राष्ट्रीय आन्दोलन
294. साम्यवादियों (कम्युनिस्टों) का उदय
प्रवेश
1920 के दशक में असहयोग आन्दोलन की सफलताओं के कारण जहाँ एक ओर हम राष्ट्रीय
आंदोलन में बड़ी संख्या में भारतीय जनता के प्रवेश को देखते हैं, वहीँ दूसरी ओर राष्ट्रीय
परिदृश्य पर मुख्य राजनीतिक धाराओं के रूप में साम्यवाद और समाजवाद को सामने पाते हैं। इन विविध राजनीतिक
धाराओं की उत्पत्ति सत्य, अहिंसा और सत्याग्रह के गांधीवादी दर्शन के राष्ट्रीय
राजनीतिक दृश्य पर आने के कारण हुई। इस दशक के दौरान भारतीय राजनीतिक विचारकों पर
अंतर्राष्ट्रीय प्रभाव भी पहले की तुलना में अधिक स्पष्ट रूप से सामने आया। मार्क्स
और समाजवादी विचारकों के विचारों ने कई समूहों को साम्यवादियों (कम्युनिस्टों) के
रूप में अस्तित्व में आने के लिए प्रेरित किया। ऐसा माना जाता है कि भारतीय साम्यवाद
की जड़ें राष्ट्रीय आंदोलन के बीच से ही फूटी थीं। कुछ ऐसे क्रांतिकारी थे जिनका
राष्ट्रीय आंदोलन से मोह भंग हो चुका था। उनका मानना था कि महज़ राजनीतिक आज़ादी से
आम जनता का जीवन स्तर सुधरने वाला नहीं है। उनके अनुसार परिवर्तन का संघर्ष सिर्फ औपनिवेशिक
सत्ता से आज़ादी पाने के लिए ही नहीं है। यह तो उन तमाम शोषणकारी शक्तियों से निजात
पाने के लिए होना चाहिए, जिनके चलते देश की अधिकांश जनता ग़ुलाम और ग़रीब है। इसके
अलावा कुछ असहयोग, ख़िलाफ़त, किसान और श्रमिक आंदोलन के सदस्य भारत के सामाजिक और
राजनीतिक उद्धार के लिए किसी नई विचारधारा की तलाश में थे। असहयोग आन्दोलन के
अचानक वापस ले लिए जाने के कारण ज़्यादातर युवा गांधीजी से नाराज़ हो गए थे। वे
साम्यवादी विचारधारा के प्रभाव में आ रहे थे। वे एक समतामूलक वर्गविहीन समाज की
स्थापना करना चाहते थे। सोवियत क्रांति से प्रेरित और गांधीवादी विचारों और
राजनीतिक कार्यक्रम से असंतुष्ट इन युवा राष्ट्रवादियों ने देश की आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक बुराइयों के लिए आमूल परिवर्तन की वकालत शुरू कर दी।
कम्युनिस्ट
पार्टी ऑफ इंडिया’ की स्थापना
साम्यवादी विचारधारा के प्रभाव में आ रहे युवकों को उस समय के विख्यात
क्रांतिकारी नेता नरेन भट्टाचार्य उर्फ़ मानवेन्द्र नाथ राय ने नई राह
दिखाई। तब सोवियत संघ में बोल्शेविक क्रांति की सफलता की धूम मची हुई थी। 7 नवंबर
1917 को वी.आई. लेनिन के नेतृत्व में बोल्शेविक (कम्युनिस्ट) पार्टी ने निरंकुश
ज़ारवादी शासन को उखाड़ फेंका और पहले समाजवादी राज्य के गठन की घोषणा की। इससे
प्रेरित हो दुनिया भर के देशों के बीच आपसी राजनीतिक और आर्थिक संबंध बनाने दौर चल
रहा था। लोगों में धारणा बनी कि अगर आम लोग - मज़दूर और किसान और बुद्धिजीवी -
एकजुट होकर शक्तिशाली ज़ारवादी साम्राज्य को उखाड़ फेंक सकते हैं और एक ऐसी
सामाजिक व्यवस्था स्थापित कर सकते हैं जहाँ एक इंसान द्वारा दूसरे इंसान का शोषण न
हो, तो ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ़ लड़ने वाले भारतीय लोग भी ऐसा कर सकते हैं।
