फ़ुरसत में …
“मनोज” टीम
“ए वेन्ज़्-डे” फिल्म में अधिकांश डायलाग बड़े चुटीले हैं। इसके “स्टुपिड कॉमन मैन” को पहले “ही इज गुड” और अन्त में “ही इज नॉट जस्ट गुड, बट ही इज द बेस्ट” कहकर एक “हैकर” पुलिस कमिश्नर से उसे छोड़ देने का आग्रह करता है। कुछ इसी प्रकार का नजारा हम पिछली दस अगस्त से देख रहे हैं जिसमे एक ऐसे ही “कॉमन मैन” को “तुम ऊपर से नीचे तक भ्रष्टाचार में डूबे हो .....”, “मीडिया में फोटो खिचवाने वाला”, “जन लोकपाल बिल के पास होने पर भ्रष्टाचार मिट जाएगा - यह लिखकर देने” आदि आरोपों के दलदल में डालने का प्रयास दिखा। 16 अगस्त को इसी “कॉमन मैन” के अनिश्चित कालीन अनशन को न होने देने के लिए सारे हथकण्डे अपनाए गए। लेकिन वे सभी हथकण्डे कारगर कम, सरकार के गले की फाँस ही अधिक बनते गए। संसद के अन्दर उस “कॉमन मैन” और उसके साथ आए लाखों-करोड़ों “कॉमन मेन” को उनके द्वारा चुने गए सांसदों द्वारा बाहर का आदमी बताया गया। संसद और संविधान को ढाल बनाकर जितनी कुछ तोहमत लगाई जा सकती थी, लगाई गई, उसके लिए सब कुछ किया गया और “सिम्पल कॉमन मैन” को “स्टुपिड कॉमन मैन” सिद्ध करने का हर-सम्भव (असफल) प्रयास देखने को मिला। संविधान और संसद की मनमानी व्याख्या बार-बार की जाती रही। बीच-बीच में जिम्मेदार मंत्रियों द्वारा शगूफे छोड़े जाते रहे कि ‘हम भ्रष्टाचार को मिटाने के प्रति गंभीर हैं”, “जन लोकपाल बिल से भ्रष्टाचार नहीं मिटेगा”, आदि-आदि।
पिछले तीन चार दिनों से यह “कॉमन मैन” अब उन्हीं लोगों को महान लगने लगा और वे उससे मार्गदर्शन की अपेक्षा करते दिखने लगे हैं। इस प्रसंग में मुझे “बरदाश्त” पिक्चर का एक डायलाग याद आ रह है जिसमें आर्मी से डिस्चार्ज्ड एक अफसर से उसकी प्रेमिका का पिता कहता है कि “जब एक सैनिक अपनी औकात पर आ जाय तो विरोधी देश का झण्डा झुका देता है, फिर यह तो अपनी पुलिस है”। भारत की राजधानी ही नहीं बल्कि पूरे देश में यही देखने को मिला कि एक सैनिक ने पूरे देश का आवाह्न कर सड़क पर आन्दोलन करने को बाध्य कर दिया है और सरकारी तंत्र तथा पूरा राजनीतिक तंत्र किंकर्तव्यविमूढ़ हो गए हैं। सरकारी तंत्र ने बैक डोर से एक अलग मोर्चे को जन्म दिया जिसके परिणामस्वरूप दो और लोकपाल बिल आ गए, ताकि “जन लोकपाल बिल” को डिफ्यूज किया जा सके। पर, सरकार को कोई रास्ता मिल नहीं पा रहा है। एक दिन जो रास्ते निकाले जाते हैं, वहाँ दूसरे दिन बैरीकेडिंग लगा दी जाती है। राजनीतिक दलों की अवस्था साँप-छछूँदर की हो गई है। इनमें न गलत कहने का साहस हो रहा है और न ही स्वीकार करने का। पक्ष-विपक्ष एक-दूसरे की खोट निकालने में व्यस्त हैं और एक “कॉमन मैन” 16 अगस्त, 2011 से लगातार हजारों-लाखों के जनसमूह से घिरा अनशन पर बैठा है। विश्व का राजनीतिक जगत हत-प्रभ है कि जहाँ लाखों-करोड़ों लोग इतने दिन से सड़क पर उतरे हुए हैं, वहाँ अब तक हिंसक घटना कहीं भी देखने को नहीं मिली है। मीडिया द्वारा तो यहाँ तक खबरें दी गईं कि इस आन्दोलन के कारण दिल्ली में अपराध की घटनाएं आधी रह गईं हैं। इन सभी खबरों से सभी पाठक परिचित हैं। इसलिए इसे यहीं छोड़कर इस आन्दोलन से उठे प्रश्नों पर चर्चा अधिक अपेक्षित है कि - सर्वोच्च कौन है ? जनता, संसद अथवा संविधान ?
