भारतीय काव्य शास्त्र
आचार्य परशुराम राय
पिछले अंक में आर्थी व्यंजना के दस भेदों में से पाँच पर चर्चा की गयी थी। इस अंक में शेष भेदों पर चर्चा की जा रही है। अतएव वक्ता, बोद्धव्य, काकु, वाक्य और वाच्य वैशिष्ट्य भेदों के बाद आता है अन्यसन्निधि वैशिष्ट्य।
अन्य सन्निधि का तात्पर्य है कि अन्य लोगों की उपस्थिति में नायिका या कोई भी अपना सन्देश कैसे अभिव्यक्त करे ताकि अन्य उपस्थित लोग उसे न समझ सकें, पर जिसको सम्बोधित करना प्रयोजन हो वह समझ ले। इस वैशिष्ट्य से व्यंजित होने वाला अर्थ अन्यसन्निधि वैशिष्ट्य कहा जाता है। आचार्य मम्मट ने इसके लिए निम्नलिखित श्लोक उदाहरण के रूप में उद्धृत किया है:-
नुदत्यनार्द्रमना: श्वश्रूर्यां गृहभरे सकले।
क्षणमात्रं यदि संध्यायां भवति न वा भवति विश्राम:॥
यह एक नायिका का कथन है जिसमें कहा गया है कि - मेरी निर्दयी सास दिनभर मुझसे घर का सारा काम करवाती है। शाम को कभी थोड़ा सा आराम मिल जाता है, अन्यथा कभी वह भी नहीं मिलता। यहाँ अन्य लोग भी हैं। इसलिए वह सांयकाल अपने नायक से मिलने उक्त कथन से वहाँ उपस्थित दूत को संकेत देती है, और यही यहाँ व्यंग्य है।
प्रस्ताव के वैशिष्ट्य से व्यंजना - प्रस्ताव के रूप में व्यंजना द्वारा अभिव्यक्ति इसके अन्तर्गत आती है। उदाहरण के लिए आचार्य मम्मट द्वारा उद्धृत श्लोक लेते हैं।
श्रूयते समागमिष्यति तव प्रियोऽद्या प्रहरयाचेण।
एवमेव किमिति तिष्ठसि तत् सखि सज्जय करणीयम्॥
अपने उपपति के पास जाने के लिए तैयार किसी अभिसारिका से उसकी सहेली कहती है - हे सखि, सुना है थोड़ी देर में तुम्हारा पति घर आने वाला है। अतएव, तुम्हारा ऐसे बैठना ठीक नहीं है। ऐसे वक्त तुम्हें उनके स्वागत हेतु करणीय कार्य करना चाहिए।
यहाँ सखि के प्रस्ताव में व्यंग्य यह है कि यह समय अभिसार के लिए ठीक नहीं है।
देश-वैशिष्ट्य से व्यंजना - किसी स्थान विशेष के प्रति आग्रह के द्वारा किया गया व्यंग्य देश-वैशिष्ट्य व्यंजना के नाम से जाना जाता है। इसके लिए काव्य-प्रकाश का उदाहरण नीचे दिया जा रहा है:-
अन्यत्र यूयं कुसुमावचायं दुरुध्वमभास्मि करोमि सख्य:।
नाहं हि दूरं भ्रमितुं समर्था प्रसीदतायं रचितोऽञ्जलिर्व:॥
यह एक नायिका की उक्ति है जो अपनी सहेलियों के साथ फूल चुनने के बहाने अभिसार के लिए गई है। नायिका कहती है कि हे सखियों, मुझे चलने में कठिनाई हो रही है। अतएव आप लोग कृपा करके कहीं और फूल तोड़ो और मझे यहीं फूल चुनने दो।
यहाँ एकान्त स्थान है। अतएव सहेलियों में से किसी विश्वसनीय सहेली को नायिका द्वारा किया गया संकेत है कि वह नायक को यहाँ भेज दे। यह यहाँ देश-वैशिष्ट्य से व्यंग्य है।
काल-वैशिष्ट्य से व्यंजना - किसी काल विशेष द्वारा किया गया व्यंग्यार्थ काल-वैशिष्ट्य व्यंग्य होता है। यहाँ इसके लिए काव्य प्रकाश का ही उद्धरण प्रस्तुत किया जा रहा है:-
गुरुजनपरवश प्रिय किं भणामि तव मंदभागिनी अहकम्।
अद्य प्रवासं व्रजसि व्रज स्वमेव श्रोष्यसि करणीयम्॥
वसन्त काल है। पति को गुरुजनों (माता-पिता) की आज्ञा से उसे घर से बाहर जाना पड़ रहा है। पत्नी की पति के प्रति यह कही गयी उक्ति है - हे प्रिय, मैं मन्दभागिनी आपसे क्या कहूँ। गुरुजनों के वश (आज्ञा) के कारण आज यदि आप जा रहे हैं तो जाइए। क्या करना चाहिए यह बात आप स्वयं सुनेंगे।
