देसिल बयना – 92
पिया गये परदेश अब डर काहे के...
करण समस्तीपुरी
“सखि हे सावन आए सुहावन, वन में बोलन लागे मोर !
अमुआ के डारि कोयलिया कुहके, जियरा मारे हिलोर !!
वन में बोलन लागे मोर............. !!”
हिलोर तो इलैची भौजी के जियरा में भी मारता होगा। सावन का पहिल पक्ख बीत रहा था। झिहिर-झिहिर पुरबैय्या में ठहर-ठहर बारिस हो रही थी। कभी झीसी तो कभी मुसलाधार। अलमस्त रेवाखंड में अल्हड़ कजरी और नव-विवाहिताओं के पर्व ’मधुश्रावनी’ के मधुर गीत गुंज रहे थे। “कैसे खेलन जाऊँ सावन में कजरिया, बदरिया घिरि आई ननदी....!”
गये साल अघहन से असाढ़ तक जिनकी शादी हुई थी, वे सभी बेटियाँ पीहर आ गई थीं। कुछ के संग पाहुने भी आये थे, कुछ के देवर। कुछ के भाई-काका लिवा लाए थे। लगपांचे (नाग-पंचमी) से प्रारंभ हुआ मधुश्रावनी का व्रत। तेरह दिन तक गौरी पूजन। मिथिलांचल के इस महाव्रत में वैसे तो नव-बधुएं अखंड सौभाग्य के लिये “शिव-पार्वती” की पूजा करती हैं मगर असल में यह है प्रकृति-पूजन। पूजा के सभी उपादान प्राकृतिक। मान का पत्ता, गोबर के नाग, फूल, बांस की दौरी-मौनी, बेनिया... मौसमी फ़लों के प्रसाद।
“हे गौरी मैय्या ! जिस तरह सावन में प्रकृति रानी पर हरियाली छाई रहती है, उसी तरह हमरा सुहाग भी सब दिन हरियाय रहे।”
इलैची भौजी भी रोज दुपहरिया में नहा-धोकर गौरी पूजती थी। कुंजा मौसी से बिन्नी का फ़करा भी सुनती थी, “अद-कद, वरन-वद, महा-नाग, सिरि नाग...!” बिरजू भैय्या अकेले थे। इसीलिये इलैची भौजी का अपना तो कौनो देवर था नहीं सो गौरीजी को भोग लगाया ललका अमरुद के प्रसाद का बाँया हिस्सा हमैं बुलाके देती थी और दहिना हिस्सा माथा से लगा कर खुदे खाती थी। कनिक देर के लिये ही सही भौजी के मुख-मंडल पर भी मधुश्रावनी का उल्लास झलक जाता था। बांकी उनका कचोट हम कैय्येक दिन भोर में देखे थे।
मधुश्रावनी में सबसे जादे महात्म्य है भोरे-भोर फूल-पत्ती तोड़ने का। चम्पा दीदी, सोन दीदी, बैजंती फ़ुआ, रसवंती दाय, लाली, हेमिया, कुसुमी, छोटकी, बिजुरिया और टोले-मोहल्ले की अन्य लड़कियां अकाश में सुरुज भगवान के लाली छोड़ने से पहिले ही फुलडलिया लेके चल देती थीं बाग-बगीचे। मैं और बटिया छोट-नाट थे, साथ हो लेते थे। हरी-हरी चुड़ियों की खन-खन, पायलों की छम-छम, कजरी और बटगवनी के कलरव से पगदंडियां निनादित हो जाती थी।
रेवाखंड पर प्रकृति रानी भी मेहरबान रहती थी। दिन में भले उम्मस हो मगर भोरका पहर चार बुंद जरूर झहर जाता था। बूंदो के ताल पर छलकते थे फ़ुलहारिन युवतियों के गीत,
“सावन के बरसे बदरिया हो...
फूल तोड़े ला गोरिया... !
धनिया के भीजे धानी चुनरिया...
बलमा लगावे छतरिया हो....
