कवि कोकिल विद्यापति के लेखिनी की बानगी, "देसिल बयना सब जन मिट्ठा !"
दोस्तों हर जगह की अपनी कुछ मान्यताएं, कुछ रीति-रिवाज, कुछ संस्कार और कुछ धरोहर होते हैं। ऐसी ही हैं, हमारी लोकोक्तियाँ और लोक-कथाएं। इन में माटी की सोंधी महक तो है ही, अप्रतीम साहित्यिक व्यंजना भी है। जिस भाव की अभिव्यक्ति आप सघन प्रयास से भी नही कर पाते हैं उन्हें स्थान-विशेष की लोकभाषा की कहावतें सहज ही प्रकट कर देती है। लेकिन पीढी-दर-पीढी अपने संस्कारों से दुराव की महामारी शनैः शनैः इस अमूल्य विरासत को लील रही है। गंगा-यमुनी धारा में विलीन हो रहे इस महान सांस्कृतिक धरोहर के कुछ अंश चुन कर आपकी नजर कर रहे हैं …..
करण समस्तीपुरी
भैय्या… ! शहर-बजार लाख तरक्की कर ले मगर गांव – जवार का जो अपनापन है…. जो अलमस्ती है… उ का बराबरी कोइ नही कर सकता। और आप मानिये चाहे नही मगर इहो सोलहो आना सच है कि असल भारथ का तस्वीर तो गांव में ही मिलेगा। अब देखिये न केतना परब-त्योहार, रास-रंग, मेला-हाट……….. बुझिये कि सब दिन फ़ागुने है। एक रंग उतरा नही कि दुसरा तैय्यार।
अब भाई का बतायें, ई बार दुर्गा माई के मेला देखे गये रहे गांव…. उ बारहन बरिस पर। इहां तो उ शहर बज़ार वाला नकली भुकभुकिया झकाझक नहीं था…. मगर आह ! जौन सिनेह का अल्हड़ प्रकाश बिखरा था कि पुछिये मत । अरे मरदे…. पेठिये पर से जो रामदयाल के कचरी और जिलेबी का जो तिसिऔरी महक आ रह था कि ससुर जी बौराय गया। भर छांक खाये…. मगर ई बजरुआ पेट देसी जिलेबी का बर्दास्त करेगा…. ! सांझ खाये भोरे से हो गया बागमती… ! बोलो कमला माई की जाय !
उ तो धन्य कहिये मुसकचन्द मिसिर बैद जी का… ! उ पचनौल के गोली और पेट-बन्धाई के पुड़िया दिहिन तो जा के लोटा का साथ छूटा। मगर पेट चले से कुछ कमजोरी आ गया था । महतारी कहिस कि दु-चार दिन गोरस-भात (दही-भात) खा के जी ठीक कर लो फिर जाना शहर की धूल चाटने। बड़ी दिन पर ई गांव का गोरस नसीब हुआ था । हम भी सोचे चलो जो होता है सो अच्छे होत है। दु चारे दिन में सेहत बहुरने लगा।
इधर गांव में कौमुदी महोत्सव का तैय्यारी भी होने लगा था । अरे नहीं बूझे का… ऊ कोजगरा। आश्विन के पुर्णिमा को होत है न। उ में हम लोग ई खोजते रहते हैं कि गांव में नया ब्याह किसका हुआ है। उ का है ना कि उ दिन नयी बहुरिया के नैहर से भार-सन्देस आता है। बस वहीं डट गये। मिठाई तोड़े सो तोड़े उ के साथ आने वाले कुटुम आत्मा का भी उद्धार कर देते थे।
सांझ के बखत चंगेरिया और पकौरी लाल के साथे चौक दिश से आ रहे थे। टोल में घुसे से पहिलेही टहकार सुनाई दिया, “एलई…. कोजगरा के भार ये….. हम दै छी हकार……………” ऊन्ह…. ! मारो जांघ में भोथ कुल्हारी…..। लगता है कि बटेसर के ससुराल से भार आया है… ! कौन मिठाई पहिले तोड़ेंगे और बटिया के साला को सबसे पहिले कौन सा असिरबाद देंगे….. यही सब पिलान करते हुए हम लोग झटकते हुए बढ चले, झुमरी काकी के घर दिश।
“हा… हा…. हा….हा…. ! मार तोरी के… ! हमरे लोग के पहुंचे से पहिले ही उ छोटकने लोग बटिया के साला का बढिया किलास लगाया हुआ था। हम भी तनी वही सब के दही में सही लगा के साला का मिजाज फिटकिरी कर दिये। फिर झुमरी काकी खाजा-बालुशाही दे गयी तो उ का जान छूटा।
इधर बाहर का मंडली झमझामा रहा था कि तभिये जनानी महाल का भी हंसी मजाक का कार्य-क्रम शुरु हो गया। सब जर-जनाना मिल के झुमरी काकी को झुम्मर खेला दी। लुखिया ताई काकी के तरफ़ से गीत उठाई, “एलई…. कोजगरा के भार ये….. हम दै छी हकार……………!” मगर बुलन्ती बुआ का कोई जोर नहीं। चट से ऐसन लाइन जोड़ी कि सब हंसते-हंसते पेट पकर लिया…. !
