शनिवार, 6 अगस्त 2011

फ़ुरसत में ... दुखवा मैं का से कहूं सजनी!

फ़ुरसत में ...

दुखवा मैं का से कहूं सजनी!

vcm_s_kf_repr_695x748मनोज कुमार

images (55)आजकल एक सिरियल आता है – अम्‍मा जी की गली”। मुझे बहुत पसंद है। गली क्‍या है ... बस यादों का गलियारा है। उसमें एक महिला पात्र है जो लच्‍छेदार भाषा में अपनी बात कहती है। पिछले किसी एपिसोड में उसका एक संवाद था –

जब तुम अपनी इच्‍छाओं की जलेबी को जिंदगी की कड़ाही में रखकर मेहनत की आग पर तपाओगे और अपने इरादों की चासनी में डुबाओगे तभी तो वह पक कर तैयार होगी।”

इस तरह के संवाद उस गली के किसी सदस्‍य की समझ में नहीं आते, तो लोग उस महिला की बहू की ओर प्रश्‍नवाचक दृष्‍टि से देखते हैं, और बहू, इंटरप्रेटर की भूमिका का निर्वाह करती हुई उसका अर्थ बताती है –

“योजना बद्ध तरीक़े से किसी काम पर मेहनत और लगन से अमल किया जाए तभी उसके सुपरिणाम मिलेंगे।”

वह भी एक ज़माना था जब बहुएं सास की ज़ुबान समझती थीं। आंखो से किए गए इशारों का पालन होता था। आज तो ... आंखें दिखाने का ज़माना आ गया है।

वो ज़माना था जिसमें हर बात पर संवाद होता था। बातें लच्छेदार हुआ करती थीं .. और तब की बातें भी लच्‍छेदार इसीलिए हुआ करती थीं, कि लोग संवाद करते थे। मंडली जमती थी। चौपाल लगती थी। आंगन-ओसारे पर बहुंए, सासें, ननदें जुटती थीं। लंबी-लंबी गुफ्तगू का सि‍लसिला चला करता था। आज तो आंगन दीवारों से बंट गए हैं – मन में दरारें हैं, ड्राइंग रूम से बेडरूम तक सिमटी दुनिया है, एकाकीपन है, खालीपन है, जीवन में हजार उलझने हैं, मन में अशान्ति है।

कहते हैं जीवन में शिक्षा का असर भी होता है। आज की शिक्षापद्धति है Objective type question और answer का। .... चार उत्तर सामने रखे हैं, – एक में टिक लगाना है। लेकिन इस शिक्षा पद्धति से जीवन की समस्‍यायों का, अगर चार समाधान में से एक में टिक लगाकर, हल हो जाता तो ... समस्या ... समस्या रहती ही नहीं।

इसके अलावा अमुक प्रश्‍न का उत्तर 25 शब्‍दों में, अमुक का 50 में। लेकिन जब उस अर्जित ज्ञान को जीवन में ढालने का अवसर आता है, तो शब्‍दों में पढ़ी गई शिक्षा अक्षरों में तब्‍दील हो जाती है। जहां ठहाके लगाने की ज़रूरत है वहां चवन्नी मुस्कान से काम चला लेते हैं। इंटरनेट पर भी देखता हूँ ... लोग हंसने मुस्‍कुराने को संकेतों से ही निपटा लेते हैं - :) … :D … ;) …

जबसे टेलीफोन आया लोगों ने लंबे-लंबे पत्र लिखना छोड़ दिया, मोबाइल आने के बाद तो एसएमएस से ही बातें निपटाने लगे ! अब तो आलम ये है कि गांव छोड़कर बेटा घर से दूर शहर में पढ़ने जा रहा होता है तो मां कहती है – ‘पहुँचते ही मिस्‍ड कॉल कर देना ... ताकि पता चल जाए कि पहुँच गए तुम।’ इस तकनीकी युग में हम रिश्‍तों की गरमी, आपसी माधुर्य को इस मिस्‍ड कॉल के द्वारा कितनी गराई दे रहे हैं, क्‍या-क्‍या मिस कर रहे हैं, ... क्‍या बताएं?

