मंगलवार, 9 अगस्त 2011

भारत और सहिष्णुता अंक - 14

भारत और सहिष्णुता अंक - 14

clip_image002 जितेन्द्र त्रिवेदी

पिछले अंक में वाद-संवाद का विवरण देने के पीछे मेरा यह उद्देश्‍य था कि समकालीन भारत में हमें यह समझने की कोशिश अवश्‍य करनी चाहिये कि आज के भारतीय समाज की असहिष्‍णुता के निवारण में समकालीन भारत की यह पुरातन संवाद परंपरा कितनी प्रासंगिक होगी और यह क्‍या योगदान दे सकती है। भारत में इस परंपरा के विकास का अच्‍छा खासा श्रेय बौद्ध और जैनों को दिया जाना चाहिये। उनकी सामाजिक प्रगाति के माध्‍यम के रूप से विचारों के आदान-प्रदान के प्रति गहरी निष्‍ठा थी।

बौद्ध धर्म की अपेक्षा जैन धर्म अधिक प्राचीन है। ऋषभदेव से यह परंपरा विकसित होती हुई अंतिम तीर्थंकर महावीर वर्धमान जिनका जन्‍म 599 ई.पू. हुआ था, अपनी 72 वर्षों की अवस्‍था में मृत्‍यु से पूर्व उन्‍होंने इस संप्रदाय की नींव भली-भांति पुष्‍ट कर दी और अहिंसा को उन्‍होंने पक्‍के तौर पर स्‍थापित कर दिया। सांसारिकता पर विजयी होने के कारण वे ‘जिन’ (जमी) कहलाये और उन्‍हीं के समय से इस संप्रदाय का नाम जैन हो गया। आरम्‍भ से ही जैन धर्म की शब्‍दावली वैदिक धर्म की शब्‍दावली रही थी। यद्यपि सदियों तक जैन लोग अलग संप्रदाय बनाकर रह रहे थे, फिर भी, अलग रह कर जिस संशयवाद को उन्‍होंने परिष्‍कृत कर ‘स्‍यादवाद’ के रूप में विकसित किया उसकी परंपरा वेदों में मौजूद थी। वेदों के अति प्रतिष्ठित ‘सृष्टि सूक्‍त’ का समापन इस संशय से हुआ है –

"वास्‍तव में इसे कौन जानता है? यह कब पैदा हुआ है? यह कब की सृष्टि है? देवता तो इस विश्‍व की सृष्टि के बाद आए हैं तो फिर यह कौन जानता है कि इस विश्‍व का उदय कहाँ से हुआ है। यह कहॉं से उदय हुआ है - संभवत: यह स्‍वयं (स्‍वयं ही बन गया है) है, या शायद नहीं भी। सत्‍य क्‍या है, यह तो सर्वोच्‍च स्‍वर्ग से इसे निहारने वाला ही जानता है – संभव है, वह भी नहीं जानता हो।"

इस सूक्‍त के अलावा अन्‍यान्‍य ऐसे श्‍लोकों से वैदिक साहित्‍य भरा हुआ है जिनमें इसका उल्‍लेख करना समीचीन रहेगा-

"हिरण्‍गर्भ: समवर्तताग्रे भूतस्‍य जात: पतिरेक आसीत्,

स दाधार पृथ्‍वीं द्यामुतेमाम् कस्‍मै देवाय हविषा विधेम"

इन वैदिक ऋचाओं में वर्णित संशयवादी प्रवृत्ति बाद में भी संस्‍कृत साहित्‍य में दिखाई पड़ती है। यह तो सर्व विदित है कि किसी भी पुरातन भाषा की तुलना में अधिक विशाल साहित्‍य संस्‍कृत में ही रचा गया है और इसी में, जिसे देव भाषा भी कहते है, किसी भी अन्‍य भाषा की तुलना में कहीं अधिक विशाल संशयवादी, अनीश्‍वरवादी या नास्तिकतावादी साहित्‍य की रचना सर्वाधिक हुई है। इस समग्र साहित्‍य को आज हम हिन्‍दू दर्शन का अभिन्‍न अंग मानते हैं। यह संशयवादी परंपरा प्राचीन काल से मध्‍यकाल में चार्वाक की उग्र बौद्धिकतापूर्ण अभिव्‍यक्तियों से गुजरती हुई मध्‍यकाल में चौदहवीं सदी के माधवाचार्य की रचना ‘सर्व दर्शन’ तक चली आई थी, जिसमें उन्‍होंने पहले ही अध्‍याय में नास्तिकता तथा भौतिकवाद का मंडन करके चार्वाक की परंपरा को पुष्‍ट किया। इस परंपरा के अद्यतन दर्शन तो 18वीं सदी के संस्‍कृत साहित्‍य तक मिल जाते है जिनमें जयर्षि की रचना ‘तत्‍तोपलव सिंह’ सर्व प्रमुख हैं।

