मंगलवार, 30 अगस्त 2011

भारत और सहिष्णुता-अंक-17

भारत और सहिष्णुता-अंक-17

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जितेन्द्र त्रिवेदी

अध्‍याय – 8

इस अध्‍याय में मैं भारत में हुए बाहरी हमलों का लेखा-जोखा लेने का प्रयास करूँगा क्‍योंकि इन बाहरी हमलों ने भी भारत के निर्माण में उल्‍लेखनीय भूमिका निभाई है। इन हमलों की वजह से की कई जातियाँ भारत में आ गईं और आज तक साथ-साथ रह रही हैं जो कि भारत की अपनी अनूठी विरासत है।

पिछले अध्‍याय में जहाँ बाहरी आक्रमणों और पुष्‍यमित्रशुंग द्वारा प्रजा की रक्षा हेतु किये गये प्रयासों के माध्‍यम से यह दिखाने का प्रयत्‍न किया गया है कि भारतीयों की सहिष्‍णुता को दब्‍बूपन या कायरता नहीं समझा जाना चाहिये और न ही तख्‍ता पलट को षडयंत्र कहकर उसके महत्‍व को घटाना चाहिए। भारतीयों में यह विलक्षणता शुरू से ही रही है कि उन्होंने अति सर्वत्र वर्जयेत्’ के सूत्र वाक्‍य को जीया है और जब भी कोई सोच अतिवादी होने लगी तो इस धरती ने कभी बुद्ध के रूप में मध्‍यमार्गी पैदा कर वैदिक हिंसा और प्रवृत्तिमार्गी सोच के बीच का रास्‍ता दिखाया। एक ओर जब मौर्य साम्राज्‍य के वंशजों द्वारा अहिंसा और सहिष्‍णुता के अतिवादी छोर को पकड़ने की कोशिश की गयी तो वहीं दूसरी ओर पुष्‍यमित्रशुंग जैसे व्‍यावहारिक और प्रजा की नब्‍ज टटोलने वाले व्‍यक्तियों का भी यहाँ उदय हुआ, जिन्‍होंने अपने कार्यों से यह दिखा दिया कि शासन के अंतर्गत व्‍यक्ति की निष्‍ठा वंश के प्रति न होकर प्रजा और देश के प्रति होनी चाहिये। इस प्रकार महात्‍मा बुद्ध और सेनापति पुष्‍यमित्रशुंग दोनों ने अरस्‍तू के ई.पू. 350 में प्रस्‍तुत किये गये अध्‍ययन ‘यूडीमियन एथिक्‍स (किसी भी व्‍यक्ति के सुख-चैन की आदर्श स्थिति) का जाने-अनजाने में पालन किया था। यहगँ अरस्‍तू के उस अध्‍ययन की थोड़ी सी चर्चा करना प्रसंग से भटकना नहीं कहा जाये तो मैं यह स्‍वतंत्रता लेता हूँ। इस अध्‍ययन में अरस्‍तू ने मानवीय व्‍यवहार के ऐसे कुछ भावों की व्‍याख्‍या करके यह बताने का प्रयास किया कि यदि मानव अपने क्रिया-कलापों का विश्‍लेषण करना छोड़ देता है तो उसके व्‍यक्तित्‍व और कार्यों में अधूरापन रह जायेगा किन्‍तु यदि वह थोड़ा सा इस तरफ ध्‍यान दे ले तो उसका व्‍यक्तिव और कर्म दोनों पूर्णता की तरफ जा सकते हैं। इसे ही अरस्‍तू ने मानव के लिये ‘सुखचैन की आदर्श स्थिति कहा है जिसमें बीच की स्थिति में रहने से व्‍यक्ति आत्‍मप्रसादी’ का अनुभव कर सकता है, किन्‍तु थोड़ी भी कमो-बेशी उसके चरित्र और व्‍यवहार में क्‍या बदलाव ला सकते हैं। इसे नीचे दिये गये चार्ट से समझा जा सकता है:-

कम होने पर (–)

आदर्श स्थिति/बीच की स्थित

अधिक होने पर (+)

कायरता (Cowardice)

मक्‍खीचूस (Stinginess)

लुल्‍ल (Spinelessness)

भोंदू (Boorishness)

खूसट (Surliness)

निखट्टू (Lethargy)

साहस (Courage)

उदारता (Liberality)

सौम्‍यता (Gentleness)

हाजिर-जबाबी (Wittiness)

मैत्रीपूर्ण (Friendliness)

महत्‍वाकांक्षी (Ambitious)

हड़बडि़यापन (Rashness)

