मंगलवार, 16 अगस्त 2011

भारत और सहिष्णुता अंक - 15



भारत और सहिष्णुता अंक - 15

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जितेन्द्र त्रिवेदी

अध्‍याय 7
      जितेन्द्र इस अध्‍याय में मुख्‍य रूप से मैं दो तथ्‍यों को आधार बना कर वर्तमान में सत्‍ता और जनता के बीच के सूत्र को समझने की कोशिश करूँगा कि जिन स्थितियों से आज का समाज जूझ रहा है और अपने-आपको असमंजस की स्थिति में खड़ा हुआ देखते जाने में ही अपनी नियति समझ बैठा है, वास्‍तव में क्‍या वही ठीक है और क्‍या इस यथास्थितिवाद से ही भारत का भला हो जायेगा? अथवा क्‍या सत्‍ता पर काबिज सर्वोच्‍च पदाधिकारी को ऐसे समय में देश को उबारने की जिम्‍मेदारी नहीं लेनी चाहिये? पहले भाग में तथ्‍य के रूप में, मैं सम्राट अशोक के काल का सहारा लूँगा और दूसरे भाग में तथ्‍य के रूप में मौर्य साम्राज्‍य के भंजक-पुष्यमित्र शुंग का।

भाग - एक
      अशोक ने जब मौर्य साम्राज्‍य की सत्‍ता हस्‍तगत की तब साम्राज्‍य व्‍यवस्‍था जटिल स्‍वरूप ले चुकी थी और कौटिल्‍यीय अर्थशास्‍त्र ने उसे और भी जटिल करने का काम कर दिया था। ज्ञात हो कि चंद्रगुप्‍त मौर्य का संपूर्ण शासन कौटिल्‍य (चाणक्‍य) द्वारा रचित अर्थशास्‍त्र के अनुसार संचालित होता था। नौकरशाही और सत्‍ता के कई सोपानों ने शासक और जनता के बीच की दूरी बढ़ा दी थी। साम्राज्यिक व्‍यवस्‍था अपने में विभिन्‍न संस्‍कृतियों, विश्‍वासों और सामाजिक व राजनीतिक व्‍यवस्‍थाओं के गहरे आवरण में डूब चुकी थी।  अशोक के समक्ष दो ही विकल्‍प थे। एक ओर वह ढ़ाँचे को बलप्रयोग द्वारा स्थिर रख सकता था, जिसके लिये अत्‍यधिक व्‍यय की आवश्‍यकता थी अथवा दूसरी ओर वह ऐसे नैतिक मूल्‍य प्रस्‍तुत करे जो कि सभी को स्‍वीकार्य हों तथा जो सभी सामाजिक वर्गों एवं धार्मिक विश्‍वासों के बीच अपना स्‍थान बना लें। अशोक ने यह विकल्‍प धम्‍म नीति में ढूँढा और यही मैं बताना चाहता हूँ कि सत्‍ता का प्रयोग जनता को समरस करने में किस तरह किया जाता है जो अशोक ने दुनियाँ के इतिहास में बखूबी करके दिखा दिया।
      धम्‍म नीति उन समस्‍याओं के समाधान का एक महत्‍वपूर्ण प्रयास था जिनसे उस युग का जटिल समाज जूझ रहा था। यहाँ मैं जानबूझकर उस युग के समाज का विवरण देकर अनावश्‍यक विस्‍तार एवं इतिहास में और अधिक गहरे में घुसने की कवायद से बचते हुये अपनी बात को कहना प्रधान उद्देश्‍य मान रहा हूँ। अशोक के काल के अभिलेखों के सूक्ष्‍म अध्‍ययन से पता चलता है कि एक ओर जहाँ अशोक बौद्ध मत में अपनी पूरी आस्‍था रखता था वहीं दूसरी ओर वह धम्‍म नीति के द्वारा सामाजिक उत्‍तरदायित्‍व तथा सहिष्‍णुता के महत्‍व का संदेश भी दे रहा था। यह नीति अशोक के दिमाग की उपज थी तथा समाज के अंतर्गत व्‍याप्‍त सामाजिक तनावों के समाधान के प्रति सत्‍ताधीश