आँच-49
‘मवाद’ पद का गुण दोष निरूपण
हरीश प्रकाश गुप्त
अनामिका जी द्वारा विरचित 'मवाद' कविता पर आँच का अंक 9 दिसम्बर को आया था। उस पर एक पाठक ने 'मवाद' पद को लेकर आपत्ति व्यक्त की थी कि काव्यशास्त्र के अनुसार “ 'मवाद' एक अरुचिकर शब्द है, इस पर समीक्षा में कुछ लिखा जाता तो लगता कि समीक्षा हुई है। ....” आदि । उनकी इच्छा थी कि उनकी टिप्पणी पर समीक्षक ही जवाब दे। अतएव सोचा कि क्यों न काव्यशास्त्र को आधार बनाते हुए इस पर एक शास्त्रीय चर्चा ही की जाए। अतएव यह अंक प्रस्तुत है। वैसे, 16 दिसम्बर के लिए यह नियत था लेकिन किन्हीं तकनीकी कारणों से उस दिन पोस्ट नहीं हो पाया।
जहाँ तक काव्यशास्त्र के अध्ययन की बात है, तो मैंने कालेज में काव्यशास्त्र अवश्य नहीं पढ़ा, लेकिन साहित्यिक परिवेश में रहते हुए और हिन्दी साहित्य के आचार्यों के सम्पर्क में रहकर काव्यशास्त्र को जाना है। भारतीय काव्यशास्त्र के रस सम्प्रदाय, अलंकार सम्प्रदाय, रीति सम्प्रदाय, वक्रोक्ति सम्प्रदाय, ध्वनि सम्प्रदाय और औचित्य सम्प्रदाय के प्रमुख आचार्यों द्वारा विरचित काव्यशास्त्र के ग्रंथों को पढ़ा नहीं है, उनका अध्ययन किया है। वामन, भामह, दण्डी, आनन्दवर्द्धन, क्षेमेन्द्र, मम्मट, अप्पय्यदीक्षित, जयदेव, विश्वनाथ आदि आचार्यों की कृतियोँ का गुरुजनों के सान्निध्य में अध्ययन किया है। इसके अतिरिक्त आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, डॉ हजारी प्रसाद द्विवेदी, डा0 नामवर सिंह आदि को भी पढ़ा है। हाँ, पाश्चात्य काव्यशास्त्र पढ़ने का अधिक अवसर अवश्य नहीं मिल पाया। लेकिन कहीं भी ‘अरुचिकर’ पारभाषिक शब्द अथवा अरुचिकर शब्दों की सूची देखने को नहीं मिली।
उपर्युक्त टिप्पणी से पाठक का तात्पर्य काव्यदोष है। अतएव इस अंक में काव्यदोषों पर ही चर्चा की जा रही है। आचार्य मम्मट और विश्वनाथ ने अपने ग्रंथों - क्रमश: काव्यप्रकाश और साहित्यदर्पण में काफी विस्तार से प्रकाश डाला है। अतएव प्रस्तुत चर्चा के लिए इन्हीं ग्रंथों को आधार बनाया जा रहा है।
इन ग्रंथों में रस में अपकर्ष लाने वाले कारकों को ही दोष माना गया है। आचार्य मम्मट और आचार्य विश्वनाथ, लगभग दोनों, काव्यदोष की इस परिभाषा से सहमत हैं। आचार्य क्षेमेन्द्र ने अनौचित्य को रसभंग का सबसे अहम कारण माना है - ‘अनौचित्यादृते नान्यत् रसगतस्य कारणम्’। कुछ इसी प्रकार का विचार ध्वन्यालोककार आचार्य आनन्दवर्धन का भी है।
भारतीय काव्यशास्त्र में काव्य-दोषों के छ: भेद किए गए हैं:-
पद दोष, पदांश दोष, समास दोष, वाक्य दोष, अर्थ दोष और रस दोष।
निम्नलिखित तेरह दोष, पद, समास और वाक्य तीनों में पाए जाते हैं।
1- दु:श्रवत्व या श्रुतिकटुत्व
2- अश्लीलत्व
3- अनुचितार्थत्व
4- अप्रयुक्तत्व
5- ग्राम्य
6- अप्रतीत्व
