सोमवार, 31 अक्तूबर 2011
प्रभुसत्ता निर्भर है कबाड़ी पर
रविवार, 30 अक्तूबर 2011
भारतीय काव्यशास्त्र – 89
आचार्य परशुराम राय
पिछले अंक में पदगत, पदांशगत, समासगत और सामान्य वाक्यगत दोषों पर समापन चर्चा हुई थी। इस अंक में केवल वाक्य में पाए जानेवाले इक्कीस दोषों में से प्रथम तीन दोषों - प्रतिकूलवर्णता, उपहतविसर्गता और विसंधि पर चर्चा की जाएगी।
जहाँ रस के प्रतिकूल वर्णों का और समासयुक्त लम्बे पदों (संस्कृत में) का प्रयोग काव्य में पाया जाय, वहाँ प्रतिकूलवर्णता दोष होता है। जैसे शृंगार रस में श्रुतिकटु वर्णों का प्रयोग और रौद्र, वीर आदि रसों में कोमल वर्णों का प्रयोग प्रतिकूलवर्णता दोष होता है। जैसे नीचे के श्लोक में शृंगार रस है, पर ठ वर्ण का इतनी बार प्रयोग हुआ है कि मजा किरकिरा कर देता है-
अकुण्ठोत्कण्ठया पूर्णमाकण्ठं कलकण्ठि माम्।
कम्बुकण्ठ्याः क्षणं कण्ठे कुरु कण्ठार्त्तिमुद्धर।।
अर्थात् हे कलकंठि (नायिका की मधुर कंठवाली दूती या सहेली), कम्बुकण्ठी (शंख के समान गरदन वाली नायिका) प्रियतमा से मिलने के लिए मेरी उत्कंठा कंठ तक आ गयी है, अतएव मुझे उसके कंठालिंगन के लिए अवसर देकर कंठ में मेरे फँसे प्राणों की रक्षा करो।
यहाँ बार-बार ठ का प्रयोग होने के कारण प्रतिकूलवर्णता दोष है। इसी प्रकार रौद्र रस में कटु वर्णों का प्रयोग न कर कोमल वर्णों का प्रयोग करने से प्रतिकूलवर्णता दोष निम्नलिखित श्लोक में देखा जा सकता है। यह श्लोक वेणीसंहार नाटक से लिया है और द्रोणपुत्र अश्वत्थामा की उक्ति है-
देशः सोयमरातिशोणितजलैर्यस्मिन् ह्रदाः पूरिताः
क्षत्रादेव तथाविधः परिभवस्तातस्य केशग्रहः।
तान्येवाहितहेतिघस्मरगुरूण्यस्त्राणि भास्वन्ति मे
यद्रामेण कृतं तदेव कुरुते द्रोणात्मजः क्रोधनः।।
अर्थात् यही वह देश (कुरुक्षेत्र) है, जहाँ परशुराम ने अपने पिता के केश पकड़ने वाले कार्तवीर्य अर्जुन सहित क्षत्रियों का विनाशकर उनके रक्तरूपी जल से तालाबों को परिपूर्ण किया था और शस्त्र उठानेवाले शत्रुओं को निगल जानेवाले वे ही उत्तम शस्त्र मेरे पास भी हैं। इसलिए जिस प्रकार उन्होंने उस समय समस्त क्षत्रियों का विनाश किया था, आज उसी प्रकार अपने पिता के केश पकड़कर हत्या करनेवाले क्षत्रियों का विनाश मैं क्रुद्ध द्रोणपुत्र अश्वत्थामा करूँगा।
यहाँ रौद्र रस के अनुकूल कटु वर्णों का प्रयोग काफी विरल होने और लम्बे समासयुक्त पदों के अभाव में प्रतिकूलवर्णता दोष है।
एक हिन्दी का उदाहरण लेते हैं। यह प्रकृति की शोभा के प्रति लक्ष्मण की उक्ति है। इसमें प्रकृति के प्रति अनुराग भाव के अनुकूल कोमल वर्णों का न प्रयोग कर ट-युक्त पदों के प्रयोग के कारण यहाँ भी प्रतिकूलवर्णता दोष है-
सब जाति फटी दुख की दुपटी कपटी न रहै जहँ एक घटी।
निघटी रुचि मीचु घटीहूँ घटी जगजीव-जतीन की छूटी चटी।
अघ-ओघ की बेरी कटी बिकटी निकटी प्रकटी गुरु ग्यान गटी।
चहुँ ओरनि नाचति मुक्ति नटी गुन धूरजटी जटी पंचवटी।
जब काव्य में ऐसे पदों का प्रयोग हो जिनमें विसर्ग का अनेक बार लोप हुआ हो या ओ के रूप में आया हो, तो वहाँ उपहतविसर्गता दोष होता है। इसमें व्याकरण समबन्धी कोई त्रुटि नहीं होती है। यह दोष हिन्दी में नहीं पाया जाता है। निम्नलिखित श्लोक में इसे देखा जा सकता है-
धीरो विनीतो निपुणो वराकारो नृपोऽत्र सः।
यस्य भृत्या बलोत्सिक्तता भक्ता बुद्धिप्रभाविताः।।
अर्थात् इस संसार में वही राजा धीर, विनीत, निपुण और सुन्दर है, जिसके सेवक अपने बल पर गर्व करते हों, स्वामी के प्रति निष्ठावान हों और बुद्धि के धनी हों।
यहाँ श्लोक के पूर्वार्द्ध में धीरो विनीतो निपुणो वराकारो नृपो में धीरः, विनीतः, निपुणः, वराकारः और नृपः पदों के विसर्ग का ओ हो गया है और उत्तरार्द्ध में भृत्या, बलोत्सिक्तता और भक्ता में इनके विसर्गों का लोप हो गया है। अतएव यहाँ उपहतविसर्गता दोष है।