अरे बाप रे बाप…. ! का गीत गायी थी, “एलई…. कोजगरा के भार ये….. हम दै छी हकार…………… ! खाय ले न दई छी पियई ले न दई छी…. देखई ले दई छी हकार ये…. किये दई छी हकार…… !” हम भी दुआरे दिश सरक गये । बतीसी निपोड़ के बोले, “का बात है बुआ…. ! का गीत गायी हो…. ! रोडियो टिसन भी फेल हो जायेगा ।”
बुआ भी फूल के दोबर होते हुए बोली, “और नहीं तो का…. ! देखते हो नहीं झुमरी भौजी को…. ! “भोज न भात ! बड़ी-बड़ी बात !!” सब को छुच्छे झुम्मर खेला रही हैं । हा… हा…. हा…. बुआ चट से एगो फकरा भी फेक दी । हम फिर बोले, “का बात है बुआ…. ? गीत के बाद फकरा भी शानदार फेंकी हो…. !”
बुआ भी उसी तरह चहकते हुए बोली, “और नही तो का…. ! देखो…. ! भीड़ जुटा लिया…. पुरा टोला-मोहल्ला सबको हकार लिया और यहां आ के कुछ नहीं…. ! सामने में चार गो चंगेरी पसार के लगी है समधियाना के गुणगान करे… ! अरे कछु देन-लेन करे तब तो… यहां तो सिरिफ़ देखने का हकार ! यही हुआ न…. “भोज न भात ! बड़ी-बड़ी बात !!”
हम फिर से टोके, “मगर ई का अरथ का हुआ बुआ ?”
बुआ बोली, “मार मुंहझौंसा… ! अरे ई का अरथ तो सामने खुला है…. ! जौन कोइ बात करे बड़ी-बड़ी और काम हो कुछ भी नहीं तो और का कहेंगे….. “भोज न भात ! बड़ी-बड़ी बात !!”
जौन कोइ बात करे बड़ी-बड़ी और काम हो कुछ भी नहीं तो और का कहेंगे….. “भोज न भात ! बड़ी-बड़ी बात !!”
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जी हाँ!
ढपोरशंख भी ऐसे ही आश्वासन देते हैं!
सुन्दर और रोचक प्रस्तुति। आभार।
जवाब देंहटाएंसही कहते हैं आप। जिन्हें कुछ करना नहीं होता है वो बड़ी-बड़ी बात ही करते हैं।
जवाब देंहटाएंसुन्दर।
लोक के साथ रंग की सही संगत बैठ रही है यहां, बहुत खूब.
जवाब देंहटाएंजौन कोइ बात करे बड़ी-बड़ी और काम हो कुछ भी नहीं तो और का कहेंगे….. “भोज न भात ! बड़ी-बड़ी बात !
जवाब देंहटाएंहमेशा की तरह ही बेहतरीन प्रस्तुति !!
manoranjak.
जवाब देंहटाएंभोज न भात बड़ी बड़ी बात ..बहुत बढ़िया कहावत से परिचय करता ...रोचक प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंलोकजीवन का बेहद सजीव चित्रण करते हैं आप. आज का अंक पिछले अंको से बेहतर.
जवाब देंहटाएंKahavat ke sutra ko abhivyanjit karati achhi prastuti.Sadhuvad.
जवाब देंहटाएं`गांव का गोरस नसीब हुआ~ ......इस ` गोरस ` में तो जैसे पूरे गावं की मिठास समा गई है !
जवाब देंहटाएंदेसिल बयना के साथ गांव घूमने का मौका मिल जाता है !
-ज्ञानचंद मर्मज्ञ
देसिल बयना पढकर मज़ा आ गया.
जवाब देंहटाएंलाजवाब फ़्लो है इस कवित्त में ...! और का, कवित्त ही त गढे हैं .... एत्ता बढिया से सारा दृश्य खींच देना आपके लेखन शैली की जादूगरी है। और क्या सम्मोहन जाल फैलाते हैं ग्रामीण परिवेश कि पूरी जीवंतता के साथ साकार कर देते हैं।
जवाब देंहटाएंमज़ा आ गया। मुफ़्त में कहानी
और सीखे एक नया देसिल बाणी।
सशक्त लेखन. मज़ा आ गया.
जवाब देंहटाएंrochak prastuti!
जवाब देंहटाएंregards,
रोचक प्रस्तुति.
जवाब देंहटाएंकरण बाबू, आप हम लोगों को हफ्ते में एक बार ग्राम्य दर्शन करवा ही लाते हैं, वह भी गोरस सी मिठास के साथ।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार।
वाह,'देसिल बयना'का आनन्द ही निराला है!
जवाब देंहटाएंMahesh chandra pacl
जवाब देंहटाएंMahesh chandra pacl
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