क्यों न इन प्रश्नों के उत्तर कुछ ऐसे ही प्रश्नों से ढूँढे जाएँ। क्योंकि जो उत्तर राजनीतिक खेमे से आए हैं उनमें कहा गया है कि संसद सर्वोच्च है, कुछ ने कहा संविधान सर्वोच्च है, आदि-आदि। इस प्रकार के विचार रखने वाले कितने सक्षम हैं, इस पर प्रश्नचिह्न लगाना ठीक नहीं। संसद और संविधान की सर्वोच्चता के विवाद पर पिछले सप्ताह देश के सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट कर दिया था कि भारतीय संविधान भारतीय संसद से उच्च है। अब प्रश्न यह है कि भारतीय जनता इसकी संसद और संविधान में कहाँ खड़ी है ? इस प्रश्न का उत्तर बहुत आसान हो जाएगा यदि हम पूछें कि संसद और संविधान किसके हैं और किसके लिए हैं ? इनके उत्तर में बड़ी आसानी से मिल जाएँगे कि संसद और संविधान दोनों भारतीय जनता के हैं और उसी के लिए हैं, सांसदों के नहीं। सांसद मात्र जनता का काम करने के लिए उसके द्वारा चुने लोग हैं और मूल भावना उनके जनता के सेवक होने की है। लेकिन इन दिनों जिस तरह मीडिया के सामने सांसदों और राजनीतिक दलों के विचार आए हैं, उससे लगता है कि संसद सांसदों की जागीर है, जिस पर प्रश्न उठाने का भारत की जनता को कोई अधिकार नहीं। वह इन दोनों के लिए अनपेक्षित वस्तु मात्र है। जबकि पूरी संप्रभुता भारतीय जनता की ही है जिसे उसने संविधान और सांसदों को दे रखा है।
अगला वक्तव्य विभिन्न कोनों से आया है कि “कामन मैन” श्री अन्ना हजारे और उनके सहयोगियों द्वारा किया जा रहा आन्दोलन अप्रजातांत्रिक, असंसदीय, असंवैधानिक, लोकतंत्र पर हमला और संसदीय प्रणाली के लिए खतरा है। यह वक्तव्य एक गैरजिम्मेदराना और भ्रामक लगता है। ऐसा नहीं लगता है कि कोई समझदार व्यक्ति इससे सहमत होगा। पिछले बीस-पचीस वर्षों से हम लोग देख रहे हैं कि सांसदों द्वारा संसद की गरिमा की जितनी अवहेलना की गई है, उतनी और किसी ने नहीं की। कल शुक्रवार को संसद में सांसदों के व्यवहार कामन मेन के व्यवहार से भी न्यून स्तर के लगे। अपनी सरकार को बचाने के लिए नोट फार वोट कांड संसद की किस सम्प्रभुता और सर्वोच्चता की मर्यादा की रक्षा करता है। इसकी जाँच के लिए बनी संसदीय समिति की रिपोर्ट की कोई दिशा नहीं थी। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दखल देने के बाद अभी दो-तीन दिनों पहले प्राथिमिकी दर्ज की गयी है और कार्यवाही के लिए समन जारी हुए हैं। दूसरी बात यह है कि जिस समय आपातकाल लागू किया गया, उस समय संसद की सर्वोच्चता पर विचार क्यों नहीं किया गया था? उस समय भी यही लोग सत्ता में थे। आए दिन संसद स्थगित कर दी जाती है, क्या यह संसदीय गरिमा के अनुकूल है और संसद के उत्तरदायित्व का निर्वाह करती है? प्रश्न पूछने के लिए सांसदों द्वारा रुपये लेने से क्या संसद की गरिमा महिमा-मंडित हुई है? संसद में तोड़-फोड़ तक की गयी, संसद के अन्दर अमर्यादित भाषा, गालीगलौज हाथापाई तक होती रही है। जब ये सब संसद पर हमला और उसकी गरिमा के खिलाफ नहीं कहे गये तो आज भ्रष्टाचार के विरुद्ध श्री अन्ना हजारे जी के नेतृत्व में जनता का अहिंसक आन्दोलन संसद, लोकतंत्र या संसदीय प्रणाली पर हमला कैसे हो सकता है?
