रविवार, 23 जनवरी 2011

भारतीय काव्यशास्त्र :: विप्रलम्भ शृंगार

भारतीय काव्यशास्त्र :: विप्रलम्भ शृंगार

आचार्य परशुराम राय

पिछले अंक में रसों के क्रम से सम्बन्धित आचार्य अभिनवगुप्त के विचारों और संयोग शृंगार पर चर्चा की गई। इस अंक में विप्रलम्भ शृंगार या वियोग शृंगार के पाँच भेदों के विषय में चर्चा की जायेगी।

विप्रलम्भ शृंगार के पाँच भेद माने गये हैं:- अभिलाष, ईर्ष्या, विरह, प्रवास और शाप।

अभिलाष का दूसरा नाम पूर्वराग भी है। इसके अन्तर्गत उन नायक-नायिकाओं की अनुरक्ति का वर्णन पाया जाता है जिन्हें समागम का अवसर प्राप्त नहीं हुआ है:-

प्रेमाद्र्रा: प्रणयस्दृश: परिचयादुद्ढरागोदया-

स्तास्ता मुग्धदृशो निसर्गमधुराश्चेष्टा भवेयुर्मयि।

यास्वन्त:करणस्य बालकरणव्यापाररोधी क्षणा-

दाशंसापरिकल्पितास्वपि भवतानन्दसान्द्रो लय:।

यह श्लोक आचार्य मम्मट ने महाकवि भवभूति के नाटक मालतीमाधव से उद्धृत किया है। इसमें नायिका मालती की प्राप्ति के लिए नायक माधव श्मशान साधना करता है। इस श्लोक में मालती के प्रति उसके पूर्वराग का वर्णन किया है। इसका अर्थ है - मोहक नेत्रों वाली मालती के प्रेम से आर्द्र, प्रणय का स्पर्श करने वाली एवं परिचय के कारण उद्गाढ़ राग से भरी हुई भावपूर्ण चेष्टाएँ मेरे प्रति हों, जिनकी कल्पना मात्र से इस समय बाह्य इन्द्रियाँ व्यापार शून्य हो गयी हैं और अन्त:करण आनन्द सागर में लय हो गया है।

डाँ भगीरथ मिश्र ने अपनी पुस्तक काव्यशास्त्र में हिन्दी कविता का निम्नलिखित उदाहरण दिया है -

दीठ परयो जौतें तौतें नाहिन टरहिं छवि,

आँखिन छायो री छिन-छिन छालि-छालि उठै।

बाजि-बाजि उठत मिटौहैं सुर बंसी मोर,

ठौर-ठौर टीली गरबीली चालि चालि उठै।

कहरि-कहरि उठै पीरे पटुका को छोर,

साँवरे की तिरछी चितौनि सालि-सालि उठै।

डोलि-डोलि कुण्डल उठत वेई बार-बार,

एरी! वह मुकुट हिए में हालि-हालि उठै॥

विप्रलम्भ का अगला भेद ईर्ष्या है। इसका दूसरा नाम मान भी है। आशा के विपरीत अपराधजनित प्रणय-कोष की स्थिति ईर्ष्याजनित या मानजनित विप्रलम्भ कहा जाता है -

सा पत्यु: प्रथमापराधसमये सख्योपदेशं बिना

नो जानाति सविभ्रमाङ्गवलनावक्रोक्ति-संसूचनम्।

स्वच्छैरच्छकपोलमूलगलितै: पर्यस्तनेत्रोत्पला

बाला केवलमेव रोदिति लुठल्लोलकैरश्रुभि:॥

उपर्युक्त श्लोक में ईर्ष्या जनित विप्रलम्भ दिखाया गया है। यह अमरुशतक का श्लोक है। यह एक नवोढ़ा नायिका की दशा बताने वाली उसकी एक सखी की उक्ति है जो एक दूसरी सखी को सुनाकर कहती है:-

पति के अन्य स्त्री-प्रसंग जनित अपराध के समय सखियों को बिना बताए अंग-संचालन के हाव-भाव द्वारा वक्रोक्ति से उलाहना देना उसे नहीं आता। इसलिए खुले हुए बालों को बिखराये और आँखों को नचाती हुई वह बेचारी आँसू टपकाती हुई केवल रोती ही रहती है।

हिन्दी में पद्माकर जी का निम्नलिखित कवित्त ईर्ष्याजनित विप्रलम्भ का उदाहरण है:-

बैस ही की थोरी पै न भोरी है किसोरी यह,

याकी चित चाह राह और की मझैया जनि।

कहैं, 'पदमाकार' सुजान रूप खान आगे,

आनबान आन की सु आनि की चलैयो जनि।

जैसे तैसे करि सत सौंहनि मनाय लाई

पै इक हमारी बात एती बिसरैयो जनि।

आजु की घरीते लै सु भूतिहूँ भले हो सयाम!