फिजूलखर्ची (Profligacy)

झक्‍की (Rage)

मुँहलगापन (Buffoonery)

चमचागीरी (Obsequiousness)

उन्‍मादी (Hysterical)

पिछले अध्‍याय के अंतर्गत मैंने अध्‍याय दो में उठाये उन सवालों के भी जबाब देने की कोशिश की है कि सहिष्‍णुता भारतीयों में कायरता और सब कुछ सहते जाने की प्रवृत्ति को जन्‍म देने का कारक है या नहीं है। किसी भी निष्‍कर्ष तक पहुँचने का हक इसके अभिज्ञ पाठकों के ही अधिकार क्षेत्र में है, अत: मैं इसे उन्‍हीं के विवेक पर छोड़कर इस अध्‍याय को प्रारम्भ करता हूँ।

भारत पर हुये बाहरी हमलों का लेखा-जोखा करते समय हम यह देखेंगे कि उन सब हमलावरों को भारत की मिट्टी ने कैसे अपने में मिला कर अपने सदृश बना लिया और आज वे तत्‍व किसी भी दृष्टिकोण से विजातीय नहीं कहे जाएगें, अपितु, यदि भारत-निर्माण की प्रक्रिया में से उन्‍हें निकाल दिया जाये तो भारत का वह स्‍वरूप ही नहीं दिखेगा जो आज दिखाई देता है। विभिन्‍न संस्‍कृतियों के आगमन से यहॉं जो विविधता पैदा हुई है, उसी ने दुनियां में हमें ‘विलक्षण बना दिया है। इन बाहरी हमलों से उस समय तो जनता में काफ़ी हरारत हुई होगी और परस्‍पर मार-काट ने जन-जीवन को अस्‍त-व्‍यस्‍त कर दिया होगा किन्‍तु अपने जातीय स्‍वभाव के वशीभूत होकर हमने उसे भी सहन करने की अद्भुत क्षमता दिखाई है।

यूँ तो भारत में बाहरी हमले आर्यों के आगमन से ही शुरू हो गये थे जिसका जिक्र पहले ही किया जा चुका है। इस प्रकार इस क्षेत्र में आर्यों के सहयोग से सभ्‍यता, संस्‍कृति और शहरों के उदय ने समकालीन ईरानियों का ध्‍यान इस भू-भाग की ओर खींचा। उस समय ईरान के इखमनी शासक अपने राज्‍य विस्‍तार की लिप्‍सा से भारत की ओर बढ़ने लगे। ईरानी शासक देरियस 516 ई.पू. में पश्चिमोत्‍तर भारत में घुस गया और उसने पंजाब, सिंधु नदी के पश्चिम के इलाके और सिंध को जीत कर अपने साम्राज्‍य में मिला लिया। इस तरह भारत का यह भू-भाग ईरान (तब का फारस) का बीसवाँ क्षत्रपी (प्रांत) बन गया। भारत का यह हिस्‍सा सबसे अधिक आबादी वाला और उपजाऊ था। भारतीय प्रजा ईरानी साम्राज्‍य का अंग बन गयी और भारतीय युवक इरानी फौज में भरती होने लगे। तभी से पंजाब के आस-पास के इस भू-भाग में फौज में भरती होने की तीब्र उत्‍कंठा विद्यमान है जो आज भी देखी जा सकती है। भारत और ईरान का यह सम्‍पर्क करीब 20 वर्षो तक रहा जिससे इस भू-भाग को फायदा हुआ। इससे भारत और ईरान के बीच व्‍यापार को बढ़ावा मिला। इस सम्‍पर्क के सांस्‍कृतिक परिणाम और भी महत्‍वपूर्ण हुए। ईरानी लिपिकार, जिन्‍हें ‘कातिब कहा जाता था, भारत में लेखन का एक खास रूप ले आये जो ‘खरोष्‍ठी लिपि के नाम से मशहूर हुई। यह लिपि अरबी की तरह दाईं से बाईं ओर लिखी जाती है। अशोक के कई अभिलेख इसी लिपि में पाये गये हैं जो यह बताते हैं कि कितनी तेजी से इस क्षेत्र के बाशिन्‍दों ने बाह्य चीजों को अपनाने में कितनी फुर्ती दिखाई साथ ही साम्राज्‍य को प्रांतों मे बाँटने के तत्‍व का ज्ञान भी हमें ईरानियों से ही हुआ।