एक बड़ा प्रश्न यह भी है कि लोकतंत्र में जब जनता का विश्वास अपने नेताओं पर से उठ जाए तब यह लोक अपनी बात कहाँ कहे? क्योंकि जब जनता लोकतांत्रिक रीति से अहिंसक तरीके से अपना विरोध दर्ज कराए, अपनी बात कहे तो उसे संगठित तरीके से लोकतंत्र पर खतरा करार दिया जाता है और इसके लिए बन्द कमरे में कैमरे के सामने अपना बौद्धिक, तर्क-वितर्कपूर्ण प्रवचन देने वाले प्रायोजित विद्वान सुनियोजित ढंग से खड़े कर दिए जाते हैं जो सीधी-सीधी बात करने वालों के सामने तर्कों का ऐसा जाल बुनते हैं कि मुख्य विषय ही भटककर रह जाता है। आखिर जनता की आवाज कौन लोग हैं। ये बन्द कमरे में बैठकर बहस करने वाले? इस परिप्रेक्ष्य में हमें यह भी देखना चाहिए कि यदि प्रायोजित भीड़ न मिले तो बड़ा से बड़ा राजनेता अपने एक आवाह्न पर दस हजार लोग भी इकट्ठा नहीं कर सकता, इस आन्दोलन में लाखों लोग दिल्ली में और करोड़ों लोग पूरे भारत में स्वतःस्फूर्त ढंग से अपने-अपने घरों से निकलकर सड़क पर आए हैं। कुछ तो दूर-दराज के क्षेत्रों से दिल्ली तक पहुँचे हैं। ये लोग कोई प्रलोभन देकर, भाड़े की गाड़ियाँ मुहैया कराकर अथवा रेलगाड़ियों में बलात् कब्जा करके नहीं पहुँचाए गए हैं। कहीं न कहीं लोगों के मन में भ्रष्टाचार के प्रति असहनीय पीड़ा है और सांसदों या फिर संसद में भी विश्वास की कमी है जो मुखरित होकर उन्हें सड़कों तक खींच लाई है। अगर यह जन आन्दोलन नहीं है, जनता की आवाज नहीं है, जैसा कि कहा जा रहा है, तो फिर इन लोगों के अनुसार स्वतंत्रता पूर्व के आन्दोलनों और स्वतंत्रता के बाद आपातकाल के दौरान हुए आन्दोलन को पुनःपरिभाषित करने की आवश्यकता होनी चाहिए।
रही बात एक समय-सीमा के अन्दर जन लोकपाल बिल को पास करने की। कामन मैन अपने आन्दोलन और बिल को पास करने की समय-सीमा की शर्त दो महीने पहले से ही घोषित करता आ रहा है। इस पर न तो सरकार और न ही राजनीतिक दल गम्भीर दिखे और आन्दोलन को हलके में लिया लेकिन बाद में भारी जन समर्थन मिलने पर इसके रूप को देखकर उसे प्रजातंत्र के लिए खतरा और संसदीय प्रणाली पर हमला करार दिया। अब इस कामन मैन के बारह दिन के अनशन पूरे होने के बाद सारी दौड़-धूप निरर्थक से अधिक कुछ नहीं दिख रही है। ऐसा भी नहीं कि इसके पहले सारी संसदीय प्रणाली के अन्तर्गत सारे बिल पास हुए हैं। अनेक बिल और संविधान में कई संशोधन बिना इन प्रक्रियाओं के अनुकरण के पास किए गए हैं। विगत वर्ष तो एक ही दिन में भारी शोरगुल के बीच 16 बिल पास हुए थे। उस दौरान माननीय सांसद शायद इन बिलों के नाम तक न सुन पाए होंगे। प्रायः देखा गया है कि जो काम करने होते हैं उनके लिए सारे नियम, कानून, पद्धति और गरिमा तक ताक पर रख दिए जाते हैं लेकिन जो कार्य नहीं करने होते हैं मात्र उन्हीं के लिए नियम, कानून, पद्धति और गरिमा की दुहाई दी जाती है। इस प्रकार यदि संसद, सांसद और सरकार अपने उत्तरदायित्वों के प्रति ही सजग न हों तो क्या उन्हें जन-आन्दोलन पर प्रश्नचिह्न लगाने का अधिकार है, यह एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न है।