ललिता को लै कै नाम बाँसुरी बजैयो जनि॥

समागम के बाद भी बड़े लोगों से लज्जा आदि के कारण समागम का अभाव 'विरह' कहलाता है। किन्तु आचार्य विश्वनाथ आदि विप्रलम्भ के चार भेद ही मानते हैं। वे 'विरह' को विप्रलम्भ का भेद नहीं मानते।

आचार्य मम्मट ने विरहोत्कण्ठिता नायिका की विकल दशा से सम्बन्धित निम्नलिखित श्लोक उद्धृत किया है।

अन्यत्र व्रजतीति का खलु कथा नाप्यस्य तादृक् सुहृद्

यो मां नेच्छति नागतश्च हह हा कोऽयं विधे: प्रक्रमः।

इत्यल्पेतर कल्पनाकवलितस्वान्ता निशान्तान्तरे

बाला वृत्तविवर्तनव्यतिकरा नाप्नोति निद्रां निशि॥

इस श्लोक में रात्रि में चारपाई पर लेटी पत्नी अपने पति की प्रतीक्षा कर रही हैं। पति के आने में विलम्ब के कारण उसकी मानसिक विकलता का यहाँ वर्णन किया गया है - वे कहीं और चले गए? नहीं यह कुविचार है, उनका कोई ऐसा मित्र भी नहीं, जिसे मेरे हित का ध्यान न हो, फिर भी वे अभी तक आए नहीं, कैसा भाग्य का खेल है, ऐसी कल्पनाओं से परेशान वह बेचारी करवटें बदलती हुई रात में सो नहीं पा रही है।

यहाँ पति गुरुजनों (माता-पिता आदि) की उपस्थिति में संकोच के कारण समय से पत्नी के पास नहीं जा पाया। वह उनके सोने की प्रतीक्षा कर रहा है। ऐसे थोड़े समय के वियोग को विरह जनित विप्रलम्भ माना गया है।

भाव साम्य रखती हिन्दी की निम्नलिखित पंक्तियाँ मुक्तक के रूप में देखी जा सकती हैं -

कहाँ गये कुछ पता नहीं

समझे न ऐसा मित्र नहीं

नजर न आता कारण कोई

सोच रही वह करवट लेती,

कैसी है यह विधि की लेखी।

इसके बाद प्रवासजनित विप्रलम्भ शृंगार है। अर्थात् नौकरी-चाकरी या किसी अन्य कारण से प्रियतम विदेश चला गया हो, ऐसी परिस्थिति में नायक-नायिका के वियोग का वर्णन प्रवासजनित विप्रलम्भ शृंगार कहलाता है।

प्रस्थानं वलयै: कृतं प्रियसखैरस्रैरजस्रं गतं

धृत्या न क्षणमासितं व्यवसितं चित्तेन गन्तुं पुर:।

यातुं निश्चितचेतसि प्रियतमे सर्वे समं प्रस्थिता

गन्तव्ये सति जीवित ! प्रियसुहृत्सार्थः किमु त्यज्यते॥

यह श्लोक भी अमरुशतक से लिया गया है। यहाँ एक स्त्री का पति गुरुजनों के आदेशानुसार विदेश जा रहा है। यह समाचार सुनकर पत्नी अपने जीवन को सम्बोधित करती हुई कहती है:-

हे जीवन (प्राण) प्रियतम के प्रवास पर जाने का निश्चय होते ही कंगन पहले ही स्थान छोड़कर चल दिए, अर्थात् दुर्बलता के कारण कंगन अपने स्थान से हट गए हैं, ढीले पड़ गए हैं (गिर पड़ते हैं)। प्रिय को चाहने वाले आँसू लगातार बहे जा रहे हैं। धैर्य रुक नहीं रहा। चित्त भी उनके आगे-आगे ही जा रहा है। हे प्राणों, तुम्हें भी जाना ही है, तो प्रिय मित्र (पति) का साथ क्यों छोड़ रहे हो, अर्थात् तुम भी शरीर छोड़कर निकल चलो।

