उगो हो सुरुज देव अर्घ के बेर…
करण समस्तीपुरी
हाथों में अर्घ्य, सजल नयन में प्रतीक्षा, जल में ध्यानस्थ व्रती महिलायें, तट पर पथ निहारते अंशुमान का श्रद्धालु। पूर्व क्षितिज में उदित हुए रक्ताभ दिनकर। बांस के हरे सूपों पर गिरी अरुणिमा। व्रतियों का मन हुआ प्रसन्न। सूर्यदेव ने स्वीकार किया आराधना। पूर्ण हुआ छ्ठ महाव्रत। मिला छ्ट्ठी मैय्या का आशीष। शीष धर घर लाया माई का प्रसाद।
उदर ज्वाला में दग्ध दूर मातृभूमि से…. जननि जन्मभूमि से। छट्ठी मैय्या के आशीश से भी वंचित। विगत कुछ वर्षों से अभिलाषा थी संचित। जायेंगे घर । बुहारेंगे छट्ठी मैय्या का दर। करेंगे उनकी वन्दना और सूर्योपासना।
जली बत्तियां बहुत सारी। कार्तिक अमावस की रात हुई उजियारीग। आरम्भ हुआ पुण्य मास का उज्ज्वल पक्ष। प्रवास से प्रयाण। घर आने का उत्साह। परिजनों से मिलने की ललक। वर्षों से आंखें बिछाई पगडण्डियां चूमेगी कदम। फिर सजे चौपाल पर बैठेंगे हम। बाल-सखाओं से होगी बतकही। फिर याद आयेगा पुराना ठाठ। फिर सब मिल सजायेंगे छ्ट्ठी मैय्या का घाट।
यही परिमल अरमान संजोये हम आये अपने गांव। अपने घर – रेवाड़ी, जिसे हम अपनी कहानियों में प्यार से कहते आये हैं रेवाखण्ड। सुना था बिहार में विकास की चतुरन्गिनि बयार बह रही है। देखा भी। बीसियों वर्ष से जिर्णोद्धार की बाट जोह रही सड़कें कोलतार से सपाट कर दी गयी थी, जिस पर मोटरयान को सरपट भागते देख सहसा ख्याल आया, “काश… ! यह सड़क कुछ साल पहले बन जाती तो हमारी सायकिल इतनी खराब नही हुआ करती और समय पर महाविद्यालय की कक्षायें भी पकड़ पाता।
सड़क दुरुस्त हो गयी थी। बिजली भी पहले से कुछ ज्यादा ही रहती है। कहां कब क्या हो जाये… कभी इस से आशंकित समाज भी अब के भयमुक्त था…. किन्तु क्या यही विकास का मानक है ? मेरे अधिकांश सहपाठी और ग्रामसखा अभी भी बेरोजगार हैं। मेरा विद्यालय – भवन भी जिर्ण-शीर्ण हो चुका है ? शिक्षकों का टोटा भी है। थोड़ा दुख हुआ था।
सुबह मेरे चिर-सखाओं को मेरे आने की खबर लग गयी थी। मुलाकात का सिलसिला शुरु हुआ तो कुछ सुध न रहा । आहार छूटा मगर विहार का सुख अनवरत रहा। तलाब के किनारे का विशाल वट-वृक्ष तो कब का धाराशायई हो गया था। अब के पोखर का पानी भी अनावृष्टि की भेंट चढ चुका था। जिसकी गंभीर जल-राशि में हम कभी कलरव-किलोल करते थे, इस बार खुद ही पानी मांग रह था। उफ़…. पीड़ की सिहरन… !