बड़ा ही विचित्र है कि जनता द्वारा किया जानेवाला अहिंसक आंदोलन लोकतंत्र पर हमला हो जाता है और भ्रष्ट मंत्री, उच्च पद पर आसीन भ्रष्ट ब्यूरोक्रेट्स को सुरक्षा प्रदान करना संसद की गरिमा पर कहीं कुछ दाग नहीं छोड़ता। इसपर अन्ना जी दो दिन से एक कहावत बार-बार दुहरा रहे हैं- नाच करे बन्दर और माल खाए मदारी। कामन मैन का जागना और अपने सरीखे कामन मेन को जगाना बड़ा ही बुरा लग रहा है सरकार को। पर वह क्या करे, भ्रष्टाचार का खटमल उसे सोने न दे तो उसके सामने जागने के अलावा कोई चारा नहीं बचता और उनसे सुरक्षा के लिए उसे व्यवस्था करनी ही पड़ेगी, चाहे लोग उसके प्रयास को कोई भी संज्ञा क्यों न दें।
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अन्ना हजारे ने कहा कि देश में जनतंत्र की हत्या की जा रही है और भ्रष्ट सरकार की बलि ली जाएगी। यह गांधीवादी अहिंसक सत्याग्रह है या खून के बदले खून?
जवाब देंहटाएं@ बलि
जवाब देंहटाएंबलि का अर्थ हमेशा किसी देवता के नाम पर मारा जानेवाला पशु ही नहीं होता।
हमने देखा है बलि के नाम बेल, खीरा आदि भी अर्पित किए जाते हैं।
बलि के अर्थ राजकर, उपहार, भेंट, पूजा की सामग्री भी होता है।
बलि एक प्रकार का संबोधन भी होता है, मैं तुम पर बलि या निछावर जाऊं।
किसी भरी हानि के नाम पर हानि सहना भी बलि चढ़ाना होता है।
Wednesday मेरी पसंदीदा फिल्म है.उसमें नसीरुद्दीन शाह ने जो तरीका अपनाया है,उसका कोई जवाब नहीं.
जवाब देंहटाएंमगर फिल्म तो फिल्म ही है.शायद वास्तविकता से कोसों दूर.
हम अन्ना के साथ हैं,मगर अब हालात खराब होते जा रहे हैं,जो चिंताजनक है.
संसद की गरिमा के नाम पर लोकतंत्र की जनाकांक्षा की हत्या हो रही है.... कुछ बुधिजिवियों को यह ठीक नहीं लग रहा... उन्हें तो बांध, कश्मीर, बाघ आदि बचाने हैं... कामन मैन क्या होता है भला...
जवाब देंहटाएंविगत कुछ हफ्तों के घटनाक्रम व्यथित करने वाले हैं। एक निष्कर्ष पर पाहुचने वाले होते हैं कि दूसरा सामने आ धमकता है। बस यही कहूँगा:-
जवाब देंहटाएंअँधेरा है घना, फिर भी कहीं कुछ दिख रही हैं 'लौ'।
उन्हीं के आसरे बस कट रहा, ये मुश्किल सफ़र है।।
नियत नहीं है कुछ करने की .. सरकार की बलि उसको हटा कर ही ली जा सकती है ..इसमें मुझे नहीं लगता कि कोई हिंसा वाली बात है ..
जवाब देंहटाएंवो मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता
मैं बेक़रार हूँ आवाज़ में असर के लिये
मनोज जी,
जवाब देंहटाएंसलाम......
@नाच करे बन्दर और माल खाए मदारी।
कोमन मैन की सबसे लोकप्रिय तस्वीर तो आर.के.लक्षमन जी ने बनायी है.. अनादी काल से बेचारा हर रोज अखबार के पहले पन्ने पर आपसे मिलता है (था) मगर जुबान से कुछ नहीं कहता.. बस अपाहिज व्यथा को वाहन करता जी रहा है.. हमारी तो परम्परा यह भी रही है कि किशमिश के दाने में उसकी सिफत नहीं, उसकी जड़ में चिपका तिनका सबसे पहले नज़र आता है..
जवाब देंहटाएंबड़े भाई रविन्द्र कुमार रवि की पंक्तियाँ सटीक लग रही हैं:
सियासत चाहती है डोर ये कमजोर हो जाये,
संभालना, जागते रहना,न जबतक भोर हो जाए!!