समाजवादी सिद्धांत,
खासकर मार्क्सवाद,
बोल्शेविक पार्टी का मार्गदर्शक सिद्धांत, अचानक आकर्षण बन गया, खासकर एशिया के लोगों के लिए। अगस्त 1919 में
एम.एन. राय मेक्सिको में बोल्शेविक मिखाइल बोरोदीन के संपर्क में आए थे। वहाँ उन्होंने,
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना करने से पहले, मैक्सिको की कम्युनिस्ट पार्टी
(सोशलिस्ट वर्कर्स पार्टी) की स्थापना की थी। रूस में समाजवादी क्रांति के कारण समूचे एशिया महाद्वीप में
समाजवादी विचारधारा ज़ोर पकड़ने लगी थी। 1920 में क्म्युनिस्ट
इंटरनेशनल के दूसरे अधिवेशन में शामिल होने के लिए राय मास्को गए। वहीं पर
उनका लेनिन से विवाद हुआ। लेनिन का औपनिवेशिक देशों में कम्युनिस्टों की रणनीति को
लेकर मत था कि उपनिवेशों और अर्ध-उपनिवेशों में बुर्जुवा नेतृत्व वाले आंदोलनों को
समर्थन दिया जाए। लेकिन राय इसके विपरीत मत रखते थे। राय का कहना था कि भारत में
जनसामान्य का पहले ही गांधीजी जैसे बुर्जुवा राष्ट्रवादियों से मोहभंग हो चुका है
और वह बुर्जुवा-राष्ट्रीय आंदोलन से स्वतंत्र रहकर क्रांति की ओर आगे बढ़ रहे हैं। इस
दौर में ख़िलाफ़त आंदोलन में हिस्सा ले रहे युवा बड़ी संख्या में कम्युनिस्ट
पार्टी से जुड़ गए।
पूरे देश में कई समाजवादी और साम्यवादी समूह अस्तित्व में आए। अक्तूबर 1920 में एम.एन. राय ने अवनी मुखर्जी, मुहम्मद अली और मुहम्मद
शफ़ीक़ के साथ मिलकर ताशकंद (तब सोवियत संघ का हिस्सा था, अब
उज्बेकिस्तान का हिस्सा है) में ‘कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ
इंडिया’ की स्थापना की। मोहम्मद अली और मोहम्मद शफ़ीक़ उस समय रूस में थे। वे
वहाँ तुर्की में ख़िलाफ़त शासन को लागू करने के लिए भारत में चल रहे ख़िलाफ़त
आंदोलन के पक्ष में समर्थन जुटाने के लिए गए थे। यह वह समय था जब गाँधीजी भी
ख़िलाफ़त आंदोलन का समर्थन कर रहे थे। 1922 में राय अपना
मुख्यालय बर्लिन ले गए। वहां से उन्होंने ‘वैन्गार्ड ऑफ इंडिपेन्डेंस’ नाम
से एक पाक्षिक पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया। इसके अलावा अवनी मुखर्जी के सहयोग से
उन्होंने ‘इंडिया इन ट्रांज़िशन’ भी प्रकाशित करना आरंभ किया था। इन
पत्रिकाओं के द्वारा भारतीय अर्थव्यवस्था और समाज का साम्यवादी विश्लेषण किया जाता
था।
इंडिया
इंडिपेंडेंस पार्टी की स्थापना
कुछ अप्रवासी भारतीय क्रांतिकारी, जिनमें वीरेन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय, भूपेन्द्रनाथ दत्त और बरकतुल्लाह प्रमुख थे, भी मार्क्सवाद की तरफ आकर्षित हो रहे थे। इस समूह ने 1922 में बर्लिन में
‘इंडिया इंडिपेंडेंस पार्टी’ की स्थापना की।
कम्युनिस्ट
समूह के प्रमुख नेता
पार्टी को मज़बूती प्रदान करने की कोशिश में नलिनी गुप्ता और शौकत उस्मानी के
माध्यम से एम.एन. राय ने देश के दूसरे हिस्सों में सक्रिय कम्युनिस्ट समूहों से गुप-चुप