7- संदिग्धत्व
8- नेयार्थत्व
9- निहतार्थत्व
10- अवाचकत्व
11- च्युतसंस्कारत्व
12- असमर्थत्व
13- निरर्थकत्व
उक्त दोषों के अतिरिक्त आचार्य मम्मट तीन दोषों - क्लिष्टत्व, अविमृष्टविधेयांश और विरुद्धमतिकारिता को केवल समास-दोष मानते हैं। निरर्थकत्व, असमर्थत्व और च्युतसंस्कारत्व - तीन दोष केवल पदगत दोष माने गये हैं। इनमें से अधिकांश दोष पदांश दोष के अन्तर्गत भी आते हैं।
उक्त दोषों के अतिरिक्त आचार्य मम्मट ने 21 वाक्य दोष बताए हैं, जबकि आचार्य विश्वनाथ ने इनकी संख्या 23 बताई है। अर्थ-दोषों की संख्या दोनों ही आचार्यों ने तेईस बताई है। रस-दोषों की संख्या तेरह है।
सर्वप्रथम दु:श्रवत्व या श्रुतिकटुत्व दोष लेते हैं। चवर्ग, टवर्ग, रेफ आदि वर्णों की श्रुति-कटु वर्ण माना गया है। शृंगार आदि के वर्णन में इन वर्णों से युक्त-प्रयुक्त पदों (शब्दों) के कारण यह दोष आता है। जबकि रौद्र और भयानक रसों में गुणाधायक अर्थात् उत्कर्षकारक माना गया हैं।
अश्लीलत्व दोष तीन प्रकार के होते हैं - ब्रीडा (लज्जा), जुगुप्सा (घृणा) और अमंगल। ब्रीडा दोष वहाँ माना जाता है जहाँ गुप्तांगों को व्यंजित करने वाले पदो का प्रयोग कि गया हो। 'अपान वायु' आदि के व्यंजक पदों का प्रयोग जुगुप्सा के अन्तर्गत गृहीत होता है। अमंगल दोष अमंगल वाची पदों के प्रयोग के कारण पाया जाता है। इसके लिए संस्कृत का एक उदाहरण द्रष्टव्य है -
'प्रससार शनैर्वायुर्विनाशे तन्वि ते तदा।'
अर्थात् हे तन्वि, तुम्हारे विनाश (अदर्शन = चले जाने) के समय वायु धीरे से निकली।
यहाँ 'वायु' पद अपानवायु के लिए प्रयुक्त होने के कारण जुगुप्सा दोष कारक हो गया है और चले जाने के अर्थ में प्रयुक्त 'विनाश' पद कविता को अमंगल-दोष से दूषित करता है।
अनुचितार्थ दोष वहाँ होता है जहाँ प्रयुक्त पद उद्दिष्ट अर्थ से इतर अर्थ दे। जैसे युद्ध रूपी यज्ञ में पशुभूत वीर लोग अमरत्व प्राप्त करते हैं। यहाँ द्रष्टव्य है कि यज्ञ में पशुबलि के समय पशुओं में कातरता देखने को मिलती है, जबकि वीर युद्ध में साहस, धैर्य और शौर्य का परिचय देते हैं। अतएव यहाँ पशु शब्द प्रयोग से अनुचितार्थत्व दोष है।
कुछ पद ऐसे होते हैं जो व्याकरण कोष आदि की दृष्टि से तो उचित होते हैं किन्तु कवि वर्ग उनका प्रयोग नहीं करता। ऐसे पदों का काव्य में प्रयोग अप्रयुक्तत्व दोष कहलाता है। जैसे, व्याकरण और कोषादि के अनुसार 'पद्म' शब्द संस्कृत में पुल्लिंग और नपुंसक लिंग, दोनों में प्रयुक्त होता है, किन्तु संस्कृत में कवियों ने इसे नपुंसक लिंग में ही प्रयोग किया है। अतएव यदि इसका पुल्लिंग में प्रयोग करते हैं तो उसे अप्रयुक्तत्व दोष कहेंगे। वैसे, हिन्दी साहित्य के सदंर्भ में यह प्रासंगिक नहीं लगता।