का व्‍यक्तिगत प्रयास था जिसे वर्तमान परिप्रेक्ष्‍य में पुन: परिभाषित करने की आवश्‍यकता है। यदि अशोक शताब्दियों पहले सत्‍ता के माध्‍यम से ऐसे प्रयास करने का साहस दिखा सका था तो क्‍या आज देश का सर्वोच्‍च सत्‍ताधीश ऐसे प्रयास करने का साहस नहीं दिखा सकता? अशोक के निजी विश्‍वास तथा साम्राज्‍य के समक्ष खड़ी समस्‍याओं के समाधान के विषय में उसकी चिंता धम्‍म नीति के प्रतिपादन का कारण बनें। अशोक की धम्‍म नीति जिसमें सामाजिक उत्‍तरदायित्‍व की बात कही गई है तथा अशोक की बौद्ध धर्म में व्‍यक्तिगत आस्‍था के बीच हमें अंतर करना होगा क्‍योंकि अधिकांशत: अशोक की धम्‍म नीति तथा बौद्ध मत अनुयायी के रूप में अशोक को अलग-अलग समझे बिना और बिना अंतर किये एक ही संदर्भ में रखकर अध्‍ययन करने की प्रवृत्ति चली आ रही है। अत: आवश्‍यक है कि हम उस सामाजिक माहौल को समझें जिसके अंतर्गत अशोक पला, बढ़ा तथा जिसका प्रभाव उसके जीवन के बाद के वर्षों पर दिखाई देता है। मौर्य राजा उदारवादी दृष्टिकोण रखते थे। चंद्रगुप्‍त मौर्य अपने जीवन के उत्‍तरार्द्ध में जैन मत का अनुयायी हो गया तथा बिंदुसार आजीवक मत में दीक्षित हो गया था। स्‍वयं अशोक ने अपनी स्‍वेच्‍छा से अपने निजी जीवन में बौद्धमत को स्‍वीकार किया और अपनी जनता पर कभी भी बौद्ध मत थोपने का प्रयास नहीं किया। इस तरह एक ऐसा साम्राज्‍य जिसकी नींव ब्राह्मण वंश के पोषक चाणक्‍य के वरदहस्‍त से चंद्रगुप्‍त ने रखी थी। अपने निजी धार्मिक मामलों में चाणक्‍य की तत्‍कालीन परंपरा के विपरीत चला गया और चंद्रगुप्‍त का पुत्र अपने पिता की परंपरा के विपरीत गया। उसी तरह अशोक ने अपने लिये नितांत नई परंपरा स्‍वीकार की। शताब्दियों पहले से इस देश में इतनी उदारता थी कि एक ही कुटुंब के व्‍यक्ति अलग-अलग विचारधाराओं को मानने वाले हो सकते थे और दादा से लेकर पोता, गुरु से लेकर चेले का धार्मिक मामलों में कोई हस्‍तक्षेप नहीं था, तो आज भारत में क्‍यों अपनी शताब्दियों पुरानी उदारता के समृद्ध अतीत को अमल मे लाने से हम कतरा रहे हैं? हम अतीत की सिर्फ नकारात्‍मक बातों को लेकर ही क्‍यों बैठे रहते हैं, जबकि मेरा यह दिखाने का यह विनम्र प्रयास है कि अतीत सिर्फ बुरी और कड़वी घटनाओं का ब्यौरा नहीं है। बल्कि उसमें बहुतायत में सकारात्‍मक और वर्तमान को ऊर्जा देने वाली अच्‍छी चीजें भरी पड़ी हैं। अब यह हमारे ऊपर निर्भर करता है कि हम क्‍या ग्रहण करना चाहते हैं। अशोक उन तनावों से पूरी तरह परिचित हो गया था, जो उसके तत्‍कालीन समाज में ब्राह्मण धर्म, जैन धर्म, बौद्ध धर्म, आजीवक संप्रदाय, संशयवादी और नास्तिक संप्रदायों और ऐसे ही कई असनातनी संप्रदायो के उदय के कारण समाज में आ गये थे। इन असनातनी संप्रदायों की किसी न किसी रूप में संख्‍या बढ़ रही थी और ये किसी न