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कई बार ह्त्या का के बदले बलि का अर्थ खून के बदले खून नहीं होता है.. अमीर खुसरो ने कहा है कि बीसों का सिर काट दिया, ना मारा ना खून किया!!
अन्ना जी के विचारों का मैं भी समर्थन करती हूँ ,पर अब जो हालात हैं वो भयावह लग रहे हैं ....सरकार कोई भी आ जाये ,कोई अन्तर नहीं होगा इस व्यव्स्था को ही बदलना होगा .... जबकि हम सब सिर्फ़ नारे लगा रहे हैं ,अपने स्तर पर कुछ सार्थक क्यों नहीं कर पा रहे हैं .....
जवाब देंहटाएंअपने ऊपर विश्वास हो...कुछ कर गुजरने का दृश निश्चय हो....तो एक अकेला 'कॉमन मैन' क्या कर सकता है...पूरे विश्व ने देख लिया.
जवाब देंहटाएंकामन आदमी वो जो अपना मुह जॉब के रहे , सब कुछ देखने के बाद भी कुछ ना कहें.
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंपिछले लगभग पन्द्रह दिनों से चल रही सरकार की गतिविधियाँ दर्शाती हैं कि सरकार में एक केन्द्र नहीं हैं। किसी दिन कोई गुट हावी हो जाता है और खेल बिगाड़ देता है तो अगले दिन दूसरा गुट सामने आता है, पैचवर्क करता है, फिर तीसरे दिन नई विचारधारा सामने आती है। सुबह से लेकर रात बारह तक बैठकों के दौर चलते हैं और स्थिति जहाँ की तहाँ बनी रहती है। एक व्यक्ति जिसके आवाह्न पर करोड़ों लोग सड़क पर आ चुके हैं और बारह दिन से सडक पर टिके हुए हैं, वह जनाकांक्षा के लिए अनशन पर है, उसकी हालत दिन-प्रतिदिन बिगड़ती जा रही है, उसके स्वास्थ्य की चिंता सरकार को कितनी है, यह जनता को दिख रहा है।
जवाब देंहटाएंएक स्वनामधन्य वरिष्ठ मंत्री महोदय संसद में एक बड़े नेता को सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि "....जी, यदि यह बिल पास हो गया तो आप भी नहीं बचेंगे ..." इसका मतलब क्या है? क्या अब संसद में कानून अपने को बचाने के लिए बनाए जाएंगे? क्या यह इनका चोर-चोर मौसेरे भाई होना साबित नहीं करता? जब जनता यह सब अपनी आँखों से देखेगी तो उन पर क्यों विश्वास करेगी और सच्चाई से बात करने वाले व्यक्ति की सीधी बातों में उसे अपने सपने पूरे होते क्यों नहीं दिखाई देंगे?
हावर्ड और कैम्ब्रिज से पढ़ाई करके आई मण्डली न तो देश की जनता की बात समझ सकती है और न ही उनसे भावनात्मक रूप से जुड़ सकती है। यह मुद्दा इसी कारण से गतिरोध का शिकार हुआ है क्योंकि गिव एण्ड टेक के सिद्धांत पर चलकर हमेशा फायदे की सोचने वाले लोगों का मानना है कि एक अन्ना की सेहत बिगड़ने से उनका कुछ नहीं बिगड़ने वाला है और उनकी राह का काँटा ही दूर होगा। यह संवेदनहीनता की पराकाष्ठा है। सरकार और राजनीतिक दलों का रवैया बेहद निराशाजनक रहा है।
आम आदमी अपनी बात रख पा रहा है।
जवाब देंहटाएंअन्ना जन गण मन की आवाज हैं। इसे अब तथाकथित राजनेताओं को अच्छी तरह समझ लेना चाहिए। अन्ना ने देश की जनता को जगाया है। अन्ना के योगदान के लिए देश उनका हमेशा ऋणी रहेगा।
जवाब देंहटाएंबहुत खूब लिखा है आपने, बहुत ही सुन्दरता से प्रस्तुत किया है! आपकी लेखनी को सलाम.