जहाँ सन्धि आवश्यक हो, वहाँ सन्धि न होना या न करना ही विसन्धि दोष कहलाता है। विसन्धि दोष तीन प्रकार के होते हैं- विश्लेष, अश्लीलता और कष्टत्व। विश्लेष विसन्धि दोष भी पुनः तीन प्रकार के होते हैं- विवक्षाधीन विसन्धि, प्रगृह्यसंज्ञानिमित्तक विसन्धि और असिद्धहेतुक विसन्धि। ये दोष भी हिन्दी काव्य में नहीं पाये जाते। वैसे सन्धि करना या न करना वक्ता या लेखक की अपनी इच्छा है। इसी को विवक्षाधीन कहा जाता है। लेकिन जहाँ सन्धि की सम्भावना हो, वहाँ सन्धि न करना कवि की अक्षमता का द्योतक है। इसलिए इसे काव्य में दोष की संज्ञा दी गयी है। वैसे सन्धि के कारण काव्य में क्लिष्टता और अश्लीलता भी आ जाती है। अतएव कवि को ऐसे पदों का चुनाव कर काव्य का सृजन करना चाहिए कि विसन्धि भी न हो, अश्लीलता भी न हो और काव्य में क्लिष्टता भी न आन पाए।
निम्नलिखित श्लोक में विवक्षाधीन विसन्धि और प्रगृह्यसंज्ञानिमित्तक विसन्धि दोष देखे जा सकते हैं-
राजन्! विभान्तिभवतश्चरितानि तानि
इन्दोर्द्युतिं दधति यानि रसातलेSन्तः।
धीदोर्बले अतितते उचितानुवृत्ती
आतवन्ती विजयसम्पदमेत्य भातः।।
अर्थात् हे राजन्, आपके लोकोत्तर चरित्र चन्द्रमा की कान्ति की तरह गहनतम रसातल में भी प्रकाशमान हो रहे हैं और उत्तम एवं उचित कार्यों में संलग्न आपके बुद्धिबल और बाहुबल विजय-सम्पत्ति को संसार में विस्तृत कर सुशोभित हो रहे हैं।
यहाँ पहले दो चरणों में तानि और इन्दोः के बीच दीर्घ सन्धि कर तानीन्दोः पद बनाना चाहिए था। पर ऐसा करने से छन्द-भंग हो जाता। अतएव कवि ने विवक्षा (अपनी इच्छा) को आधार मानकर संधि नहीं की, यह उसकी स्वतंत्रता है। लेकिन काव्यशास्त्री यह मानते हैं कि कवि को ऐसे पदों का चुनाव करना चाहिए कि विसन्धि दोष भी न हो और छंद-भंग भी न हो। अतएव इन दो चरणों में उक्त कारण से विवक्षाधीन विसन्धि दोष है। अन्तिम दो चरणों में हर पद के बाद सन्धि की सम्भावना होते हुए भी सन्धि इसलिए नहीं की गयी है कि वह व्याकरण विरुद्ध होता। आचार्य पाणिनि के अनुसार द्विवचन में ई, ऊ और ए की प्रगृह्यसंज्ञा होती है और इसलिए इनमें संधि नहीं होती। अतएव यहाँ संधि न कर कवि ने गलत नहीं किया, क्योंकि व्याकरण का नियम उसकी अनुमति नहीं देता। अतएव यहाँ विसंधिदोष नहीं मानना चाहिए। काव्यशास्त्र का मत यह है कि ऐसी स्थिति का प्रयोग एक स्थान पर तो क्षम्य हो सकता है, लेकिन एक ही वाक्य में तीन स्थानों पर ऐसी स्थिति का होना कवि की अक्षमता को व्यक्त करता है। इसलिए यहां प्रगृह्यसंज्ञानिमित्तक विसंधि दोष है।
असिद्धहेतुक विश्लेष विसन्धि दोष के लिए निम्नलिखित श्लोक उद्धृत किया जा रहा है। यह पति को वरण करने के लिए उद्यत कन्या से उसकी सहेली की उक्ति है-
तत उदित उदारहारिद्युतिरुच्चैरुदयाचलादिवेन्दुः।
निजवंश उदात्तकान्तकान्तिर्बत मुक्तामणिवच्चकास्त्यनर्घः।।
अर्थात् अत्यन्त ऊँचे उदय गिरि से विशुद्ध मोती की माला के समान मोहक कान्ति से युक्त उदित चन्द्रमा के समान, उत्तम राजवंश में उत्पन्न, चमकती मोतियों की माला धारण किए सौन्दर्य से युक्त यह राजा उत्तम बाँस से उत्पन्न बहुमूल्य मणि की तरह शोभायमान हो रहा है।
इस श्लोक में तत और उदित पदों में विसर्ग सन्धि होने के कारण उसका लोप हो गया है, जो व्याकरण की दृष्टि से उचित होते हुए भी असिद्धहेतुक संधिविश्लेष के कारण विसन्धि दोष है।
इसी प्रकार ऐसे पदों का प्रयोग करना जिसमें संधि होने से अश्लीलता झलके, वहाँ अश्लीलताजन्य विसन्धि दोष होता है-
वेगादुड्डीय गगने चलण्डामरचेष्टितः।
अयमुत्तपते पत्री ततोSत्रैव रुचिङ्कुरु।।
अर्थात् वेग से आकाश में उड़कर उत्कट चेष्टाकर चलता हुआ यह बाज उत्तप्त हो रहा है, अर्थात् लगता है कि नायक यहीं है। अतएव यहीं अपनी इच्छा पूरी करो।
यहाँ चलन् और डामर पदों में सन्धि होने के कारण चलण्डामर हो गया है। किन्तु इसका लण्डा अंश विष्टा या शिश्न अर्थ का द्योतक होने के कारण अश्लीलता की झलक देता है। इसी प्रकार रुचिं और कुरु पदों की संधि के कारण रुचिङ्कुरु का चिङ्कु अंश स्त्री की योनि का वाचक होकर अश्लीलता का द्योतक है। इसलिए यहाँ अश्लीलताजन्य विसन्धि दोष है। अतएव कवि को ऐसे पदों का चुनाव करना चाहिए था, ताकि संधि करने के बाद भी ऐसी स्थिति न आती।
संधि के कारण क्लिष्टताजन्य विसंधि दोष के लिए निम्नलिखित श्लोक उद्धृत है-
उर्व्यसावत्र तर्वाली मर्वन्ते चार्ववस्थितिः।
नात्रार्जु युज्यते गन्तुं शिरो नमय तन्मनाक्।।
अर्थात् मरुदेश के अन्त में यहाँ विस्तृत पृथ्वी सुन्दर वृक्षों की पंक्ति से ढकी हुई है। यहाँ सीधे होकर चलना सम्भव नहीं, अतएव थोड़ा सिर झुका लो।
