बुधवार, 24 अगस्त 2011

देसिल बयना – 95 : करमहीन खेती करे....

देसिल बयना – 95

vcm_s_kf_m160_160x120करमहीन खेती करे....

करण समस्तीपुरी

मो. 9740011464

नेपाल के दच्छिन, बंगाल के पच्छिम और बिहार के पूरब में बहती है कोसी की निरंकुश धारा। कोसी मैय्या हाथ-पैर बांधी रही तो आय-हाय... नहीं तो हाय-हाय। वही कोसी के प्रसस्त अंचल में एक जुड़ुवाँ गाँव है, राधापुर बनवारी। एक जैसे लोग, घुटने तक धोती सिर पर एक गमछी... एक जैसा पहना-ओढावा। एक जैसे कच्चे-पक्के रास्ते, कच्चे-पक्के मकान। ज्यादा फ़ुसही और बीच-बीच में एकाध पक्की इमारत। एक जैसे खेत-खलिहान। एक से पर्व-त्योहार। सिर्फ़ एक रेलवे लाइन ही थी जो दोनों गाँवों की छाती को चीर कर गुजरती थी। दोनों गाँव दो हो जाते थे। गाँव वाले पाहुने-मेहमानों को बताते थे, ई पार राधापुर है आ उ पार बनवारी। गोया दोनों की संस्कॄति की तरह रेलवे स्टेशन भी साझा ही था – राधापुर बनवारी।

बड़की दीदीया का ब्याह हुआ था राधापुर गाँव में, वर्षों पहले। संपन्न किसान थे उ लोग। राधापुर के अलावे बनवारी गाँव में भी जमींदारी थी। बनवारी गाँव भी थोड़ा भीठ (ऊंचा) पर था। बाबूजी कह रहे थे कि सावन-भादों में दीदीया के परिवार के साथ-साथ रैय्यत-बेगार भी राधापुर से बनवारी ही आ जाते थे। दीदीया का तो अपना बंगली (बंगलो का छोटा रूप) था। और लोग तिरपाल गिराकर कोसी मैय्या के वापसी का रस्ता देखते थे। साल के चार महीना तक दीदीया के परिवार ही सबके अन्नदाता होते थे। कभी-कभी ऊँट के मुँह में जीरा भी गिरता था, सरकारी पाँवरोटी। लोग पाँवरोटी से जादे हेलीकोप्टर देखने के लिये मार करते थे।

सब दिन होत न एक समान। इधर परिवार बढ़ता गया और उधर सरकारी लाठी ऐसी लगी कि जमींदारी गयी जनदाहा बूँट लादने। बचे-खुचे जमीन के हुए टुकड़े हजार उपर से कोसी मैय्या के हाहाकार...! दीदीया तो चल बसी थी बांकी परिजन अब रेवाखंड ही आते थे चौमास में। किसानी तबाह हुआ तो लोग इस्कुल-कौलेज पकड़े। नौकरी-चाकरी, इजनेस-बिजनेस में लग गये। उ जमाना में पढ़ा-लिखा लोग का कमी था। दीदीया के दो बेटे से आठ पोते। सात-के-सात लाट-मजिस्टर। एक बचे घपोचनलाल। लड़िकपने में विद्पतिया के नाच का ऐसन आदत पकड़ा कि हर-हर महादेव। न पढ़े-लिखे न ग्यान सीखे, न मेहनत करे का आदत।

घपोचनलाल का वयस तीसन बरिस हो गया था मगर घर बसे का कौनो गुंजाइश नहीं। सगरे परिवार वही को लेकर परेशान रहते थे। बमपाठ झा पंडीजी फ़ंसौआ ब्याह में इलाका-चैम्पियन हैं। घपोचनलाल न बेकार है, बांकी खानदान तो ओहदेदार। इशारा मिलते ही घपोचनलाल को लेकर गये मुलुक बंगाल। हफ़्ते भर में लौटे जोड़ा लगाकर। लुगाई का रूप-रंग जो भी हो मगर केश था घुटना तक। चोटी खोले तो ऐसे लगे जैसे झरे धान का बोझा। अकिलगर भी थी।