संस्कृत में ‘श्रोणि’, ‘नितम्ब’ आदि पद नागर कहलाते हैं, जबकि 'कटि' शब्द को ग्राम्य माना गया है। ऐसे पदों के प्रयोग से काव्य में ग्राम्य दोष माना जाता है। वैसे, आज के संदर्भ में हिन्दी साहित्य में ग्राम्य दोष की भी सार्थकता नहीं है।
कुछ शब्द ऐसे होते हैं जो शास्त्र विशेष में सामान्य अर्थ में प्रयुक्त न होकर विशिष्ट अर्थ में प्रयुक्त होते हैं। लेकिन यदि काव्यादि में भी उसी अर्थ में प्रयोग किया जाता है तो वे वहाँ अप्रतीतत्व दोष से दूषित कर देते हैं। जैसे - अशुभ कर्मों से उत्पन्न वासना नामक संस्कार के लिए योगशास्त्र में 'आशय' शब्द प्रयोग किया गया है। यदि उसी संस्कार का संकेत करने के लिए काव्य में उक्त शब्द का प्रयोग करते हैं तो अभीष्ट अर्थ की प्रतीति में बाधा पड़ेगी, अतएव वहाँ अप्रतीतत्व दोष होगा।
जहाँ कार्य में प्रयुक्त पद अर्थग्रहण में सन्देह पैदा करे, वहाँ संदिग्धत्व दोष होता है। ‘बकार’ और ‘वकार’ की अभिन्नता इस संदेह का कारण है। जैसे - बंदी और वंदी शब्दों में 'बंदी' कैदी के अर्थ में प्रसिद्ध है और 'वंदी' चारण आदि के अर्थ में प्रयुक्त होता है। अतः यदि ऐसे प्रयोग होते हैं तो वहाँ संदिग्धत्व दोष होगा।
नेयार्थ दोष वहाँ होता है जहाँ लक्षणा के दो कारणों - रूढ़ि और प्रयोजन के बिना लाक्षणिक शब्द का प्रयोग किया गया हो। जैसे - हे सुन्दरी, तुम्हारे मुख ने कमल को लात मारी, जिससे वह सुन्दर हो गया।
यहाँ मुख द्वारा लात मारने में लक्षणा के दोनों कारणों का अभाव है, क्योंकि मुख के पास लात (पैर) नहीं है। अतएव यहाँ नेयार्थ दोष है।
प्रसिद्ध और अप्रसिद्ध दोनों अर्थों के वाचक शब्द का अप्रसिद्ध अर्थ में प्रयोग निहतार्थत्व दोष कहलाता है। जैसे 'शम्बर' शब्द जल का भी पर्याय है, लेकिन इसका प्रयोग शम्बर नामक असुर के लिए होता है। अतएव जल के अर्थ में इसका प्रयोग निहतार्थ दोष के रूप में लिया जाएगा। इसी प्रकार 'शोणित' शब्द का लाल रंग के अर्थ में प्रयोग भी निहतार्थ दोष ही होगा।
अप्रयुक्तत्व दोष एकार्थक शब्द में होता है, जबकि निहतार्थत्व अनेकार्थक शब्द में।
यदि कोई शब्द ऐसे अर्थ में प्रयोग किया जाए जिसका वह वाचक न हो, तो वहाँ अवाचकत्व दोष होता है। जैसे सूर्य के प्रकाश से युक्त अवधि को ही 'दिन' कहा जाता है। यदि किसी अन्य प्रकाशयुक्त समय को दिन कहा जाये, तो वहाँ अवाचकत्व दोष होगा।
जहाँ पदों को इस प्रकार प्रयोग किया जाये कि अर्थ की प्रतीति में व्यवधान उत्पन्न हो तो वहाँ क्लिष्टत्व दोष माना जाता है। जैसे:-
'हे हर हार अहार सुत विनय करउँ कर जोरि' में 'पवनसुत' के लिए हर (शिव) के हार (सर्प) के आहार (पवन) सुत अर्थ की प्रतीति में बाधा उत्पन्न हो रही है। अतएव यहाँ क्लिष्टत्व दोष है।
सूरदास जी ने अपने पदों में इसका यत्र-तत्र प्रयोग किया है:-
' मघ पंचक लै गयो साँवरो
..... ..... ......
