-- करण समस्तीपुरी
रेवाखंड में बरहो मास गुलजार होता है। फ़ागुन में होरी और सावन में कजरी तो सब जगह मिले... लेकिन भादों के बरखा में भी रेवाखंड के उमंग की लौ कम नहीं होती। तेरह दिन तक झूला। फिर सावनी चतुर्दशी को स्थल पर होता है अष्टयाम। आठों पहर “जय रघुनंदन जय घनश्याम। मुरली मनोहर राधेश्याम॥” और पुर्णिमा को विसर्जन। फिर अष्टयाम का कलश लेके नगर-कीर्तन। ग्राम-परिक्रमा।
पितरिया झाल पीट-पीट कर नयनसुख ठाकुर जब समदाउन के धुन पर गाने लगते थे, “आ...रे जय रघुनंदन.... जय घनश्याम.... मुरली मनोहर राधे हो श्या.....म...!” तो राहे टकटकी लगाए अवश वृद्ध और झरोखे से लिपटी ग्राम-बधुओं के कलेजे फ़टने लगते थे... ! आह अब मुरलीमनोहर की यात्रा अगले साल ही निकलेगी...!
विरह की पीड़ सी कुहुक है ठाकुरजी की आवाज में। बिहारी कका तो हरमुनिया बजाते-बजाते बीच-बीच में गमछी के कोर से आँखों के पोड़ भी पोछ लेते हैं। कुसुमा सोनार ढोल पर दे चाटी गरगरा रहा है, “धा.. धा... धा.. धिन्ना... धिनक तिन... ना धिन्ना... धिनक तिन... धा-धा... धिन्ना... धिनक... धिन-धिन... धा....! रैचन महतो का बांया हाथ कान पर चला जाता है और दहिना हाथ आकाश में उठ जाता है, “आ....रे... जय रघुनंदन....!” बांके बिहारी की झांकी गौरी पोखर पर पहुँचती है। गबैय्यों के गले भी रुंध जाते हैं। भरे दिल से कलश विसर्जन होता है लेकिन उत्साह का नहीं।
अब तैय्यारी है रात में भगवान किशन के चौपहरा की। भगवानपुर देसुआ का मंडली आता था किशनलीला करने। अरे... बाप...रे... ई तीनफ़ुटिया मिरदंग... थाल जैसा बड़ा-बड़ा झाल... हरमुनिया का तो कौनो कामे नहीं रहता था। कृपा भगवान के। चौठिया बनता था राधिका और पलटनमा कन्हैया जी। पहर रात तक चलता था कीर्तन... और फिर रेवड़ी का प्रसाद। जौन चौपहरा में नहीं आय परसादी बेला उहो टहल बजा लेता था। वैसने नयनसुख ठाकुर.. गाने-बजाने के बाद प्रसाद बांटने में भी निपुण...! ज्यादा भीड़ हुई तो चुटकी से उठा-उठा चौरासीलाख में बांट दें। का मजाल कि कौनो दोबारा हाथ बढ़ा दे...
सब दिन होत न एक समान। नयनसुख ठाकुर का नयन गया परलोक...। कुसुमा बुढाया, रैचनमा को खेती से फ़ुर्सत नहीं और बिहारी कका गये दिल्ली कमाने। झूला तो किसी तरह हिलता-डुलता रहा मगर अष्टयाम का चक्का जाम हो गया।
इ दफ़े बड़ी संयोग से बिहारी कका आये थे रेवाखंड। लड़िका-बच्चा सब का मुंडन था। हमरे आग्रह पर पुर्णिमा तक रुके तो अष्टयाम का भी परोगराम हो गया। बारह बरिस पर फिर स्थल पर इसरायल मियां का चोंगा टंगा गया। नयनसुख ठाकुर खुदे रुदरी झा से संकल्प करवाये थे। “जय रघुनंदन... जय घनश्याम... मुरली मनोहर राधेश्याम।”
दुई-दुई घंटा के लिये बारहन मंडली बुलाया गया था। ई बार चाह-पानी, पान-सुपाड़ी, और बीड़ी के साथ-साथ कागजी डिब्बा में परसाद भी मिलता था। सारा इंतिजाम बिहारिये कका के तरफ़ से था। रात में अचलपुर और समथु वाला मंडली तो जमा दिया था।
