समीक्षा
आँच-84
11 साल का मेंहदीवाला
प्रगतिशील/नई कविता के युग में आगे बढ़ते हुए जनवादी कविता सामाजिक सरोकारों का निर्वाह करती चलती है। वह कविता के केन्द्रीय पात्र की निजता को स्पर्श तो करती है लेकिन उसे उकेरती है सामाजिक संवेदना के विस्तृत पटल पर। इस प्रकार आज की नई कविता व्यक्तिनिष्ठता के आरोपों को खारिज करती हुई समाज का प्रतिबिम्ब बनती है और जनसामान्य से सहज जुड़ती जाती है। अरुण राय मूलतः इसी धारा के कवि हैं जो अपने इर्द-गिर्द बहुत ही सजग दृष्टि रखते हैं। वह समान्य से यथार्थ में भी असाधारण संवेदना की खोज कर लेते हैं। उनकी बहुतायत रचनाएं इसका प्रमाण हैं। ऐसे ही सरोकारों को चित्रित करती हुई उनकी एक कविता “11 साल का मेंहदीवाला” उनके ब्लाग “सरोकार” पर विगत 30 जुलाई को प्रकाशित हुई थी। यह कविता ही आज की चर्चा का प्रतिपाद्य है।
विकासशील समाज का एक निर्मम चेहरा भी होता है जो विकास की चकाचौंध के पार्श्व में कहीं छिपा सा रहता है। सामान्यतया विकास के लुभावने आकर्षक प्रकाश में उसपर दृष्टि नहीं जाती, लेकिन जब दृष्टि उधर घूमती है तो वह (विकास) विद्रूप रूप में सामने आता है। प्रस्तुत कविता में 11 साल का मेंहदीवाला ऐसे ही विकास को मुँह-सा चिढ़ाता है। 11 साल की उम्र परिपक्व होने की उम्र नहीं होती, बल्कि यह उम्र खेलने-कूदने, पढ़ने-लिखने और बालमन में अनेकानेक सपने सजाने की होती है। ऐसी वय में जिम्मेदारियों का बोझ स्वीकार कर निपुणता और अपने तमाम कौशल से उनका निर्वाह करना आत्यंतिक आवश्यकताओं की परिणति ही माना जाएगा। यह समाज की विडम्बना नहीं तो क्या है। एक ओर विकास की बहती धारा है, आधुनिक सुख-सुविधाओं और विलासिताओं की मार्केटिंग करने वाले भव्य मॉल और बाजार हैं तो दूसरी ओर समानान्तर समाज भी है जिसमें अर्थाभाव है, शोषण है और कुपोषण भी है। यहाँ एक अल्पवय बालक अपने परिवार के भरण-पोषण के उत्तरदायित्व का बोझ अपने कंधे पर ढोने को विवश है। पर यह विवशता उसमें कहीं प्रकट नहीं होती बल्कि उसके जीवन में इस कदर समाहित हो जाती है कि वह इस उपक्रम में व्यावसायिक कौशल अर्जित करते हुए अपना निर्वाह करता है और यह जान ही नहीं पाता कि उसके सपने उससे कब का नाता तो़ड़ चुके हैं, तिरोहित हो चुके हैं, बल्कि वह दूसरों के सपनों को पूरा होते देखकर प्रसन्नता अनुभव करता है। वह उन्हें मात्र अर्थोपाय का साधन मान उन्हें दूसरों को सौपते हुए भी प्रसन्न होता है। हर उस अवसर पर उसकी दृष्टि आर्थिक संसाधन की खोज के रूप में होती है जो समान्य स्थितियों-परिस्थितियों में उसके अथवा उस जैसे बालकों के लिए प्रसन्नता और खुशी का कारक बनने चाहिए। तब, ऐसे में वह अल्पवय बालक अपनी उम्र से कहीं अधिक उम्र के लोगों की तरह व्यवहार करता है, जिम्मेदारियाँ उठाता है तथा सजगता और परिपक्वता का परिचय देता हुआ पाठकों के हृदय में संवेदना जगाता है।