प्रवासजनित विप्रलम्भ के उदाहरण के रूप में दूलह कवि की एक कविता यहाँ उद्धृत की जा रही है -

चैत चारु चाँदनी चिता सी चमकति चन्द्र,

अनिल की डोलनि अनल हूँ ते ताती है।

कहैं कवि 'दूलह' ये बौरे हैं रसाल, ताप

कूकि उठै कोयलिया मधुर मधुमाती है।

औधि अधिकानी हरि हू की बात जानी,

अब काहे न छटूक ह्वै दरकि जाति छाती है।

गुनो आनि भावनो, बसन्त री बितावनो यों,

सुनो आनि भावनो, बहुरि आई पाती है॥

शाप या दण्ड आदि के कारण नायक-नायिका का लम्बे समय तक वियोग हो, तो उसे शापहेतुक या शापजनित विप्रलम्भ शृंगार कहा जाता है। इसका दूसरा नाम करुणहेतुक भी कुछ आचार्यों ने दिया है। इसके लिए काव्यप्रकाश में महाकवि कालिदास के मेघदूत से निम्नलिखित श्लोक उद्धृत किया गया है।

त्वामालिख्य प्रणयकुपितां धातुरागै: शिलाया-

मात्मानं ते चरणपतितं यावदिच्छामि कर्तुम्।

अस्रैस्तावन्मुहुरुपचितैर्दृष्टिरालुप्यते मे

क्रूरस्तस्मिन्नपि न सहते सङ्गमं नौ कृतान्त:॥

मेघदूत के अनुसार कोई यक्ष शाप के कारण अपनी पत्नी को यक्षनगरी में छोड़कर रामगिरि में रहता है। अकेले में वह पत्थर पर गेरू से अपनी पत्नी का चित्र बनाकर जैसे ही उसके उसके चरणों पर गिरना चाहता है, आँसू दृष्टि को आच्छादित कर देते हैं। विधाता कितना कठोर है कि चित्र में भी संगम उसे सह्य नहीं है, यही इस श्लोक का भाव है।

यहाँ यह बताना आवश्यक है कि विप्रलम्भ शृंगार के अन्तर्गत काम की दस दशाएँ कही गयी हैं -

अभिलाषा, चिन्ता, स्मरण, गुणकथन, उद्वेग, उन्माद, प्रलाप, व्याधि, जड़ता और मरण।

कुछ आचार्य दस के स्थान पर ग्यारह दशाएं मानते हैं। वे उक्त दस दशाओं के अतिरिक्त 'मूर्च्छा' को 'मरण' से पूर्व की एक और अवस्था मानते हैं।

अगले अंक में अन्य रसों के विवरण दिए जाएँगे।

17 टिप्‍पणियां:

  1. हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में आपका योगदान उल्लेखनीय है। इसे हमेशा स्मरण किया जाएगा। आभार।

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  2. इस प्रकार की सार्थक और जानकारी भरी ब्लॉगिंग और कहीं नही मिलती..वाकई मनोज जी आप के आलेख भारतीय दर्शन,साहित्य और संस्कृति की झलक प्रस्तुत करते है...सार्थक ब्लॉगिंग ..प्रणाम

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  3. विप्रल्ल्भ श्रृंगार के संबंध में अच्छी जानकारी मिली।
    सुधी काव्य प्रेमियों के लिए यह पोस्ट ज्ञानपरक सिद्ध होगा।अनुरोध है- इसकी निरंतरता बनाए रखें ताकि काव्यशास्त्र में रूची रखने वाले पाठक वर्ग इस पोस्ट के लिए प्रतीक्षारत रहें। जिन लोगों ने इसे स्नात्कोत्त्तर स्तर पर हिंदी में अध्ययन नही किया है,वे इस पोस्ट के माध्यम से अवश्य ही लाभान्वित हो सकेंगे।गागर में सागर भरने का यह प्रयास सर्वरूपेण एवं सर्वभावेन प्रशंसनीय है।सादर।

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  4. आप हिंदी कविता में छंदों की पुनर्वापसी का प्रेरणा स्रोत बन सकते हैं. साहित्य में एक नए युग के सूत्रधार भी. काव्यशास्त्र की गहन जानकारी देने के लिए बधाई.