इस श्लोक में उर्वी+असौ=उर्व्यसौ, तरु+आली=तर्वाली, मरु+अन्ते=मर्वन्ते, चारु+ अवस्थितिः=चार्ववस्थितिः और अत्र+ऋजु=अत्रर्जु पदों मे संधि के कारण अर्थबोध में कठिनाई हो रही है। अतएव इस श्लोक में क्लिष्टताजन्य विसंधि दोष है। साथ ही कर्णकटु ध्वनियों की बहुलता आ गयी है, जिससे श्रुतकटुत्व दोष भी उत्पन्न हो गया है।
इस अंकमें बस इतना ही।
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शनिवार, 29 अक्तूबर 2011
फुरसत में… राजगीर के दर्शनीय स्थल की सैर-2
फुरसत में…
राजगीर के दर्शनीय स्थल की सैर-2
मनोज कुमार
पिछले अंक में हमने देखा कि ई.पू. छठी शताब्दी के पहले मगध में बार्हद्रथ के वंश का शासन था। इसकी राजधानी राजगृह या गिरिव्रज में थी। राजगृह यानी राजा का घर या निवास स्थान। चारों तरफ़ पाहाड़ियों से घिरे होने के कारण इसका नाम “गिरिव्रज” पड़ा।
“गृध्रकूट”
राजगृह बौद्ध धर्म का एक महत्वपूर्ण केन्द्र है। राजकुमार सिद्धार्थ (बुद्ध) संसार त्यागने के बाद मोक्ष प्राप्त करने की अभिलाषा से इस नगर में आए थे। अपने धर्म के प्रचार के लिए लम्बे समय तक यहां ठहरे। बुद्ध के लिए इस नगर का सबसे प्रिय स्थल “गृध्रकूट” अथवा गीद्ध का शिखर रहा। गृध्रकूट पहाड़ या गीद्ध शिखर नगर के बाहर एक छोटा सा पहाड़ है। गीद्ध के चोंच जैसी अजीब आकृति ही शायद इसके इस प्रकार के नाम का कारण है। इस जगह बुद्धत्व प्राप्ति के 16 साल बाद गौतम बुद्ध ने यहां पर 5000 बौद्ध संन्यासियों, जनसाधारण और बोधिसत्व की सभा में दूसरे धर्मचक्र प्रवर्तन का सिद्धान्त लिया। गृध्रकूट पर ही उन्होंने पद्मसूत्र को प्रस्तुत किया जिसमें सभी प्राणियों को मोक्ष प्रदान करने का वादा किया गया है। इस सूत्र में भगवान बुद्ध की करुणापरायणता की साफ झलक मिलती है जो आम लोगों के पार्थिव तकलीफ़ों को लेकर परेशान थे। जो भी बुद्ध के सामने अपना हाथ जोड़े या मुंह से “नमो बुद्ध’ का सिर्फ़ उच्चारण मात्र करता उन सबके लिए बुद्धत्व प्राप्ति की बात बताई गई है।
भगवान बुद्ध ने गृध्र कूट से ही ‘प्रज्ञा पारमिता’ सूत्र अथवा सही ज्ञान के सूत्र का भी उपदेश दिया था। इन उपदेश संग्रह को प्रदान करने में भगवान बुद्ध को 12 साल लगे और उन्होंने ख़ुद आनन्द से कहा कि इसमें उनके सारे उपदेशों का सारांश निहित है। फा-हियेन ने इस जगह एक गुफा का ज़िक्र किया है। व्हेन सांग ने इसके नीचे एक हॉल का ज़िक्र किया है जहां पर भगवान बुद्ध बैठए और उपदेश दिया करते थे। अब भी यहां शान्ति का वातावरण है।
ह्वेन सांग के अनुसार जब बिम्बिसार भगवान बुद्ध से मिलने गृध्रकूट के पहाड़ पर जाने लगा तब उसने अपने साथ बहुत से लोगों को भी ले लिया जिन्होंने घाटी को बराबर बनाया और खड़ी चट्टानों के बीच पुल बनाया और पहाड़ी पर चढ़ने के लिए दस कदम चौड़ी और पांच लम्बी सीढ़ी का निर्माण किया।
वृहद्रथ का पुत्र जरासंध शक्तिशाली शासक था। जरासंध के बाद भी इस वंश के शासक राजगृह पर शासन करते रहे। ई.पू. छठी शताब्दी में मगध में हर्यक कुल का शासन था। भगवान बुद्ध के समय इसी वंश का शासक बिम्बिसार मगध में राज कर रहा था। वह सोलह महाजनपद का काल था। उस समय के चार महान शक्तिशाली राजाओं में से एक बिम्बिसार भी था। अन्य तीन थे कोसल के प्रसेनजीत, वत्स के उदयन और अवन्ति के प्रद्योत। बिम्बिसार का वंश उतना ऊंचा नहीं था। बिम्बिसार एक सामान्य सामंत भट्टिय का पुत्र था। लेकिन अपने पौरुष और राज्य के विस्तार में वह बाक़ी तीनों के बराबर था। वह एक कुशल राजनीतिज्ञ था। अपने राजनीतिक कौशल से उसने मगध की विजययात्रा अनेकों राज्यों पर स्थापित की और सुदृढ़ मगध साम्राज्य की नींव डाली। अपनी शक्ति को सुदृढ़ करने के लिए उसने उस समय के राज्यों के साथ वैवाहिक संबंध स्थापित किए। उसने कोशल की राजकुमारी कोशल देवी जो महाकोशल की बेटी और प्रसेनजीत की बहन थी, से विवाह किया। इसके फलस्वरूप उसे दहेज में काशी मिली। इस प्रकार कोशल और मगध में मित्रता हो गई।
