मंगलवार, 7 दिसंबर 2010

लघुकथा :: अपराध

-- सत्येन्द्र झा

"सर ! आप जो कहेंगे मैं वह सब करूंगी।" मेरे सामने बैठी स्टेनो मुझ से कह रही थी।

वह कृषकाया रूपसी युवती मेरे ही अधीन कार्यरत थी। उसके द्वारा कहे गए "वह सब" शब्द मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया। जिस्म में एक गर्म लहर सी दौड़ गयी। लेकिन अगले ही पल  किसी संस्कार ने संभाल लिया। मैं ने गंभीर स्वर में कहा, "आज तुमने जो गलती की है वह काबिलेमाफी नहीं है, लेकिन तुम भविष्य में इसे ना दुहराने की कसम खाओ तो मैं तुम्हे माफ़ करसकता हूँ।

उसके होठों पर हृदयभेदी मुस्कराहट तैर गए थे। उसकी अदाओं में अभी भी शोखी थी। मुस्कराकर ही कहा था, "सर आप के पूर्ववर्ती अधिकारी तो ऐसी राहत नहीं देते थे। उन्हें 'मैं' चाहिए थीऔर मुझे 'पैसे' जो कंपनी के टेंडर दूसरे के हाथों बेचने से मुझे मिल जाते थे।" हाथों को जोड़ करउसने कहना जारी रखा, "सर ! आप से निवेदन है कि आप यह परम्परा पूर्ववत चलने दीजिये।इस से मेरा भी उपकार होगा और आपको भी कुछ 'सुख' मिल जाएगा।"

उसकी झुकी हुई निगाहें उसके खुद के देह पर अटक गयी थी।  होंठ यंत्रवत हिल रहे थे, "सर ! मैंविवाहित हूँ। घर में तीन बच्चे और एक विकलांग पति.... ! इतने बड़े परिवार का निर्वाह तीनहज़ार की मासिक तनख्वाह में नहीं हो पता है सर.... ! वैसे भी मैं उतनी बदसूरत भी तो नहीं हूँ।"

बहुत हिम्मत कर के मैं नजरें उठा पाया था। उसकी आँखों से आंसुओं की क्षीण सी धाराएंप्रवाहित हो रही थी। मुझे लगा जैसे मैं ने उसे राहत देकर कोई गंभीर अपराध कर दिया हो..... ।

(मूल कथा मैथिली में "अहीं कें कहै छी" में संकलित 'मोहलति' से हिंदी में केशव कर्ण द्वारा अनुदित।)

34 टिप्‍पणियां:

  1. हृदय विदीर्ण करने वाला नंगा सत्य।

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  2. लघु कथा का भाव तो पढ़ने में अच्छा लगा-किंतु आज के सामाजिक-आर्थिक परिप्रेक्ष्य में भावनाऔं को कोइ मूल्य नही है। लेकिन एक बात सही है-
    You Can set the sails right but you cannot change the direction of the wind.

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  3. ऐसा भी होता है। लेकिन है बहुत हृदय को तोड़ने वाला।

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  4. साहब, 'वैसे भी मैं उतनी बदसूरत भी तो नहीं हूँ। ' वाक्य बहुत असंवेदनशील लगा. हम तो बस दुआ कर सकते है की यह आपकी कपोर कल्पना हो....

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  5. (मूल कथा मैथिली में "अहीं कें कहै छी" में संकलित 'मोहलति' से हिंदी में केशव कर्ण द्वारा अनुदित।) <--- मूल रचना आपकी है ? जिसकी भी हो, वाक्य बहुत असंवेदनशील लगा ...

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  6. इस लघुकथा के बारे में अब क्‍या टिप्‍पणी करें?

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  7. आज की यही सच्चाई है !
    -ज्ञानचंद मर्मज्ञ

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  8. शब्द नही हैं आँसू आने को हैं। मगर ये आज का सच भी है। कहाँ तो कुर्सीतोड अधिकारी बेतहाशा कमाई कर रहे हैं कहाँ जीतोड लोग रोटी के लिये भी मओहताज हैं। बहुत उमदा लघु कथा। धन्यवाद।

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  9. बेशक ये एक लघु कथा ही है लेकिन मुझे तो इस लघु कथा को पढ़ कर उसकी पात्र पर, उसकी कमजोरी पर गुस्सा आ रहा है...यही क्या आखरी रास्ता है....उफ्फ्फ...मैं क्या लिखूं इस पर...खुद को और स्त्री जाती की आँखे नीची करने के लिए काफी है यह.

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  10. इस दुनिया मे कैसे कैसे कडवे सच भरे पडे हैं………ये लघुकथा सोचने को मजबूर करती है……………बेहद चिन्तनीय ।

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  11. संवेदनशील ....आसानी से धन कमाने का जरिया ...यही सोच पतन कि ओर ले जाती है ....सत्य को उजागर करती लघु कथा ..

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  12. समाज के नंगे सत्य को उजागर करती एक सशक्त लघुकथा.. जीवन का एक विद्रूप रूप यह भी है..

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  13. बहुत ही मार्मिक लघु कथा...आज की व्यवस्था पर एक कटु चिन्ह..आभार

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  14. अरे.... पहली पंक्ति पढ़ी तो सारा दृश्य जैसे समझ में आ गया ..परन्तु अंत तक आते आते कहानी का सार ही बदल गया .
    बेहतरीन और सार्थक लघुकथा.

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  15. आज से समय को चित्रित करती लघुकथा.. बढ़िया anuvaad..

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  16. बहुत ही मार्मिक एवं समाज में फैली विद्रूपता पर गहरी चोट करती हुई बहुत ही अच्छी लघुकथा

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  17. क्या कहें इस सच के पीछे छुपी मजबूरी या फिर अपने घर को पालने के लिए समझौता . जो भी है दुखद है. लेकिन हम अगर आँखें फैला कर देखें तो लगता है कि हर स्तर पर ऐसे कितने लोग हैं जो कहीं मजबूरी का फायदा उठा रहे हैं और कहीं परिस्थितियां लोगों को खुद को बेचने के लिए मजबूर कर रही हैं.

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  18. 'do roti ko jism jahan bik jate hain
    kaise kah doon mausam yahan gulabi hai'
    yahi to nanga chitr hai aaj ka...

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  19. जब ऐसे सत्य से वास्ता पड़ता है तो सत्य से विश्वास उठ जाता है। दुझद किन्तु सच।

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  20. samaj ke kadve sach ko rekhankit karti ,aur apni majboori ka suvidhajany samadhan talashti...yatharth sach vayakt karti rachana....

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  21. वह तोडती पत्थर... से हम कहां पहुंच गये .....

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  22. मनोज जी! आज झा जी की लघुकथा नेशंकर की जन अरण्य कास्मरण करा दिया!! जैसा उस उपन्यास के अंत ने स्तब्ध कर दिया था, वैसे ही आज इस लघुकथा ने कर दिया है..आज लग रहा है कि सत्येद्र झा जी की कृति अहँ के कहै छी में सचमुच हम्से ही सवाल कर रहे हों...
    अचिंत्य!!

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  23. कभी कभी सच भी कितना कड़ुवा हो सकता है ...

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