तरीक़े से सम्पर्क किया। बंबई में एस.ए. डांगे, कलकत्ता में मुज़फ़्फ़र अहमद, मद्रास
में सिंगारवेलु, पंजाब में भाई संतोख़ सिंह और लाहौर में ग़ुलाम हुसैन और अब्दुल
मजीद, कम्युनिस्ट समूह के प्रमुख नेता थे। 1922 में
एम.एस. डांगे ने बंबई से ‘द सोशलिस्ट’ नाम का साप्ताहिक निकालना शुरू किया।
यह भारत में प्रकाशित होने वाली पहली कम्युनिस्ट पत्रिका थी। वे 1921 में ‘गांधी बनाम लेनिन’ किताब लिख चुके थे। इस पुस्तक में डांगे का तर्क था - गांधीजी एक
प्रतिक्रियावादी विचारक थे, जो धर्म और व्यक्तिगत विवेक के
पक्ष में थे। दूसरी ओर, लेनिन ने आर्थिक उत्पीड़न की संरचनात्मक जड़ों की पहचान की और सामूहिक कार्रवाई
करते हुए उत्पीड़न समाप्त करने की मांग की। बंगाल में, मुजफ्फर अहमद ने नवयुग निकाला और बाद में कवि नज़रू इस्लाम के सहयोग से
‘लांगल’ और ‘गणवाणी’ पत्रिका निकाले। लाहौर से अब्दुल मजीद ‘मेहनतकश’
पत्रिका निकाल रहे थे। पंजाब में भाई संतोख़ सिंह ‘कीर्ति’ निकाल रहे थे। पंजाब
में गुलाम हुसैन और अन्य ने इंकलाब प्रकाशित किया और मद्रास में एम.
सिंगारवेलु ने लेबर-किसान गजट की स्थापना की।
लेबर
किसान पार्टी का गठन
मद्रास के कम्युनिस्ट नेता सिंगारवेलु चेट्टियार ने 1923 में ‘लेबर किसान पार्टी’ का गठन किया। इसके पहले ही
सिंगारवेलु उस वक्त सुर्खियों में आ गए थे जब उन्होंने 1922 में
गया में आयोजित भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस सम्मेलन के दौरान ‘पूर्ण स्वराज’
की घोषणा की थी। कांग्रेस के गया अधिवेशन (दिसंबर 1922) में
सिंगारवेलु ने विश्व के कम्युनिस्टों की महान परंपरा का हवाला देते हुए कहा कि
असहयोग आंदोलन में पीछे हटना भारी भूल थी। साथ ही उन्होंने ज़ोर देते हुए कहा कि
असहयोग आंदोलन के साथ राष्ट्रीय हड़तालें भी करने की ज़रूरत है।
किसान
मज़दूर पार्टी का गठन
शुरुआती कम्युनिस्टों द्वारा राजनीतिक कार्य का मुख्य रूप किसानों और मजदूरों
की पार्टियों को संगठित करना और उनके माध्यम से काम करना था। 1925-26 में बंगाल
में मुज़फ्फर अहमद, कवि नज़रूल इस्लाम,
क़ुतुबुद्दीन अहमद और हेमंत कुमार सरकार ने ‘लेबर स्वराज पार्टी’ का गठन
किया। जल्द ही इसका नाम बदल कर ‘किसान-मज़दूर
पार्टी’ रख दिया गया। 1927 में इस पार्टी में गोपन चक्रवर्ती और धरनी गोस्वामी
अपने-अपने समूहों के साथ शामिल हो गए।
किरती
किसान पार्टी का गठन
पंजाब में 1926 में किरती पत्रिका के संपादक संतोख सिंह, सोहन सिंह जोश के साथ मिलकर
किरती किसान पार्टी का गठन किया।
मज़दूर-किसान
पार्टी का गठन
बंबई में जनवरी 1927 में एस.एस. मिराजकर, के.एन. जोगलेकर और एस.वी. घाटे ने मज़दूर-किसान
पार्टी का गठन किया।
वर्कर्स एंड पीजेंट्स पार्टी
1928 तक इन सभी प्रांतीय संगठनों का नाम बदलकर वर्कर्स एंड पीजेंट्स पार्टी
(डब्ल्यूपीपी) कर दिया गया और एक अखिल भारतीय पार्टी में शामिल कर दिया गया, जिसकी इकाइयाँ राजस्थान, यूपी और दिल्ली
