भारतीय काव्यशास्त्र – 81
- आचार्य परशुराम राय
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पिछले कुछ अंकों से गुणीभूतव्यंग्य पर चर्चा की जा रही है। अबतक गुणीभूतव्यंग्य के आठ भेदों पर चर्चा की जा चुकी है। इनके अतिरिक्त गुणीभूतव्यंग्य के बयालीस और भेद बताए गए हैं। उनपर चर्चा करने के पहले पुनः एक बार गुणीभूतव्यंग्य की परिभाषा का उल्लेख करना आवश्यक है- जब व्यंग्य गुणीभूत हो जाय अर्थात् अप्रधान हो जाय (अर्थात् वाच्यार्थ व्यंग्यार्थ से अधिक चमत्कारपूर्ण हो) तो वहाँ गुणीभूतव्यंग्य होता है। अतएव व्यंग्य (ध्वनि काव्य) के मुख्य 51 भेद, जिनकी चर्चा ध्वनि काव्य के अन्तर्गत की गयी है, यदि गुणीभूत हो जाएँ, तो वे भी गुणीभूतव्यंग्य होंगे। लेकिन ध्वनि सम्प्रदाय के प्रवर्तक आचार्य आनन्दवर्धन के अनुसार वस्तु से अलंकार व्यंग्य सदा व्यंग्य ही होता है। इसलिए ध्वनि के इन भेदों को छोड़ दिया जाय तो गुणीभूतव्यंग्य के कुल 48 भेद होंगे। इसके लिए फिर से एक बार ध्वनि के उन भेदों की यहाँ पुनरावृत्ति आवश्यक है। इन्हें नीचे दिया जा रहा है-
ध्वनि के दो भेद- 1. लक्षणामूलध्वनि और 2. अभिधामूलध्वनि
लक्षणामूलध्वनि के दो भेद – 1. अर्थान्तरसंक्रमितवाच्य और 2. अत्यंततिरस्कृतवाच्य
अभिधामूलध्वनि के दो भेद- 1. असंलक्ष्यक्रम (रसादिध्वनि) और 2. संलक्ष्यक्रम
संलक्ष्यक्रम ध्वनि के तीन भेद-
1. शब्दशक्त्युत्थ, 2. अर्थशक्त्युत्थ और 3. उभयशक्त्युत्थ
शब्दशक्त्युत्थ ध्वनि के दो भेद – 1. वस्तुध्वनि और 2. अलंकारध्वनि
अर्थशक्त्युत्थ ध्वनि के तीन भेद-
1. स्वतःसम्भवी, 2. कविप्रौढोक्तिसिद्ध और 3. कविनिबद्धवक्तृप्रौढोक्तिसिद्ध
इन तीनों के चार-चार भेद होते हैं-
1.वस्तु से वस्तु, 2. वस्तु से अलंकार, 3. अलंकार से वस्तु और 4. अलंकार से अलंकार
इस प्रकार अर्थशक्त्युत्थ ध्वनि के कुल 12 भेद होते हैं। इनमें से अर्थशक्त्युत्थ ध्वनि के तीनों भेदों के वस्तु से अलंकार ध्वनि के गुणीभूतव्यंग्य रूप नहीं पाए जाते हैं। इसके सम्बन्ध में आचार्य आनन्दवर्धन ने अपने ग्रंथ ध्वन्यालोक में कहते हैं-
व्यज्यन्ते वस्तुमात्रेण यदाSलङ्कृतयस्तदा।
ध्रुवं ध्वन्यङ्गता तासां काव्यवृत्तेस्तदाश्रयात्।।
अर्थात् वस्तु से अलंकारों की व्यंजना की ध्वन्यंगता निश्चित है, क्योंकि काव्य की प्रवृत्ति उसी पर आश्रित होती है।
अतएव जो 51 प्रकार के ध्वनिकाव्य माने गए हैं, उनमें से स्वतःसम्भवी, कविप्रौढोक्तिसिद्ध और कविनिबद्धवक्तृप्रौढोक्तिसिद्ध के अन्तर्गत वस्तु से अलंकार ध्वनि के तीन भेदों के पदगत, वाक्यगत और प्रबंधगत भेद करने से इनकी संख्या 3X3=9 हो जाती है। अब 51 में से 9 निकाल देने पर 42 प्रकार के जो ध्वनिकाव्य हैं, उनमें ही गुणीभूतव्यंग्य की स्थिति बनती है। वैसे तो आचार्यों ने गुणीभूतव्यंग्य की संख्या 122248240 बतायी है। लेकिन यह विस्तार काफी लम्बा और श्रमसाध्य है। साथ ही यह बहुत उपयोगी भी नहीं है।
अतएव इस विषय अर्थात् गुणीभूतव्यंग्य को यहीं समाप्त किया जाता है और अगले अंक से काव्यदोषों पर चर्चा की जाएगी।
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बहुत ही ज्ञानवर्धक आलेख , कृतज्ञ हैं ,आचार्य का ,आपका ,जो किसी भी विधा के लिए सन्मार्ग को आलोकित करता है ,बिना अनुशासन ,सफलता व समग्रता नहीं ....../ आभार जी अनुपम पोस्ट के लिए .../
जवाब देंहटाएंइतने सारे भेद, याद करने की बजाय सहेज कर रखना ही ज्यादा उपयोगी लग रहा है
जवाब देंहटाएंaacha
जवाब देंहटाएंबहुत ही ज्ञानवर्धक और सार्थक आलेख ,...
जवाब देंहटाएंबहुत ही ज्ञानवर्धक...सहेजने लायक पोस्ट।
जवाब देंहटाएंविस्तृत जानकारी मिल रही है।
जवाब देंहटाएंज्ञानवर्धक पोस्ट ....
जवाब देंहटाएंसुन्दर रचना .
जवाब देंहटाएंसोमवती अमावस्या एवं पोला पर्व की हार्दिक बधाई व शुभकामनाएं .