समीक्षा आँच-43
उसका दिनकर तो हमेशा के लिए अस्त हो गया
हरीश प्रकाश गुप्त
वन्दना जी, जिनका कहना है, “मैं विश्वास दिलाती हूँ कि हरेक ब्लॉगर मित्र के अच्छे सृजन की अवश्य सराहना करूँगी”, विभिन्न ब्लाग पर नियमित रूप से उपस्थिति दर्ज कराने वाली सदस्या हैं। वे रचनाधर्मी हैं। उनका एक ब्लाग है ‘ज़िन्दगी एक ख़ामोश सफ़र’ जिसमें उनकी कविताएं प्रकाशित होती रहती हैं। यद्यपि वे स्वयं को गृहणी बताती हैं लेकिन मानव मन की कोमल भावनाओं के प्रति उनकी सजग संवेदनशीलता और रचनात्मक अभिव्यक्ति उन्हें सामान्य गृहणियों से अलग करती है। ‘आँच’ के इस अंक में उनकी कविता ‘उसका दिनकर तो हमेशा के लिए अस्त हो गया’ समीक्षा हेतु ली जा रही है। यह कविता उनके ब्लाग पर अभी हाल में, नवम्बर माह के प्रारम्भ में, प्रकाशित हुई है।
वन्दना जी की इस कविता में वियोग विदग्धता की गूँज है। उसमें नायक के वियोग में विरही नायिका की व्याकुलता है, उसका स्मरण है, अभिलाषा है। यद्यपि नायक का नायिका से चिरवियोग स्थापित है तथापि नायिका मनभावना - कामना के आह्लादक - आकर्षक स्वरूप का स्मरण करते हुए नायक से मिलन की आशा संजोए उसकी प्रतीक्षा करती है। नायक से मिलन के सुखद क्षणों की कल्पना करते हुए आश्वस्त है कि उसके मिलने पर विरह जनित अनुभूतियाँ, उसकी वेदना और उससे जुड़ी यादें, जिन्होंने उसे आवृत्त कर रखा है, विस्मृत हो जाएंगी । चिरवियोग के कारण उसका मनोरथ पूर्ण नहीं होता। यथार्थ के धरातल पर उसकी आशाएं दम तोड़ने लगती हैं और वियोग से व्याकुल नायिका की स्थिति जड़वत, स्थिर हो जाती है।
कविता में एक दो स्थानों को छोड़कर सामान्य रूप से प्रचलित, या कहें कि पुरातन बिम्बों का ही प्रयोग किया गया है। हालांकि ये बिम्ब अर्थ को नई आभा तो नहीं देते लेकिन कविता के भाव को व्याख्यायित कर पाने में समर्थ हुए हैं। नए प्रतीकों के संदर्भ में जयशंकर प्रसाद की कुछ पंक्तियों का उल्लेख करना यहाँ सुसंगत होगा -
छिल-छिलकर छाले फोड़े
मल-मलकर मृदुल चरण से
धुल-धुलकर वे रह जाते
आँसू करुणा के जल से
उक्त पंक्तियों में देखें ‘छाले’ और ‘फोड़े’ बिलकुल नए रूप और अर्थ में प्रयुक्त हुए हैं। ये कविता की भाषा को नवीनता प्रदान करते है और अर्थ को चमक।
कविता के प्रारम्भ में प्रयुक्त बिम्ब ‘रात’ जिन्दगी है जिसमें नायक का सामीप्य न मिलने के कारण अँधेरा छाया हुआ है। उत्तरार्ध में प्रयुक्त बिम्ब ‘वक्त की धूप’ को जीवन का यथार्थ कह सकते हैं जिसमें मानस के एकाकीपन के कल्पना जगत में उपजी आशाएं स्वतः निर्मूल हो जाती हैं, अर्थात समाप्त हो जाती हैं। कविता में प्रयुक्त हुए उक्त बिम्ब विस्तार पाते हैं। हालांकि, विरह में चाँद भी अग्नि सी ज्वाला उत्पन्न करता है और असह्य होता है लेकिन कवयित्री ने यहाँ ‘चाँद’ बिम्ब का स्मृति में जाकर प्रयोग किया है अतः यह यहाँ आह्लाद है। ‘थाली’ प्रसन्नता और खुशियों से भरा आकाश। ‘दिनकर’ नायिका का प्रेम है जिसे पाने की वह अभिलाषा करती है। ‘सुबह’ तो उम्मीद की किरण ही है। ‘अहसासों की किरिच’ विरह भाव से उपजी अनुभूतियाँ और वेदना है जो अन्तर्मन में गहरे तक बैठी है। वहीं ‘तारे का न टूटना’ मनोरथ पूर्ण न होने के भाव में प्रयुक्त हुआ है। कविता के अधिकांश बिम्ब स्वयं ही अर्थ देते हैं क्योंकि कवयित्री उन्हें तर्कसंगति प्रदान करती प्रतीत होती है। हालांकि कविता में यह आवश्यक नहीं होता। इसका भार पाठक पर ही छोड़ दिया जाना चाहिए ताकि वह स्वयं ही अर्थ की खोज करे और रस का आस्वादन स्वयमेव कर आनन्द की अनुभूति कर सके। कविता में पंक्ति विभाजन एकाधिक स्थानों पर प्रयोजनमूलक सिद्ध नहीं हुआ है। कहीं पर अनुपयुक्त विभक्ति है तो कहीं अनुपयुक्त सम्बद्धता। जैसे – ‘इंतजार’ की सम्बद्धता क्रियापद ‘किया करती थी’ से होनी चाहिए और ‘चाँद की’ और ‘थाली में’ में पंक्ति विभाजन अर्थ में अवरोध उत्पन्न करता है। इस संदर्भ में कवयित्री की सजगता दुर्बल सिद्ध हुई है। अंत में प्रयुक्त ‘एकाकी, उदासी’ में ‘उदासी’ भाववाचक संज्ञा है। हो सकता है यह टंकण त्रुटि हो तथापि यहाँ पर विशेषणगत प्रयोग होना चाहिए।
कविता में शिल्प सम्बन्धी कुछ प्रश्न अवश्य विद्यमान हैं परन्तु कविता का भाव पक्ष सबल है और कविता सरल व सुस्पष्ट रूप में पूर्ण अर्थवत्ता के साथ सम्प्रेषणीय है। कविता में प्रयोग किए गए कुछ बिम्ब बहुत आकर्षक हैं, जैसे – ‘तन्हाँ रात का / हर कोना / इंतजार के दरख्त पर / सूख रहा है’ चमत्कारिक आभा से युक्त है। यहाँ भाषा में ताजगी का अहसास होता है और बिम्ब को नया अर्थ मिलता है। कविता में वियोग शृंगार के अन्तर्गत चिरवियोग का वर्णन है जिसमें नायक नायिका का मिलन सम्भव नहीं होता। साहित्य में विरह की दश अवस्थाएं मानी गई हैं। इस कविता में इनमें से चार अवस्थाओं – अभिलाषा, स्मरण, चिंता और जड़ता की स्पष्ट व्यंजना उपस्थित है। कविता को सरलीकृत रूप में प्रस्तुत करना कवयित्री की अपनी शैली है।
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हरीश जी, यह कविता मैंने 'वंदना' जी जी के ब्लॉग पर पढ़ी थी , बिम्बों के साथ भाव की अभिव्यक्ति कविता के भाव सम्प्रेषण को अधिक सार्थक बनती हैं , एक दम साधारणीकरण की तरफ ले जाती हैं ..सुंदर समीक्षा के लिए आभार
जवाब देंहटाएंएक - एक बिम्ब को अनावृत्त करने के साथ साथ आपने कविता के दोषों को जिस सरलता एवं शालीनता से प्रस्तुत किया है वह रचनाकार के लिए बहुत उपयोगी और प्रेरक हो सकता है। सुन्दर एवं सशक्त समीक्षा के लिए आपको आभार।
जवाब देंहटाएंआपकी समीक्षा से कविता के अर्थ को विस्तार मिला है, सम्भवतः इससे रचनाकार भी सहमत होंगी। कविता के भाव तो पहले ही सम्प्रेषित हो रहे थे अब भावों को शब्द भी मिल गए।
जवाब देंहटाएंआभार।
बहुत अच्छी समीक्षा जो कविता के बिम्ब, भाव पक्ष और गुण दोषों को बहुत ही सटीक व्याख्या करता है। आभार हरीश जी इतनी सुंदर समीक्षा के लिए।
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया समीक्षा है .... आभार
जवाब देंहटाएंरचना रचनाकार के व्यक्तित्व की परछाई होती है और समीक्षा उसके व्यक्तित्व का परिचायक !