में भी स्थापित की गईं। सभी कम्युनिस्ट इस पार्टी के सदस्य थे। WPPs का मूल उद्देश्य कांग्रेस के भीतर काम करके इसे और अधिक उग्रवादी दिशा
देना और इसे ‘जनता की पार्टी’ बनाना तथा स्वतंत्र रूप से वर्ग संगठनों में मजदूरों
और किसानों को संगठित करना था, ताकि पहले पूर्ण स्वतंत्रता
और अंततः समाजवाद की प्राप्ति हो सके। WPPs का तेजी से विकास
हुआ और कुछ ही समय में कांग्रेस में साम्यवादियों का प्रभाव तेजी से बढ़ने लगा,
खासकर बॉम्बे में। इसके अलावा, जवाहरलाल नेहरू
और अन्य उग्रवादी कांग्रेसियों ने कांग्रेस को उग्रवादी बनाने के WPPs के प्रयासों का स्वागत किया। जवाहरलाल और सुभाष बोस, युवा लीग और अन्य वामपंथी ताकतों के साथ, WPPs ने
कांग्रेस के भीतर एक मजबूत वामपंथी विचारधारा बनाने और भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन को
वामपंथी दिशा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। WPPs ने
ट्रेड यूनियन मोर्चे पर भी तेजी से प्रगति की और 1927-29 के दौरान मजदूर वर्ग के
संघर्षों के पुनरुत्थान में निर्णायक भूमिका निभाई और साथ ही कम्युनिस्टों को
मजदूर वर्ग में मजबूत स्थिति हासिल करने में सक्षम बनाया।
राष्ट्रवादी
धारा के भीतर रहकर ही काम
1920 के दशक में भारतीय कम्युनिस्ट समूह मुख्य राष्ट्रवादी धारा
के भीतर रहकर ही भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की नीतियों के साथ काम करते रहे। कम्युनिस्टों
ने उस वक्त कांग्रेस में दिलचस्पी लेने वाले लोगों को साथ लेने का काम किया। भारतीय
राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशनों में श्रम-सम्बन्धी सवाल उठाकर कांग्रेसी राजनीति
में भी हस्तक्षेप करने की कोशिश की। राय कांग्रेस के
वार्षिक अधिवेशनों के प्रतिनिधियों में कम्युनिस्ट कार्यक्रम संबंधित वक्तव्य
तैयार करके बाँटते थे। शुरू में वे और उनके समूह के लोग गांधीजी की और उनकी पद्धति
की आलोचना तो करते थे लेकिन बहुत तीखी नहीं। 1928 के बाद में तो ये लोग उन्हें ‘बुर्जुवा
वर्ग का ताबीज़ मात्र’ तक कहा था। वे मानते थे कि देशवासियों द्वारा गांधीजी से
गहरा प्रेम देश के कष्ट में पड़े रहने के लिए उत्तरदायी है। 1923 से 27 के बीच देश
के विभिन्न भागों में कम्युनिस्ट विचारधारा वाली पार्टियों के गठन के कारण कम्युनिस्टों
का कामगार वर्ग के साथ संबंध स्थापित होने लगा।
भारतीय
कम्युनिस्टों का सम्मेलन
दिसंबर 1925 में कानपुर में भारतीय कम्युनिस्टों का एक खुला सम्मेलन
हुआ। इसके संयोजक सत्यभक्त थे। स्वागत समिति के अध्यक्ष हसरत मोहानी थे। और इसकी
अध्यक्षता सिंगारवेलु ने की थी। इसमें ‘भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी’ के
औपचारिक गठन की घोषणा कर दी गई। इसने देश में बिखरे कम्युनिस्ट ग्रुपों को एकजुट
किया। सिंगारावेलु चेट्टियार को पार्टी का अध्यक्ष और
सच्चिदानंद विष्णु घाटे को सचिव चुना गया। सीपीआई ने अपने सभी सदस्यों से आह्वान