आज की शिक्षा-पद्धति की परीक्षा के प्रश्‍नों के उत्तर देते वक़्त एक शब्‍द से Fill in the blanks तो हम कर देते हैं, पर जीवन की परीक्षा में वह blank इतना बढ़ जाता है कि रिश्‍ते निभाने के इम्तहान में हम फेल हो जाते हैं। हम लोग उन दिनों 10-15 पेज की चिट्ठियां लिखकर अपनी, इसकी-उसकी, अड़ोस-पड़ोस की, सारी बातें लिख देते थे। उन दिनों अधिक से अधिक विस्तार-पूर्वक लिखना, अलंकारिक भाषा का प्रयोग करना और आलेख में कोटेशन देना एक चलन था। आज तो मिनी पोस्‍ट, माइक्रो पोस्‍ट और ट्विट करने का ज़माना है।

उन दिनों की भाषा को दर्शाने के लिए कुछ विद्वानों के उदाहरण पेश करता हूं ...

शाम ढलने के लिए कहते थे – सूरज थक कर पीला हो चुका था।

भोजन शुरु करने के लिए कहते थे – दंत अन्न युद्ध प्रारंभ हो चुका था।

ढलती हुई रात को लिखा जाता था – रसिकों के विलास को देखकर चंद्रमा भी लज्जित होकर भाग रहा था।

ज़्यादा ज़बान चलाने वाले को चुप रहने के लिए कहा जाता था – अपनी अबाध गति से चल रही जिह्वा पर अंकुश लगा।

गुरु की बातें ही सिरोधार्य हो इसके लिए – गुरुकुल में अन्य लोगों की बातें अवज्ञा के कान से सुनी जाती है।

ये सब महान साहित्यकारों की पंक्तियां हैं। याद कीजिए किनकी हैं? याद आ जाए तो हमसे भी शेयर कीजिएगा। यह कोई आपका ज्ञान चेक करने के लिए हमने नहीं कहा है। इसी बहाने हमारा आपसे संवाद हो जाएगा। वरना आजकल संवाद करना कौन चाहता है? लोग तो Moderation लगा देते हैं।

खैर ... आगे बढ़ें। इन्हें पढ़-पढ़ कर हम बड़े हुए थे। ... तो हमारी शैली भी उसी तरह की होती थी, शैली ही क्या, शिक्षा पद्धति भी उन दिनों इसी तरह की थी, उन दिनों मैट्रिक ग्‍यारहवीं क्‍लास तक होता था, लोअर प्राइमरी चार कक्षा तक, बाल कक्षा, पहली, दूसरी और तीसरी कक्षा। मिडिल स्‍कूल चौथी कक्षा से सातवीं कक्षा तक और मैट्रिक आठवीं से ग्‍यारहवीं तक। सातवीं कक्षा में भी बोर्ड की परीक्षा होती थी। विषयों की बात करें तो अंग्रेजी और हिंदी के 100-100 अंको के दो-दो प्रश्न-पत्र, इतिहास 100 अंक के, भूगोल 100 अंक के, गणित 100 अंक के और उसके अलावा ऐच्छिक विषय होता था। जिन्‍हें विज्ञान पढ़ना होता था वे जीव विज्ञान या गणित लेते थे। मैंने गणित ली थी, जिसमें ज्यामिति, त्रिकोणमिति और क्षेत्रमिति होती थीं। इसी तरह आर्टस और कामर्स भी होते थे संस्‍कृत कम्‍पलसरी था। आज तो संस्‍कृत पढ़ाई ही नहीं जाती। संस्कृत की पढ़ाई बंद, सुसंकृत होना ठप्प !