वर्तमान काल तक देवभाषा संस्‍कृत में संशयवाद की इस परंपरा से यह बात सिद्ध होती है कि अनेक विवादों और भाँति-भॉंति के विचारों को समा लेने की प्रवृत्ति सदैव से ही भारत की संवाद परंपरा का अक्षुण्‍ण अंग रही है और इसी संवाद परंपरा ने भारत में सहिष्‍णुता का विकास किया किन्‍तु जो सहिष्‍णुता और वाद-संवाद की परंपरा वेदों से लेकर ऊपर बताये गये ग्रंथो के माध्‍यम से हालिया दौर तक पोषित हुई है। वह आजादी के बाद कहाँ लुप्‍त होती जा रही है? इसका भयावह रूप इससे पता लगता है कि जाति, धर्म और क्षेत्र के बारे में टिप्‍पणी करना तो कभी का निषिद्ध-प्राय समझा जाने लगा था, किन्‍तु अब तो संविधान में सुधार की बात करना भी ‘गुनाह’ में शामिल हो चुका है। यह तब है जब संविधान खुद ‘अभिव्‍यक्ति की स्‍वतंत्रता’ की गारंटी देता है।

यहाँ मैं सम्राट अशोक का उल्‍लेख कर इस अध्‍याय को समाप्‍त करूँगा। अशोक ने तीसरी शताब्‍दी ई.पू. उस समय की राजधानी पाटली पुत्र (आज का पटना) में तीसरा बौद्ध सम्‍मेलन आयोजित किया था। तीसरे महा सम्‍मेलन के समय प्राय: समूचे उपमहादीप के साथ-साथ अफगानिस्‍तान तक के विशाल भूखण्‍ड के शासक अशोक का अभिमत विशेष ध्‍यान की अपेक्षा रखता है जिसमें अशोक इस बात के प्रति बहुत अधिक प्रतिबद्ध थे कि सार्वजनिक चर्चा बिना किसी वैमनस्‍य और हिंसा के चलनी और संपन्‍न होनी चाहिये। उन्‍होंने सार्वजनिक चर्चा के लिये प्रथम नियमों की रचना कर उन्‍हें सूत्रबद्ध किया। अशोक का सारा ध्‍यान और चिंता इस बात पर थी और उनका आग्रह था कि सभी वक्‍ता अपनी भाषा पर नियंत्रण रखेंगे, कोई अपने मत को श्रेष्‍ठ और दूसरों का हीन बताने की गलत चेष्‍टा नहीं करेगा और उपयुक्‍त अवसरों पर भी वे नरम और उदार भाषा का ही प्रयोग करेंगे। तीखी बहस के समय भी सभी अवसरों पर अन्‍य मतों एवं उनके अनुयायियों के प्रति सद्भाव और समानता की भावना का प्रदर्शन अनिवार्य कर दिया गया था।

अशोक द्वारा निर्धारित नियमों पर राजी होकर बहस में भाग लेने वाले साधारण से साधारण व्‍यक्ति के समक्ष अशोक खुद चलकर चरणो में अपना मस्‍तक रखते थे और उसका सम्‍मान करते हुये सभा में लिवा लाते थे। इस पर उनके अमात्‍य यश ने आपत्ति की कि बाकी सब तो जायज है पर सम्राट का कई नदियों के जल से ‘मूर्धाभिषिक्‍त’ मस्‍तक इन अकिंचन भिक्षुओं और संन्‍यासियों के धूल-धूसरित चरणों में शीश नवाना कहॉं तक उचित है?