बिम्बिसार ने उसके बाद अपनी नज़र वैशाली पर डाली। वैशाली के लिच्छवि राजा चेटक की पुत्री चेलना के साथ विवाह करके उसने लिच्छवियों की मित्रता प्राप्त कर ली। इसके अलावे उसने मद्र की राजकुमारी क्षेमा के साथ भी विवाह किया। इस प्रकार मगध का प्रभाव क्षेत्र और भी विस्तृत हो गया। वैवाहिक संबंधों की नींव पर बिम्बिसार ने मगध के प्रसार की अट्टालिका खड़ी की। अंग आदि को जीत कर अपने राज्य में मिलाया। वह भगवान बुद्ध का समर्थक बना।
ऐसा अनुमान किया जाता है कि बिम्बिसार अपने पुत्र दर्शक की सहायता से शासन करता था। उसके समय जीवक नामक प्रसिद्ध वैद्य और महागोविन्द नामक प्रसिद्ध वास्तुकार भी हुए। महागोविन्द ने ही राजगृह का निर्माण किया था। उसका शासन काल ई.पू. 544 से ई.पू. 491 तक था।
ऐसा विश्वास चला आ रहा है कि बिम्बिसार के पुत्र अजातशत्रु ने उसे बन्दी बना लिया और उसकी हत्या कर बलपूर्वक सिंहासन पर अधिकार कर लिया। अजातशत्रु ने बिम्बिसार को जहां बन्दी बनाकर रखा उस जगह को बिम्बिसार का कारागार कहा जाता है। यह लगभग 60 कि.मी. का एक क्षेत्र है जिसके चारो तरफ़ 2 मी. चौड़ी दीवार है। इसके कोने पर वृत्ताकार बुर्ज बने हैं। बिम्बिसार ने ख़ुद अपने बन्दी जीवन के लिए इस जगह को चुना था क्योंकि इस जगह से वह गृध्रकूट पर्वत की चोटी पर अपने शैलावास पर चढ़ते हुए भगवान बुद्ध के दर्शन कर पाता। खुदाई से निकले इसके फ़र्श पर लगे लोहे के कड़े से इसके कारागार के अवशेष होने का प्रमाण मिलता है।
अजातशत्रु का अन्य नाम कुणिक भी था। पहले वह अंग की राजधानी चंपा में शासक नियुक्त हुआ और वहीं उसने शासन की कुशलता प्राप्त की। जनश्रुति के अनुसार भगवान बुद्ध के चचेरे भाई देवदत्त के उकसाने पर ही उसने पिता के विरुद्ध विद्रोह किया था। बौद्ध साहित्य में उसे कोशल देवी का और जैन साहित्य में उसे चेलना का पुत्र कहा गया है। अजातशत्रु के समय ही कोशल और मगध में संघर्ष शुरु हुआ। यह काफ़ी दिनों तक चला। इसमें कभी मगध तो कभी कोसल की विजय होती रही। बाद में कोसल के राजा प्रसेनजीत ने संधि कर ली और अपनी कन्या वजिरा का विवाह अजातशत्रु के साथ कर दिया। अंग, काशी, वैशाली आदि प्रदेशों को जीत कर उसने शक्तिशाली साम्राज्य खड़ा किया।
बाद में अजातशत्रु ने भी भगवान बुद्ध की शरण ली और बौद्ध धर्म को अपना लिया। पांचवीं सदी में भारत की यात्रा करने वाले चीनी यात्री फा-हियेन के अनुसार पहाड़ियों के बाहरी हिस्से में नया राजगृह नगर का निर्माण अजातशत्रु ने ही किया था। ह्वेन सांग ने भी इसका समर्थन किया है। पाली भाषा में लिखी पुस्तकों में कहा गया है कि उसने नए सिरे से राजगृह की किलाबन्दी की क्योंकि उसे अवन्ति के राजा प्रद्योत द्वारा आक्रमण की आशंका थी। बुद्धघोष ने कहा है कि नगर भीतरी और बाहरी दो हिस्सों में बंटा था। नगर के चारो तरफ़ 32 बड़े द्वार और 64 छोटे द्वार थे।
भगवान बुद्ध की मृत्यु के बाद अजातशत्रु उनके भस्म में से अपने हिस्से का भाग लाकर उस पर उसने राजगृह में एक स्तूप खड़ा किया। पुरातत्व विभाग के अनुसार अजातशत्रु द्वारा बनाया गया स्तूप का पता नहीं लगा। कुछ समय के बाद जब अग्रणी बौद्ध भिक्षुओं ने बुद्ध के उपदेशों की शिक्षा देने के उद्देश्य से एक मंडली बनाने के लिए एक सभा बुलाई तब अजातशत्रु ने इस मकसद के लिए सप्तपर्णी गुफा के सामने बने एक खास हॉल में उन लोगों के ठहरने का प्रबंध किया। उसका शासन काल ई.पू. 491 से ई.पू. 459 तक था।
अजातशत्रु के बाद दर्शक मगध का राजा हुआ। पर जैन और बौद्ध साहित्य के अनुसार उदायिन राजा हुआ था। उदायिन ने पाटलिपुत्र नगर बसा कर राजगृह से अपनी राजधानी बदल ली। उसने अपनी राजधानी पाटलिपुत्र स्थापित की। संभवतः वहां से बहने वाली गंगा नदी द्वारा संचार व्यवस्था की सुविधा को ध्यान में रखकर उसने राजधानी बदली होगी।
नागदशक को मगध की गद्दी से हटा कर शिशुनाग मगध का राजा बना। उसने राजगृह को एक बार फिर से मगध की राजधानी बनाया। यहीं से राजगृह की अवनति शुरु हुई। कालाशोक या काकवर्ण ने पुनः पटलिपुत्र को मगध की राजधानी बना डाला। परन्तु अशोक के द्वारा इस स्थान पर एक स्तूप और एक स्तम्भ का निर्माण इस बात को सिद्ध करता है कि ईसा पूर्व तीसरी सदी में भी इस स्थान का महत्व बिल्कुल खत्म नहीं हुआ था।
क्रमशः (अभी राजगृह के दर्शनीय स्थल की जानकारी बाक़ी है ...)
