गुरुवार, 1 जुलाई 2010

आँच-24

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आँच-24 :: हरीश प्रकाश गुप्त

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पिछले दिनों इस ब्लाग पर करण समस्तीपुरी की एक कविता आई -'निशब्द नीड़' (लिंक) इसकी न केवल शब्द योजना और प्रांजलता ने पाठकों को मुग्ध किया बल्कि भावों की सरल प्रस्तुति के कारण भी यह पाठकों के अन्तर्मन को स्पर्श कर गई। कविता की इसी विशिष्टता ने इस रचना पर दो शब्द लिखने के लिए प्रेरित किया और ऑंच के इस अंक में इसे समीक्षा के लिए सम्मिलित किया गया।

प्रस्तुत कविता में कवि ने चित्र खींचा है पक्षिजगत का कि एक पक्षी घर-परिवार-बच्चों से दूर रहकर, दिन भर कष्ट सहकर, थक करके अपने परिवार के भरण-पोषण के लिए आवश्यक वस्तुएं जुटाता है। शाम को थके हारे आने पर परिवार का सान्निध्य पाने और बच्चों का कलरव सुनकर अपनी व्यथा भूलने की आस रखता है। लेकिन, शायद विलम्ब से आने पर, घोंसले से किसी प्रकार की आहट न सुन जहाँ वह वर्तमान सामाजिक परिवेश की विद्रूपताओं से जनित विविध प्रकार के खतरों से आशंकाग्रस्त होकर भयभीत हो जाता है, वही मन की कोमल भावना द्रवित हो कह उठती है कि वे सब कहीं भूखे-प्यासे ही तो नहीं सो गए।

यहाँ कवि द्वारा पक्षिजगत का किया गया चित्रण तो बिम्ब मात्र है। वास्तव में यह सम्पूर्ण जगत की व्यथा-कथा है। चाहे मनुष्य समाज हो या अन्य प्राणिसमाज, सबमें संवेदना की समानुभूति है। हाँ, स्वर भिन्न हो सकते हैं। पत्नी-बच्चों के लिए जीवनोपयोगी आवश्यक तत्व- भोजन, आवास और सुरक्षा जुटाने का मुखिया का दायित्व, स्नेह प्यार-दुलार, सुख-दुख, बैर-द्वेष, अपना-पराया आदि भाव सभी में समान रूप से विद्यमान है। इसी प्रकार, मुखिया द्वारा अपनों के लिए कष्ट उठाना, इसमें प्रसन्न रहना, अपनों के चेहरे पर खुशी देख सब कष्ट विस्मृत कर देना और अज्ञात खतरे की आशंका से भयभीत होना भी समानुभूतियाँ हैं। कविता में व्यक्त रावण, बाज और ब्याध समाज की वे प्रवृत्तियाँ है जो अपनी अधम आकांक्षाओं की पूर्ति तथा तृष्णा-शमन के लिए निरीह और अबोध जन का जीवन लील लेने से भी बाज नहीं आते। ये प्रवृत्तियाँ इत-उत अर्थात् हमारे चारों ओर व्याप्त हैं। अत: इनसे भयाकुल होना बड़ा स्वाभाविक सा है।

कविता का तीसरा बंद सामान्य जन की दीनता और लाचारी, वर्तमान समय में संकट के समय भी लोगों में सहयोगी भावना का अभाव, स्वार्थपरता, व्यवस्था के असहाय आर्थात् पंगु होने की अभिव्यक्ति है। दुष्ट प्रवृत्तियों की आयु अधिक बताना तथा जटायु जैसे मददगारों का अभाव और जो लोग हैं भी उन्हें मृग-तरुवर के रूप निरीह और बधिर व्यक्त करते हुए कवि आंशिक रूप से निराशा भी व्यक्त करता है।

'निशब्द नीड़' कविता अद्योपांत सुन्दर शब्द योजना से सुसज्जित हैं। कुछ शब्द समुच्चयों ने कविता को आकर्षक रूप भी प्रदान किया है। प्रांजलता इसका एक और प्रमुख तत्व है। यद्यपि कविता का प्रवाह लय की तरह है, जो अच्छा लगता है। परन्तु असमान बंद - कविता में क्रमश: छ:, आठ और दस पंक्तियों वाले तीन बन्द हैं, इस सुन्दर कविता की कमी के रूप में दृष्टिगत हैं। कविता परिस्थितियों का बयान करती हुई वर्णनात्मक है अत: भावों में गंभीरता व गहराई का अभाव सा है और काव्यत्व के दृष्टिकोण से यह कविता का कमजोर पक्ष है।

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14 टिप्‍पणियां:

  1. इस समीक्षा को कल २/७/१० के चर्चा मंच के लिए लिया गया है.

    आभार.

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  2. कविता तो शायद नही पढी लेकिन आपकी समीक्षा देख कर ही सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि कितनी मार्मिक और अच्छी कविता होगी। धन्यवाद कम्प्यूटर का बैक उप समाप्त होने वाला है ,कल पढूँगी आभार।

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  3. आप दुवारा कि गई समीक्षा बहुत सही लगी, धन्यवाद

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  4. गुप्त जी आप साहित्यकार हैं इसलिए इतनी गहन व्याख्या कर सकते हैं. किंतु आपकी व्याख्या कविता के अर्थ को द्विगुणित कर गई. मूल कविता और आपकी समीक्षा दो अलग अभिव्यक्तियाँ प्रतीत होती हैं. अतः इतना अवश्य कहूंगा कि आपने मात्र समीक्षा नहीं, मूल कविता की आत्मा को जिया है. साधुवाद!

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  5. आपकी व्याख्या कविता के अर्थ को द्विगुणित कर गई.

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  6. समीक्षा शानदार है तो रचना भी शानदार होगी ही।

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  7. कविता और समीक्षा दोनों ही स्तरीय साहित्य का नमूना हैं।

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  8. अद्योपांत सुन्दर शब्द योजना से सुसज्जित समीक्षा हैं।

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  9. हरीश जी !
    मैं आपका आभारी हूँ कि आप ने अपने साधु विवेचन से रचना की गरिमा बढाई ! मैं आपके नीर-क्षीर न्याय से शत-प्रतिशत सहमत हूँ ! आखिर आंच पर चढ़ कर ही रचना कुंदन बनती है. बस एक गुस्ताखी माफ़ हो... मैं पारंपरिक छंद-विधान का त्याग कर हर अगले बंद में दो-दो पंक्तियाँ बढाने का प्रयोग कर रहा था.... ! एक बार पुनः कोटि कोटि धन्यवाद !!!

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  10. करण जी,
    आपकी रचना ने समीक्षा के लिए मुझे उर्वर भूमि प्रदान की, इसके लिए मैं आपका आभारी हूँ।

    आपका प्रयोग स्वीकार्य बने, ऐसी कामना है।

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