बुधवार, 27 जनवरी 2010

देसिल बयना - 15 : छौरा मालिक बूढा दीवान

-- करण समस्तीपुरी

राम राम हजूर ! हमका भूले तो नहीं... ? हमका भूले तो भूले.... आज बुधवार है, सो याद है न...... !! बुध याद है तो देसिल बयना भी यादे होगा... हमका भूलियो गए तो कौनो बात नहीं। उ का है कि हम पिछले पख में अपने गाँव गए रहे। रेवा-खंड। अब गाँव का बात तो बुझबे करते हैं... माटियो में अपनापन झलकता है। गाछ-विरिच्छ, खर-पात सब में एगो अलगे सिनेह लौकता है। अभी तो और बसंती बयार बहता है.... सो समझिये कि परेम एकदम कसमसा के रह जाता है।

दू दिन तक अलमस्त पुरानी टोली के संग गाँव के चप्पा-चप्पा छान मारे। सब-कुछ तो वैसने था। वही गौरी पोखर, खिलहा चौर, काली-थान, खादी भण्डार, पागल महतो के चाह दूकान, मिसर जी का भीरा.... अरे हाँ.... एगो चीज नहीं है... उ आंवला का बड़ा सा पेड़ ! ओह... क्या बड़ा-बड़ा आंवला होता था... छोटकी आलू के आकार का। भोरे-भोर हमलोग पहुँचते थे बिछने। गिरा हुआ मिला तो ठीक, नहीं तो एक-आध ढेला भी मार देते थे। उधर से धोती सरियाते हुए मिसिरजी जब तक निकले.... तब तक तो ले लुत्ती... सारा लड़का फरार। मिसिर जी कह रहे थे कि गए हथिया में जड़े से उलट गया था आंवला का पेड़।

भीरा के पासे बमपाठ सिंघ की हवेली है। जवार भर के नामी जमींदार है, बमपाठ बाबू। गंडक के ई पार देख रहे हैं..... जहां तक आप की नजर जायेगी सब बमपाठ सिंघ की ही जमीन है और उ पार भी बावन बीघा है। क्या कड़क पंच-फुटिया जवान थे..! बाबा कहते थे कि जुआनी में तो एगो खस्सी अकेले निपटा देते थे। हम अपने आँख से भी देखे हैं, दू गो कबूतर तो नाश्ते में उड़ा दिए थे। बमपाठ सिंघ हर साल काली पूजा में देसुआ अखारा पर कुश्ती भी लड़ते थे। बमपाठ बाबू के पोता को हम कुछ दिन पढाये रहे। इसीलिए कुछ बेसी हेल-मेल था। सोचा कि जरा हवेली पर भी माथा टेक लें।

“है कहाँ उ बुढ़बा दीवान..... आज छोड़ेंगे नहीं ! काम के न काज के ! सेर भर अनाज के... !! और....... ई ललबबुआ चला है मालिक बनने !!! आज हम सब मल्कियत और दीवानी निकालते हैं........ आज तो सिसपेंड करिए के छोड़ेंगे !!!” बाप रे बाप..... बमपाठ सिंघ तो आपे से बाहर थे। कूद कर के दुर्खा और कूद के दालान...... ! लग रहा था झुर्रीदार चमरी से गुस्सा फट कर बाहर आ जाएगा। देखे उनका पोता लालबाबू बडका संदूक पर केहुनी टिकाये खड़ा था। हमको देख के बोला, "प्रणाम माटसाब" और एगो कुर्सी आगे कर दिया।