जवाब देंहटाएंआपकी समीक्षा इस कसौटी पर खरी उतरती है !
वंदना जी से परिचय कराने के लिए धन्यवाद !
-ज्ञानचंद मर्मज्ञ
बहुत ही सुन्दर और सशक्त समीक्षा !
जवाब देंहटाएंहरीश जी,
जवाब देंहटाएंअभिभूत हुई आज्………शायद आज पहली पायदान पर पाँव रखा है और मंज़िल तो अभी बहुत ही दूर है…………मैं नही जानती कैसे और क्या लिखती रही सिर्फ़ मन के भावों को शब्द देती रही और कभी सोचा भी नही कि कविता को यहाँ आपके ब्लोग पर समीक्षक की दृष्टि मिलेगी ………………आज लगता है कुछ लिखना सफ़ल हुआ क्योंकि जिस तरह से आपने भावों की समीक्षा की है एक एक शब्द को अर्थ दिया है उससे कविता का सौंदर्य बढ गया है ……………मै धन्य हुयी और जो आपने कमियाँ बताइं वो तो जानना और भी हितकर साबित हुआ अब आगे कोशिश करूँगी कि उस ओर ध्यान दे सकूँ……………मनोज जी और हरीश जी आप सबकी हार्दिक आभारी हूँ कि आपने मुझे इस योग्य समझा और मुझे अनुगृहीत किया।
बहुत अच्छी सार्थक और सटीक समीक्षा ....
जवाब देंहटाएंहरीश जी ने सटीक समीक्षा की है इसमें कोई दो मत नहीं हैं। पर आज के समीक्षक से यह भी अपेक्षित है कि वह इस बिन्दु पर भी विचार करे कि आखिर रचना और रचनाकार का समसामयिक दायित्व क्या है। क्या हरीश जी समीक्षा के लिए रचना चुनते वक्त इस बात का ख्याल भी रखते हैं।
जवाब देंहटाएंकविता की समीक्षात्मक शैली बहुत ही उत्कृष्ट है...... रचना को यह समीक्षा तराशती है
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर और सशक्त समीक्षा !
जवाब देंहटाएंसमीक्षा में कविता के आमूल स्वरूप को प्रकाशित करने का उत्तम प्रयास है। साधुवाद।
जवाब देंहटाएंआदरणीय गुप्ता जी
जवाब देंहटाएंमै आपकी इस धारणा से शत प्रतिशत सहमत हूँ की वंदना जी की सक्रियता और रचना धर्मिता को देखते हुए यह मानना कठिन है की वह केवल गृहिणी है. जिस प्रकार किसी विद्यालय में शिक्षक की आजीविका पा जाने भर से कोई शिक्षक नहीं बन जाता, तिलक -चन्दन धारण करने से योगी नहीं बन सकता, उसकी अपनी कुछ विशिष्टताए - योग्यताये होती है, और उस योग्यता से सम्पनं प्रत्येक व्यक्ति बिना शिक्षक की आजीविका, बिना चन्दन-माला के भी उच्छ कोटि का योगी हो सकता है; ठीक उसी प्रकार वंदनाजी भी भपूर संवेदनाओं को वहाँ करने वाली वह गृहिणी है ..क्या तो उनके किचन से निकलते है जैसे वह चाय - कोफ़ी प्यार से बनती होंगी. कविता कोरी विद्वता की चीज नहीं हा, जोर जबरदस्ती की कविता - साहित्य उसे उसे दूसरा केशवदास बना देगा, कठिन काव्य का प्रेत बना देगा लेकिन मर्म्स्पार्शी कवि नहीं..