यदि कहीं प्रकाश है तो उसके ही पार्श्व में सघन अंधकार भी है। यह समाज की सच्चाई है। जीविकोपार्जन के लिए श्रमसाध्य कार्य करते बालक हमें यहाँ-वहाँ अवश्य दिखते हैं। लेकिन हमारा ध्यान उनके सपनों के दमन और उससे उपजी उनकी पीड़ा पर न जाकर हमारा बर्ताव अपना साध्य पूर्ण कर उन्हें उनके श्रम के बदले कुछ पैसे देकर मुँह मोड़ लेने का होता है। अरुण राय ने उनकी इस पीड़ा को केवल शिद्दत से महसूस ही नहीं किया है बल्कि उनकी भावनाओं को गहरे तक सम्प्रेषित भी किया है। उन्होंने इस कविता के माध्यम से समाज के व्यतिरेकी चेहरे को बहुत सरल शब्दों में उद्घाटित किया है। यह अरुण राय का काव्य-कौशल और भाषिक-सामर्थ्य है कि वे अभिव्यक्ति के लिए अपने आसपास से समान्य सी घटनाएं उठाते हैं और आसान शब्दों का प्रयोग करते हुए सरल भाषा में समाज की पीड़ा कह जाते हैं।
हालॉकि भाषा के प्रति उनका यह व्यवहार कभी-कभी विरल भावाभिव्यक्ति का कारक बनता है तथा काव्यत्व न्यून करता है। कमोवेश इस कविता में भी यह दृष्टिगोचर होता है। यथा, कविता में “11 साल का मेंहदीवाला” की गूँज अधिक है। अंकगणितीय पद वैसे ही जिह्वा की नाहक कसरत के साथ-साथ उसकी ग्राह्यता दुरूह बनाता है, ऊपर से पुनरावृत्ति – यह काव्य के रसास्वादन में बाधक है। दूसरे स्टेंजा में प्रयुक्त बहुवचन में “उम्रों” अप्रयुक्त दोष है, अतः निरर्थक लगता है। इसी प्रकार तीसरे स्टेंजा में “जचेगा चाँद, तारे, मोर के चित्र” में एकवचन क्रिया “जँचेगा” के साथ एक ही संज्ञा “चाँद” हो तो ही उपयुक्त है। शेष - “तारे, मोर के चित्र” अगली पंक्ति में आने से अर्थ अन्वित हो जाएगा अन्यथा एकवचन “जँचेगा” के साथ बहुत सी संज्ञाएं अटपटी लगती हैं। कुछ टंकण त्रुटियाँ भी हैं, यथा – “मॉल के” जिसे “मॉल की” होना चाहिए क्योंकि “चकाचौँध” स्त्रीवाची है – आदि में संशोधन अपेक्षित है।
हरीश प्रकाश गुप्त जी,
जवाब देंहटाएंअरूण चंद्र रॉय जी की कविता "11 सालों का मेंहदीवाला " पढ़ा था । उस समय इतने सघन और घनीभूत भाव मन को प्रभावित नही कर पाए थे लेकिन आज उस कविता की समीक्षा की अंतर्वस्तु को पढ़ कर लगा कि यदि वही कविता समीक्षक महोदय के सुझावों के बाद कुछ संशोधनों के साथ पुन: प्रकाशित की जाएगी तो एक नूतन परिवेश में भावों को सुसज्जित कर हम सबके सामने अपनी मौलिक अवस्था में अपना वर्चस्व स्थापित करने में सफल सिद्द होगी । समीक्षा अच्छी लगी । अरूण चंद्र रॉय एवं श्री हरीश प्रसाद गुप्त जी,आप सबको मेरा विशेष धन्यवाद ।
आपका यह कहना सही है की अरुण जी यथार्थवादी रचनाकार है उनकी दृष्टि समाज के हर व्यक्ति पर गहराई से पड़ती है और उनका संवेदनात्मक पक्ष सामने वाले की उस भावना को अभिव्यक्त कर देता है जिसके बारे में वह सोच रहा होता है ....प्रस्तुत कविता भी उसी भावना और संवेदना का उदहारण है ...!
जवाब देंहटाएंनिष्पक्ष समीक्षा.