पछिले साल से घपोचनलाल के गिरिह-व्यवस्था की नीव पड़ गयी थी। बनवारी गाँव वाला बंगली गिरहस्थी और रेलवी के उ पार राधापुर में खेती। बड़का भैया जोड़ा बैल भी खरीद दिये थे। पुरनका हल-चौपाल पर से झोल-मकरा भी झारा जा चुका था। नयी-नयी लुगाई के ललकार से अकर्मण्य घपोचनलाल की हिम्मत भी दोबर हो गयी। धोती बांधकर पिल गया पहलवान।

सरकार ने कोसी मैय्या का हाथ-पैर बांध दिया था। उपर से इंदर महराज भी बिहंस-बिहंसकर पौ खोले थे। राधापुर में धनरोपनी शुरु हो गयी। घपोचनलाल भी दिन-दोपहर हल-बैल पेले रहता था खेत में। बंगाल वाली खेत पर कलेउ लेके आती थी तो घपोचन लाल की बांछे खिल जाती थी। एक-एक कौर पर लुगाई की तारीफ़ करे। फिर बंगालिन बरतन-बासन समेटती थी और घपोचनलाल तंबाकू मसलता था। जान बूझकर तंबाकू का नोस उड़ा देता था लुगाई के नाक पर। फिर उ अछी...अछी करते हुए लेती थी गाँव का रस्ता और घपोचनलाल उसे निहारते हुए होंठ में तंबाकू दबाए और फिर आ ठाम पे।

एक चौथाई रोपनी कंपलीट हो गया था। मगर चारा-पानी का सही प्रबंध नहीं होने से एकदिन चितकबरा बैल बीचे खेत में टें बोल गया। दूसरा सिंघा भी एतना कमजोर कि कौनो किसान के बैल के साथ नहीं जमता था। हार कर औने पौने दाम में पतैली पेठिया चढ़ाकर बेच लिया।

फ़ागुन आते-आते घर में दाना हर-हर महादेव। उ तो भैय्या लोग आये तो बांकी बचा खर्चा पानी मिला। बैल की कहानी सुनकर बड़का भैया को रोष भी आया था मगर झुरुखन भाई समझा लिये, “जीव का कौन ठिकाना... कौन घड़ी चोला बदल जाए... जीवन-मरन घपोचना के हाथ में थोड़े है... उ तो विध का विधान है।”

मझिला भैय्या बैंक में मनेजर थे। सोच-समझ कर टरेक्टर सैंसन करा दिये थे। घपोचनलाल भी खूब खुश हुआ। “ससुर बरदा पछारी साल धोखा दे दिया... टरेक्टर तो मरने वाला नहीं है। राधापुर में पहिला टरेट्टर... ! सब खेत को रीद्दी-रीद्दी उड़ा देंगे...! राधापुर-बनवारी में धान का सबसे बड़ा मचान लगेगा अपने दुअरा पर!” बेचारा लुगाई को समझा रहा था। बंगालिन का चेहरा भी भविष्यत संपन्नता के आश से भुरुकवा तारा जैसा चमकने लगा था।

रवी की कटाई हुई और घपोचनलाल राधापुर से बनवारी तक टरेक्टर हरहराकर गाँव वालों को अपनी संपन्नता का संदेश देने लगा था। घपोचनलाल को टरेक्टर पर चढ़े देख रौदी की आहट से परेशान किसानों के कलेजे पर सांप लोट जाते थे। वैसाख गया, आर्द्रा गया... सेवतिया बीता... एक पक्ख अषाढ भी गया... कनहा धमक आया था पर इंदर महराज तो जैसे कनटोप पहिन कर सो गये थे। पूरे परान्त में भयंकर सूखा।

मनसुख चौधरी के टैनचिस्टर पर अकसबानी से समाचार आ रहा था, “सरकार ने सूबे को सूखागिरहस्थ (सूखाग्रस्त) क्षेत्र घोषित कर दिया है। अब अगर हथिया बरसेगा भी तो “का बरखा जब कृषि सुखाने....”। किसनमा भैय्या सत्तु बांध के परदेस का रस्ता नापने लगे। घपोचनलाल उम्मीद में थे। एक्कहु नच्छत्तर बरस गया तो टरेट्टर अपना है... एक्कहि दिन सारा चौरी तोड़ देंगे। महर हथिया का सूँड़ भी सूखे रह गया।