यह कविता उसी प्रकार एक विशिष्ट भाव लिए उच्छ कोटि की कविता है जो आपकी योग्य समीच्छ्ह से उसी प्रकार सुगंध विखेर रही है जैसे एक अच्छे गीत को एक बहुत अच्छा संगीत कार मिल गया हो. यह जुगल बंदी काव्य के महत्वा को कई गुना बढ़ा देती है. सचमुच समीक्षा के पूर्व और समीक्षा के पश्चात काव्य पाठन में एक बड़ा अंतर महसूस होता है और इसका पूरा पूरा श्रेय श्रेष्ठ युगल बंदी को है. समीक्षा बहुत ही उछ कोटि की है, बिम्बों को हाई लाईट करके निहितार्थ को स्पष्ट करना अच्छा तो लगता ही है रोचकता और प्रासंगिकता को भी कैगुना बढ़ा देता देता है. रचन्न्कार और समीक्षक दोनों को हार्दिक बधाई...
सुन्दर समीक्षा!
जवाब देंहटाएंआभार!!
समीक्षा अच्छी लगी.
जवाब देंहटाएंजिस तरह से साहित्यकार ब्लॉगर को साहित्य से दूर और कुछ भी लिखने वाला कह कर उपेक्षा किया करते हैं , उस दृष्टि को अलग रखते हुए हरीश जी ने जिस समीक्षा को प्रस्तुत किया है वह सिर्फ तारीफ के काबिल ही नहीं है बल्कि वंदना जी के लेखन को एक नया आयाम मिला है और इसके लिए हरीश जी और मनोज जी दोनों ही धन्यवाद के अधिकारी हैं . समीक्षा श्रीफ प्रशस्ति नहीं होती बल्कि उसके दोनों पक्षों को निर्भीक रूप से प्रस्तुत करना ही समीक्षक का धर्म होता है. वंदना उनके लेखन के प्रति समर्पण और गंभीरता के लिए उनको बधाईदूँगी.
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया समीक्षा की है बधाई
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी सार्थक समीक्षा.
जवाब देंहटाएंयह कविता डोन जुयान की इस परिभाषा को पुष्ट करती है कि नारी के लिए प्रेम ही उसका सम्पूर्ण जीवन है! प्रेमी सशरीर पास न हो,तब भी समर्पण का भाव वास्तविक प्रेम की पराकाष्ठा है। जिसके भीतर प्रेम पल्लवित हुआ हो,वही जानेगा।
जवाब देंहटाएंप्रेम के जितने भी पहलु हो सकते हैं.. जितने भी आयाम हो सकते हैं.. जो भी भाव हो सकते हैं.. वन्दना जी अपनी विभिन्न कविताओं में प्रस्तुत करती हैं.. उनकी कविताओं का मैं पाठक रहा हूँ... आज आंच पर उनकी कविता देख एक सुधि पाठक होने का गर्व हो रहा है.. कविता जितनी अच्छी है उतनी ही स्तरीय समीक्षा भी है.. गुप्त जी की समीक्षा कविता को नए सिरे से समझने में सहायक होती है.. वन्दना जी और गुप्त जी दोनों को बधाई एवं शुभकामना.