चौपाल मौन। कहां सजेगा छठ का घाट ? उत्साही युवक का प्रश्न, “अगर हमारे घरों में कोई विधवा हो जाये तो क्या हमें उसका परित्याग कर देना चाहिये ?” “नहीं”, आधुनिक सभ्य युग का समवेत उत्तर। मिल गया समाधान। अब छ्ट्ठी मैय्या का घाट यहीं सजेगा। यह तालाब हमेशा हमें पानी देता रहा है। इस बार यह सूख गया तो क्या ? हम देंगे इस में पानी। यहीं बनेगा छठ का घाट। शुरु हुआ सफ़ाई अभियान। फिर पम्पिंग्सेट से पोखर में जलभराई। दो दिनों में ही कमर तक जल चढ चुका था।
गांव के अल्हड़्पन का कोई सानी नहीं। बाथटब की आदी आबादी जब पोखर में डुबकी लगाते बालवृन्द को देखेंगे तो कहीं चक्कर ना खा जायें। मैं भी मस्ती का कोई मौका नही छोड़्ता। सुना था, “यथा नामं तथा गुणं” ! मै ने भी इसे चरितार्थ करने की कोशिश की। जल-विहार करने गये किशोरों का पट-परिधान ही उठा लिया… ! हा…हा…हा…. !
हरित कदलीस्तम्भों के लग जाने से माई का घाट एकदम निखर गया था। उस में बांस की फट्ठियों को भेद कर दीप-श्रृंखला सजाने का जुगार लगाया गया। सान्झ से ही झिलमिलाने लगी थी दीपमालिकायें। सन्ध्याकालीन अर्घ्य दे कर किया गया अस्ताचल गामी सूर्य को नमन। व्रत का एक विश्राम।
गांव का अद्वितीय साम्प्रदायिक सौहार्द्र। गंगा-यमुनी साझा संस्कृति। लोक अस्था के आड़े कभी नहीं आयी मत और सम्प्रदाय की रेखा। हिन्दु भाई उठाते रहे हैं मुहर्रम का ताजिया और मुसलमान भाई लगाते रहे हैं होली के रंग। इस बार भी सलीम खान और महबूब मियां के परिवार ने घाट पर सूप भिजवाया था और अर्घ्य अर्पण की प्रतीक्षा में हमारे साथ ही थे।
उफ़… सांस्कृतिक विरासत के धनी रहे गांव में छ्ठ की रात सूनी ही गयी। हम लोग जिस घाट पर छ्ठ की रात में ऐतिहासिक या धार्मिक नाटक का मंचन करते थे, वहां इस बार फिल्मी गीतों के कानफोड़ू धुन से ही सन्तोष करना पड़ा। गुरुजी कह रहे थे कि अब यह गांव भी सांस्कृतिक रूप से अपाहिज हो गया।
आंखों में बीती रात। इस से पह्ले कि आये प्रभात…. निकल चुके थे माता के कहारे ! एक बार फिर घाट पर पसर चुके थे नैवेद्य से भरे बांस के सूप। व्रती महिलायें जल में कर जोड़े कर रही हैं दिनकर की प्रतीक्षा। दिनमान के आगमन की आहट। अर्घ्य लिये दोनो हाथ उठ गये! भगवान भाष्कर ने कर लिया अर्घ्य ग्रहण। इस तरह पूर्ण हुआ छट्ठी मैय्या की अराधना और सूर्यदेवता का व्रत!
करण ,
जवाब देंहटाएंछट्ठी मैया का पर्व पूर्ण हुआ ...और तुम्हारी लेखनी का कमाल भी ....बहुत विस्तृत वर्णन और बहुत सुन्दर शब्दों के साथ अपने गाँव की सैर कराई ....बहुत अच्छा लगा पढ़ना ..
छ्ठ पूजन के अवसर पर, अपने गांव की यात्रा के साथ साथ, वहां के परिवेश में मौजूद परंपरा के घुले मिले माधुर्य की छटा और उसके बदलते स्वरूप में भी आशा का उजास फ़ैलाती सुंदर प्रस्तुति के लिए धन्यवाद. आभार.
जवाब देंहटाएंसादर,
डोरोथी.