फूल तोड़े ला गोरिया... ।”
बिरजू भैय्या के घर के ठीक सामने था गवरू ठाकुर का बगीचा। चम्पा, चमेली, बेला, गुलाब, उड़हुल, कनैल, कामनी, धतुर, अकवन जैसे देसी-विदेसी फूलों के दर्जनों पेड़-पौधे थे। खास कर भींगे कनैल की पतीली डालियों को पकड़-लपक कर, लिवा-झुका कर हिलते-डुलते कजरी-झूमर गाते फूल तोड़ती सखी-सहेलियों को देखकर भौजी का कलेजा जरूर कचोटता होगा। बेचारी बहरिया खिड़की से ऐसे चिपकी रहती थी जैसे सुग्गा पिंजरा के फ़ांर से चिपक रहता है। तनिक और दौर मिले तो फ़ुर्र हो जाएं। लेकिन करेला बिरजू भैय्या का सख्त पहड़ा.... उपर से नीम चढ़ाए वाली शिकायती देवी कुंजा मौसी।
“एगो खुशखबरी है...!” गये हफ़्ते खाँ साहेब का मनेजर मुलुकचंद रेवाखंड में समाचार बाँट रहा था, “बोरा छपैय्या का फ़ेक्टरी अगिला हफ़्ता से चालू हो जाएगा। जौन कोई चलना चाहे अपना नाम-उमिर लिखबा दे। खाना-पीना-कपड़ा--कोठरी पर से साढ़े तीन सौ रुपैय्या महीना।”
बिरजू भैय्या भी कुंजा मौसी से राय-विचार कर हमरे दलान पर मुलुकचंद की डायरी में अपना नाम लिखबा गये थे। बाबूजी पूछे भी थे, “इहां धनरोपनी...?” बिरजू भैय्या बोले थे, “बारह अना रोपनी तो होइये गया है कक्का...! बांकी मौसी देख लेगी। वैसे फ़कीरिया को बोल दिये हैं और आप लोग भी तो हैय्ये हैं। अब खर्चा भी तो बढ़ा...।”
पछिला एतबार के दुपहरिया में बिरजू भैय्या सतुआ और चिउरा का मोटरी बांध रहे थे। इलैची भौजी खजुर और निमकी भी तल दी थी। कुंजा मौसी वहीं खटिया पर बीड़ी सुलगाती हुई भैय्या को सीख दे रही थी, “बबुआ ! रस्ता में केहु का तम्बाकुओ मत चबैय्यो... समान पर धियान रखिओ और पहुंच के तार जरूर करियो... ! परदेस में केहु से न जादा मेल-मिलाप रखियो और न बैर...! और हाँ... जरा अपनी महरानीजी को भी समझाय दियो... सारा दिन झरोखा चढ़ के ना बैठे... घर-द्वार भी देखे..! उउ........फ़ू........!” मौसी मुँह से चिमनी के तरह धुआँ फ़ेकी थी। भैया भौजी के तरफ़ देखे थे। भौजी आँख झुका के सहमति दे दी थी। सांझे मुलुकचंद के साथे पुरबी मुलुक जाए वाला हांज में बिरजू भैय्या भी शामिल हो गये।
मधुश्रावनी में अब सिरिफ़ दो दिन बचे थे। लाल काकी ने बेटी-बहू सभी नव-विवाहिताओं के हाथों में मेंहदी लगवाए थे। टोला-मोहल्ला में कोई बांकी ना रहे। इलैची भौजी कने भी करोसिया माय को ले जाकर खुदे लगवा दी थी।
बेरिया में कुशेसरा बेगार को बोल रही थी, “अरे कुशेसरा ! अब तो दिन लगचा गया... ठाकुरजी के बगैचा वला वरगद पर झूला डाल न दो... दुइयो दिन त सखी-सजनियां झूल ले... फिर तो किशन कन्हैया को झुलाएंगे ही...!” कुशेसरा पता नहीं सुना कि नहीं मगर बाबूजी भी डपटे तो रस्सी-डोला लेके बढ़ा। हम, बटेसर, मसुआ, चौबनिया, पकौरीलाल तो उसी के साथ चल पड़े।
कुशेसरा मिनिट भर में वरगद के जुड़ुआ डाली पर दोनों हिड़ोला डाल दिया था। महिला मंडल जब तक कजरा-गजरा, सिंगार पटार करके बहराय तब तक हम लोग खूब छककर झूले।
पहर बाद ठाकुरजी की फुलबाड़ी गुलजार हो गयी। लालकाकी सच्चे में मौडन विचार वाली थी। बेटी-बहू सबको हंकार लाई थी। संग में सुमितरा आजी, बैगनी काकी और छबीली मामी भी थी। छबीली मामी और लालकाकी का हंसी-मजाक इलाका फ़ेमस था। हा...हा... हा... हा....! जहाँ दोनों जुटीं कि हरि-गंगा।