जवाब देंहटाएंरचनाकार को बधाई.
साधु समीक्षा।
जवाब देंहटाएंHi I really liked your blog.
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संतुलित समीक्षा !
जवाब देंहटाएंसुन्दर कविता की सार्थक समीक्षा ...
जवाब देंहटाएंसुन्दर कविता एवं समीक्षा..बधाई।
जवाब देंहटाएंआदरणीय गुप्त जी की समीक्षा उनके स्थापित मानदंडों की श्रृंखला में एक कड़ी की तरह है.. श्री अरुण राय की कविताओं की विशेषता के तो हम सभी कायल हैं और कविता में छिपी भावनाओं में हम सभी अल्पाधिक भीगते रहे हैं.. किन्तु आज चर्चा कमियों की, क्योंकि अपेक्षाएं बढ़ती जाती हैं और यदि इन त्रुटियों को सुधारा न गया तो अरुण जी की कवितायें, कवितायें न होकर मात्र स्टेटमेंट और व्यक्तिगत स्टेटमेंट/एक्सप्रेशन बनकर रह जायेंगी.
जवाब देंहटाएंगुप्त जी ने जिन त्रुटियों की ओर अंतिम अनुच्छेद में इंगित किया है, वे प्रायः अरुण जी की प्रत्येक कविताओं में दिखता है... किन्तु इसका उत्तर (अरुण जी के उत्तर की प्रत्याशा के पूर्व ही) मेरे अनुसार यह है कि वे दिल से लिखते हैं और जैसे जैसे भाव उमडते जाते हैं, वैसे वैसे अभिव्यक्त करते हैं. ऐसा लगता है कि वे कविता लिखते नहीं, घटनाएं उनसे कवितायें लिखवाती हैं. इसलिए घटना पर पुनर्विचार कर, शब्दों का चयन कर, व्याकरण की सीमाएं देखकर, समीक्षकों व पाठकों की प्रतिक्रिया का ध्यान रख कर वे सृजन नहीं करते.. जो है और जैसा है के आधार पर "बस लिख जाते हैं"... कम कवियों में यह साहस होता है...
श्री अरुण राय को हमारी हार्दिक शुभकामनाएं है कि वे निरंतर ऐसी रचनाएं हमारे समक्ष प्रस्तुत करें और हमारी संवेदनाओं को जीवित रखें!!
एक सुन्दर कविता की सटीक समीक्षा. ऐसी समीक्षाएं कवि और कविता को नई दिशा देती हैं. गुप्त जी ने कुशलता से कविता की विशेषताओं और कमियों को सामने रखा है. आशा है अरुण राय जी आपकी समीक्षा से इन कमियों को दूर करेंगे. यह उनकी काव्य प्रतिभा के लिए संजीवनी का कार्य करेगी .
जवाब देंहटाएंएरिक डोनाल्ड हिर्स्च जूनियर का नाम अमेरिकन साहित्य में एक प्रतिष्ठित आलोचक के रूप में लिया जाता है. उनकी एक पुस्तक है 'दी ऑब्जेक्टिव इन्त्रप्रेटेशन' . गुप्त जी समीक्षा पढ़ते हुए मुझे उसी पुस्तक की याद आ गई. जब हिर्स्च कहते हैं : "subjective consciousness that shapes literary meaning, a distinction must be drawn between the speaking subject and the author. The author is the historical person who wrote the text. The speaking subject, on the other hand, is the persona that the author takes on in the process of writing. Certainly the culture, attitudes, and beliefs of the author affects this persona. The persona is also determined by the language available to the author. In each literary work, the author has a more-or-less unique mindset with distinct attitudes, beliefs, and values. To a degree, the author becomes a different person, a different speaking subject, in each work."...कहना चाहूँगा कि गुप्त जी समीक्षा उसी ऑब्जेक्टिव एन्तेर्प्रेटेशन पर आधारित है या उसे ही प्रतिपादित कर रही है. हिंदी कविता में ऐसी समीक्षा कम देखने को मिल रही है. कविता की त्रुटियों की ओर ध्यान दिला कर कवि को आगे मार्ग प्रशस्त करना समालोचक जी जिम्मेदारी है और गुप्त जी इसका निर्वाह भी कर रहे हैं. कवि अपने आप में पूर्ण नहीं होता. कवि को सदैव ही संपादक की जरुरत पड़ती है. खास तौर पर प्रारंभिक दिनों में. यदि प्रथम पाठक संपादक हो तो कविता पाठकों तक पहुचने से पूर्व ही इन त्रुटियों और कमियों से ऊपर हो जाती है. अरुण चन्द्र राय जी की कवितायेँ कई बार अति उत्साह में जान पड़ती हैं. इस समीक्षा के बाद उनमे परिपक्वता आएगी इसकी आशा की जानी चाहिए. वैसे मुझे तो अरुण जी से अधिक प्रभावित गुप्त जी कर रहे हैं.