@ संगेता जी
जवाब देंहटाएंहमारा उद्देश्य भी यही था कि छठ पर्व के साथ सबों को गांव के हालात से भी परिचय कराएं। धन्यवाद आपका।
@ डोरोथी जी,
जवाब देंहटाएंआपको हमारे गांव का परिवेश और इसकी छटा भाई, हमारा उद्देश्य पूरा हुआ। आपको ढेरो शुभकामनाएं।
छठ पर्व के बारे में अब मेरी जानकारी काफी बढ़ गई है। सुन्दर प्रस्तुति के लिये बहुत-बहुत धन्यवाद ।
जवाब देंहटाएंइस पर्व की मौलिकता पर विनोद अनुपम कहते हैं-
जवाब देंहटाएं"यह शायद एकमात्र ऐसा पर्व है जिसे मनाने के लिए न पंडित की जरूरत है,न मंदिर की,न प्रतिमा की। दीपावली,दशहरे और होली की तरह यह किसी की जीत या हार का पर्व नहीं। सुथनी जैसे सर्वहारा फल न्यूनतम को सम्मान देने और सादगी के प्रतीक हैं। पर्यावरण अनुकूलता इतनी कि पूजन सामग्री भी गोईठा पर ही पकाने का विधान।"
छठ की शुभकामनायें।
जवाब देंहटाएं8/10
जवाब देंहटाएंअति सुन्दर / अद्वितीय प्रस्तुति
आपने छठ पर्व की क्या अदभुत छटा बिखेरी है.
यूँ लगा मानो गद्य के भीतर काव्य-धारा बह रही हो.
संस्कृति व परम्परा का माधुर्य और आपके उत्कृष्ट लेखन का जादू सर चढ़कर बोल रहा है.
जिंदाबाद
@ राधारमण जी,
जवाब देंहटाएंआपकी बातों ने तो आंखों में आसूं भर दिए।
कल इसकी चर्चा हम कर ही रहे थे, कि इस पर्व में सब ‘सो कॉल्ड’ इको फ़्रेण्डली है, मिट्टी के दीपक, मिट्टी का हाथी, और केला का थम्ब, और सर्वजनिक उत्साह!
आभार आपका विनोद अनुपम की पंक्तियां कोट करने के लिए।
@ उस्ताद जी,
जवाब देंहटाएंलिया ना डिस्टिंक्शन! कल की ४ अंकों की भरपाई हो गई।
@ अनुपमा जी, प्रवीण जी,
जवाब देंहटाएंप्रोत्साहन के लिए आभार।
... bhaavapoorn va saarthak abhivyakti !
जवाब देंहटाएं@ उदय जी
जवाब देंहटाएंआभार आपका।
करन भाई.. राधा रमण जी बहुत बड़ी बात कह गए हैं जो छट पर्व के वैज्ञानिक होने की बात है... ऐसा लोक पर्व देश में कोई अन्य नहीं... और दूते सूर्य को कौन नमस्कार करता है... ?... बहुत जीवंत चित्रण आपने किया है.. हम तो बिना पहुंचे ही पहुँच गए... गमछी बिछाए प्रसाद मांग रहे थे.. देखे नहीं क्या आप!
जवाब देंहटाएंज्यु ज्यु छठ का वृतांत पढ़ती जा रही हूँ मिस कर रही हूँ आपके गाँव की छठ, की काश मैं भी देख सकती वो दीपमालाएँ, वो बच्चों और बडो के चेहरे पर पोखर के जलमय हो जाने पर खुशी और सुकून के भाव. वो सूप की महक.
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर चित्रण किया छठ पर्व का.
आभार.
वाह क्या लेखन है और क्या सैर कराइ है.
जवाब देंहटाएंमजा ही आ गया.
बहुत मनोहारी अद्भुत चित्रण हमारी तो घर बैठे ही सैर हो गई
जवाब देंहटाएंआलेख बहुत अच्छा लगा ।
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
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जवाब देंहटाएंअलग शैली में प्रस्तुति आकर्षक लगी।
जवाब देंहटाएंआभार।
इन अद्वितीय चित्रों और सुन्दर आलेख ने मन तृप्त कर दिया....
जवाब देंहटाएंकोटिशः आभार आपका इस सुन्दर श्रृंखला के लिए...