हमें देख बमपाठ सिंघ बाहर आए। हमरे प्रणाम का जवाबो नहीं दिए और गुस्से से तमतमाए सामने एगो कुर्सी ऐसे खींच के बैठे कि हमहुँ डर गए। सकपका के पूछे, "लगता है कुछ बहुत बड़ा गड़बड़ हुआ है.... तभी सरकार इतने गुस्से में हैं ?" सिंघजी के उफनते हुए गुस्से पर कुछ ठंडा पानी पड़ा। बेचारे फुंफकार छोड़े, "हूँ..."। संदूक के तरफ मुंह घुमा के हम पूछे, "क्या हुआ है लालबाबू ?" फिर से बमपाठ सिंघ दहारे, “उ मुँहचुप्पा का बतायेगा... ? अरे हम से न सुनो। कहता नहीं है, "छौरा मालिक बूढा दीवान ! मामला बिगड़े सांझ-बिहान !!" सिंघ जी गुस्से में भी इतना अलाप कर ई कहावत कहे कि हमरे भीतरिया हंसी छोट गया। हमहूँ कनिक हिम्मत करके बोले, "क्या कहे...क्या कहे...?”

फिर सिंघजी विस्तार से समझाने लगे, “छौरा मालिक बूढा दीवान ! मामला बिगड़े सांझ-बिहान !!" देखते नहीं हैं, ई ललबबुआ... इस से सवा सौ बीघा का जमींदारी संभालेगा... ! एक तो आज-कल रैय्यत और बटीदार भी क़ानून बकता है और ई महराज भोलानाथ ! हाये रे मालिक... जो जौन बात कह दिया... उसी में बह गए। एक तो ई करेला उस पर से उ नीम चढ़ा बूढा दीवान। एकदम सठिया गया है। अब न उ का देह काम करता है न दिमाग... ससुरा दही-घी के लोभ में दरबार नहीं छोड़ता है। और ई मालिक साहेब सब कुछ दिवानेजी पर छोड़े हुए हैं। ई दुन्नु "छौरा मालिक और बूढा दीवान" मिल के दू साल में जो चपत लगाया है कि क्या-क्या बताएं माटसाब !!!

गुस्सा के मारे सिंघजी की लाल-लाल आँखों के ऊपर खिचरिया भौंह फरक रहा था। बदन की एक-एक झुर्री काँप रही थी। "पछिला साल ई को कुछ बुझाया नहीं और दीवानजी को आज-कल का आलस लगा रहा... सारा पटुआ पानीये में सड़ गया। तम्बाकू भेजना था पुरैनिया मंडी और बेच दिया सातनेपुर में। पचासनो हज़ार का घटा लगवाया... ई दुन्नु मिल के। कितना जतन से हम अरजे..... ! ई सब पानी जैसे बहा रहा है। रोसरा लीची बगान का पट्टा लेने में कितना पापड़ बेलना पड़ा था, उ ई ललबबुआ न नहीं जानता है। दीवानजी तो साथे-साथ थे। उस दीवान को तो चश्मा पर से भी नहीं सूझता है। और ई ललबबुआ.... शाही लीची को बेच दिया दोजी के भाव में। हम कहते हैं, माटसाब, एक-एक पेड़ हम परियार साल दू-दू सौ टाका में बेचे थे, सुखार था तब। इस साल पचहत्तरे रुपैय्ये गाछ बेच दिया।"

गुस्से में आगबबूला सिंघजी गिनाये जा रहे थे, "वही हाल जलकर का किया। हाकिम-हुक्काम सब को चुका कर भी लाख टाका मछली से आ जाता था.... ई बबुसाहेब को कुछ बुझाया नहीं.... और दीवान जी तो आजकल सब कुछ भूलिए जाते हैं। जब तक हम देख रहे थे तो वही साले-साल जलकर का रसीद कटाते थे। और ई साल रसीदे कटना भूल गए। जिसका मन हुआ मछली मार के ले गया, एक पैसा घर नहीं आया.... उलटे जीरा डालने का पूंजी भी गया पानी में। ईंख बेचा सो पैसा अभी तक लटका हुआ है.... हथिया नच्छत्तर में धान का बिचरा गिराया.... परिणाम हुआ कि समय पर बिचरा तो खरीदना ही पड़ा जमीन भी खा-म-खा फंसा रह गया।"