शुक्रवार, 28 अक्तूबर 2011
शिवस्वरोदय – 65
शिवस्वरोदय – 65
तद्रूपं कृष्णवर्णं यः पश्यति व्योम्नि निर्मले।
षण्मासान्मृत्युमाप्नोति स योगी नात्र संशयः।।356।।
भावार्थ – यदि वह रूप (भगवान शिव की आकृति) कृष्ण वर्ण का दिखाई पड़े, तो साधक को समझना चाहिए कि आने वाले छः माह में उसकी मृत्यु सुनिश्चित है।
English Translation – If the shape of Lord Shiva appearing in the sky is black, the practitioner should understand that his death will take place within six months.
पीते व्याधिर्मयं रक्ते नीले हानिं च विनिर्दिशेत्।
नानावर्णोSथ चेत्तस्मन् सिद्धिश्च गीयते महान्।।357।।
भावार्थ – यदि वह आकृति पीले रंग की दिखाई पड़े, तो साधक को समझ लेना चाहिए कि वह निकट भविष्य में बीमार होनेवाला है। लाल रंग की आकृति दिखने पर भयग्रस्तता, नीले रंग की दिखने पर उसे हानि, दुख तथा अभावग्रस्त होने का सामना करना पड़ता है। लेकिन यदि आकृति बहुरंगी दिखाई पड़े, तो साधक पूर्णरूपेण सिद्ध हो जाता है।
English Translation – Yellow appearance of the shape indicates that the practitioner will get sickness in near future. Red colour indicates fear; blue colour indicates loss, miseries and lacking in all respect. But if it appears in various colours, the practitioner gets all yogic powers.
पदे गुल्फे च जठरे विनाशो क्रमशो भवेत्।
विनश्यतो यदा बाहू स्वयं तु म्रियते ध्रुवम्।।358।।
भावार्थ – यदि चरण, टाँग, पेट और बाहें न दिखाई दें, तो साधक को समझना चाहिए कि निकट भविष्य में उसकी मृत्यु निश्चित है।
English Translation – In case feet, legs, stomach and arms are not visible in his own shadow, practitioner should understand that he is going to die in near future.
वामबाहौ तथा भार्या विनश्यति न संशयः।
दक्षिणे बन्धुनाशो हि मृत्युमात्मनि निर्दिशेत्।।359।।
भावार्थ – यदि छाया में बायीं भुजा न दिखे, तो पत्नी और दाहिनी भुजा न दिखे, तो भाई या किसी घनिष्ट मित्र अथवा समबन्धी एवं स्वयं की मृत्यु निकट भविष्य में निश्चित है।
English Translation – If left arm of the shadow is not visible, death of his wife and if right arm is not visible, death of his close friend or relative and practitioner is certain in near future.
अशिरो मासमरणं बिनाजंघे दिनाष्टकम्।
अष्टभि स्कंधनाशेन छायालोपेन तत्क्षणात्।।360।।
भावार्थ – यदि छाया का सिर न दिखाई पड़े, तो एक माह में, जंघे और कंधा न दिखाई पड़ें तो आठ दिन में और छाया न दिखाई पड़े, तो तुरन्त मृत्यु निश्चित है।
English Translation – If head of the shadow is not visible, the practitioner dies within one month; if thighs and shoulders are invisible, he dies within eight days and if shadow itself is invisible, he dies immediately then and there.
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गुरुवार, 27 अक्तूबर 2011
आँच - 93 : पुस्तक परिचय - पुस्तक परिचय आचार्य किशोरी दास वाजपेय़ी कृत “हिन्दी शब्दानुशासन
आँच - 93
पुस्तक परिचय
आचार्य किशोरी दास वाजपेय़ी कृत “हिन्दी शब्दानुशासन”
आचार्य परशुराम राय
आँच का आज का अंक निमित रूप से किसी रचना की समीक्षा का अंक न होकर पुस्तक परिचय के रूप में है। हिन्दी भाषा विज्ञान के क्षेत्र में आचार्य किशोरीदास वाजपेयी जैसे मनीषी कम ही हुए हैं। उन्होंने बहुत से ग्रंथों की रचना की, लेकिन उनका “हिन्दी शब्दानुशासन” साहित्य के विद्यार्थियों और अध्यवसायियों के लिए बहुत ही उपयोगी है। अतः विचार हुआ कि इसे एक परिचय के रूप में पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया जाए।
पूर्व में, अन्यत्र, उनके जीवन-वृत्त पर जो जानकारी मिल पायी, लिख मारा। जैसा कि पहले भी कई
हिन्दी भाषा पर आचार्य जी ने नौ पुस्तकें लिखी हैं। यदि इनके द्वारा विरचित ब्रजभाषा का व्याकरण और ब्रजभाषा का प्रौढ़ व्याकरण को जोड़ दिया जाय, इनकी संख्या ग्यारह हो जाती है। इन ग्रंथों को नीचे सूचीबद्ध किया जा रहा है- बार में लिखा गया था कि आचार्य किशोरीदास वाजपेयी जी जैसी हस्ती पर कलम उठाना बड़ा दुस्तर कार्य है। लेकिन इनकी कृतियाँ आज की हिन्दी के लिए कितनी महत्त्वपूर्ण हैं, इसकी जानकारी विद्वानों को तो है, पर उनकी संख्या बहुत कम है। क्योंकि जब इस महापुरुष पर ब्लॉग के लिए काम करने की जिज्ञासा हुई तो कुछ मित्र विद्वान अध्यापकों से आचार्य जी के सम्बन्ध में चर्चा की, तब मुझे आश्चर्य हुआ कि वे इस हस्ती से या तो पूर्णतया अनभिज्ञ हैं या केवल नाम सुना है। इसलिए अपनी तोतली भाषा में उनका गुणगान करने और हिन्दी जगत को उनकी देन पर चर्चा करने की ठानी। इस अंक से आचार्यजी की रचनाओं और भाषा के प्रति उनके मौलिक विचारों पर चर्चा आरम्भ करना अभीष्ट है।
1.हिन्दी शब्दानुशासन, 2. राष्ट्र-भाषा का प्रथम व्याकरण, 3. हिन्दी निरुक्त, 4. हिन्दी शब्द-निर्णय, 5. हिन्दी शब्द-मीमांसा, 6. भारतीय भाषाविज्ञान, 7. हिन्दी वर्तनी और शब्द विश्लेषण, 8. अच्छी हिन्दी और 9. अच्छी हिन्दी का नमूना।