जवाब देंहटाएंअन्ना, आपके दृढ़ संकल्प और विश्वास के आगे सत्ता नतमस्तक हुई। धन्य हैं आप। आपने इस देश की खास नहीं, आम जनता के लिए लड़ाई लड़ी है। आज आपकी जीत हुई। आपने देश के जन गण के मन में विशेष स्थान बना लिया है। देश आपका हमेशा ऋणी रहेगा।
जवाब देंहटाएंपिछले १२ दिनों का घटनाक्रम बहुत कुछ बता गया है देश की जनता को ... आने वाले समय में अगर लोग नहीं जान्रते ... ओने हक का सही इस्तेमाल नहीं करते तो ये प्रयास व्यर्थ होने वाला है ...
जवाब देंहटाएंआज एक कॉमन मैन ने दिखा दिया ना....विचारों में दृढ़ता और कुछ कर गुजरने का हौसला हो तो क्या नहीं हो सकता...
जवाब देंहटाएंचलिए, फिलहाल तो अन्ना की मांगे मान ली गयीं हैं. स्टैंडिंघ कमेटी भी केवल बिल की भाषा में सुधार करेगी, ऐसा अरुण जेटली ने कहा है.
जवाब देंहटाएंतो बधाई तो बनती है न???
आज की सुबह बहुत ही सुहानी है ! आधी ही सही अन्ना के नेतृत्व में 'स्टुपिड कॉमन मैन'को कुछ तो जीत मिली ! सबसे अधिक हर्ष की बात यह है कि अपने अधिकारों और दायित्वों के प्रति जनता की समझ बढ़ी है ! उसने जान लिया है कि आतातायी सरकारी तंत्र के आगे सदा घुटने ही नहीं टेकने हैं सिर उठा कर अहिंसात्मक तरीके से अपनी बात भी मनवाई जा सकती है ! साभार !
जवाब देंहटाएंश्री मनोज कुमार जी, नमस्कार ।
जवाब देंहटाएंकुछ कारणवश आपके पोस्ट पर आने देर हुई । आपके पोस्ट में जो मुख्य तीन बातें उभर कर सामने आयी हैं,वे हैं- संसद,जनता एव संविधान ।
शायद अब्राहम लिंकन ने कहा था--"Democracy is of the people , for the people and by the people."
जहाँ तक संविधान की बात है,मैं कहना चाहूँगा कि जब-जब जरूरत हुई है तो जनता के हित में संविधान का संशोधन हुआ है । यदि भ्रष्टाचार के निमित्त कुछ संशोधन की जरूरत पड़ती है तो इसका संशोधन करने में दिक्कत क्या है!
इसे सरकार के कुछ लोगों ने अपने भाषणों मे प्रतिष्ठा का विषय बनाया । लालू जी भी संसद मे यह कहते हुए देखे गए कि बाहरी आदमी हम सब पर अपनी नीतियों को क्यों थोपेगा ।
अन्ना हजारे जी एक सैनिक रह चुके हैं। उनके अंदर आज भी Stress and Strain में काम करने की क्षमता है । यह जीत न तो अन्ना की है न सरकार की वल्कि यह जीत उस लाचार वेबश भारतीय नागरिक की है जो किसी भी चीज की प्रतीक्षा में किसी लाईन का अंतिम व्यक्ति है । जे.पी, अन्ना हजारे आज हम सबके लिए प्रतीक बन गए हैं । यह लड़ाई अभी खत्म नही हुई है-यह तो मात्र एक प्रचार था । असली लड़ाई बाकी है ।
पोस्ट अच्छा लगा । हमें याद ऱखना होगा-
जब-जब धरा विकल होती मुसीबत का समय आता,
किसी भी रूप में कोई महा-मानव चला आता ।
धन्यवाद ।
इस पूरे आन्दोलन से एक सार्थक पहल तो यह हुई कि आम आदमी जो हर बात को यह कहकर टालता रहा है कि ये तो ऐसे ही चलेगा , ने साबित कर दिया कि अब ऐसा ही नहीं चलेगा ...
जवाब देंहटाएंदूसरे कि सांसदों और मंत्रियों को सदन की गरिमा याद आई , किसी भी कारण से आई हो !
अन्ना ने कॉमन मैन के आक्रोश की अभिव्यक्ति का एक शांतिपूर्ण मार्ग भी दिखाया है. मगर आकलन तो परिणाम के आधार पर ही किये जाते हैं हमारे यहाँ. देखें इस बिल का अंजाम कहाँ तक पहुँचता है.
जवाब देंहटाएंManoj jee ise lekh ke liye aabhar .
जवाब देंहटाएंaam aadmee iseka kad kafee bada ho gaya hai ........