... तो पुनः अब अपने संदर्भ पर लौटता हूँ - हिंदी के दो प्रश्न-पत्र हुआ करते थे। प्रथम पत्र में 20 अंक के व्‍याकरण के प्रश्‍न पूछे जाते थे। इनमें लिंग निर्णय, संधि विच्‍छेद, समास इत्‍यादि के 4 प्रश्‍न 5-5 अंको के होते थे। पद्य-संग्रह और गद्य-संग्रह दो पुस्‍तकें थी, जिसमें से प्रत्‍येक से 40-40 अंकों के प्रश्‍न पूछे जाते थे।

इस संबंध में अपना एक अनुभव शेयर करता हूं - परीक्षा में पहली जो उत्तर-पुस्तिका मिली उसमें 16 पृष्‍ठ थे प्रथम पृष्‍ठ के चौथाई भाग में नाम, रोल नम्‍बर आदि लिखने के लिए जगह होती थी। दूसरे पृष्‍ठ के आधे भाग में हमने व्‍याकरण के चारों प्रश्‍न के उत्तर लिख डाले। इसके बाद आया 8 अंको का सप्रसंग व्‍याख्‍या का प्रश्‍न –

यह साँझ-उषा का आँगन,

आलिंगन विरह-मिलन का;

चिर हास-अश्रुमय आनन

रे, इस मानव जीवन का !

सुमित्रापनंदन पंत के ‘सुख-दुख’ शीर्षक कविता की ये पंक्तियां “गुंजन” नाम काव्‍य संग्रह से ली गई थी। इसका उत्तर मैंने प्रथम उत्तर-पुस्तिका के बचे हुए 14 ½ पृष्‍ठों मे लिखा। अन्‍य प्रश्‍नों के उत्तर देने के लिए आठ आठ पृष्‍ठों की छह एक्‍सट्रा उत्तर-पुस्तिकाएं लीं। इस पेपर में हमे 78 अंक आए।

‘अम्‍माजी की गली’ के बहाने जब यादों के उन गलियारों में झांकता हूँ, और देखता हूँ तो स्‍वरूप बड़ा बदला-बदला दिखता है। आज किसी विषय पर लेख लिखने को कहा जाता है – Not more than 200 words ! इन निर्धारित किए गए शब्‍दों की संख्‍या में हमने भावनाओं को क़ैद कर दिया है। इन सिमटे शब्‍दों में अपने भाव, भावनाएं और रिश्‍ते छूटते जा रहे हैं। यही है हम लोगों की सिमटी-सी दुनिया, आत्मकेन्द्रीत-सा जीवन। इसी आत्म-मुग्धता में जीते और अपनी पीठ ठोकते हुए हम जीवन बसर कर रहे हैं। … और दुखवा मैं का से कहूं सजनी!

34 टिप्‍पणियां:

  1. जमाने को देखकर कष्‍ट तो होता है .. आपने अच्‍छा लिखा है .. चलिए संकेतों से ही निपटा लेते हैं - :) … :D … ;)!!

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  2. samau ke sath bahut kuch soch bhee to badlee hai.......
    seema bodh sayyamit bhee karta hai.........
    :)

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  3. अरे वाह!
    हमारी श्रीमती जी के पसंदीदा सीरियल की यहाँ भी चर्चा!
    --
    अच्छी समीक्षा दी है आपने!

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  4. संस्कृत की पढ़ाई बंद, सुसंकृत होना ठप्प !
    संस्कृत क्या, पाठ्यक्रमों में आजकल हिंदी भी नाम मात्र ही पढ़ी जा रही है..
    गीत -संगीत भी फास्ट ट्रैक पर ही है ...सब कुछ फास्ट फ़ूड जैसा ही , असर भी इनका ऐसा ही होता है , पेट ख़राब , मन ख़राब , देश ख़राब !

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  5. आप की नज़र से इस बार ज़रूर देखूंगा इस सीरियल को :)

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  6. न तो यह उस सिरियल की समीक्षा है और न ही मैंने अपनी नज़र से उस सिरियल को देखा है ... उस सिरियल के बहाने कुछ संस्मरण को लिपिबद्ध करने की कोशिश की है।

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  7. चीजों को आसान बनाते बनाते हमने उसके भीतर के मूल्य को ही खो दिया है... आज शिक्षा का इतना सरलीकरण हो गया है कि उसका सही उद्देश्य कहीं गुम हो गया है....मुझे अपने एम ए की परीक्षा याद आ गई... ड्रामा पेपर था...डॉ.फौस्ट्स जो कि क्रिस्टोफर मार्लो की ट्रेजिडी है... पर एक प्रश्न था... उसके उत्तर में मैंने ३० पृष्ठ और दो घंटे लगाये...तब जाके याद आया कि और भी चार प्रश्न करने हैं... लेकिन लगता है कि उस पहले प्रश्न ने परीक्षक को इतना इम्प्रेस किया कि ६८ अंक आये... अंग्रेजी साहित्य में इतने अंक बहुत होते थे न दिनों हमारे यहाँ... आज बेटे की संक्षिप्त पुस्तके और उत्तर के पैटर्न को देख के दुःख होता है... लेकिन वो समय भी लौट के आएगा...