इसके अतिरिक्त अन्य विषयों पर भी उन्होंने पुस्तकें लिखी हैं, जैसे- काव्यशास्त्र, इतिहास, संस्कृति आदि। इनपर फिर कभी एक-एक कर चर्चा की जाएगी, पर पहले भाषा पर लिखी पुस्तकों पर चर्चा अभिप्रेत है।
आचार्यजी ने बड़ी छोटी-छोटी पुस्तकें लिखी हैं। अधिकांश पुस्तकें 100 से 200 पृष्ठों की ही हैं। कुछ तो सौ पृष्ठों से भी कम हैं। अभीतक मैंने इनकी जितनी पुस्तकें देखी हैं, हिन्दी शब्दानुशासन सबसे भारीभरकम लगी। मेरे पास जो इसकी प्रति उपलब्ध है वह पाचवाँ संस्करण है, उसमें कुल 608 पृष्ठ हैं और इसका प्रकाशन नागरीप्रचारिणी सभा, वाराणसी * नयी दिल्ली से हुआ है। इस ग्रंथ का प्रथम संस्करण 1958 में नागरीप्रचारिणी सभा, वाराणसी द्वारा प्रकाशित किया गया था।
इस ग्रंथ में कुल तीन भाग हैं- पूर्व-पीठिका, पूर्वार्द्ध और उत्तरार्द्ध। इसके अतिरिक्त एक परिशिष्ट भाग है जिसमें हिन्दी की बोलियाँ और उनमें एकसूत्रता पर चर्चा की गयी है। चर्चा की गयी है। इसके अलावा परिशिष्ट में पंजाबी भाषा एवं व्याकरण तथा भाषाविज्ञान पर विद्वत्तापूर्ण मौलिक विश्लेषण देखने को मिलते हैं। आचार्यजी इस ग्रंथ के तीसरे संस्करण में सर्वनाम और तद्धित प्रकरणों को फिर से लिखना चाहते थे। पर उनके स्वास्थ्य ने साथ नहीं दिया और इसका यथावत पुनर्मुद्रण हुआ। तीसरे संस्करण के निवेदन में वे लिखते हैं-
“............ मेरी इच्छा थी कि सर्वनाम और तद्धित प्रकरण फिर से लिखे जाएँ। सभा को सूचित भी कर दिया था कि ये प्रकरण फिर से लिखकर भेजूँगा। परन्तु फिर हिम्मत न पड़ी। दिमाग एक विचित्र थकान का अनुभव करता है। इस पर अब जोर देना ठीक नहीं। डर है कि वैसा करने से अपने मित्र कविवर नवीन, महाकवि निराला, महापंडित राहुल सांकृत्यायन तथा कविवर अनूप की ही तरह इस उतरती उम्र में पागल न हो जाऊँ। .................”
हिन्दी शब्दानुशासन की पूर्व-पीठिका में हिन्दी की उत्पत्ति, विकास-पद्धति, प्रकृति और इसके विकास आदि के अतिरिक्त नागरी लिपि, खड़ी बोली का परिष्कार आदि पर बड़े वैज्ञानिक ढंग से विचार किया गया है। अपनी बात आचार्यजी इतने तार्किक ढंग से कहते हैं कि भाषा सम्बन्धी प्रश्नों को विश्राम मिल जाता है। इस भाग का अन्त उन्होंने हिन्दी के विकास की सारिणी देकर किया है।
इसके पूर्वार्द्ध भाग में कुल सात अध्याय हैं। प्रथम अध्याय में वर्णों पर विचार किया गया है, दूसरे में शब्द, पद, हिन्दी की विभक्तियों के प्रत्यय आदि पर, तीसरे में संज्ञा, सर्वनाम, लिंग-भेद, लिंग-व्यवस्था आदि का विश्लेषण है। चौथे अध्याय में अव्यय, उपसर्ग और परसर्ग पर विचार किया गया है। पाँचवे अध्याय में यौगिक शब्दों की प्रक्रियाओं, कृदन्त और तद्धित शब्दों एवं समास आदि पर विचार किया गया है। छठें अध्याय में क्रिय-विशेषण और सातवें अध्याय में वाक्य संरचना, वाक्य-भेद, पदों की पुनरुक्ति, विशेषणों का प्रयोग, भाववाचक संज्ञाओं और विशेषण, अनेक कर्तृक या बहुकर्मक क्रियाओं आदि का विवेचन किया गया है।
उत्तरार्द्ध भाग में कुल पाँच अध्याय हैं। प्रथम अध्याय में क्रिया से जुड़े तत्त्वों का विवेचन किया गया है, यथा - क्रियापद, धातु, धातुओं की उत्पत्ति, उनके प्रयोग, क्रियाओं के पुरुष और वचन, धातु-प्रत्यय, तिङन्त और कृदन्त क्रियाएँ, वाच्य, काल, द्विकर्मक, पूर्वकालिक एवं क्रियार्थक क्रियाएँ, हिन्दी धातुओं का विकास-क्रम, धातु और नामधातु के भेद। द्वितीय अध्याय में उपधातुओं के भेद, प्रेरणार्थक या द्विकर्तृक क्रियाएँ और उनकी रचना त्रिकर्मक और अकर्तृक क्रियाएँ का विवेचन मिलता है। तीसरे अध्याय में संयुक्त क्रियाएँ, चौथे में नामधातु और पाँचवें अध्याय में क्रिया की द्विरुक्ति पर विवेचन प्रस्तुत किया गया है।
परिशिष्ट भाग में हिन्दी की बोलियाँ और उनमें एकसूत्रता आदि पर विवेचन के साथ राजस्थानी, ब्रजभाषा, कन्नौजी या पाञ्चाली, अवधी, भोजपुरी (मगही) और मैथिली बोलियों (भाषाओं) के विभिन्न अवयवों पर विचार किया गया है। इसके अतिरिक्त पंजाबी भाषा एवं व्याकरण और भाषाविज्ञान पर विचार किया गया है।
इस ग्रंथ के बारे में डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी कहते हैं- अभी तक हिन्दी के जो व्याकरण लिखे गए, वे प्रयोग निर्देश तक ही सीमित हैं। “हिन्दी शब्दानुशासन” में पहली बार व्याकरण के तत्त्वदर्शन का स्वरूप स्पष्ट हुआ है।
(पाठकों के लिए एक बड़ी ही सुखद सूचना है कि वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली ने आचार्यजी के सभी ग्रंथों को आचार्य किशोरीदास वाजपेयी ग्रंथावली नाम से छः भागों में प्रकाशित किया है। इसका सम्पादन डॉ. विष्णुदत्त राकेश ने किया है और इसका ISBN No. 8181436857 और ISBN13 9788181436856 है। पूछताछ करने पर इसका वर्तमान मूल्य रु.5000/- वाणी प्रकाशन ने बताया है। यह विवरण केवल जानकारी के लिए दिया जा रहा है, कोई इसे विज्ञापन न समझे।)
बुधवार, 26 अक्तूबर 2011
खुशियाँ ले कर आयी दिवाली !