जवाब देंहटाएंसही और निष्पक्ष समीक्षा लेखक के लिए राम वाण के समान होता है ..इससे गति और ऊर्जा मिलती है..
जवाब देंहटाएंकविता की सुन्दरता को समीक्षा से और भी चार चाँद
लगगए..ऐसा मेरा विश्वास है.....
janha bhavo kee prablta sspast tour par dikhe vanha cheera fadee see lagtee hai sameeksha .hr vykti hindi sahity ka pandit nahee .mujhe to lagta hai jo dil se likha jae aur seedhe dil tak sarlta se pahuche aisee rachanae sir aankho par .
जवाब देंहटाएंSalil chaitny se mai pooree tour par sahmat hoo.
AADARNEEY manoj jee aap vishvas hai anytha nahee lenge.
शुक्रवार --चर्चा मंच :
जवाब देंहटाएंचर्चा में खर्चा नहीं, घूमो चर्चा - मंच ||
रचना प्यारी आपकी, परखें प्यारे पञ्च ||
अरुण जी की कवितायें हमेशा ही प्रभावित करती हैं ... यथार्थवादी और हद दर्जे की संवेदनशीलता लिए उनकी कवितायें गहरे प्रहार करती हैं ...
जवाब देंहटाएं११ सालों का मेह्दिवाला भी पूरी तरह चरितार्थ करती है उनके संवेदनशीलता को ...
अरुण जी की कविताएं जमीन से जुड़ी हक़ीक़त बहां करती हैं जहां प्रकट विचार हमें मथते हैं।
जवाब देंहटाएंआपके समीक्षा किसी साहित्यिक कृति से कम नहीं हैं जो ब्लॉगजगत में हो रही समीक्षाओं के लिए एक स्तरीय चुनौती प्रस्तुत करती है।
kavita aaj padhi bahut sunder bhavpurn kavita hai us pr aap ki samiksha ne kavita ke anchhuye pahluon pr bhi prakash dala hai .aapne uttam samiksha ki hai
जवाब देंहटाएंkavita bhi sunder hai
rachana
कवि प्रकट नहीं अभी तक, कृपया ध्यान दें.
जवाब देंहटाएंबढ़िया समीक्षा है।
जवाब देंहटाएंहरीश प्रकाश जी को शुभकामनाएँ।
अरुण जी तो बस अरुण जी ही हैं.
जवाब देंहटाएंमुझे बहुत अच्छा लगता है उन्हें
पढकर.दिल को छू लेतीं हैं उनकी
हृदय से लिखी रचनाएं.
अरुण जी की कविताएँ हमेशा ही यथार्थपरक होती हैं....जमीनी सच्चाई को उजागर करती हुई ...समाज के अनछुए पहलुओं पर नज़र डालती हुई...
जवाब देंहटाएंबहुत ही संतुलित समीक्षा
सपाटबयानी ही इस कविता की सबसे बड़ी विशिष्टता है। बिना समीक्षक के जो कविता सीधे मूलार्थ तक ले जाए,वही आम आदमी की कविता है।
जवाब देंहटाएंश्रेष्ठ रचनाओं में से एक ||
जवाब देंहटाएंबधाई ||
sameeksha achci lagi janchega ke e jagah jachenge kar dene se ho jayega.
जवाब देंहटाएं11 sal ka mehendiwala wahee to hai is kawita ka kendr.