मंदिर अरध अवधि बदि हमसो हरि अहार चलि जात
..... ..... ......
नखत वेद गुह जोरि अर्ध करि सोइ बनत अब खात '
यहाँ 'मघ पंचक' मघा नक्षत्र से पाँचवाँ नक्षत्र चित्रा है जिसका अर्थ मन, मंदिर अरध अवधि, घर का आधा हिस्सा पाख या पक्ष कहलाता है जिसका अर्थ एक पक्ष अर्थात 15 दिन, 'हरि अहार', अर्थात सिंह का आहार मांस का अर्थ मास अर्थात एक महीना और 'नखत वेद ग्रह जोरि अर्ध करि' सत्ताइस नक्षत्र, चार वेद और नौ ग्रह को जोड़ने पर चालीस होता है और उसका आधा बीस से विष का अर्थ लिया गया है।
अविमृष्टविधेयांश दोष सामान्यतया समास के कारण आते हैं क्योंकि किसी समास में पूर्व पद प्रधान होता है, किसी में उत्तर पद प्रधान होता है, तो किसी में अन्य पद। यदि समास के कारण विधेय की प्रधानता अप्रधान हो जाये तो उसे अविमृष्टविधेयांश दोष कहेंगे।
व्याकरण की दृष्टि से अशुद्ध पद का प्रयोग च्युतसंस्कार दोष कहलाता है। जैसे:- पूज्यनीय, दैन्यता आदि। क्योंकि पूज्य या पूजनीय दानों का एक ही अर्थ है - पूजा करने योग्य, अतएव एक ही अर्थ के लिए दो भिन्न प्रत्ययों का एक साथ प्रयोग गलत है। वैसे ही 'दीन' शब्द से व्यतुपन्न भाववाचक संज्ञा दैन्य और दीनता हैं। दैन्य के साथ पुन: 'ता' भाववाचक प्रत्यय का प्रयोग भी च्युतसंस्कारत्व दोष के अन्तर्गत आएगा।
असमर्थत्व दोष वहाँ होता है जहाँ पद को ऐसे अर्थ में प्रयोग किया गया हो जिसे बताने की शक्ति शब्द में न हो।
जहाँ मात्र पाद (चरण) पूर्ति (छंदों में) के लिए ही, थी आदि शब्दों का प्रयोग किया जाये, वहाँ निरर्थकत्व दोष होता है।
विरुद्धमतिकारिता दोष एक समासगत दोष है। जैसे भवानीपति या रघुनन्दनवल्लभा-पति आदि इस दोष के अन्तर्गत आते हैं क्योंकि भवानी का अर्थ भव (शिव) की पत्नी अर्थात् पार्वती, पुन: उनके पति - भवानीपति कहने से यह पार्वती के किसी दूसरे पति की प्रतीति कराता है। अतएव यहाँ विरुद्ध मति उत्पन्न होने के कारण विरुद्धमतिकारिता दोष होगा।
इसी ब्लाग पर आचार्य परशुराम राय द्वारा विरचित भारतीय काव्यशास्त्र की शृंखला चल रही है और यह विषय वहाँ चर्चा में आने वाला है, अतएव अन्य दोषों का यहाँ स्पर्श नहीं किया जा रहा है। काव्य दोषों का क्रम आने पर वे पूर्णरूपेण इनका विवेचन करेंगे। यहाँ केवल पद दोषों को ही, प्रसंगवश, लिया गया है। उक्त विवरण के परिप्रेक्ष्य में यदि हम देखें तो अश्लीलत्व दोष के दूसरे उपभेद जुगुप्सा (घृणा) व्यंजक पद के रूप में अनामिका जी की रचना में प्रयुक्त पद 'मवाद' को लिया जा सकता है। लेकिन उक्त रचना में 'मवाद' गुणकारी है क्योंकि रिश्ते रूपी नागफणी के काटों से बने व्रण से मवाद का निकलना सार्थक है। यह पद किसी भी रूप में भाव का अपकर्षक नहीं है, बल्कि उसमें भावोत्कर्ष देखने को मिलता है।