इधर झूला-झुलौव्वल शुरु हुआ और उधर भंडारकोन से घटाटोप बदरिया। लगले पुरबा भी हांक दिया। हवा के साथ-साथ हिड़ोला की गति भी तेज होती जा रही थी। देखते-देखते झिहिर-झिहिर भी शुरु हो गया तब जाके लालकाकी और छबीली मामी का ध्यान टूटा। छबीली मामी टहकार छोड़ी थी, “आई सावन बहार, बूंद पड़त फ़ुहार.... झूला लागे डारे-डार... घिरि आई बदरी...!!” अरे उधर से भी कोई स्वर लगा रही है...! ओ... इलैची भौजी अपनी खिड़की पर बैठी गीत का अगला लाइन पकड़ ली है, “बुंद पड़त फ़ुहारी, घटा घिर आई कारी, बगुला चले धारी-धारी... घिरि आई बदरी...!” ओह... सच्चे ! भौजी के सुर में पपीहे सी पीड़ा थी। जुबती-वृंद भी झूला छोड़कर बिरजू भैय्या के घर तरफ़ ताकने लगी थी। बदरी और वर्षा के कारण कुछ साफ़ दिख नहीं रहा था।
सहसा सब लोग चौंक गये। “दुल्हिन... तू...!” सामने इलैची भौजी को देख लालकाकी बोली थी। “हाँ काकी!” भौजी लालकाकी और मामी और सुमित्रा आजी के पैर लगकर बोली थी, “घर के उम्मस में रहा नहीं गया... और मामी कजरी में ऐसन जोर कि पैर रोक नहीं सकी...!” काकी का बायाँ हाथ ठुड्ढी पर चला गया था और आँखें कोनिया गयी थी, “मगर दुल्हिन... केहु देख लिया तो...?”
“अरे काकी...!” भौजी खिलखिलाई तो गुलाबी होंठों के बीच सफ़ेद दांत ऐसे चमक उठे जैसे फ़टे अनार अनार के दाने हों। “अब जौन चाहे देखे... का फ़रक पड़ता है...! पिया गये परदेस अब डर काहे के...?” हमरे दिश हाथ दिखाते हुए जारी रही, “इके भैय्या गए कलकत्ता अब आगे-पीछे और कौन है जिस से डर...?” भौजी को पहली बार इतना खुलकर हंसते-बोलते देख मुझे अच्छा लगा था।
“हा.... हा... हा.... हा... ही... ही... ही..... ! एं... “पिया गये परदेस अब डर काहे के...?” का हो भौजी....? अन्य युवतियाँ भी भौजी की टांगे खिंचने का मौका गंवाना नहीं चाहती थी। “वाह री बहुरिया...! ’पिया गये परदेस अब डर काहे के...?’ तू तो जुग जीत ली....! चलो अब एहि बात पर एगो लहरदार कजरी हो जाए” छबीली मामी टिहुंकी थी। “हाँ मामी..!” भौजी की चंचल अदाओं में आज गजब की शोखी थी। जुबतियों के बीच से हमें धकियाते हुए झूला पर चढ़ा एक जोर का झटका दी और गाने लगीं, “कि आहो रामा झूला पड़ा मतवाला.... देवरजी वाला ए हरि....!” हम भी झूले पर पींगे लगाते हुए सोच रहे थे,
“सच में जब कोई निगरानी-निरिक्षन करने वाला न हो तो आदमी कितना निर्भिक हो जाता है। तभी उसका नैसर्गिक चरित्र बाहर आ पाता है। इलैची भौजी ही कितनी सकपकाई रहती थी...? बिरजू भैय्या गये कि आ गई सावन बहार। सच्चे कही है, “पिया गये परदेस अब डर काहे के....?”
मधुश्रावनी के परिप्रेक्ष्य में रचा हुआ ई "देसिल बयना" से भी जादा सोहाया हमको पर्किर्ती का बरनन अउर परम्परा का पालन. ऐसन बुझा रहा था कि जैसे बगीचा में बैठे हैं हम अउर चारों तरफ से फूल सब गमगमा रहा है.. सावन का फुहार अउर फूल का गंध एकदम मातल किए दे रहा है.. भगवान ई फागुन अउर सावन काहे बनाए, समझे में नहीं आता है.. खास कर उसके लिए जिसके पीया गए परदेस... ई "डर काहे का" में छिपा हुआ पीड़ा भी है!!