लेकिन ईरानियों के संपर्क में आने के कारण इस भू-भाग की जानकारी यूनानियों को भी हो गईं और ईरानियों के जरिये ही उन्‍हें भारत की अपार सम्‍पत्ति का पता चल गया था। जिससे उसके लिये उनमें लालच बढ़ा आर अंततोगत्‍वा सिकंदर ने भी भारत पर आक्रमण कर दिया। लूट-मार, खून-खराबे और आगजनी की इतनी बीभत्‍स घटना इस क्षेत्र में पहली बार हुई और मजे की बात यह थी कि ये संघर्ष पहले-पहल भारत की धरती पर भारतीयों में नहीं, अपितु दो बाहरी जातियों - ईरानियों और यूनानियों के बीच हुये और आखिरकार मकदूनियावासी यूनानियों ने भारत से ईरानी साम्राज्‍य का नामो-निशान मिटा दिया, किन्‍तु ईरानी यहाँ फलते-फूलते रहे और हजारो कोस दूर स्थित ईरान की कई चीजें यहाँ बदस्‍तूर जारी रहीं। ईरानियों पर विजय पा लेने के बाद सिकंदर ने भारतीय राजाओं को अपना निशाना बनाया जहाँ उसे सबसे कड़ी टक्‍कर झेलम नदी के किनारे पोरस ने दी और उसके सम्‍पूर्ण भारत जीतने के मंसूबे को कमजोर कर दिया। यद्यपि पोरस परास्‍त हुआ किन्‍तु सिकंदर का मनोबल भी उसी के साथ परास्त होने लग गया था। सिकंदर के हवाले से जो वर्णन मिलते हैं वे उसकी तबकी मनोदशा को दर्शाते हैं:- "मैं दिलों मे उत्‍साह भरना चाहता हूँ, जो निष्‍ठाहीन और कार्यरतापूर्ण डर से दबे हुये हैं।" इस प्रकार वह राजा जो अपने शत्रुओं से कभी नहीं हारा, अपने लोगों के मनोबल टूटने से वापस लौटने को तैयार हो गया। सिकंदर भारत में लगभग 19 महीने (ई.पू. 326 से 325 तक) रहा और उसने अपने भू-भाग को तीन हिस्‍सों में बाँटकर उसे तीन यूनानी गवर्नरों के हाथों में सौप दिया। सिकंदर के भारत आगमन का सबसे महत्‍वपूर्ण परिणाम था, भारत और यूरोप के बीच पहला सम्‍पर्क अथवा पूर्व और पश्चिम का परिचय। शुरुआत में कुछ यहूदियों के भारत में घुस आने के और यहीं बस जाने के उल्‍लेख प्राप्‍त होते है परंतु उल्‍लेखनीय तत्‍व तब भारत आये जब ईसा की मृत्‍यु के बाद कई दल यहाँ आये। रोमिला थापर ने अपनी पुस्‍तक ‘भारत का इतिहास’ में उल्‍लेख किया है कि ईसा की पहली शताब्‍दी में पश्चिम से व्‍यापारिक जहाजों के साथ भारत में ईसाई मत का प्रवेश हुआ। ईसाई मत के भारत आगमन का सम्‍बन्‍ध सन्‍त पाल के आगमन से जोड़ा जाता है जो एडेसा के कैथोलिक चर्च के अनुसार ईसाई धर्म के प्रचार के लिये दो बार भारत आये थे। संत थामस लगभग ईसा की आधी सदी में मालाबार पहुंचे थे और वहाँ कई गिरजाघरों की स्‍थापना करने के बाद मद्रास के निकट उपदेश देने लग गये और वहीं मैलापुर में उनकी हत्‍या कर दी गई। मालाबार क्षेत्र में सीरिया से आये उस समय के ईसाई मतानुयायी आज भी शक्तिशाली रूप में पाये जाते हैं। इस तरह भारत ने ईसा की पहली सदी से ही ईसाई धर्म के उन अवशेषों को अपने वक्ष में स्‍थान दिया है जिन्‍हें उन्‍हीं के देश में उन्‍हीं के बन्‍धुओं ने सलीब पर चढ़ा दिया था।

3 टिप्‍पणियां:

  1. badiya
    aabhar.
    Manojjee ise link ko dekhiye aur circulate keejiye
    dhanyvaad .

    http://www.youtube.com/watch?v=0vJD6TzsmA0&feature=related
    Annajee ke ise bhashan ka jikr maine blog par bhee kiya hai.

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  2. मनोज भाई आप विविध कोणों को मिलाते हुए अति महत्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं

    टेबल जबर्दस्त लगी

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  3. जानकारी से भरी पोस्ट !
    ईद मुबारक और गणेश चतुर्थी की हार्दिक शुभकामनाएँ !

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