जवाब देंहटाएं@ केवल राम जी
जवाब देंहटाएंसमीक्षा पसंद करने तथा प्रतिक्रिया व्यक्त करके परेत्साहित करने के लिए आपका आभारी हूँ।
@ निशांत एवं अंकुर जी
जवाब देंहटाएंप्रोत्साहन के लिए आपका आभारी हूँ।
@ मनोज जी
जवाब देंहटाएंआप लोगों से प्रेरणा ग्रहण करते हुए ज्ञानार्जन भी कर रहा हूँ। प्रोत्साहन के लिए आभार।
@ महेन्द्र जी,
जवाब देंहटाएंप्रोत्साहन के लिए आपका आभारी हूँ।
@ मर्मज्ञ जी
जवाब देंहटाएंमेरे प्रयास आप सबके स्नेह का प्रतिफल हैं।
प्रोत्साहन के लिए आभार।
@ साधना वैद जी
जवाब देंहटाएंशुक्रिया।
@ वंदना जी
जवाब देंहटाएंमुझे समीक्षा लिखने के लिए भाव भूमि आपकी भावप्रवण कविता ने ही उपलब्ध कराई अन्यथा पाठकों की प्रफुल्लित कर देने वाली ढेर सारी प्रतिक्रयाएं मुझे कैसे मिल पातीं। इसके लिए मैं आपका आभारी हूँ।
@ संगीता जी
जवाब देंहटाएंआपका आगमन प्रोत्साहित करता है।
आभार।
ऐसी समीक्षा रचना के अर्थ को और स्पष्ट करती हैं ...
जवाब देंहटाएंआभार !
आज तो मुझे उम्मीद से कयी गुना अधिक मिल गया और वो सब आपकी बदौलत हुआ है हरीश जी…………सभी गुणीजनों के विचार मेरे प्रेरणास्रोत बन गये हैं …………एक बार फिर आपकी हार्दिक आभारी रहूंगी।
जवाब देंहटाएं@ राजेश जी,
जवाब देंहटाएंआपकी प्रेरक प्रततिक्रिया के लिए धन्यवाद।
पुनःश्च, चूँकि रचनाकार सामाजिक प्राणी है अतः प्रत्येक रचनाकार के मौलिक सृजन में दायित्वबोध तो होता ही है। इस दायित्वबोध में सामाजिक सरोकार भी निहित होते हैं। इसीलिए साहित्य को समाज का प्रतिबिम्ब कहा जाता है। आपका संकेत शायद बुद्धि तत्व प्रधानता वाली रचनाओं की ओर है। वह ठीक है। लेकिन कोरी बौद्धिक रचनाएं सरस कम ही हुआ करती हैं। काव्य में रस तो भाव प्रधान रचनाओं से ही प्राप्त होता है। काव्य में हृदय तत्व की प्रधानता सनातन रही है। अनुभूति के मूलभूत अवयव भी सनातन हैं। अतएव ये भाव सहज रूप से मुखरित होते रहते हैं।
आलोच्य कविता, हालाकि गुण दोषों से युक्त है तथापि शृंगार की अभिव्यक्ति है और यह भी सामाजिक सरोकारों को समान रूप से अभिव्यक्त करती है। समीक्षा हेतु रचना के चयन के आधार के प्रति मेरा कोई निजी आग्रह नहीं है वरन् यह काव्शास्त्र की परिधि में मेरी योग्यता, ज्ञान और उपलब्ध रचनाओं की सीमा के अंतर्गत है। रचना के प्रति यह मेरे विचार मात्र हैं। यह समीक्षा न तो श्रेष्टतम समीक्षा है और न ही अन्य संभावनाओं को विराम देती है।
आदर सहित,
हरीश
@ रश्मि जी
जवाब देंहटाएंरचना पसंद करने लिए हृदय से धन्यवाद।
प्रोत्साहन के लिए आभार।
@ संजय भास्कर जी
जवाब देंहटाएंप्रोत्साहन के लिए आपका आभारी हूँ।
@ आदरणीय राय जी
जवाब देंहटाएंप्रोत्साहन के लिए आपका स्नेह एवं मार्गदर्शन इसी तरह मिलता रहे। आपका आभारी रहूँगा।
@ आदरणीय तिवारी जी