किया कि वे कांग्रेस के सदस्य के रूप में अपना नामांकन कराएं, इसके सभी अंगों में एक मजबूत वामपंथी दल बनाएं, अन्य सभी उग्र राष्ट्रवादियों के साथ सहयोग करें और कांग्रेस को और अधिक उग्र
जन-आधारित संगठन में बदलने का प्रयास करें। कम्युनिस्ट अब कामगार वर्ग के साथ
संबंध स्थापित करने लगे और कुछ ही वर्षों में कामगारों के बीच उनका प्रभाव काफ़ी
बढ़ा। 1926-27 के दौरान भारत के विभिन्न राजनीतिक केन्द्रों – कलकत्ता,
बम्बई, पंजाब, मद्रास,
और लाहौर में मजदूर किसान पार्टियों के उदय से कम्युनिस्ट मजदूर
नेताओं को मजदूरों को संगठित करने में काफी मदद मिली।
इंग्लैंड की पार्लियामेंट में कम्युनिस्ट सदस्य के रूप में शापुरजी सकलतवाला
को प्रवेश मिला। वे जब भारत दौरे पर आए तो अपने विचारों से लोगों में साम्यवाद के
प्रति रुचि जागृत की। गांधीजी से भी उन्होंने सौहार्द्रपूर्ण वातावरण में बातचीत
की। गांधीजी ने कामरेड सकलतवाला की स्पष्ट ईमानदारी की प्रशंसा करते हुए कहा था, “हालांकि कि अभी हम विपरीत दिशाओं
में अग्रसर प्रतीत होते हैं, मगर मुझे आशा है कि हम एक दिन अवश्य मिलेंगे।”
कम्युनिस्टों का
प्रभाव
कम्युनिस्टों ने राष्ट्रवाद और साम्राज्यवाद विरोध को
सामाजिक न्याय के साथ मिलाने की आवश्यकता पर बल दिया। इसके साथ ही पूंजीपतियों और
जमींदारों द्वारा आंतरिक वर्ग उत्पीड़न का सवाल भी उठाया। 1925 में पार्टी के औपचारिक गठन की घोषणा के बाद पार्टी के संचालन के लिए विभिन्न जगहों पर कम्युनिस्टों ने श्रमिकों और किसानों को
जोड़ना शुरू किया। 1925 से वर्ग संघर्ष और तीव्र हो गया। जैसे-जैसे मजदूरों
की ताकत बढ़ती गई, मजदूरों के संघर्ष अधिकाधिक व्यापक, संगठित तथा योजनाबद्ध भी होते गये। 1925 में उत्तर-पश्चिम रेलवे के मजदूर हड़ताल पर चले गये। 1926
के बाद बंबई के कपड़ा मीलों के श्रमिकों के बीच भी
कम्युनिस्टों का व्यापक प्रभाव था। “बोनस हड़ताल” नाम से विख्यात बम्बई के टेक्सटाइल मजदूरों का ढाई महीने लम्बा आन्दोलन चला जिसमें 56 हजार मजदूर शामिल हुए थे। 1927 में खड़गपुर रेलवे वर्कशॉप
में हुई हड़ताल में कम्युनिस्टों का बहुत बड़ा प्रभाव था। 1928 में मजदूर आन्दोलन में एक नया उभार आया।
फरवरी में जिस दिन साइमन कमीशन बम्बई पहुँचा वहाँ एक
जोरदार प्रदर्शन हुआ। साइमन कमीशन का विरोध करने 20 हजार
मजदूर सड़कों पर उतर आए।
कम्युनिस्टों ने आरंभ से ही ज़मींदारी प्रथा की समाप्ति और
भूमि के पुनर्वितरण की मांग को अपने कार्यक्रमों में शामिल कर लिया था।
कम्युनिस्टों पर कठोर
दमन किया गया
कम्युनिस्ट समूहों के उदय से ब्रिटिश सरकार में खलबली मच
गयी। 1917 की बोल्शेविक क्रान्ति ने सारे संसार के शासक वर्गों में भय की लहर
व्याप्त कर दी थी। अँग्रेज़ उससे अछूते नहीं थे। अंग्रेजों की होम पोलिटिकल फाइलों
में बोल्शेविक खतरे का आतंक स्पष्ट रूप से वर्णित होता था। ब्रिटिश सरकार एम.एन.