घर में मकई भी नहीं बची थी जो लावा भुज के भी दिन काटें। हार-पछताकर घपोचन लाल भी गये पुरैनिया। तीन भाई तो वहीं रहते हैं। मगर एक कमौआ दस खबैय्या उपर से हरजाई महंगाई.... भाइयों ने भी हाथ खड़े कर दिये। घपोचनलाल सांझे पुरैनिया कोट से पच्छिमवरिया टरेन पकड़ लिये थे।

कोठीवाला दुआरी पर बाबूजी से वार्तालाप चल रहा था। खटिया पर बैठे घपोचनलाल दोनो हाथों से माथा पकड़े थे। छोटका कक्का चाह सुरकते हुए पूछे थे, “अब का हुआ....?” घपोचन लाल एक नजर घुमाकर देखे थे फिर माथा से गमछी खोलकर चेहरे पर चुहचुहा आया पसीना पोछकर जमीन निहारने लगे। बाबूजी जम्हाई लेकर बोले थे, “होगा क्या... ’करमहीन खेती करे... बैल मरे या सूखा पड़े।’ बेटा पछिला साल बैल लिया... इंदर महराज जमके बरसे, रात-दिन इतना खटाया कि एक्के चौथाई में बरदा टी-री-री-री-फ़ट बोल गया। उ से सीख लेके ई साल टरेट्टर खरीदा तो रौदी मार गयी... मतलब एहि बूझ लो कि करम माने कि किस्मत के हीन हो तो सब जगह घाटे लगता है। सब जतन निरर्थक।

बाबूजी के कथन और घपोचनलाल की मुखमुद्रा में एक जैसी पीड़ा थी।

9 टिप्‍पणियां:

  1. करण भाई ,आप त गांव का आईसन चित्रण करते हैं कि लगता है - हम गांव पर ही डेरा जमाए बैठें हैं । परदेस में रह कर गांव की याद किसको नही आती है ! आखिर हम सभी तो मूलत; अपने गांव की माटी से ही जुड़े है । इसे हम अपने जीवन से किसी भी कीमत पर अलग तो नही कर सकते । यह गांव का प्रेम या जुड़ाव ही है जिसके वशीभूत होकर मारीशस में बसे शिव सागर राम गुलाम राय एवं अनुरूद्ध जगन्नाथ भारत में आकर अपने गांव को देखा तथा इसकी माटी को अपने साथ ले गए ताकि उनके बच्चे इसे अपने जीवन में अपने विरासत में मिले भारतीय संस्कारों के बीज अहर्निश बोते रहें । कहा भी जाता रहा है कि जो व्यक्ति अपने गांल की माटी से नही जुड़ता है, वह अपनी जिंदगी में किसी से नही जुड़ता । गांव के अप्रतीम परिप्रेक्ष्य को संपूर्ण समग्रता में ' देशिल बयना ' के माध्यम से इसे प्रस्तुत करने की भाषा-शैली एवं अदाज की जितनी भी प्रशंसा की जाए बहुत ही कम प्रतीत होगी ।

    धन्यवाद।

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  2. करण जी कर्म और किस्मत के बीच झूझते किसानो को पात्र बना कर लोक जीवन का सुन्दर चित्रण किया है आपने... बहुत सुन्दर...

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  3. बहुत सुन्दर चित्रण किया है ... बहुत सुन्दर...

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  4. ससुर बरदा पछारी साल धोखा दे दिया... टरेक्टर तो मरने वाला नहीं है। - एक साथ कितनी संवेदना बटोरती हुई आपकी लेखनी सहजस्‍फूर्त प्रवाह में आगे बढ़ती है.. मन गदगद हो जाता है। मां सरस्‍वती की असीम कृपा आप पर है.. बधाई स्‍वीकारें।

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  5. भाषा और शिल्प का अदभुत संयोजन !
    कहावत के साथ साथ गावं के बेबस किसानो की दुर्दशा का चित्र भी सजीव हो उठा !
    आभार, करन जी !

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  6. राहुल सिंह जी ने आपका उल्लेख किया था,हमने मिलकर आपके ब्लाग पढे भी..बहुत मजा आया..

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  7. हमारे अगल-बगल ट्रैक्‍टर के लोन ने न जाने कितने रिश्‍ते बिगाड़े होंगे, कितने मुहावरों को चरितार्थ किया होगा.

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