खुशियाँ ले कर आयी दिवाली !!
नमस्कार मित्रों,
ज्योति-पर्व पर अपनी एक पुरानी रचना ले कर आपकी सेवा में उपस्थित हूँ! इस गुजारिश के साथ कि आइए जलाएं एक दीया … मैत्री, सद्भाव और मानवता का। दीया-बाती की शुभ कामनाओं के साथ,
- करण समस्तीपुरी
आओ दीप जलायें आली !
खुशियाँ ले कर आयी दिवाली !!
सब पर्वों में प्रिय पर्व यह,
इसकी तो है बात निराली !
आओ दीप जालायें आली !!
बंदनवार लगे हैं घर-घर !
रात सजी है दुल्हन बन कर !!
दीपक जलते जग-मग-जग-मग !
रात चमकती चक-मक-चक-मक !!
झिल-मिल दीपक की पांति से,
रहा न कोई कोना खाली !
आओ दीप जलायें आली !!
दादू लाये बहुत मिठाई,
लेकिन दादी हुक्म सुनाई !!
पूजा से पहले मत खाना,
वरना होगी बड़ी पिटाई !
मोजो कहाँ मानने वाली,
छुप के एक मिठाई खा ली !
आओ दीप जालायें आली !!
अब देखें आँगन में क्या है,
अरे यहाँ तो बड़ा मजा है !
भाभी सजा रही रंगोली !
उठ कर के भैय्या से बोली,
सुनते हो जी ! किधर गए ?
ले आओ दीपक की थाली !
आओ दीप जलायें आली !!
अवनी एक पटाखा छोड़ी !
आद्या डर कर घर में दौड़ी !!
झट पापा ने गोद उठाया!
बड़े प्यार से उसे बुझाया !!
देखो कितने दीप जले हैं !
एक दूजे से गले मिले हैं !!
नन्हें दीपक ने मिल जुल कर,
रोशन कर दी रजनी काली !!
आओ दीप जालायें आली !!
-:शुभ दीपावली:-
मंगलवार, 25 अक्तूबर 2011
भगवान अवधूत दत्तात्रेय
अंक-3
भगवान अवधूत दत्तात्रेय
पिछले दो अंकों में भगवान दत्तात्रेय के 17 गुरुओं और उनसे प्राप्त शिक्षाओं का उल्लेख किया जा चुका है। इस अंक में शेष सात गुरुओं और उनकी शिक्षाओं पर चर्चा की जाएगी।
महाराज यदु के पूछने पर भगवान दत्तात्रेय ने अपने अठारहवें गुरु के रूप में एक छोटे पक्षी कुरर का उल्लेख किया है। वे कहते हैं कि हे राजन्, एक बार मैंने देखा कि एक कुरर पक्षी अपनी चोंच में मांस का टुकड़ा एक छोटा लेकर उड़ा जा रहा था। तभी शक्तिशाली पक्षी उस मांस के टुकड़े को छीनने के लिए उसके पीछे पड़े और अपनी चोंचों से उसपर आघात करने लगे। अन्त में अपनी रक्षा करने के लिए कुरर को मांस का टुकड़ा छोड़ना पड़ा। तब कहीं दूसरे पक्षियों ने उसका पीछा छोड़ा और कुरर को शान्ति मिली। मैंने उससे सीखा कि मनुष्य को संग्रह की प्रवृत्ति का परित्याग कर सदा अकिंचन भाव से रहना चाहिए। इससे उसे कभी कोई कष्ट नहीं होता, वह सदा सुखी रहता है।
भगवान तदत्तात्रेय ने अपना उन्नीसवाँ गुरु एक बालक (शिशु) को बताया है। वे कहते है कि एक बच्चा भूख लगने पर रोता है और माँ के दूध पिला देने के बाद वह चुप हो जाता है। संतुष्ट होने के बाद माँ कितना ही क्यों न खिलाने-पिलाने की कोशिश करे, वह मुँह फेर लेता है और मस्त रहता है। उसे मान-अपमान का जरा भी ध्यान नहीं रहता। उन्होंने आगे बताया कि इस संसार में केवल दो ही प्रकार के व्यक्ति निश्चिन्त और परम आनन्द में रहते हैं - एक नन्हा सा बालक और गुणातीत पुरुष। इसलिए मैं भी एक छोटे बालक की तरह अपनी आत्मा में रमता हूँ और सदा मौज में रहता हूँ।
हे राजन्, मेरा बीसवाँ गुरु एक क्वारी कन्या है। एक बार जब मैं भिक्षाटन करते हुए एक गाँव में गया। वहाँ एक घर के सामने भिक्षा के लिए रुका। घर से एक क्वारी कन्या बाहर आई और मुझे प्रतीक्षा करने के लिए कहा। खाना बनाते समय उसके हाथ की चूड़ियाँ आपस में टकराकर बज रही थीं। अतएव उसने एक चूड़ी उतारकर रख दी। फिर भी दूसरी चूड़ियाँ आपस में टकराकर बजती रहीं। इस प्रकार वह दोनों हाथों की एक-एक चूड़ी उतारती रही। जब एक बच गयी तो आवाज भी बन्द हो गयी। इससे मैंने सीखा कि एक से अधिक होने पर लोगों के बीच आपस सहमति, असहमति आदि को लेकर कलह, टकराव होते रहते हैं। शान्ति केवल एकान्त में ही मिलती है।