यहाँ व्यंग्य यह है कि वसन्त काल में आप जा रहे हैं तो जाइए पर मैं जीवित नहीं बचूँगी, आपकी स्थिति क्या होगी यह मुझे नहीं मालूम।
इसी श्लोक की भाव-भूमि पर लिखी गयी निम्नलिखित सवैया काल-वैशिष्ट्य व्यंजना का अच्छा उदाहरण है। इसे आचार्य विश्वेश्वर जी ने काव्य प्रकाश पर हिन्दी टीका में उद्धृत किया है -
भूमि हरी पै प्रवाह बहयो जल मोर नचै गिरि पै मतवारे।
चंचला त्यों चमकै 'लखिराम' चढ़ै चहुँ ओरन ते घन कारे॥
जान दे वीर विदेस उन्हें कछु बोल न बोलिये पावस प्यारे।
आइहैं ऊबि घरी में घरैं घनघोर सो जीवन भूरि हमारे॥
अन्तर केवल इतना है कि यहाँ पावस काल है और कामोद्दीपक भाव की अभिव्यक्ति है।
आदि पद से चेष्टाजनित व्यंजना - हाव भाव के द्वारा जहाँ अर्थ व्यंजित हो वह इस व्यंग्य के क्षेत्र में आता है, यथा :-
द्वारोपान्तनिरंतरे मयि तया सौन्दर्यसारश्रिया
प्रोल्लास्योरुयुगं परस्परसमासक्तं समासादितम्।
आनीतं पुरत: शिरोंऽशुकमध: छिप्ते चले लोचने
वाचस्तम निवारित प्रसरणं सकोंचिते दोर्लते॥
अर्थात् मेरे दरवाजे पर पहुँचते ही अनिंद्य सुन्दरी ने अपनी दोनों जाँघों को फैलाकर एक दूसरे से चिपका लिया। सिर पर घूँघट डालकर उसने आँखें नीची कर लीं और भुजाओं को सिकोड़ लिया।
यहाँ चेष्टा द्वारा पत के पाने की तीव्र उत्कंठा व्यंग्य है।
इस प्रकार आर्थी व्यंजना के स्वरूप की रूपरेखा समाप्त होती है।
काव्य की अभिनिहित कोमल भाव सम्प्रेषण की विधा व्यंजना पर आपका आलेख अत्यंत उपयोगी और ज्ञानवर्धक है
जवाब देंहटाएंवर्मा जी से सहमत। बहुत उपयोगी और ज्ञानवर्धक आलेख।
जवाब देंहटाएंज्ञानवर्धक आलेख।
जवाब देंहटाएंमैं भी वर्मा जी और मनोज जी के कथन से सहमत.
जवाब देंहटाएंराय जी को साधुवाद,
Kavyagat vicharon ki abhivyakti ke liye athi vyanjana ke bare mein jankari rakhna jaroori hai. Achha post.
जवाब देंहटाएंपूरी श्रृंखला उपयोगी रही है। आशा है,आगे भी जारी रखेंगे। कभी संदेश संप्रेषण के आधुनिक साधनों की भी व्याख्या की जाए।
जवाब देंहटाएंआपका स्तम्भ साहित्य स्कूल बन गया है. आपके प्रयास अत्यंत सराहनीय हैं।
जवाब देंहटाएंआभार।
निशांत से पूरी तरह सहमत हूँ। आदरणीय राय जी को साधुवाद।
जवाब देंहटाएंआपका आलेख अत्यंत उपयोगी और ज्ञानवर्धक है।
जवाब देंहटाएंआभार।
व्यंजना पर आपका आलेख अत्यंत उपयोगी और ज्ञानवर्धक... पूरी श्रृंखला उपयोगी रही है
जवाब देंहटाएंमेरे लिए तो यह पूरी ऋंखला एक विद्यार्थी की तरह कक्षा में बैठकर कुछ सीखने जैसी है!!
जवाब देंहटाएंआप को पढ़कर आनंद मिला
जवाब देंहटाएंदखलंदाजी ब्लाग पर विजिट करके अपना कीमती समय देने के लिए मै आप का आभारी हूँ
धन्यवाद
काव्यशास्त्र शृंखला के अंतर्गत प्रस्तुत आलेख पर सदाशय प्रतिक्रियाओं के लिए मैं अपने सभी पाठकों का आभारी हूँ। आपकी टिप्पणियाँ अगली कड़ी के लिए मुझे पुनः ऊर्जा देती हैं।
जवाब देंहटाएंसाहित्य के क्षेत्र में आपके प्रयास अत्यंत सराहनीय हैं।
जवाब देंहटाएंआभार।
बहुत उपयोगी और ज्ञानवर्धक आलेख।
जवाब देंहटाएंpasand aaya
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