जवाब देंहटाएं(आपका मधुश्रावनी का तैयारी सब हो गया है ना!!)
बहुत खूबसूरत मनोज जी
जवाब देंहटाएंआपने तो पूरा सावन बरसा ही दिया, आभार.
सावन के पिया का नया पक्ष, हर बार की तरह 'वाह' तो है ही.
जवाब देंहटाएंकारण भाई... एक और बढ़िया बयना... मन हरियर हो जाता है.. कल हम भी प्रतीक रूप में मधुश्रवानी मनाये... कनिया सामने के पार्क से कनैल तोड़ लाई... अपने छत पर सरम्जाया का फूल है... दिन भर व्रत रहा... रात को बिना नमक के खाई.. समर्पण और प्रकृति पूजन का यह पर्व मिथिला की साँसों में है... बढ़िया बयाना.....
जवाब देंहटाएंबहुत खूबसूरत मनोज जी
जवाब देंहटाएंलोकृ-जीवन की इतनी सरस और चित्रात्मक प्रस्तुति मन मोह लेती है !शहरीकरण का प्रभाव कि यह संस्कृति धीरे-धीरे सिमटती जा रही है -लगता है एक दिन इन लिखित पन्नों से ही झाँकती रह जायेगी .
जवाब देंहटाएंबरस रहा है ब्लॉग पे सावन रिमझिम रिमझिम .
जवाब देंहटाएंपोस्ट बहुत ही है मनभावन रिमझिम रिमझिम .
आगत-अनागत सभी पाठकों को धन्यवाद। सभी महिला पाठकों को मधुश्रावनी की शुभ-कामनाएं।
जवाब देंहटाएंKaran Bhaiya aapka DESIL BAYANA adhikatar samayanukul aur gaon ki yaad dilati hai. Mai apna pichhle DESIL BAYANA par diya comment ko fir se duhrata hun.
जवाब देंहटाएंaadarniy sir
जवाब देंहटाएंsawan me prkriti ki sari sundarta ko samette hue illoochi bhabhi ka bhi man dol hi gaya
sachhi baat---
ab piya gaye pardes dar kahe ka.bahut hi maniram prastuti ek mashur kahavat ko chatitarth karti hui.
sadar naman
poonam
chalo kisi bahane to bhauji baahar nikli.
जवाब देंहटाएंsunder prasang.
मधुश्रावणी के पर्व पर मधुर छटा बिखेरती आपकी यह पोस्ट न सिर्फ़ समसामयिक है बल्कि इस पर्व के कुछ खूबसूरत विशेषताओं को भी समेटे है।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर।
जवाब देंहटाएंसावन की रिमझिम फुहार और गोरी का पिया से प्यार मनुहारी है मन को छूता हुआ लेख -मधुर् श्रावणी के मधुर गीत और कजरी बहुत कुछ नजारा देखने को मिला वहां की बोली के साथ ...सुंदर
जवाब देंहटाएंभ्रमर ५
इस पोस्ट पर भाई सलिल वर्मा जी से अच्छी टिप्पणी नहीं की जा सकती। देसिल बयना पर उनकी टिप्पणी पढ़ना भी उतना ही रोचक लगता है, जितना कि देसिल बयना।
जवाब देंहटाएंबचपन में मुझे भी लगता था. जब तक गाँव में रहे हमेशा अपने आप को कोशते रहे काश मेरे घर में भी किसी लड़की की शादी हो और फूल पत्ती तोड़ने की प्रतियोगिता में हम भी अव्वल आएं. इच्छा तभी पुरी हुई जब मेरी इकलौती बीवी का मधुश्रावनी मेरे घर में संपन्न हुआ. लेकिन तब तक वह सरल उत्साह एक आततायी गंभीरता में बदल चुकी थी. मिथिला में सावन के romantism को जितना celebrate किया जाता है विश्व के दूसरे भाग में ऐसा नहीं. इस पोस्ट के साथ मेरा आपसे शिकायत भी दूर हो गया.
जवाब देंहटाएंpahli baar aapke blog pe aana hua..behad accha laga..tetala manch ko bhi dhnyawad..jo bhagidar bana mujhe aap tak puhchane mein..shandar rachna ke liye hardik badhyee aur apne blog pe nimantran ke sath
जवाब देंहटाएं