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  5. पूरी शृंखला ही सहेज ली है काव्य ग्यान की इस प्रभावशाली प्रस्तुति के लिये आप बधाई के पात्र हैं आपका ये योगदान साहित्यजगत के लिये अनमोल दस्तावेज है। धन्यवाद।

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  6. आचार्य जी आपके लेखों से सभी लाभान्वित होते हैं और वह बहुत ज्ञानपरक हैं. हिंदी साहित्य में आपका योगदान सदैव ही याद किया जायेगा. आपसे एक विनम्र अनुरोध है उन सबकी तरफ से जो हिंदी साहित्य के छात्र नहीं रहे हैं, कि यदि कुछ उदाहरण आधुनिक कविता से भी मिलें तो और भी सुंदर हो जाये.

    धन्यबाद मनोज जी का भी इस श्रंखला को प्रस्तुत करने के लिए.

    आप दोनों का आभार.

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  7. मेरे लिये तो इस स्तम्भ के हर लेख आचार्य जी के व्याख्यान से कम नहीं.. लगता है कि इस उम्र में पुनः कॉलेज में प्रवेश मिल गया है और कक्षा में बैठा हूँ..

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  8. आपके पोस्ट पर भारतीय काव्यशास्त्र की प्रस्तुति की जितनी भी प्रशंसा की जाए वह थोड़ी है।धन्यवाद।

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  9. भारतीय काव्यशास्त्र को समझाने का चुनौतीपूर्ण कार्य कर आप एक महान कार्य कर रहे हैं। इससे रचनाकार और पाठक को बेहतर समझ में सहायता मिल सकेगी। सदा की तरह आज का भी अंक बहुत अच्छा लगा।

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  10. .

    आचार्य जी, चरण-स्पर्श.
    आपके इस लेख को सुविधा से समझने के लिये नायिका-भेद* जानना बेहद जरूरी है. शास्त्रीय नायिका-भेद से तो लगता है कि 'विप्रलंभ' की दशाएँ प्रायः नायिकायें ही झेलती रही हैं. अन्यथा नायक-भेद भी साहित्य में स्थान पाता. नायकों का भेद प्रायः 'धैर्य' को केंद्र में रखते हुए किया गया. आखिरी क्यों?
    लेकिन यक्ष जैसे उदाहरणों से उपरोक्त बात ग़लत साबित भी होती है. जब हम जानते हैं कि 'वियोग की ज्वाला' से पुरुष भी दग्ध होते रहे हैं. फिर क्यों शास्त्रियों ने इस ओर श्रम नहीं किया? क्या इस ओर मेहनत करने से पौरुषेयता को न्यून करना होता?



    ... ... नायिका-भेद* ......

    .


    .

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  11. ...

    ........ अष्ट-नायिका ........

    स्वाधीन भर्तृका :
    पति को वशीभूत करने वाली नायिका.
    वासक सज्जा :
    वह नायिका जो अपने प्रियतम से मिलने के लिये शृंगार करके उसकी राह [बाट] देखती हो.
    विरह उत्कंठिता :
    वह्नायिका जिसको दृढ विश्वास हो कि उसका पति या प्रियतम अमुक समय में आयेगा परन्तु किसी कारणवश वह न आवे.
    विप्रलब्धा :
    वह नायिका जो संकेत-स्थान में प्रिय को न पाकर निराश होती है.
    खंडिता :
    वह नायिका जो अपने प्रियतम पर कुपित होकर निराकृत मुँह बनाती है और व्यंग्य-कटूक्तियाँ कहती है.
    कलहांतरिता :
    वह नायिका जो नायक को क्रुद्ध करने के बाद स्वयं पछताती है.
    प्रोषित-भर्तृका :
    वह स्त्री जिसका स्वामी परदेश में रहता हो.
    अभिसारिका :
    वह नायिका जो काम पीड़ित होकर अपने प्रियतम को संकेत स्थल में भेजे अथवा स्वयं जावे. अथवा,
    जो लज्जा को त्याग कर मद या मदन (काम) से आकृष्ट होकर प्रियतम के पास अभिसरण करे.

    — वैसे १०० से अधिक भेद नायिकाओं के किये जा चुके हैं. लेकिन 'संयोग' और 'विप्रलंभ' के इर्द-गिर्द ही ये भेद देखने को मिलते रहे हैं.

    ...

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  12. ...

    वह्नायिका' को 'वह नायिका' समझें ...
    इस बार लेख में मुद्रण त्रुटि मात्र 'काव्यशास्त्री 'भगीरथ मिश्र' के नाम के पूर्व में दिया गया 'डॉ.' अनुनासिक के साथ है.

    .