किसी रूप में ब्राह्मणवाद  के विरोधी थे परंतु अब भी ब्राह्मण समाज पर अपना नियंत्रण बनाये हुये थे। इससे समाज में किसी न किसी रूप में वैमनस्‍य का हावी होना अवश्‍यसंभावी था। ऐसी दशा में परस्‍पर सौहार्द और विश्‍वास का वातावरण बनाना आवश्‍यक था। साम्राज्‍य के कुछ भाग ऐसे भी थे जहां न तो ब्राह्मणवाद का प्रभुत्‍व था और न ही असनातनी संप्रदायों का। अशोक ने स्‍वयं अपने शिलालेखों में यवनों के प्रदेश का जिक्र किया है, जहाँ न तो ब्राह्मण और न ही श्रमण संस्‍कृति प्रचलन में थी। इसके अतिरिक्‍त साम्राज्‍य के कई जन-जातीय या आदिवासी क्षेत्रों में भी ब्राह्मणवाद या असनातनी संप्रदायों का प्रभाव नहीं था। इन सारी विभिन्‍नताओं के बीच साम्राज्‍य के अस्तित्‍व और परस्‍पर सौहार्द्र को बनाये रखने के लिये समाज की समस्‍याओं के प्रति एक समरूपी समझ और व्‍यवहार की आवश्‍यकता थी। इसीलिये अशोक के द्वारा धम्‍म के सिद्धांत इस प्रकार से प्रतिपादित किये गये कि वे सभी समुदायों और धार्मिक संप्रदाय के व्‍यक्तियों को स्‍वीकार्य हों।  अशोक ने कभी भी धम्‍म को औपचारिक रूप से व्‍याख्‍या‍यित अथवा संरचनाबद्ध नहीं किया अपितु उसने धम्‍म में सहिष्‍णुता तथा सामान्‍य आचरण के निर्देश देने की तरफ अधिक ध्‍यान दिया। धम्‍म ने दुहरी सहिष्‍णुता की बात की है जिसमें जन सामान्‍य के मध्‍य आत्‍म अनुशासन, आत्‍म सहिष्‍णुता तथा विभिन्‍न विचारों एवं आस्‍थाओं के बीच सहिष्‍णुता का आवाहन किया गया है। इसमें अशोक ने दासों एवं नौकरों के प्रति सहानुभूति, बड़ों का आदर, जरूरतमंदो, ब्राह्मणों व श्रमणों के प्रति उदारता पर विशेष बल दिया है।  अशोक ने इस तरह सभी धार्मिक संप्रदायों के बीच सहिष्‍णुता का आवाहन किया।  उसने धम्‍म नीति में अहिंसा पर विशेष बल‍ दिया और अहिंसा को व्‍यावहारिक स्‍वरूप देने का मतलब था- युद्ध एवं विजय अभियान का परित्‍याग करके दिखाना जो उसने बखूबी कर दिखाया।  अशोक के 13वें शिलालेख में लिखा हुआ है "आठ वर्षों तक तपस्‍या के उपरांत देवताओं के प्रिय सम्राट पिय्यदस्‍सी ने कलिंग पर विजय प्राप्‍त की ------ देवताओं के प्रिय ने कलिंग विजय के उपरांत बहुत पछतावा किया----- आज यदि कलिंग विजय की प्रतिक्रिया में हताहत, मृत अथवा निर्वासित लोगों की संख्‍या का 100वॉं अथवा 1000वॉं भाग भी उसी प्रकार के कष्‍टों का सामना करता है तो यह देवताओं के प्रिय के मस्तिष्क पर बोझ बनेगा ------------- धम्‍म का यह अभिलेख इसलिये खोदा गया है कि मेरे कोई पुत्र अथवा प्रपौत्र नई विजय प्राप्‍त करने की न सोचें -----। वे धम्‍म द्वारा विजयी होने को ही वास्‍तविक विजय समझें तथा धम्‍म में प्रसन्‍नता ही उनके लिये परम प्रसन्‍नता है, क्‍योंकि धम्‍म इस संसार में तथा इसके बाद दोनों ही स्‍थानों के लिये मूल्‍यवान है।" अशोक की धम्‍म नीति केवल गूढ़ वाक्‍यों पर ही समाप्‍त नहीं हो जाती थी अपितु उसने इसे सत्‍ता में भी अपनाने का भरसक प्रयास किया। अशोक ने घोषणा की - "मैं जो भी कार्य करता हूँ केवल उस ऋण को उतारने का प्रयास है जो सभी जीवों का मुझ पर है।"  