वीभत्स रस का स्थायिभाव जुगुप्सा ही है। अतएव वीभत्स रस में तथाकथित अरुचिकर एवं घृणा व्यंजक पदों का प्रयोग अनिवार्य भी है। वीभत्स रस के लिए हिन्दी की एक सवैया उदाहरण रूप में नीचे दी जा रही है जिसमें तथाकथित रूप से अरुचिकर शब्द दिखते हैं लेकिन इनके प्रयोग के बिना इतना स्वाभाविक चित्रण संभव नहीं होता। देखें -
सिर पै बैठो काग आँखि दोउ खात निकारत।
खींचत जीभहिं स्यार अतिहि आनँद उर धारत॥
गिद्ध जाँघ कहँ खोदि-खोदि के माँस उचारत।
स्वान आँगुरिन काटि-काटि के खान विचारत॥
बहु चील नोचि ले जात तुच, मोद मढ़्यो सबको हियो।
जनु ब्रह्मभोज जिजमान कोउ, आजु भिखारिन कहँ दियो॥
इसी प्रकार के प्रयोग कुछ अन्य कवियों द्वारा भी किए गए हैं। उदाहरण देखें -
हम गोरु तुम गुआर गुसाईं जनम-जनम रखवारे।
कबहुँ न पार उतरि चढ़ाएहु कैसे खसम हमारे।।
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कहै कबीर सुनौ रे सन्तौ मेरी - मेरी झूठी
चिरकुट फाड़ि चुहाड़ा लै गयो तनी तागरी छूटी।। - कबीर दास
अन्दर बाहर धींगामुश्ती, परमारथ में भारी सुस्ती
स्वारथ में तो बेहद चुस्ती, एक दूसरे की जड़ काटें
तकरीरों से अग जग पाटें, अंग्रेजी की धकापेल है
हिंदी उर्दू खतम खेल है ......... - नागार्जुन
माँ बहनों की इज्जत लूटी जिन लोगों ने
उनकी जय हो।
खून बहाया जिन लोगों मासूमों का, जिन लोगों ने
उनकी जय हो।
दाँत गड़ाने को जो व्याकुल, उन कुत्तों की
जय हो। - अरुण कमल (‘सबूत’ से)
ओ! बे! अबे! सुन बे गुलाब! - महाकवि निराला (कुकुरमुत्ता से)
नागार्जुन की कविताओं के बारे में डॉ नगेन्द्र की उक्ति द्रष्टव्य है –
‘कविता में उनकी मार्क्स वादी चेतना, उनका तीक्ष्ण व्यंग्य और उनकी भदेश परिहास प्रियता अक्षुण्ण बनी रही। उनके जैसी तीक्ष्ण व्यंग्यात्मकता शायद ही किसी प्रगतिवादी कवि में हो’
इसी प्रकार धूमिल की ‘मोचीराम’ कविता में अनेक अश्लील शब्दों का प्रयोग मिलता है। इसके बावजूद इस कविता के बारे में प्रख्यात समालोचक डॉ बच्चन सिंह लिखते हैं -
‘……………. धूमिल के ‘मोचीराम’ का जिक्र किए बिना धूमिल प्रकरण अधूरा रहेगा ...... यह उनकी सर्वोत्तम रचना है – निहायत संयमित और निहायत प्रभावशाली - जटिल व्यापारों और बिम्बों से गुँथी हुई …………….. ’
इसी कविता की एक पंक्ति देखिए –
..................................
या रंडियों की दलाली करके
रोजी कमाने में कोई फर्क नहीं है।
धूमिल की कविताओं में औरत के प्रति उनका रुख और उसके संदर्भ में प्रयुक्त बिम्ब विकृत हो चले हैं। इसके बावजूद वे प्रगतिशील चेतना के स्थापित कवि हैं और उनकी कविताओं को नकारा नहीं गया है।
उक्त संदर्भों को देखकर नहीं लगता कि अनामिका जी की रचना मवाद में प्रयुक्त मवाद पद काव्यशास्त्र की दृष्टि से या आज के संदर्भ में अन्यथा रूप से किसी भी प्रकार से अरुचिकर है या फिर अशोभनीय।
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