रॉय और हर भारतीय कम्युनिस्ट के बीच होने वाले पत्राचार पर नजर रख रही थी। सदा की
तरह उन्होंने दमन की नीति अपना ली। कम्युनिस्टों के पूरे शीर्ष नेतृत्व को कानपुर षडयंत्र
मामले में फँसाया गया। भाकपा के औपचारिक रूप से गठन होने से पहले ही पेशावर
षडयंत्र के नाम पर 1924 में मुज़फ्फर अहमद, एस.ए. डांगे, शौकत उस्मानी और नलिनी गुप्ता को ‘कानपुर
बोल्शेविक कांस्पीरेसी केस’ के तहत गिरफ्तार कर
जेल भेज दिया गया। कम्युनिस्टों पर राजद्रोह के आरोप लगाये गये। इन चारों को चार साल के
कारावास की सजा सुनाई गई थी। इस घटना ने मजदूरों को संगठित करने की कम्युनिस्टों
की शुरुआती पहलकदमी को बुरी तरह झकझोर दिया।
उपसंहार
1920 के दशक के उत्तरार्ध में विभिन्न वामपंथी विचारधाराओं
का एकीकरण हुआ और राष्ट्रीय आंदोलन पर इसका महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ने लगा। कांग्रेस
के भीतर वामपंथी विंग के रूप में काम करने वाली वर्कर्स एंड पीजेंट्स पार्टीज
(डब्ल्यूपीपी) ने प्रांतीय और अखिल भारतीय स्तर पर कांग्रेस संगठन के भीतर तेजी से
ताकत हासिल की। इस शक्तिशाली वामपंथी समूह ने राष्ट्रीय आंदोलन को तीव्र बनाने में
योगदान दिया। परिणामस्वरूप स्वतंत्रता के लिए राष्ट्रीय संघर्ष की धारा और शोषितों
और दमितों की सामाजिक और आर्थिक मुक्ति के लिए संघर्ष की धारा एक साथ आने लगी। कुछ
विद्वानों ने आरोप लगाया है कि कम्युनिस्ट आन्दोलन मास्को से संचालित विदेशी
षडयंत्र था। लेकिन अगर सही विवेचना करें तो हम कह सकते हैं कि भारत में
कम्युनिस्टों का उदय राष्ट्रीय आन्दोलन से ही हुआ था। देश के विभिन्न भागों में
संघर्षशील निम्न जातियों के आन्दोलनों ने वामपंथी प्रवृत्तियों के उदय में योगदान
किया। सहजानंद कांग्रेस समाजवादियों में सम्मिलित हुए और बाद में कम्युनिस्टों के
साथ हो गए। सतारा के सत्यशोधक आन्दोलन में भाग लेने वाले नाना पाटिल कम्युनिस्ट
विचारधारा से प्रभावित हुए और महाराष्ट्र में विख्यात किसान नेता हुए। सिंगारवेलु
पेरियार के नेतृत्व में तमिलनाडु में असहयोग आन्दोलन किया गया, बाद में उन्होंने तमिल कम्युनिस्ट की
स्थापना की। प्रसिद्ध कम्युनिस्ट नेता सुंदरैया और नंबूदरीपाद की जीवनशैली और
कामकाजी शैली से जाहिर होता है कि उन पर गांधीजी का असर था। कम्युनिस्टों के साथ
कांग्रेस के रिश्तों को समझने के लिए यह उदाहरण काफी है कि ऑल इंडिया स्टुडेंट्स
फेडरेशन (एआईएसएफ) का गठन 1936 में पंडित जवाहर लाल नेहरू ने
किया था। कम्युनिस्ट विचारधारा ने 1920 के दशक में उभरती हुई नई पीढी में विभिन्न
विद्यार्थी और युवा संगठनों को जन्म दिया। वे ‘पूर्ण स्वराज्य’ के नारे के साथ साम्राज्य विरोधी आन्दोलन चलाया करते थे। वे राष्ट्रवाद
को सामाजिक न्याय से जोड़े जाने की वकालत करते थे। वे आंचलिक भावनाओं को प्राथमिकता
देते थे। बढ़ते सांप्रदायिक दंगों के अनुभव ने उन्हें यह मानने पर विवश कर दिया था
की भारत में धर्म पर अंकुश लगाया जाना चाहिए। भारतीय मजदूरों की बढ़ती
साम्राज्यवाद-विरोधी चेतना और राष्ट्रीय राजनीति में उनकी लगातार बढ़ती भागीदारी इस
बात को चिह्नित करती है की कम्युनिस्टों ने राष्ट्रीय आन्दोलन को व्यापकता प्रदान
की। निष्कर्षत: हम कह सकते हैं कि भारतीय स्वाधीनता
संग्राम में साम्यवादियों ने महत्त्वपूर्ण भूमिका प्रदान की।
*** *** ***
मनोज कुमार
पिछली कड़ियां- राष्ट्रीय आन्दोलन
संदर्भ : यहाँ पर
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
आपका मूल्यांकन – हमारा पथ-प्रदर्शक होंगा।