आचार्य परशुराम राय
इस अंक में लक्षणामूला व्यंजना पर विचार किया जायगा। लक्षणा के भेदोपभेद पर पहले ही विचार हो चुका है। यहाँ लक्षणामूला व्यंजना पर विचार किया जाएगा। लक्षणा के चार कारण बताए गए हैं – मुख्य अर्थ में बाधा, उसके साथ लक्ष्यार्थ का सम्बंध, रूढ़ि और प्रयोजन। इनमें प्रथम दो तो लक्षणा में सदा रहेंगे ही। परन्तु अन्तिम दो में से कोई एक लक्षणा में प्रथम दो के साथ अवश्य रहेगा। दूसरे शब्दों यों कहा जा सकता है कि लक्षणा के तीन कारक होंगे- मुख्य अर्थ में बाधा, उसके साथ लक्ष्यार्थ का सम्बंध और रूढ़ि अथवा प्रयोजन।
अब लक्षणामूला व्यंजना को समझने के लिए लक्षणा के दो स्वरूप को जानना आवश्यक है- रूढ़ि लक्षणा और प्रयोजनवती या प्रयोजनमूलक लक्षणा।
रूढ़ि लक्षणा वहाँ होती है, जहाँ लक्ष्यक शब्दों के अर्थ रूढ़ हो चुके हैं या प्रसिद्ध के कारण किसी शब्द का अर्थ किसी अर्थ में रूढ़ हो गया हो, यथा- वह काम में कुशल है। यहाँ कुशल शब्द दक्ष के अर्थ में रूढ़ हो गया है, जबकि कुशल का अर्थ कुशान् लाति इति कुशलम् अर्थात् कुश लाने वाला। अतएव यहाँ काम में कुशल का अर्थ काम मे कुश लाने वाला न होकर काम में दक्ष होगा। यह रूढ़ि लक्षणा व्यंग्य से रहित होती है। इसी प्रकार संस्कृत काव्यशास्त्रों में एक उदाहरण काफी प्रचलित है- कलिङ्गः साहसिकः अर्थात कलिंग साहसी है। यहाँ यह ध्यान देने की बात है कि कलिंग एक भूभाग है, अतएव यह जड़ पदार्थ साहस जैसे गुण का धारक नहीं हो सकता। यहाँ प्रसिद्धि के कारण इस अन्वितजन्य बाधा को दूर करने के लिए कलिंग का अर्थ कलिंगवासी किया जाता है। उक्त दोनों उदाहरणों में कुशल का अर्थ दक्ष और कलिंग का अर्थ कलिंगवासी दोनों रूढ़ि लक्षणा से आते हैं। इसके अलावा इन शब्दों के अन्य अर्थ आलोकित नहीं होते। यहाँ यह चर्चा करने का उद्देश्य यह बताना था कि रूढ़ि लक्षणा में लक्षणामूला व्यंजना नहीं होती। लक्षणामूला व्यंजना केवल प्रयोजनवती लक्षणा में ही पायी जाती है।
जब किसी विशेष प्रयोजन को सूचित करने के लिए, मुख्य अर्थ से युक्त (मुख्य अर्थ में बाधा होने पर) अन्य अर्थ का बोध हो तब प्रयोजनवती या प्रयोजनमूला लक्षणा होती है। इस प्रकार अर्थ-बाधा लक्ष्यार्थ के द्वारा दूर होने के बाद जब अन्य अर्थ का बोध हो तो वहाँ लक्षणामूला व्यंजना होती है। यह दो प्रकार की होती है- गूढ़ और अगूढ़।
प्रयोजनमूला लक्षणा के द्वारा जहाँ किसी गूढ़ अर्थ की ओर संकेत हो तो वहाँ गूढ़ लक्षणामूला व्यंजना होती है। आचार्य मम्मट लिखते हैं कि यह सहृदयों द्वारा ही अधिगम्य है, जबकि अगूढ़ लक्षणामूला व्यंजना प्रायः सभी सामान्य जन द्वारा अधिगम्य है। गूढ़ लक्षणामूला व्यंजना के उदाहरण के रूप में निम्नलिखित श्लोक दिया गया है-
मुखं विकसितस्मितं वशितवक्रिम-प्रेक्षितं समुच्छलितविभ्रमा गतिरपास्तसंस्था मतिः।
उरो मुकुलितस्तनं जघनमंसबन्धोद्धुरं वतेन्दुवदनातनौ तरुणिमोद्गमो मोदते।।
अर्थात् मुख पर मुस्कराहट विकसित हो रही है, बाँकपन दृष्टि का दास हो रहा है, चलने से हाव-भाव छलक रहे हैं, बुद्धि मर्यादा अतिक्रमण कर रही है, छाती पर स्तन मुकुलित हो रहे हैं, जाँघें अवयवों के बंधन से उभर रही हैं। प्रसन्नता की बात है कि चन्द्रवदनी के शरीर में यौवन का उभार किलोल कर रहा है।