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  13. इतनी जानकारी तो स्कूली किताबों से भी नहीं मिली.

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  14. हिन्दी के प्रचार व प्रचार के लिए एक उपयोगी शृंखला के रूप में सुन्दर आलेख!

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  15. बहुत ही सुंदर जानकारियां दी आप ने धन्यवाद

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  16. @ प्रतुल वशिष्ठ जी,

    नमस्कार,

    आपकी टिप्पणी के संदर्भ में सर्वप्रथम तो इतना कहना चाहूंगा कि इस अंक का उद्देश्य विप्रलम्भ शृंगार का वर्णन था। एक ही अंक में नायक-नायिका आदि का भेद और लक्षण सम्भव नहीं था। नायक-नायिका भेद-प्रभेद आदि की मुख्य रूप से नाटक, उपन्यास, कथा आदि के संदर्भ में विशद रूप से चर्चा की गई है। नाट्यशास्त्र का प्रकरण आने पर इस विषय पर चर्चा होगी। वैसे, आपकी जानकारी के लिए संक्षेप में यहाँ विवरण दिया जा रहा है। नायकों के कुल अड़तालीस भेद बताए गए हैं - धीरोदात्त, धीरोद्धत, धीरललित और धीर प्रशान्त। पुनः प्रत्येक के चार-चार भेद - दक्षिण, धृष्ठ, अनुकूल और शठ होते हैं। इन सोलह भेदों में प्रत्येक के उत्तम, मध्यम और अधम भेद किए गए हैं। इसके अतिरिक्त पीठमर्द आदि कई प्रकार के सहनायक हैं।

    इसी प्रकार नायिका के प्रथम तीन भेद - स्वकीया, परकीया, और वेश्या - किए गए हैं। स्वकीया के पुनः - मुग्धा, मध्या और प्रगल्भा - तीन भेद किए गए हैं। पुनः मुग्धा के पाँच भेद किए गए हैं। मध्या के भी पाँच भेद होते हैं। इसी प्रकार प्रगल्भा के भी पाँच भेद होते हैं।

    पुनः मध्या और प्रगल्भा के तीन-तीन भेद - धीरा, अधीरा और धीराधीरा होते हैं। परकीया के दो भेद - परोढा(अन्य विवाहिता) और कन्या (अविवाहिता)। ये सभी नायिकाएं अवस्थाभेद से आठ-आठ प्रकार की होती हैं - स्वाधीनपतिका,खण्डिता, अभिसारिका, कलहान्तरता, विप्रलब्धा, प्रोषितभर्तृका, वासकसज्जा और विरहोत्कण्ठिता।

    उक्त विभाजन पुरुष या स्त्री के सम्मान या अपमान आदि को लक्षित कर नहीं किए गए हैं, अपितु समाज में पाए जाने वाले व्यक्तियों (स्त्री एवं पुरुष दोनों) के चरित्र, अवस्था आदि को ध्यान में रखकर किए गए हैं। नाटककार या रचनाकार अपने समाज के व्यक्तियों को ही पात्र बनाता है। शास्त्रकार उनका विश्लेषण मात्र करता है। जैसे भाषा पहले आती है और उसमें अपनाए गए अनुशासन को वैय्याकरण व्याकरणशास्त्र के रूप में जन्म देता है।

    आभार,

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  17. .

    आचार्य जी,
    आपने इतने विस्तार से मुझे समझाया उसके लिये मैं आपका आभारी हूँ. मैंने जो कुछ थोड़ा-बहुत पढ़ा था वह कभी पुस्तकालयों में ही पढ़ा था. कभी कोई पुस्तक खरीदी नहीं. शायद आचार्य रामदहिन मिश्र जी की किसी पुस्तक में मैंने यह सब पढ़ा था. लगभग २० वर्ष हो गये हैं, स्वाध्याय छूट-सा गया है. भारतनाट्यम नृत्य की शिक्षा लेते हुए ही मैंने अष्टनायिका भेद को जाना था. और अब आपके इस विस्तार ने मेरे संकलन को सुन्दरता दे दी है. ह्रदय से कृतज्ञ हूँ. आपने नायिका-भेद और नायक-भेद का जो फ्लो-चार्ट मेरे मानस में बना दिया है वह अब तक बेतरतीब था उसे एक व्यवस्थित रूप मिल गया है.
    आपसे क्षमा चाहता हूँ कि मैंने विषय से हटकर पूछा और विप्रलंभ-प्रवाह में व्यवधान डाला.

    .

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