-- करण समस्तीपुरी
"बहे पुरबैय्या बयार.... धान काटे चलो रे किसनमा.... ! पियर-पियर हो गईल पोआर.... धान काटे चलो रे किसनमा.... !!" गाँव में तो आज-कल यही गीत गूंज रहा है। दीनानाथ के अरघ चढ़ा के गंगा नहाय लिए। अब घर आयेगा अगहन्नी (अगहन मास का अन्न)। ससुर मूसबो मार रहा है मूछ पर ताव।
"अगहन महीना, नया धान ! भौजी कूटे मूसल तान !! बोल बदरुआ सीताराम !!! अगहन के पुरबैय्या। तनिक-तनिक सिहरे शरीर। बाहर छतौना वाली, बुद्दर दास, अवध और चुनचुनिया धान झाड़ रही थी झमाझम और अंगना में दुन्नु भौजी चिउरा कूट रही थी दनादन। पकौरी लाल, कटोरिया और बदरू के साथे हम तो सरपट अंगने घुस गए। मूसल के चोट से गरम चिउरा का भूसा छोड़ा कर खाने का मजा.... का बताएं... ? आहाहा..... ई नयका चिउरा के मिठास पर मोहनभोग को भी बारौं और ई अनुपम दिरिस के आगे सात खंड स्वर्ग के भी लात मारौं। भले कहे गुपुत जी, "अहा ग्राम्य जीवन..... !"
भौजी सब हे-हे करती रही और हमलोग फटाक से बकोटा भर चिउरा अंगोछा में बांधे और कहे चलो धनिक लाल के दोकान से दालमोट लेकर चिउरा में मिला कर खायेंगे। बगल में सुंघनी साहू के मूली का खेत भी है। राम कहो।
अभी चौबटिया से दक्खिन हुए ही थे कि कटोरिया उचक के बोला, "अरे तोरी के ! बसंती काकी कने इत्ती भीड़ काहे की है....? चलो ज़रा चल के देखें.... ।" अब लड़िकन झुण्ड सियारान के। जौन दिश एगो गया उधरे सब हुल गया। ई बात में तो कौनो शक-सुबहा नहीं होना चाहिए कि ऐसन भीड़-भाड़ गाँव में सबसे बड़ा मनोरंजन होता है। हिहियाना-खिसियाना-हाथ चमकाना, आँखें मटकाना, और डायलोग तो ऐसन-ऐसन बजरता है कि मुग़ल-ए-आज़म फेल।
हम लोग तो तिनफुटिया थे ही। बाम-दहिन करते हुए आड़े-तिरछे भीड़ को चीर कर सर्किल में पहुँचिये गए। अरे तोरी के ई तो सच में गजब तमाशा था। ई में तो एगो हिरोईनी भी थी। पांच हाथ लम्बी, कमर तक केश, गोर दक-दक.... और देखो पहिनी है का.... कुरता-पैजामा.... हाय राम ! ई कौन देश की है ? खी... खी...खी...खी.... ! पकौरिया की हंसी दबाने से भी नहीं रुकी। हम तो चुप्पे मुँह पर हाथ रख लिए।
मगर ई है कौन... ? कहाँ से और काहे आयी है ? और बसंती काकी रह-रह के ई पर बमक काहे रही हैं ? हम लोग एक बार उ औरतिया को निहारें और एक बार भीड़ में इधर-उधर खिसक-खिसक के उ के प्रयोजन जानने की चेष्टा करें। आखिर बुझाउन ठाकुर कौन दिन काम आयेंगे। उ तो काकी के चिनवार पर इस्कुले खोले थे। जौन नया दर्शक आये फुसफुसा के सब को माजरा समझा रहे थे। ओ.... तो ई बात है। ई मंगरू भाई की लुगाई है। मगर बसंती काकी ई पर इतना बिगड़ काहे रही हैं ? अरे पतोहिया पहली बार ससुराल आयी है। उन्हें तो सन्देश-मिठाई बांटनी चाहिए.... !"
बाते-बात में मुखिया सरपंच सभे आ गए। गाँव समाज के दू-चार मान्य जन भी जुट गए। उ जनानी ओढ़नी से माथा झाँपे रोय-रोय के सब को अपना व्यथा सुना रही थी। बीच-बीच में काकी घुड़क रही थी तो छोटका लहरुआ उको शांत करा देता था। अच्छा... ! तो मंगरू भाई परदेस गए रहे कमाए मगर उहाँ जा के घरे बसा लिए और इहाँ किसी को कानो-कान खबर नहीं.... धत तोरी के !