विसर्जन से पहले नगर-कीर्तन, ग्राम-परिक्रमा। बिहारी कका खुदे जाकर ढकरु सिंघ से टरेक्टर उधार ले आये थे। ई बार टरेक्टर पर निकलेगी बांके-बिहारी की झांकी। चौठिया कलश लेके बीच में बैठता है। बिहारी कका नयनसुख ठाकुर को हाथ का सहारा देकर चौठिया के बगल में बैठा देते हैं। कका हरमुनिया पर पें...पें.... पें....... सुर तलाश रहे हैं। उंगलियों में उतनी तेजी नहीं रही मगर किसी तरह लय पकड़ लेते हैं। ढोलक पर कुसुमा के बदले उसका भतीजा चाटी दे रहा है। ओह उसका हाथ उतना जोरगर नहीं है। ठाकुरजी शुरु करते हैं, “आ.... रे.... जय.... रघुनंदन.... राधे हो श्याम....!” आह! आवाज कांप रही है, मगर पीड़ की वही पुरानी कसक... शायद यह असर समदाउन राग का है। कमो-बेस वर्षों पुराना दिरिस से फिर साक्षातकार हो जाता है।
गौरी पोखर पर कलस-भसान के समय ठाकुरजी भाव-विह्वल हो जाते हैं। बिहारी कका को पकड़ कर रोने लगते हैं, “बबुआ बिंदाबन बिहारीलाल तोहरा कल्याण करें... घर-परिवार सब अनंद रहे...! जिनगी के संझिया में मुरली मनोहर को बुलाय दिये... हमैं तो भरोसा ही नहीं था कि रेवाखंड में फिर ’अठिजाम’ होगा...! ई शायद हमरी जिनगी की आखरिये अठिजाम हो... ! जुग-जुग जियो बचवा...! राधेश्याम तोहके ऐसहि बनाये रखें....!” ठाकुरजी तो हिचकने लगे थे। कका भी नहीं रोक सके खुद को। कई जोड़ी आँखें गीली हो गयी थी। “हो भोला बाबा तोहर भंगिया चढ़ैबो.... रामजी से कराय द मिलनमा...!” रैचन महतो नचारी उठाया तो लोग संयत हुए।
अष्टयाम का कलश-विसर्जन हो गया। अब देसुआ वाला चौपहरा मंदली खतम हो गया था। रात में कृष्ण-सुदामा प्रसंग गाने के लिये लवानगर से महंथ बैजूदास की मंडली को बुलाया गया था। पहर रात तक चला कीर्तन। इस बार उतनी भीड़ नहीं जमी थी। लेकिन बारहन बरिस पर ई सब देखकर हिरदय एकदम गदगद था।
सारी बात-व्यवस्था बिहारी कका कर रहे थे मगर रात के प्रसाद के लिये नयनसुख ठाकुर अपने जिम्मे से बीस कीलो दूध का रेवड़ी बनवाये थे। कोनैला वाली बड़की भौजी से फ़ुसफ़ुसा रही थी कि ठकुराइन और बड़ी बहू से थोड़ा अन-बन भी हो गया था। एक बजे रात में कीर्तन समाप्त हुआ। ई अवस्था में भी ठाकुरजी का उत्साह देखते बनता था। अब प्रसाद बंटायेगा। भुट्टा ओझा भी अपनी खटिया छोड़ आ गये हैं स्थल पर। ई का.... नयनसुख ठाकुर खुदे प्रसाद वाली हांड उठा लेते हैं, “सभी जने लाइन से आओ... केहु दोबारा कोसिस नाहिं करे...!”
अन्य व्यवस्थापक लोग बात-व्यवस्था में लगे हुए थे। बिहारी कका वहीं ठाकुरजी के बगल में उनकी आँखे बनकर दोबारा आने वाले को साइड कर रहे थे। दो... पाँच... दस... पंद्रह...! लोग प्रसाद लेके खिसक रहे हैं। ठाकुरजी अंदाजे बायें मुड़ जाते हैं। ओ... उ तरफ़ उन्ही के परिवार वाले बैठे हैं। शायद ठकुराइन की आवाज पकड़ लिये होंगे। “आओ हाथ बढ़ाके ले लेओ बांके-बिहारी का परसाद...!”
