ष थे। इस
समिति के सभी सम्मानित जनों को मानपत्र देने हेतु म्युनिसिपल कमेटी ने टाउन हॉल
में एक कार्यक्रम आयोजित किया। इस दौरान डिप्टी कमिश्नर किस्मेट लेलैंड ब्रुअर
हेमिल्टन को पत्र लिखकर टाऊन हाल पर फिर से तिरंगा झंडा फहराने की इजाजत मांगी गई।
हेमिल्टन ने शर्त रखते हुए कहाकि यह अनुमति तभी मिलेगी, जब साथ में यूनियन जैक भी फहराया जाएगा। इस बात
पर जबलपुर म्युनिसिपैलटी के प्रसिडेंट कंछेदी लाल जैन तैयार नहीं हुए। इसी बीच
नगर कांग्रेस समिति के अध्यक्ष पंडित सुंदरलाल ने जनता को आंदोलित किया कि टाऊन
हाल में तिरंगा अवश्य फहराया जाएगा। तिथि 18 मार्च
नियत की गई क्योंकि महात्मा गांधी को 18 मार्च 1922 को जेल भेजा गया था। 18 मार्च 1923 को गांधी जी को जेल भेजने
का एक साल पूरा हो रहा था।
वर्ष
1923 में पंडित सुंदरलाल नगर
कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष बने। 18 मार्च
को पंडित सुंदरलाल की अगुवाई में पंडित बालमुकुंद त्रिपाठी, बद्रीनाथ दुबे, कवियत्री सुभद्रा कुमारी
चौहान तथा माखन लाल चतुर्वेदी के साथ तकरीबन 350 आन्दोलनकारी टाऊन हाल पहुंचे। उस समय
युवा आंदोलनकारी सीताराम यादव, परमानंद
जैन, जाधव
बंधु, नरसिंह
अग्रवाल व खुशहाल चंद्र जैन भी साथ थे। अंग्रेजों की सख्त चौकसी के बावजूद उस्ताद
प्रेमचंद ने अपने तीन साथियों सीताराम जादव, परमानन्द जैन और खुशालचंद्र जैन के साथ मिलकर टाऊन हाल
पर तिरंगा झंडा फहराया दिया। इससे अंग्रेज डिप्टी कमिश्नर बौखला गया। उसने तुरंत
ही झंडे को उतारने का आदेश दिया और झंडा फहराने वालों की खोजबीन शुरू कर दी। इधर, आंदोलनकारियों के लिए अपने
राष्ट्रीय झंडे का अपमान बर्दाश्त से बाहर था इसलिए कांग्रेस ने झंडे के सम्मान के
लिए सत्याग्रह आरंभ कर दिया। हजारों देशभक्तों की भीड़ ने झंडा फहराने के अधिकार की
मांग की। आंदोलन का नेतृत्व करने वाले नेताओं को गिरफ्तार किया गया। पंडित
सुंदरलाल को छह महीने कारावास की सजा हुई। कवियत्री
सुभद्रा कुमारी चौहान भारत की पहली महिला स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थीं, जिन्होंने झंडा सत्याग्रह में अपनी गिरफ्तारी दी थी।
इस सफलता के उपरांत उत्साहित होकर नागपुर से व्यापक
स्तर पर झंडा सत्याग्रह का आरंभ हुआ। इसका प्रसार लौह पुरुष सरदार वल्लभ भाई पटेल के
नेतृत्व में हुआ जिसमें जबलपुर के स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों ने न केवल हिस्सा
लिया, बल्कि
गिरफ्तारी भी दी।
नागपुर जिला कांग्रेस कमेटी ने 1 मई 1923 को
जमनालाल बजाज के नेतृत्व में राष्ट्रीय ध्वज का मुद्दा उठाया। सरदार
पटेल ने गुजरात से स्वयंसेवकों को सत्याग्रह में भाग लेने के लिए भेजकर आंदोलन को
अखिल भारतीय मुद्दा बनाने में मदद की और बाद में जब जमनालाल बजाज को आंदोलन में
शामिल होने के कारण गिरफ्तार किया गया तो उन्होंने इसकी कमान संभाली। सरदार पटेल
ने इसे लोगों और औपनिवेशिक सरकार के सामने असहयोग की शक्ति को प्रदर्शित करने के
लिए एक बेहतरीन अवसर के रूप में देखा। पूरे भारत से स्वयंसेवक नागपुर में एकत्र
हुए और जुलूस, मार्च और सार्वजनिक स्थानों पर राष्ट्रीय ध्वज फहराने
जैसे कई कार्य किए गए। सत्याग्रह का निर्णायक प्रकरण 18 अगस्त को हुआ , जब पटेल के नेतृत्व में स्वतंत्रता सेनानियों के एक दल
ने पुलिस द्वारा रोके बिना, राष्ट्रीय ध्वज को ऊंचा रखते हुए सिविल लाइंस से मार्च
किया। इस प्रकार पटेल ने घोषणा की कि ध्वज का सम्मान सही साबित हुआ है और लोगों के
अहिंसक विरोध के अधिकार को साबित किया गया है। इस प्रकार, सत्याग्रह
अपना उद्देश्य पूरा करके समाप्त हो गया। इस आंदोलन को समाप्त करने के लिए ब्रिटिश सरकार ने
आंदोलनकारियों को कैद में डालना शुरू कर दिया। ब्रिटिश सरकार ने आंदोलन को दबाने
में कोई कसर नहीं छोड़ी। यह आंदोलन इसलिए महत्वपूर्ण था क्योंकि इसमें
आंदोलनकारियों ने जगह-जगह से अंग्रेजों के झंडे निकाल-निकालकर देश का झंडा फहराया
था। अंत में, अंग्रेजों
ने सरदार पटेल और अन्य कांग्रेस नेताओं के साथ एक समझौते पर बातचीत की, जिससे प्रदर्शनकारियों को
मार्च निकालने और गिरफ्तार किए गए सभी लोगों की रिहाई की अनुमति मिली।
ब्रिटिशकालीन मध्य प्रांत के जबलपुर से प्रारंभ हुआ
झंडा सत्याग्रह नागपुर सहित देश के कई हिस्सों तक क्रांति बनकर पहुंचा। इस सत्याग्रह ने स्वतंत्रता आंदोलन के लिए संजीवनी
का कार्य किया और आंदोलन में नए प्राण फूंक दिए। स्थानीय नेताओं द्वारा शुरू किया
गया यह आंदोलन शीघ्र ही पूरे भारत में चर्चा व कौतुक का विषय बन गया। राष्ट्रीय
स्तर के नेता भी इस आंदोलन का हिस्सा बनते गए। आंदोलन इस बात का प्रतीक बन गया कि
देश की स्वतंत्रता के लिए कैसे अनेक गुमनाम व सामान्य जन त्याग, बलिदान तथा साहस की भावना के साथ इसमें जुड़ रहे
हैं।
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मनोज कुमार
पिछली कड़ियां- राष्ट्रीय आन्दोलन
संदर्भ : यहाँ पर
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