खैर बिन बोलाए पंच लोग सारा बात सुन के काकी से पूछे, "मंगरू है कहाँ ? आखिर वही न बताएगा कि ई उ की लुगाई है कि नहीं... !" काकी कलेजा ठोक के बोली थी, "धान का बोझा बनवा रहा है चौर में। अभी आ ही रहा होगा। फिर ई चुड़ैल का सारी चाल उतर जायेगी।"
तब तक एगो आदमी मंगरू भाई को साइकिल चढ़ा के चौर से ले आया था। आ...हा....हा.... ! मंगरू भाई को देखते ही उ औरतिया का सुबकना और बढ़ गया। उ बेचारी मंगरू लाल का हाथ पकड़ के अपना माथा पर रख ली और ई से पहिले कुछ बोले कि काकी झट से मंगरुआ को खींचते हुए दहार पड़ीं, "बंद करो ई कमरू कामख्या का काला जादू।" फिर मंगरू भाई के मुखातिब हो बोली, "आ बेटा ! ई जादूगरनी के मायाजाल को चीर दो। बोलो दो ई का सच्चाई का है ?" मंगरू भाई एकदम सकदम। फिर उ जनानी बोली, "बोलिए ना ! आप चुप काहे हैं ? कह दीजिये सकल समाज के सामने कि हमरा-आपका रिश्ता क्या है ?"
मंगरू भाई एकबार माई को देखे और एकबार लुगाई को। आखिर सरपंच बाबू और झोटकन झा उ को बुला के एक किनारे ले गए। हमलोग भी धीरे-धीरे उधरे सरक गए। हई देखो.... ! ई को कहते हैं नेह और परेम। आखिर मंगरू भाई सब सच कबूले ना... ! अब तो भौजी को कोई नहीं लौटा सकता है। अब देखें बसंती काकी कौन सा आग उगलती हैं।
झोटकन झा सरपंच बाबू का दूत बन के गए सुलहनामा लेकर काकी के पास। मगर काकी तो एकदम अगिया बैताल हो गयी। झाजी को पड़े धकेल कर आ गयी मैदान में। बोली, "हम भी देखते हैं कि हमरे जीते जी ई हरजाई कैसे हमरे दुआर का चौखट छूती है। हमरे बेटा पर वशीकरण मंतर मार दीया और उ भोला-भाला लड़का ई के परेम-जाल में फँस गया तो हम भी मान लेंगे का... ? कहता नहीं कि "आयी न गयी, बाबू बहू भयी !"
रे तोरी के काकी सो इस्टाइल में हाथ चमका के बोली थी कि सब बच्चा-बुतरू हिहिया-हिहिया के लगा दोहराए। "आयी न गयी, बाबू बहू भयी !" काकी का फकरा सुन के बेचारे सरपंच बाबू भी बिहंस पड़े थे। काकी को और बल मिला। कहे लगी, "सहिये न.... ! कौन गया ई को ब्याहे ? कौन लाया ई को गौना करा के.... ? ई सत्य-हरिश्चंदर के पोती है कि इहाँ आ के मुँह चीर दी और हम मान गए।"
सरपंच बाबू पूछे, "तो मतलब कि आपका बेटा भी कहे तब भी ई आपकी पतोहू नहीं हुई ?" काकी ठायं पर ठायं बोली, "बेटा के बोले से का हो जाएगा। हम ब्याह करेंगे तब न हमरी पतोहू। और ई 'आयी न गयी, बाबू बहू भयी' वाली बात हम नहीं ना मानेंगे।"
सरपंच बाबू भी अपना कानूनी नोख्ता फेंके, "मतलब आप ब्याह गौना कराईयेगा तब मानियेगा कि आपकी पतोहू हुई। बिना आये-गए में नहीं मानियेगा ?" काकी ठुनुक के बोली, "एकदम नहीं। बिना ब्याह गौना के घर बसे वाली औरत की भी कोई इज्जत है ?"