एक..दो.. तीन... चार....! आहि तोरी के...! ई तो बांया साइड का लाइन खतमे नहीं हो रहा है। इधर बाहर में लोग इंतिजार कर रहे हैं। ठाकुरजी बेचारे देख रहे हैं नहीं, बिहारी कका से कुछ कहते नहीं बनता और ठाकुरजी का परिवार है कि हाय नरायण ! हम तो मानेंगे नहीं। ठकुराइन, बड़ी ठकुराइन, छोटी ठकुराइन, बेटा, भाई, भतीजा, पोता, नाती, अचेरे-चचेरे.... फिर-फिर हाथ बढ़ा दें। ठाकुरजी बेचारे उसी में लपटाए....! आखिर उनके घरबैय्ये में पुरी हांड खाली हो गयी।
कई लोगों को तो बिहारी कका अष्टयाम वाला फल-फलहारी, मेवा-खीर दिये मगर अनेक जनों को खाली हाथ भी वापस जाना पड़ा। “धुर्र...धुर्र... छिया... राम-राम.... भुक्खड़... दलिद्दर.... कंगला...!” खाली हाथों लौटने वालों के मुँह से आशिर्वाद निकल रहे थे। रेवाखंड के इतिहास में यह पहली घटना थी।
चर्चा अगले दिन भी जारी रही। बदइंतजामी पर चौपाल बैठी थी। दस मुँह दस बातें। “धुर्र... उ ठकुरवा जान-बूझ कर बांये गया था, परिवार का पेट भरने...। नहीं-नहीं... ठाकुरजी ऐसा नहीं कर सकते। उनके अंधेपन का फ़ायदा लिया लोगों ने....। नहीं रे... उ एक्कहि जगह अंटका काहे रहा...? और साल तो चक्कर घिरनी की तरह नाचता था।”
रुदरी झा भी अपना मंतर फ़ेरे, “ए बाबू...! ’अंधा बांटे रेवड़ी... घरे-घराने खाए’। बंटवैय्ये मालिक अंधा है...तो घरबैय्ये का फ़ायदा...।” मिसरी चौबे मुँह बनाकर बोले थे, “तब कहो भला के... ई रेवाखंड के इतिहास में पहली बार हुआ... छी..छी... छी...! सच्चे कहे पंडीज्जी... ’अंधा बांटे रेवड़ी... घरे-घराने खाय।’ राम कहो...! कभी ऐसा सुने थे...?”
अब तक चुप-चाप सुन रहे बिहारी कका बोले, “का कीजियेगा चौबेजी! देश-दुनिया सबका यही हाल है तो रेवाखंड काहे बचे...? इहां के लिये भले ई पहिल घटना हो मगर हमतो दसों साल से दिल्ली में हैं। वहां तो रोजे का यही खेल है “अंधा बांटे रेवड़ी घरे-घराने खाय!” एजी, ओजी, लोजी, सुनोजी, टूजी, थ्रीजी, सीडब्लूजी... सब्जी... रोटी सब में... ’अंधा के हाथ में रेवड़ी की हांड गयी, घरबैय्ये को बांटता है।’ अयोग्य के हाथों में अधिकार का फ़ायदा उसके नजदीकी लोग उठाते ही हैं...। हम तो दिल्ली में हर दिन ई दिरिस देखते हैं। ई कहिये कि रेवाखंड में पहली बार हुआ तो आपलोग कह रहे हैं,“अंधा बांटे रेवड़ी घरे-घराने खाय।”
बिहारी कका के प्रवचन के बाद चौपाल पर आश्चर्यजनक शांति थी।
विलंव के लिये क्षमा और आपकी प्रतिक्रियाओं के लिये अग्रिम धन्यवाद :)
जवाब देंहटाएंकरन जी,
जवाब देंहटाएंवर्तमान स्थिति का एकदम सटीक चित्रण किया है आपने ! आज कल यही तो हर जगह हो रहा है !
साधुवाद !
आज की परिस्थिति को जिस तरह इस कहानी में गूंथा है बहुत रोचक बन पड़ा है .. अच्छी प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंदेसिल बयना में रेवाखंड के अंचल के चरित्र के चित्रण के साथ साथ एक सामाजिक अध्ययन भी है.... साथ में ताज़ी घटनाओं को जोड़ कर इसे और भी प्रासंगिक बना रहे हैं आप... बहुत सुन्दर... अष्टयाम का चित्रण बहुत जीवंत है....
जवाब देंहटाएंबहुत ही बढ़िया
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति...........
जवाब देंहटाएंआपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल कल 18- 08 - 2011 को यहाँ भी है
जवाब देंहटाएंनयी पुरानी हल चल में आज- मैं अस्तित्त्व तम का मिटाने चला था -
बहुत बढ़िया ज़नाब!
जवाब देंहटाएंटिप्पणी में देखिए मरे चार दोहे-
अपना भारतवर्ष है, गाँधी जी का देश।
सत्य-अहिंसा का यहाँ, बना रहे परिवेश।१।
शासन में जब बढ़ गया, ज्यादा भ्रष्टाचार।
तब अन्ना ने ले लिया, गाँधी का अवतार।२।
गांधी टोपी देखकर, सहम गये सरदार।
अन्ना के आगे झुकी, अभिमानी सरकार।३।
साम-दाम औ’ दण्ड की, हुई करारी हार।
सत्याग्रह के सामने, डाल दिये हथियार।४।
सबकुछ पाहिले जैसा है.. मगर का जाने काहे कुछ कमी देखाई दे रहा है!!
जवाब देंहटाएंबदलते परिवेश का प्रभाव लोक-जीवन में भी उतर रहा है .बहुत सहज चित्रण के साथ कहावत से साक्षात्कार तो हुआ ही!
जवाब देंहटाएंबहुत रोचक ....
जवाब देंहटाएंसरस, रोचक और प्रासंगिक।
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