सोमवार, 29 अगस्त 2011

अगहन में

नवगीत

अगहन में

श्यामनारायण मिश्र

अगहन में।

 

चुटकी भर धूप की तमाखू,

बीड़े भर दुपहर का पान,

दोहरे भर तीसरा प्रहर,

दाँतों में दाबे दिनमान;

मुस्कानें अंकित करता है

फसलों की नई-नई उलहन में।

 

सरसों के छौंक की सुगंध,

मक्के में गुंथा हुआ स्वाद,

गुरसी में तपा हुआ गोरस,

चौके में तिरता आल्हाद;

टाठी तक आये पर किसी तरह

एक खौल आए तो अदहन में।

 

मिट्टी की कच्ची कोमल दीवारों तक,

चार खूंट कोदों का बिछा है पुआल;

हाथों के कते-बुने कम्बल के नीचे,

कथा और किस्से, हुंकारी के ताल;

एक ओर ममता है, एक ओर रति है,

करवट किस ओर रहे

ठहरी है नींद इसी उलझन में।

24 टिप्‍पणियां:

  1. ग़ज़ब के प्रतीक और बिम्ब है इस कविता में.
    वाह,पढ़कर मज़ा आ गया.

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  2. सरसों के छौंक की सुगंध,

    मक्के में गुंथा हुआ स्वाद,

    गुरसी में तपा हुआ गोरस,

    चौके में तिरता आल्हाद..
    bahut sunder shabd chitran...chalchitra ki bhanti aankhon ke samne se guzar gayi kavita......badhai...

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  3. करवटों को बारी बारी से बुलाती नींद।

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  4. गाँव देश की सैर कर आए हम भी इसे पढ़ते पढ़ते

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  5. सुन्दर बिम्बों से सजी श्यामनारायण जी की रचना पढवाने के लिए आभार

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  6. बहुत-बहुत बधाई |

    सुन्दर प्रस्तुति ||

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  7. बहुत सुन्दर भावपूर्ण नवगीत....

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  8. बहुत सुंदर खुली आँखों से देखा हुआ स्वप्न को बताती शानदार प्रस्तुति /बहुत बहुत बधाई आपको /मेरे ब्लॉग पर आकर टिप्पड़ी करने के लिए आभार /आशा है आगे भी आपका सहयोग मेरी रचनाओं को मिलता रहेगा /शुक्रिया /

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  9. सरसों के छौंक की सुगंध,

    मक्के में गुंथा हुआ स्वाद,

    n jane ye pal phir kab naseeb honge

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  10. सुन्दर बिम्बो से सजी शानदार प्रस्तुति।

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  11. अगहन मानो अदहन-सा अभिव्यक्त हुआ है।

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  12. एक ओर ममता है, एक ओर रति है,

    करवट किस ओर रहे

    ठहरी है नींद इसी उलझन में।

    सचिन को भारत रत्न नहीं मिलना चाहिए. भावनाओ से परे तार्किक विश्लेषण हेतु पढ़ें और समर्थन दें- http://no-bharat-ratna-to-sachin.blogspot.com/

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  13. अगहन में।



    चुटकी भर धूप की तमाखू,

    बीड़े भर दुपहर का पान,

    दोहरे भर तीसरा प्रहर,

    दाँतों में दाबे दिनमान;
    नहीं पढ़ी हमने इतनी सुन्दर रचना ,भाव विभोर करती ,मनमोर को नचाती ,मुस्काती ,भाषिक सौन्दर्य और प्रतिमान बिखेरती ,इठलाती अल्हड सी किसी गाँव की पगडण्डी पर ,कुए की मैंड पे खड़ी चकली चलाती ....
    आपकी ब्लोगिया हाजिरी के लिए आभार .

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  14. लोक भाषा के रंगों में रंगी मोहक पोस्ट पढ़कर मन फिर से बेटे हुए दिनों की और लौट गया......

    चुटकी भर धूप की तमाखू,

    बीड़े भर दुपहर का पान,

    दोहरे भर तीसरा प्रहर,

    दाँतों में दाबे दिनमान;

    मुस्कानें अंकित करता है

    फसलों की नई-नई उलहन में।

    अद्भुत रचना

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  15. मिश्र जी की रचनाएं कुछ कहने लायक नहीं छोडतीं..

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  16. लाज़वाब प्रस्तुति..बहुत प्रभावी शब्द चित्र ..

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  17. अरे क्या कहूँ, इस कविता को पढकर को सारे इन्द्रिय जैसे स्वाद और गंध से लबालब हो गया ... गजब !

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