अशोक ने इसका सीधे-सीधे तो जवाब नहीं दिया, किन्‍तु उन्‍होंने उस महामंत्री (अमात्‍य यश) को निर्देश दिया कि अपनी मौत मर चुके किसी मेंढ़े का सिर काट कर बाजार में मिलने वाली राशि से मुझे अवगत करायें। महामंत्री ने ऐसा ही किया और सम्राट को बताया कि कुछ मुद्रा उस मरे हुए ‘मेढ़े’ के सिर की मिली है, इस पर सम्राट ने क्रमश: अपनी मौत मरे हुये भैंसे, घोड़े, गाय के सिर की भी बाजार में बेच कर कीमत बताने को कहा। महामंत्री ने पुन: कुछ अधिक मुद्रा प्राप्‍त होने की जानकारी सम्राट को दी।

अंत में अशोक ने कहा कि अब आप किसी अपनी स्‍वाभाविक मृत्‍यु प्राप्‍त लावारिश व्‍यक्ति के सिर को बाजार में बेच कर जो भी धन मिले मुझे शीघ्र बताएं महामंत्री ने कुछ दिन बाद सम्राट को सूचित किया कि मनुष्‍य के सिर की कीमत बाजार में कुछ भी प्राप्‍त न हो सकी।

तब अशोक ने कहा कि वह मस्‍तक किसी को भी बिना मूल्‍य दे दिया जाए परंतु उसे बिना मूल्‍य लेने वाला भी नहीं मिला तो यह बात अमात्‍य यश ने अशोक को बतायी। तब अशोक बोले, "मनुष्‍य का यह मस्‍तक बिना मूल्‍य देने पर भी लोग उसे क्‍यों नहीं लेते?"

अमात्‍य यश ने उत्‍तर दिया- क्‍योंकि लोगों को इस मस्‍तक से घिन आती है।

अशोक ने इस पर कहा – लोग इसी मनुष्‍य के कटे सिर से घिन करते है या सभी मनुष्‍यों के कटे मस्‍तकों से भी घिन करेंगे।

अमात्‍य यश ने कहा – सम्राट किसी भी मनुष्‍य के कटे सिर को यदि लोगों के पास ले जाया जायेगा तो वे इसी प्रकार घृणा करेंगे।

अशोक ने शांतिपूर्वक पूछा – ‘क्‍या वे मेरे सिर से भी घृणा करेंगे?’

इस प्रश्‍न का उत्‍तर देने में अमात्‍य यश झिझकने लगा तो अशोक ने उसे अभय दंड दिया तब अमात्‍य बोला – ‘सम्राट! आपके मस्‍तक से भी लोग ऐसे ही घृणा करेंगे’

इस पर अशोक ने कहा कि जब इस कटे सिर से लोग‍ घृणा करते हैं तो क्‍या यह उचित नहीं है कि इसे भिक्षु और संन्‍यासियों के चरणों में जीते जी ही परिशुद्ध कर लिया जाये ?

यह कथा बौद्ध ग्रंथ ‘दिव्‍यावदान’ में उल्‍लेखित है।

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9 टिप्‍पणियां:

  1. रोचक जानकारियों और उद्देश्यपरक विचारों से परिपूर्ण पोस्ट जिसमे एक सोच, एक दिशा का चितन करते हुए, उसके विकास के लिए चिता भी है. महत्पूर्ण पुसर आभार.

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  2. " वेदों के अति प्रतिष्ठित ‘सृष्टि सूक्‍त’ का समापन इस संशय से हुआ है –"

    इसे नासदीय सूक्त कहते है!नासदीय सूक्त ऋगवेद के दसवें मण्डल का १२९-वाँ है ।

    कृपया लेख मे सही कर दे!

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  3. तनिक संशय हो तो ठीक है, बहुत अधिक तो विनाश पर ले जाता है।

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  4. प्रवीण भाई पते की बात कह गए हैं

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  5. अति सुन्दर .....
    दुबारा आकर पूरे मन से पढूँगा...

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  6. गहन शोध से परिपूर्ण शॄंखला पढ़कर बहुत विचार मंथन पर विवश हुआ।

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  7. आम आदमी भी,किसी दिन हर मिलने वाले व्यक्ति के अगर पांव छू ले,तो इतना काफी होगा उसके बाक़ी जीवन को सहिष्णु बनाने के लिए।

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  8. गहन शोध से परिपूर्ण आलेख...
    ‘दिव्‍यावदान’ की कथा हमेशा सोचने पर विवश करती है.

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