लगता है आज बमपाठ सिंघ सारा हिसाब कर देंगे, "पटपरा वाला रैय्यत के यहाँ से साल भर से एक दना नहीं आया है। मालगुजारी पर भी आफत है। दीवान बूढा एकदम सठिया गया है। जुआनी में एक-एक अक्किल ऐसा लगाता था कि रैय्यत पैर पकड़ के झूलें। अब रैय्यत के द्वार पर अपने झूलते रहता है। और इनको देखो.... बड़ा खून का गर्मी दिखाने गए थे। कहते हैं साहब, खून के गर्मी से कहीं राज चला है। एक पैसा का आमद तो हुआ नहीं... उलटे मार-पीट कर लिहिस। जो रैय्यत हमरे बाबा-पुरखा का पैर पूजता था हमरे पोता पर लाठी पूज दिया। रैय्यत से अक्किल लगा कर माल निकलवाना था कि लाठी से... ? हम कहते हैं क्या जरूरी था पर-गाँव में जा कर रंगदारी करने का.. ? पता नहीं है कि अब सरकार की आँख जमींदार सब पर लगी हुई है। अब लो मार भी खाया और मुक़दमा भी लड़ो। बाबू साहब तो लड़ लिए, दीवान जी के भरोसे कि सब कुछ फरियाइये देंगे लेकिन उ बूढा से अब कुछ होता है... निखट्टू एगो थानेदार तक को नहीं पटा पाया। लोअर कोट में मरा हुआ वकील पकड़ा और अब जाओ हाई कोट।"

"मालिक है जुआन तो इसका दिमाग नहीं चलता है.... अल के बल औडर दे देता है। अपना दिमाग कुछ लगाता ही नहीं है। ज़ूम मे आकर सब बेदिमागी फैसला करता है। और दीवानजी बूढा गए हैं तो उनका देहे नहीं चलता है। दौर-भाग का कौनो कामे नहीं होता है। चश्मों पर से दिखाई नहीं देता है और दिमागों सठिया गया है। इसीलिए न कहते हैं, "छौरा मालिक बूढा दीवान ! मामला बिगड़े सांझ बिहान !!" मालिक को बूढा रहना चाहिए ताकि वो अपने अनुभव से काम ले। और दीवान मतलब कार्यकारी को जवान रहना चाहिए ताकि उ तन और मन दोनों लगा कर पूरे जोश से काम करे। और नहीं जो उल्टा हो गया तो लो... "मामला बिगड़े सांझ बिहान!"

इतना कह के बमपाठ सिंघ तुरत ऐलान कर दिए कि राज-पाट उ फिर से अपने हाथ में ले रहे हैं। अब छौरा मालिक नहीं रहेगा। सामने हमको भी जुआन देखे और अक्किल बुद्धि से तो पहिले ही परिचित थे। लगे हाथ हमरे दीवान में बहाल कर लिए। कहे कि अब न रहेगा छौरा मालिक, ना रहेगा बूढा दीवान और ना ही मामला बिगड़ेगा सांझ बिहान !! समझे, यही खातिर पिछला हफ्ता भेंट नहीं हुआ। लेकिन हम तो ठहरे रमता जोगी बहता पानी, दरबारी कमाने में हमरा मनन लगेगा.... ! उधर मामला मुक़दमा फिट हुआ और इधर हम अपना झोली-डंडा उठाए और चले आये आपको ई देसिल बयना सुनाने ! बोलो हरि !!!

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10 टिप्‍पणियां:

  1. वाह करण जी! मज़ा आ गया क्या सरिया के गपिया दिये हैं। कहानी के कहानी का मज़ा और एगो नया देसिल बयना की जानकारी भी मिल गयी। इसको कहते हैं एक टिकट में दूगो खेल का मज़ा!! बहुते बढिया!!!

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  2. आपके कथाकार मन में आंचलिक विशेषता को समझने की एक ईमानदार ललक प्रतीत होती है।

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  3. It has been a long time to visit your blog..... but all that i wanna say...... i missed it lots !

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  4. आपने बड़े ही सुन्दरता से प्रस्तुत किया है! बहुत अच्छा लगा!

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