गुरुवार, 6 जनवरी 2011

आँच-51 : ‘मेरा गला घोट दो माँ’

आँच-51 मेरा गला घोट दो माँ

-- हरीश प्रकाश गुप्त

निखिल आनन्द गिरि की कविता मेरा गला घोट दो माँ उनके अपने ब्लाग आपबीती पर 1 जनवरी 2011 को प्रकाशित हुई थी। यह कविता आज के आँच के अंक में समीक्षा हेतु ली गई है। (पूरी कविता पढने के लिए यहाँ क्लिक कीजिये)

हम अपने जीवन में आगे बढ़ने, तथाकथित रूप से विकसित होने और आधुनिक बनने के उत्साह में वास्तविकता से बहुत दूर होते जाते हैं। इस क्रम में हम स्वयं को झूठे आवरणों और आडम्बरों से ढक लेते हैं तथा छद्म जीवन जीते रहते हैं। हम जीवन के यथार्थ को स्वीकार न करते हुए लोभ और अहंकार जनित आग्रहों, जो न केवल सीमित हैं बल्कि संकीर्ण भी हैं, की दृष्टि से दुनियाँ को, समाज को देखते हैं, उसका आकलन करते हैं तथा दिमागी कसरत करते हुए आत्मतोष की अनुभूति कर प्रमुदित और प्रफुल्लित होते हैं। इसी आत्ममोहता में संवेदनशीलता बहुत पीछे छूट चुकी होती है। जीवन की मूल अपेक्षाएं रागात्मकता, सह-अनुभूति और संवेदनशीलता तो यथार्थ से पुष्ट होती हैं और सत्य से प्राण ग्रहण करती हैं। आडम्बर युक्त जीवन में इन्हीं तत्वों का अभाव आ जाता है। एक स्थिति ऐसी आती है जब यथार्थ और छद्म में भेद कर पाने की दृष्टि निष्प्राण हो चुकी होती है। तब हम जो देखना चाहते हैं वही दिखता है। तथाकथित आधुनिक संस्कारों का यह मार्ग हमें ऐसे दोराहे पर ले जाकर छोड़ देता है जहाँ से पीछे लौटना सम्भव नहीं होता है और सन्मार्ग दिखता नहीं है। इस भटकाव में सरकारी व्यवस्था का भी योगदान कम नहीं। सरकारी व्यवस्था की चर्चा चाय की दुकानों और चौपालों पर चटखारे लेने से आगे नहीं बढ़ पाती। वास्तव में इस अवस्था में, जहाँ संवेदना निर्जीव हो चुकी होती है, जिन्दगी जिन्दगी न होकर मृत सदृश होती है घिनौनी। कवि का आहत मन संवेदना के इस अभाव का सामना कर पाने के प्रति भयग्रस्त होता है। उसकी आत्मा इसके पहले ही उससे पृथक हो जाना चाहती है तभी बोल पड़ती है माँ तुम मेरा गला घोट देना इस प्रकार कविता अपेक्षित भावार्थ सम्प्रेषित करने में सफल हो जाती है।

यदि हम कविता के शिल्प पर दृष्टिपात करें तो कविता में अनेक दोष बिखरे पाते हैं। कविता में शब्द संयम का सर्वथा अभाव है जिससे अधिकांश पंक्तियों की संरचना व्याख्यात्मक हो गई है। दूसरे पैरा की अंतिम पंक्ति में और देखिए ........... तथा तीसरे पैरा की पहली पंक्ति का प्रयोग .......... जनाब पाठक से संवाद करने की शैली में प्रयुक्त हुए हैं जो कि शेष कविता की शैली से सामंजस्य नहीं बिठाते। यदि वहां से इन पदों को हटा दिया जाए तो कविता निरर्थक प्रयोग के दोष से बचती है और अर्थ भी अधिक स्पष्ट हो जाता है। इसी प्रकार कविता की अन्तिम पंक्ति और पानी कहीं न हो पूर्णतया अनावश्यक प्रयोग है। क्योंकि जब पानी कहीं नहीं होगा तभी प्यास से मरने की स्थिति उत्पन्न होगी। अतः इसे शब्दों में व्यक्त करने की आवश्यकता न थी। इस पंक्ति से कविता पर अनावश्यक भार ही पड़ रहा है। इसके अलावा अन्तिम पैरा की पंक्तियां -

जब युद्ध होगा, तब सबसे सुरक्षित होंगे पागल यानी कवि .....

माँ, तुम मेरा गला घोट देना

अगर प्यास से मरने लगूँ

और पानी कहीं न हो ....

पूर्व पदों से सीधे तालमेल नहीं बिठातीं और अभाव प्रस्तुत करने के साथ अचानक प्रकट हो जाती हैं। यहाँ कविता रिक्ति पूर्ति चाहती है। एक अस्वाभाविक दोष पांचवे पैरा में भी है जहां टी-प्वाइन्ट के बाद भी सीधे चलने का विकल्प आता है। जबकि टी-प्वाइन्ट पर दो ही रास्ते हो सकते हैं दाएं अथवा बाएं, सामने कोई रास्ता नहीं। अतः वहां सीधे चलने की बात बेमानी सी लगती है। इस पैरे में सरकारों शब्द प्रयोग हुआ है इसके स्थान पर सामाजिक सरोकारों का अर्थ भी लिया जा सकता था। कविता का शीर्षक अंतिम पैरे से लिया गया है जिसके बारे में ऊपर उल्लेख किया जा चुका है तथापि शीर्षक में ....... घोट दो जैसे अवश्यकरणीय भाव के स्थान पर ...... घोट देना जैसा अनुनय पूर्ण भाव होना चाहिए था। काव्य में सर्वनाम अथवा पूर्ण क्रियापद का प्रयोग दोष की तरह होता है। अतः अपरिहार्य स्थितियों को छोड़कर ऐसे प्रयोग से बचना चाहिए।