यहाँ मुस्कराहट के विकसित होने का अर्थ मुस्कराहट का अतिशय है। जबकि मुख के सौरभ आदि लक्षणामूलक व्यंजना है। बाँकपन का दृष्टि का दास होना- यहाँ वक्रभाव की स्वतंत्रता लक्ष्यार्थ है और किसी अभिमत विशेष की ओर प्रवृत्ति व्यंग्य है। हाव-भाव का छलकना पद से चंचलता का अतिशय का लक्ष्यार्थ है तथा मनोहारिता का अतिशय व्यंग्य है। बुद्धि द्वारा मर्यादा का अतिक्रमण पद का लक्ष्यार्थ अधीरता है, जबकि अनुराग की अधिकता व्यंग्य है। वैसे ही स्तनों का मुकुलित होने से उरोजों का उभार लक्ष्यार्थ है और अभिलषित आलिंगन व्यंग्य है। जंघों का अवयवों के बंधन से उभरना पदबंध से रमणीयता लक्ष्यार्थ है तथा रति के योग्य होना व्यंग्य है।
अगूढ़ लक्षणामूला व्यंजना के लिए आचार्य मम्मट ने निम्नलिखित श्लोक उद्धृत किया है –
श्रीपरिचयाज्जडा अपि भवन्त्यभिज्ञा विदग्धचरितानाम्।
उपदिशति कामिनीनां यौवनमद एव ललितानि।।
अर्थात् धन मिल जाने पर मूर्ख भी चतुर लोगों के व्यवहार को समझने लगते हैं। जैसे यौवन का मद ही कामिनियों को ललितों(रतिचेष्टा) का उपदेश दे देता है।
यहाँ यह द्रष्टव्य है कि उपदेश देना सचेतन मानव का कार्य है। यहाँ उपदेश देने का लक्ष्यार्थ आविष्कार करना अर्थात् सामने लाना है और व्यंग्य है अपने-आप ज्ञान होना। अर्थात् धन मिल जाने पर चतुराई अपने-आप आ जाती है और यौवन आने पर रत्यादि क्रियाओ का भी उसी प्रकार अपने-आप ज्ञान हो जाता है।
अगले अंक में आर्थी व्यंजना पर चर्चा की जाएगी। इति।
शब्द शक्तियों में लक्षणामूला शब्द शक्ति का अपना महत्व है , आपने सुंदर तरीके से इसे समझाया है ....सार्थक पोस्ट , शुक्रिया
जवाब देंहटाएंBhartiya kavya shastra ke antargat Lakshnamula vyanjan ki prastuti bahut hi suchnaparak hai.Sujhav hai ise thoda vistrit roop mein punah prastut kiya jata to bahut hi achha hota,Good Morning, Sir.
जवाब देंहटाएंग्यान्वर्धक जानकारी.धन्यवाद.
जवाब देंहटाएंकाव्यशास्त्र पर अच्छी जानकारी पढने को मिल रही है.
जवाब देंहटाएंआभार...
Bahut gyanvardhak jaankari...aabhar
जवाब देंहटाएंDeep parv aur Bhai Dooj kee haardik shubhkamna
अच्छी जानकारी..
जवाब देंहटाएंयह पोस्ट तो मेरे बच्चों के लिए भी उपयोगी है!
जवाब देंहटाएंचाहे वो किसी भी कक्षा के हों!
बेहद ज्ञानवर्धक आलेख. आभार.
जवाब देंहटाएंसादर
डोरोथी.
अच्छा विश्लेषण। सहज ग्राह्य।
जवाब देंहटाएंShri Keval Ramji,
जवाब देंहटाएंUtsahavardhan ke liye sashuvad.
Prem Sarovarji,
जवाब देंहटाएंBlog jagat ko adhik vistar ki jaroorat mere samajh se nahi hai. Is shrinkhala ka uddeshya keval logon ko kavya ke tattvon se parichay karana hai. Is par kiya gaya shashtrarth thoda logon me virakti paida karega.Is liye use avoid kiya ja raha hai.
Prem Sarovarji,
जवाब देंहटाएंBlog jagat ko adhik vistar ki jaroorat mere samajh se nahi hai. Is shrinkhala ka uddeshya keval logon ko kavya ke tattvon se parichay karana hai. Is par kiya gaya shashtrarth thoda logon me virakti paida karega.Is liye use avoid kiya ja raha hai.
ज्ञानवर्धक आलेख के माध्यम से काव्यशास्त्र की गहन जानकारी प्रदान करने के लिए साधुवाद।
जवाब देंहटाएंकाव्यशास्त्र पर अच्छी जानकारी प्रदान करने के लिए शुक्रिया.
जवाब देंहटाएंबहुत उपयोगी शृंखला है यह। आभार।
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