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  8. “अम्‍मा जी की गली”सीरियल की चर्चा के ज़रिये विचारणीय बात कही है आपने.
    मैं भी वो सीरियल देखता हूँ..

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  9. बीबीसी पर एक इंटरव्यू में अमिताभ ने भी कहा कि लोगों के पास धैर्य कम हो रहा है, लम्बे डायलोग्स सुनने का. हर जगह यही स्थिति है, मगर क्या यह कृत्रिम रूप से क्रियेटेड भी नहीं है! अर्थपूर्ण पोस्ट, रचना, उपन्यास लोग आज भी पढते हैं. बस उचित विकल्प मिलने और माहौल बनाने की बात है.

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  10. ‘अम्‍माजी की गली’ के बहाने रोचक संस्मरण...

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  11. अम्मा की गली के बहाने यादों की गालियों की सैर . पुस्तकों के पेज गीने वाले दिन याद दिला गयी . सुप्रसिद्ध लेखको की पंक्तियाँ विज्ञानं की कसौटी पर नहीं कसी जा सकती ना? हा हा . आजकल के विद्यालय तो मस्ती की पाठशाला है जी . मज़ा आ गया पढ़कर .

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  12. सटीक तुलनात्मक विवेचन करके आपने अच्छा कार्य किया,शायद कुछ लोग प्रभावित होकर सुधार कर ले।

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  13. वर्तनी सुधार --

    गिने को गिनने पढ़ा जाय

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  14. moderation is for comments and it does not stop dialog

    and chaste hindi was the basic reason that hindi became unpopular with common masses

    u always write well
    writing in english does not amount to disrespecting hindi but language is merely a tool to express

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  15. हाँ जी मजेदार सीरियल ||
    और सुलझे हुए सन्देश ||

    बहुत-बहुत बधाई मनोज जी ||
    गहन चिंतन
    अच्छे शब्द और बढ़िया प्रगटीकरण भावों का ||

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  16. यह साँझ-उषा का आँगन,

    आलिंगन विरह-मिलन का;

    चिर हास-अश्रुमय आनन

    रे, इस मानव जीवन का !


    bahut sundar0---badhaee

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  17. Manoj Ji bahut hi tallinata se aapane is aalekh ko likha hai...
    aabhar..

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  18. सच कुछ दुख किसी से कहे नही जा सकते …………और आपने तो इस बहाने अच्छा खासा विश्लेषण कर दिया ……………यही है आज की दुनिया।

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  19. हमें भी हर चीज में कुछ न कुछ गुड मिल जाता है।

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  20. अम्‍माजी की गली’ ke madhyam se bahut achhi shikshaprad baaten..aabhar!

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  21. अम्माजी की गली यह कभी देखा नहीं ..लेकिन इस सीरियल की वजह से आज एक अच्छा और गहन चिंतन पढ़ने को ज़रूर मिला .. समय बदल गया ..अब लोंग इतना व्यस्त हैं की २४ घंटे कम पड़ते हैं ... आपस में संवाद का महत्त्व नहीं रहा ..और जहाँ संवाद नहीं वहाँ रिश्ते कैसे खाद पानी लें ?

    जीवन की समस्‍यायों का, चार समाधान में से एक में टिक लगाकर अगर समाधान हो जाता तो ... समस्या ... समस्या रहती ही नहीं

    एक पर टिक कैसे लगाएं ..चार समाधान भी नहीं होते सामने ..

    महान साहित्यकारों की पंक्तियाँ जो दी हैं उसमें तो फेल ही समझिए ..