जवाब देंहटाएंकविता के प्रति सह अनुभूति के लिए आपका हृदय से आभारी हूँ। आपकी पंक्तियों ने कविता के अर्थ को और विस्तार प्रदान किया है। धन्यवाद। क्षमा के साथ कहूँगा कि मेरे निजी संदर्भ में आपके उद्गार अतिशय हैं। में इससे सहमत नहीं हूँ। मैं अभी भी आप जैसे विद्वत जनों से बहुत कुछ ग्रहण कर रहा हूँ। इसके लिए मैं विनम्रता से आपके प्रति कृतज्ञता प्रकट करता हूँ।
आदर सहित,
हरीश
@ अनुपमा जी एवं जमीर जी
जवाब देंहटाएंआपका आना अच्छा लगा।
प्रतिक्रिया के लिए आप दोनो का आभारी हूँ।
@ रेखा जी
जवाब देंहटाएंमैंने रचना के प्रति पूर्णतया निरपेक्ष रहने का ईमानदार से प्रयास किया है। रचना ने आपको स्पर्श किया यह मेरे लिए हर्ष की बात है। प्रतिक्रिया के लिए आपका आभारी हूँ।
@ वंदना जी
जवाब देंहटाएंपुनः धन्यवाद।
@ रंजना एवं शिखा जी
जवाब देंहटाएंप्रोत्साहन के लिए आप दोनो का आभारी हूँ।
@ कुमार राधारमण जी
जवाब देंहटाएंयह प्रेम की पीड़ा है।
प्रोत्साहन के लिए आपका आभारी हूँ।
@ अरुण जी
जवाब देंहटाएंआपकी प्रतिक्रियाएं मुझे ऊर्जा देती हैं।
आभार।
@ वाणी गीत जी
जवाब देंहटाएंप्रोत्साहन के लिए आभार।
सुन्दर समीक्षा!
जवाब देंहटाएंइस पोस्ट की चर्चा आज के चर्चा मंच पर भी है!
http://charchamanch.blogspot.com/2010/11/335.html
बहुत सार्थक समी़क्षा केवल समीक्षा ही नही कविता के अन्य पहलुओं को भी छुआ है। कविता पहले पढ चुकी हूँ मगर समीक्षा से कविता को नया रूप मिला है। आपका प्रयास सराहणीय है। शुभकामनायें।
जवाब देंहटाएंहमेशा की तरह लाजवाब समीक्षा .सभी पहलुओं को उघाड़ दिया है.
जवाब देंहटाएं.
जवाब देंहटाएंदेर आयद, दुरुस्त आयद। देर से सही लेकिन इस समीक्षा से वंचित तो नहीं हुई , ये ख़ुशी है ।
हरीश जी,
बहुत सुन्दर एवं उत्कृष्ट कविता का चयन किया आपने समीक्षा के लिए। इस बेहतरीन समीक्षा से हमें भी बहुत कुछ सीखने को मिला है। इसके लिए आपका आभार।
वंदना जी,
आपकी सभी रचनाएँ मेरा मन मोहती हैं। इस सुन्दर रचना के लिए आपको भी बहुत बहुत बधाई।
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@ शास्त्री जी,
जवाब देंहटाएंबहुत देर से आ रहा हूँ, क्षमा करें। चर्चा मंच पर सम्मान देने के लिेए धन्यवाद तक प्रकट न करूँ यह मेरी कृतघ्नता होगी। मुझे बहुत खुशी है कि आपका स्नेह बराबर मुझे प्राप्त हो रहा है। बहुत बहुत आभार।
@ निर्मला जी एवं @ अनामिका जी,
जवाब देंहटाएंआपकी टिप्पणियाँ मुझे प्रसन्नता भी देती हैं और ऊर्जा भी। यह क्रम ऐसे ही चलता रहे।
आभार।
@ डॉ दिव्या जी,
जवाब देंहटाएंयह ब्लाग के प्रति आपका लगाव है जो एक सप्ताह पुराने आलेखों को भी चुन-चुन कर पढ़ रही हैं और अपनी टिप्पणियों के माध्यम से अपनी उपस्थिति दर्ज करा रही हैं।
बहुत-बहुत आभार।