कविता में कुछ प्रयोग बहुत सुन्दर तथा यथार्थपरक हुए है जो कविता को आकर्षक बनाते हैं। जैसे एक दर्शन हर बार बेवकूफी पर जाकर खत्म होता है ...... यह दर्शन का व्यावहारिक पहलू है जो जीवन की वास्तविकताओं पर परीक्षित है। जीवन के यथार्थ की डगर कठिन होती है और इसे सिद्धांतों की सीमाओं में बांधना आसान नहीं होता। इसीलिए हर एक दर्शन यथार्थ के धरातल पर आते ही शिथिल पड़ जाता है। आप पाव भर हरी सब्जी खरीदते हैं / और सोचते हैं, सारी दुनियां हरी है .... यद्यपि इन पंक्तियों में शब्द बाहुल्य है लेकिन अर्थ का प्रभाव बहुत स्पष्ट और व्यापक है। अपनी संकीर्ण और संकुचित दृष्टि में हम जितना देख पाते हैं वही सम्पूर्ण नजर आता है। मैकडोनाल्डों से आधुनिक परिवेश की व्यंजना मुखरित है। और समझते हैं कि जिन्दगी हनीमून है आदि प्रयोग अच्छे हैं और कविता का आकर्षण भी।

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25 टिप्‍पणियां:

  1. आंच एक ऐसा मंच जहाँ आपको अपनी कविता से ही नए सन्दर्भ, नए आयाम से परिचय होता है...गुप्त जी निखिल की कविता से परिचय कविता से कहीं आगे जा के करा रहे हैं... निखिल और गुप्त जी दोनों को बधाई एवं शुभकामना...

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  2. गज़ब की समीक्षा है काफ़ी नये राज़ उजागर हुये और काफ़ी सीखने को मिला……………आभार्।

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  3. sach kahun kavita me itne saare technically correction ki jarurat hoti hai...pata na tha...:(

    ham to bas jo mann ki abhivyakti hoti hai, likh marte hain...:)


    dhanywad...:)

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  4. भिन्न आयामों से परिचित कराती सार्थक समीक्षा!

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  5. अच्छी समीक्षा है काफी कुछ जानने को मिला.

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  6. आपके समीक्षाओं से काफी कुछ सीखने को मिलता है ...

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  7. इस ब्लॉग पर आकर अच्छी समीक्षा पढ़ने को मिल जाती है.
    इस बार भी निष्पक्ष समीक्षा दिखी

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  8. समीक्षा पढकर लगा अपने मन की ही बात हो!!

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  9. कविता में निराशा और विद्रोह के स्वर समान रूप से विद्यमान हैं। शैली के कारण मूल रचना के अनूदित होने का भ्रम पैदा होता है। जीवन की संकेतित विडंबनाओं को समीक्षा में ठीक से उभारा गया है,किंतु टी-प्वाइंट की व्याख्या से सहमत नहीं हूं।

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  10. अच्छी और सटीक समीक्षा है. धन्यवाद

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  11. इस ब्लाग पर समीक्षा का स्तम्भ आँच साहित्य के प्रति रुचि भी जागृत करता है और हमारे ज्ञान की भी वृद्धि करता है।
    समीक्षा सटीक और तथ्यपरक है।

    आभार,

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  12. व्यक्तिगत अभिरुचि की कहूँ तो गद्यात्मक पद्य अधिकांशतः मुझे रुचता नहीं ..हाँ, चिंतन/भाव या अर्थ गाम्भीर्य हो,तब गद्यात्मकता नहीं खटकती..

    वर्तमान कविता का भाव और चिंतन पक्ष सरहनीय है,इसलिए शिल्प की कमी न खटकी.....

    आपने इतनी सुन्दर और सार्थक समीक्षा की है कि लग रहा है अपना सभी लिखा इसी प्रकार आपसे सही करा लूँ,तो आशा रख सकती हूँ कि भविष्य में मैं भी सुन्दर लिखने लगूंगी...

    साधुवाद आपका !!!

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  13. अपनी प्रतिक्रियाओं के माध्यम से उत्साहवर्धन के लिए सभी पाठकों को आभार।

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  14. दोस्तों
    आपनी पोस्ट सोमवार(10-1-2011) के चर्चामंच पर देखिये ..........कल वक्त नहीं मिलेगा इसलिए आज ही बता रही हूँ ...........सोमवार को चर्चामंच पर आकर अपने विचारों से अवगत कराएँगे तो हार्दिक ख़ुशी होगी और हमारा हौसला भी बढेगा.
    http://charchamanch.uchcharan.com

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  15. respected guptaji iwish you happy new year 2011 you are doing avery good job in this blog keep it up. ANAND (A.I.R.)

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  16. आलोचना का शुक्रिया...उनका भी जिन्होंने इस बहाने मेरी कविता पर नज़र डाली...

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