अशोक की यह सोच सर्वथा नयी सोच थी और आज भी सत्‍ता के सर्वोच्‍च पदाधिकारी के लिये शासन व्‍यवस्‍था का उत्‍साहवर्धक आदर्श है क्‍योंकि अशोक के पहले तक कौटिल्‍य ने अपने धुँआधार तर्कों से यह सोच प्रतिपादित कर दी थी कि राजा पर किसी का ऋण नहीं होता और उसका एक मात्र कार्य राज्‍य पर येनकेन-प्रकारेण सक्षम शासन करना है।  इस बनी-बनाई सोच के विपरीत जाकर अशोक की जबाबदेही की भावना आज भी सत्‍ताधीशों के लिये चमकदार प्रकाश स्‍तंभ बनी हुई है। रोमिला थापर ने मौर्य साम्राज्‍य विषयक अपने अध्‍ययन में स्‍पष्‍ट किया है कि अशोक की धम्‍म नीति न केवल मूलभूत मानवीयता का अद्भुत दस्‍तावेज है, बल्कि उस समय की सामाजिक राजनैतिक आवश्‍यकताओं का उपयुक्‍त समाधान भी प्रस्‍तुत करती है।  अहिंसा पर उसके बल देने का यह तात्‍पर्य कदापि नहीं निकाला जाना चाहिए कि वह अव्‍यवहारिक हो गया था और उसने राज्‍य की सुरक्षा की आवश्‍यकताओं के प्रति आँखे मूँद ली थी अपितु समय-समय पर वह कई शिलालेखों में उन तत्‍वों को चेतावनी भी देता है जो उद्दण्‍ड हो गये थे।  वह कहता है- यद्यपि वह बल प्रयोग से घृणा करता है। परंतु यदि वे समस्‍याएँ उत्‍पन्‍न करना बंद नहीं करते हैं तो शक्ति का प्रयोग करने के लिये देवों के प्रिय को बाध्‍य होना पड़ेगा।'  जातीय विविधता एवं धार्मिक विभिन्‍नता तथा वर्गीय आधार पर विभाजित समाज में सहिष्‍णुता का आवाहन निश्‍चय ही बुद्धिमत्‍ता का कार्य था और अशोक ने ऐसा करके शताब्दियों पूर्व सत्‍ता की शक्ति का प्रयोग दूरगामी लक्ष्‍यों की प्राप्ति के लिये करने की नई जुगत विकसित की और व्‍यापक उदे्श्‍यों की पूर्ति में उसका यह प्रयत्‍न निसंदेह सत्‍ता के माध्‍यम से जनता के बीच समग्रीकृत सोच को पनपाने का महत्‍वपूर्ण और कारगार उपाय भी साबित हुई।  मैं इस प्रश्‍न के साथ इस विषय को समाप्‍त कर रहा हूँ कि क्‍या इस प्रयत्‍न को वर्तमान भारत के परिप्रेक्ष्‍य में पुन: व्याख्यायित करने की कोशिश नहीं की जा सकती है?
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2 टिप्‍पणियां:

  1. शीर्ष पदस्थ अधिकारियों को वाकई अपनी सोच को बड़ा करने और अपनी कार्यशैली को पुनःसंयोजित करने की आवश्यकता है क्योकि देश का भविष्य अनपढ़ असामाजिक लोग नहीं बना सकते उसके लिए देश के शीर्ष पदस्थ अधिकारी ही समाज के विभिन्न अंगों से मिलकर नया अध्याय लिख सकते हैं . और इस दिशा में आपके द्वारा किया गया प्रयास उत्कृष्ट एवं सराहनीय है. कोटि कोटि साधुवाद.

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