    इन सिमटे शब्‍दों में अपने भाव, भावनाएं और रिश्‍ते छूटते जा रहे हैं। यही है हम लोगों की सिमटी-सी दुनिया, आत्मकेन्द्रीत-सा जीवन। इसी आत्म-मुग्धता में जीते और अपनी पीठ ठोकते हुए हम जीवन बसर कर रहे हैं। …

    आज अधिकांश लोंग ऐसा ही जीवन बसर करा रहे हैं ..

    आपकी फुर्सत बहुत कुछ कह गयी ..अच्छी पोस्ट

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  22. आज अधिकांश लोंग ऐसा ही जीवन बसर कर रहे हैं ..

    यह पढ़ा जाये *

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  23. सब आपकी तरह ही इस दुख से दो-चार होते हैं..पर इतनी अच्छी तरह अभिव्यक्त शायद ही कर पाएं..कितना कुछ याद है आपको....

    अब तो वैसी भाषा बोलना-लिखना सब अजनबी सा लगता है...पढ़ने को भी नहीं मिलता...

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  24. सटीक तुलनात्मक विवेचन पूर्ण आलेख..

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  25. मनोज जी.......

    दुखवा का के कहूँ सजनी....

    बस....... पोस्ट पढते पढते सोचा तो बहुत, और टीप देने लगा .. तो शब्द ध्यान नहीं आये.

    मिस काल से काम चलाइए

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  26. mai T.V. nahi dekhti, par ab jaroor dekhungi... samvaadon ki kami bahut khalti hai... bada maza aata hai jab poora parivaar ek saath hota hai aur mast, baatein hoti hain, khate waqt hansi-mazak hota hai...
    aur aapka chintan aur is vishay ke upar study bahut hi badhiya... ek-ek baat sateek pakad ke likh di...
    aur ye baatein kisne kahi pata nahi... par un emoticons ka mai to bahut use karti hu... par kabhi koi baat bolne se peechhe nahi hatti... haan missed call jaroor nahi karti... :)

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  27. मनोज जी!
    "फुर्सत में" लगता है बहुत फुर्सत से लिखने लगे हैं आप..कितनी गलियों में कहाँ कहाँ ले गए.. यह 'सांझ उषा का आँगन' और 'यह जीवन क्या है निर्झर है' और 'युग के युवा, मत देख दायें और बाएं'... पत्रों से मिस्ड कोंल तक.. एक बांग्ला सन्दर्भ याद आ गया:
    एक लड़के के चाचा ने उसे कलकत्ता पढ़ने के लिए गाँव से भेजा. शुरू में लंबे लंबे पत्र आते जाते रहे, कुछ सलाह चाचा की और कुछ वर्णन बड़े शहर के और यादें गाँव की बच्चे की तरफ से.. बाद में पत्र का स्वरुप कुछ इस प्रकार रह गया-
    "टाका नेई, टाका चाई - निमाई"(पैसे नहीं, पैसे चाहिए- निमाई)
    "पाठालाम टाका - तोमार काका" (भेज रहा हूँ पैसे-तुम्हारा चाचा)
    अम्माजी की गली के सिर्फ विज्ञापन ही देखे हैं!! मनोज भाई, सोचता हूँ सप्ताह का हर दिन शनिवार क्यों नहीं होता और आप फुर्सत में क्यों नहीं होते..

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  28. वास्तविक जीवनानुभवों से समर्थित यह चित्र-कथा न केवल रोचक है बल्कि बदलते परिवेश में हमारी पीड़ा को भी दर्शाती है और चिन्तन मनन को भी विवश करती है।।

    आभार,

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  29. "अम्मा जी की गली" से उद्भूत विचार सरणी काफी विचारोत्तेजक हो गयी है। आज की परीक्षा-प्रणाली अभिव्यक्ति पर विराम लगाती जा रही है। हो सकता है कि इससे समझ बढ़ती हो, पर अभिव्यक्ति कम हो रही है। आभार।

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  30. संस्कृत की पढ़ाई बंद, सुसंकृत होना ठप्प !
    एकदम सही...लाठी और भैंस का देश हो गया है...

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