इसके बाद भगवान दत्तात्रेय ने बताया कि उनका इक्कीसवाँ गुरु बाण बनानेवाला है। उन्होंने कहा कि हे राजन्, एक बार मैं जब एक स्थान से गुजर रहा था, तो देखा कि एक बाण बनानेवाला बाण बनाने में इतना दत्तचित्त था कि राजा की पूरी सवारी निकल गयी और उसे पता तक नहीं चला। उससे मैंने सीखा कि व्यक्ति को वैराग्य और अभ्यास के द्वारा अपने मन को वश में कर उसे एक लक्ष्य में लगा देना चाहिए। इस प्रकार वह सतोगुण की वृद्धि से रजोगुणी और तमोगुणी वृत्तियों का त्याग कर शान्त हो जाता है जैसे ईंधन के अभाव में अग्नि। फिर धीरे-धीरे वह चेतना के सूक्ष्म से सूक्ष्मतर और अन्त में सूक्षतम स्तर पर जाग्रत होने में सफल होता है।
अपने बाइसवें गुरु के रूप में भगवान दत्तात्रेय ने साँप का उल्लेख किया है। साँप अपना घर नहीं बनाता। वह या तो चूहे आदि दूसरे जीवों के द्वारा खाली किए बिलों में रहता है या पेड़ों के कोटरों में निवास करता है और अकेले रहता है, कभी यह झुंड में नहीं रहता। वह एक स्थान पर बहुत दिनों तक नहीं रहता, अपना स्थान बदलता रहता है। अतएव मैंने उससे सीखा कि संन्यासी को सदा अकेले रहना चाहिए और एक स्थान पर कभी भी अड्डा या मठ बनाकर तो कभी भी नहीं। उसे हमेशा विचरण करते रहना चाहिए। वह अपना स्थायी निवास कभी न बनाए।
भगवान दत्तात्रेय ने अपना तेइसवाँ गुरु मकड़ी को बताया है। उन्होंने कहा हे राजन्, एक बार मैंने देखा कि एक छोटी मकड़ी जाला बनायी और जब बड़ी मकड़ी ने उसे खाने के लिए उसका पीछा की तो वह जाकर उसमें छिप गयी। तभी बड़ी घनघोर वर्षा होने लगी और वह छोटी मकड़ी अपने जाल में उलझ गयी और बड़ी मकड़ी ने उसे निगल लिया। मैंने उससे यह सीखा कि मनुष्य इस जगत में रहकर अपने लिए मानसिक जगत का निर्माण कर उसी में उलझा रहता है और जन्म-मृत्यु के बन्धन से निकल नहीं पाता।
भागवत महापुराण में इसे इस प्रकार कहा गया है कि मकड़ी जाल बनाती है और फिर बाद में उसे पुनः निगल लेती है जैसे ईश्वर इस सृष्टि को एक ओर से बनाता रहता है और दूसरी ओर से उसे समाप्त करता रहता है, अर्थात् सृजन और विनाश का अनवरत क्रम परिवर्तन के रूप में चलता रहता है।
अपना चौबीसवाँ गुरु भगवान दत्तात्रेय ने भृंगी (बिलनी) को कहा है। वह एक कीड़े को दीवार पर अपनी जगह ले जाकर बन्द देता है और वह कीड़ा भय से उसका चिन्तन करते-करते बिना अपना शरीर छोड़े वैसा ही शरीर धारण कर लेता है। उससे मैंने यह सीखा कि स्नेह से, द्वेष से या फिर भय से जान-बूझकर मन को एकाग्र करके लगा दे, तो वह तद्रूप हो जाता है।
अन्य ग्रंथों में यह बताया गया है कि गानेवाला पक्षी एक प्रकार के कीड़े को अपने घोंसले में ले जाकर वह मधुर स्वर में गाता है और कीड़ा उसके गाने पर इतना मुग्ध हो जाता है कि कब पक्षी उसे खा जाता है कि उसे पता ही नहीं चलता। इसी प्रकार मनुष्य को नाद-ब्रह्म में ऐसा लीन हो जाना चाहिए जिस प्रकार वह मृत्यु के भय से मुक्त हो जाता है और उसे मृत्यु तक का बोध नहीं रहता।
अगले अंक में इसी संदर्भ में कुछ और चर्चा होगी। इस अंक में बस इतना ही।
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सोमवार, 24 अक्तूबर 2011
प्रभुसत्ता निर्भर है आज कबाड़ी पर
सहगान सजे होंगे
नवगीत
सहगान सजे होंगे
श्यामनारायण मिश्र
मैं यहां जलता रहूंगा दीप सा
अबकी दीवाली
तुम आंखें न भरना।
सजनी री !
कहा-सुनी-टंटे
कमी-किल्लत, रोग-ताप
याद नहीं करना।
नैहर के सुख सपने
बूढ़ी मां, मुए बाप
याद नहीं करना।
बाबू की भंडरिया
थापना गनेश
अम्मा की भंडरिया लछमी।
बइया की आंखों
दीप सजा काजल
बब्बू के माथे मल देना भस्मी।
चौरे में पांच-सात
आले में आली
एक दीप धरना।
आंखें न भरना।
साथी रे !
कातिक में कैथे के नीचे
धानों की खरही–
खलिहान सजे होंगे।
बैलों के गत्थे
दांय औ गड़ायन
घुंघरू के रुनझुन
सहगान सजे होंगे।
खिरके में
गोल-गोल
गायें बिचकाना।
ग्वालों के
हियो-तता
नाच और गाना।
तुम्हें हो मुबारक
मेरे मन पंछी को
पंख है कुतरना
अबकी दीवाली
तुम आंखें न भरना।