फिर सरपंच बाबू सब को मिला जुला के ही फैसला दीये, "सुनिए बसंती भौजी ! ई लड़की में कौनो दोष नहीं है। बेचारी परदेस से आयी है और आपका लड़का भी ई को अपनी लुगाई कबूल किहिस है। अब रहा बात आने जाने कि... तो आप अबही रस्मपुराई कर लीजिये। आप भी औरत हैं एक औरत का मर्यादा रखिये।"
आखिर सरपंच बाबू का मोहरा सही घर में बैठा था। काकी का हिरदय भी पसीज (पिघल) गया। बोली, "ठीक है। ई अपने मर्याद से हमरे घर में ही रहे। हम दस समाज को बुला के मंगरू के साथ ई का गठबंधन करा देंगे। तब जा कर ई हमरे परिवार का अंग होगी। वैसे अभी रगड़ करेगी तो "आयी न गयी, बाबू बहू भयी !" वाली बात हम नहीं होने देंगे।"
उ बेचारी परदेसी औरत। उ को ई से ज्यादा का चाहिए। उ फट से काकी के पैर पर गिर गयी। काकी उको उठा के देहरी पर ले गयी। अगले पक्ख में दस समाज मंगरू भाई और उ की परदेसी लुगाई को आशीष दे घर पैसार करा दीये। तब भी सरपंच बाबू ठिठोली करने से नहीं चूके, "का हो बसंती भौजी ! अब तो 'अब तो आयी न गयी, बाबू बहू भयी' नहीं कहिएगा न ?" बसंती काकी इठला के बोली थी, "मार लुच्चा... बुढ़ापा में भी मश्खरी नहीं गया है...!"
ई तरह से मंगरू भाई का घर तो बस गया मगर काकी 'आयी ना गयी, बाबू बहू भयी' को काकी नहिये मानी। देखिये ई सुनने में कनिक गड़बड़ जरूर लगता है मगर बात कोई खराब है नहीं। आखिर सब कुछ की एक प्रक्रिया होती है। बिना प्रक्रिया के प्रतिफल का सम्मान नहीं होता। इसीलिये बिना उचित व्यवहार के आयी असली बहू का भी सम्मान नहीं हुआ। समझे.... ! नहीं समझे तो समझते रहिये। हम चले चिउरा-चीनी फांकने। जय राम जी की !
करन जी ,
जवाब देंहटाएंदेसिल बयना में आप जो चित्र खींचते हैं उसका कोई जवाब नहीं ! पाठक स्वयं कथानक में जीने लगता है !
आपके शब्द संयोजन कमाल के होते हैं !
बहुत बहुत धन्यवाद !
-ज्ञानचंद मर्मज्ञ
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जवाब देंहटाएं"मंगरू है कहाँ ? आखिर वही न बताएगा कि ई उ की लुगाई है कि नहीं... !" काकी कलेजा ठोक के बोली थी, "धान का बोझा बनवा रहा है चौर में। अभी आ ही रहा होगा। फिर ई चुड़ैल का सारी चाल उतर जायेगी।"
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जबदस्त चित्रण किया है आपने।
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jab
@ ज्ञानचंद मर्मज्ञ,
जवाब देंहटाएंधन्यवाद मर्मज्ञ जी, सबसे पहली टिपण्णी के लिए. आपका स्नेह हमारी ऊर्जा का बहुत बड़ा संबल है.
@ Zeal,
जवाब देंहटाएंबहुत-बहुत धन्यवाद ! कथा आपको अच्छी लगी, हमारा श्रम सार्थक हुआ !!
इस बार का देसिल बयना बहुत अच्छा लगा.
जवाब देंहटाएंअब का कहें करन बाबू। हम का त शबद ही नहीं मिल रहे आपकी प्रशंसा की खातिर। आप इतना सुन्दर वातावरण किरिएट करते हैं कि देसिल बयना कहावत नहीं बल्कि सचमुच का स्टोरी लगता है, बोले तो एकदम फिट।
जवाब देंहटाएंअरे अभी त नहीं न जाइए। हमरी क तरफ से दिल से शुभकामना तो लेते जाइए।
Humhoon lagle gaon se aye hain.Dhan ka kataiya shuru ho gaya hai.Thik hi laga.Deshi Bayna bahut achha lagata hai. Manbhavan post.
जवाब देंहटाएंnice presentation.
जवाब देंहटाएंकरन जी ,
जवाब देंहटाएंदेसिल बयना का कोई जवाब नहीं !
बहुत बहुत धन्यवाद !
करन भइया आपकी पोस्ट बहुत अच्छी लगी।
जवाब देंहटाएंआभार,
majaa aa gayaa.
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छे ढंग से देसिल बयना के कथानक को विस्तार दिया गया है और एक ग्रामीण परिवेश का सृजन कर कथा के बयना के अर्थ को स्पष्ट किया गया है। आभार आपका।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर प्रस्तुति!
जवाब देंहटाएंकहानी के माध्यम से कहावत के अर्थ को बहुत अच्छे ढंग से प्रस्तुत किया गया है!
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुदर समसामयिक रचना .
जवाब देंहटाएंइस बेर का देसिल बयना पढकर मन गद-गद हो गया।
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