लघुकथा
उत्साह
हरीश प्रकाश गुप्त
बगल में पड़ी टेबुल पर सजी गृहस्थी उनके आज भी आत्मनिर्भर होने का बयान करती है। मसलन, खाने-पीने से लेकर दवाइयों तक, जरूरत की सभी चीजें ढकी, खुली टेबुल पर बिखरी पड़ी हैं।
आवाज सुनकर आने में थोड़ी देरी क्या हुई आनन्द बिहारी का मल-मूत्र बिस्तर पर ही छूट गया। छोटी बहू, बड़ी बहू कमरे के दरवाजे तक आगे-पीछे आईं और नाक, मुँह सिकोड़ते पड़े काम का हवाला देते बारी-बारी से चलती बनीं। गंदगी न होती तो एक बार इधर मुँह कर भी लेतीं। पत्नी, जो बन पड़ रहा था, किए जा रही थीं। निष्ठा मजबूरी में इस कदर घुल मिल चुकी थी कि उसमें अंतर कर पाना मुश्किल हो गया था।
उन्हें बिस्तर पर आए यही कोई छह महीने होने को आए थे। महीनों डॉक्टर नर्सिंग होम करने के बाद घर पर वापस आना हुआ था। अब, कोई बीमारी हो तो डॉक्टर इलाज करे। बढ़ती उम्र ही शरीर की डोर छोड़ने लगे तो डॉक्टर क्या करे। कहा, इन्हें घर ले जाओ, खिलाओ, पिलाओ, सेवा करो और भगवान से प्रार्थना करो। तब से घर पर ही हैं। पड़े-पड़े शरीर अकड़ गया है। बमुश्किल आधी करवट घूम पाते हैं। बेड शोर उग आए हैं, सो अलग।
बगल में पड़ी टेबुल पर सजी गृहस्थी उनके आज भी आत्मनिर्भर होने का बयान करती है। मसलन, खाने-पीने से लेकर दवाइयों तक, जरूरत की सभी चीजें ढकी, खुली टेबुल पर बिखरी पड़ी हैं। और हाँ, वो टोटीनुमा वीकर भी रखा है जिससे वो लेटे-लेटे ही एक हाथ से उठाकर दूध, पानी या फिर अधठण्डी चाय सुड़क लेते हैं। हर आने-जाने वाले को देखकर आँखे चमक उठती हैं उनकी। साफ आवाज तो नहीं निकलती लेकिन हों-हों-आँ-आँ की मिश्रित ध्वनि के साथ इशारों में कहते हैं, देखो, कितना भला चंगा हूँ। अपने सभी काम खुद ही कर लेता हूँ। मना करता हूँ, लेकिन क्या बहुएँ, क्या बेटे, मानते ही नहीं, लगे रहते हैं सेवा में। बहुत खयाल रखते हैं।
बढ़ती उम्र के साथ बहुगुणित होती जाती ब्याधियाँ उन्हें जीने नहीं दे रहीं और जीने का असीम उत्साह, रिश्ते- नातों के प्रति लुटता निर्दोष स्नेह तथा जिन्दगी के प्रति नजरिया उन्हें मरने नहीं दे रहा। आनन्दबिहारी हैं कि इन ब्याधियों को जीवन का अभिन्न हिस्सा मान प्रसन्नता से जिए जा रहे हैं।
पीठ में छाले, शरीर लाचार, अशक्त, अभिव्यक्ति के लिए शब्द स्पष्ट निकलते नहीं। शरीर की वेदना, उफ्फ !
बढ़ती उम्र के साथ बहुगुणित होती जाती ब्याधियाँ उन्हें जीने नहीं दे रहीं और जीने का असीम उत्साह, रिश्ते- नातों के प्रति लुटता निर्दोष स्नेह तथा जिन्दगी के प्रति नजरिया उन्हें मरने नहीं दे रहा। आनन्दबिहारी हैं कि इन ब्याधियों को जीवन का अभिन्न हिस्सा मान प्रसन्नता से जिए जा रहे हैं।
विसंगतियों पर खरा व्यंग्य प्रहार करती हुई कहानी में वृद्धावस्था की लाचारियों को इस तरह रेखांकित किया है कि कई स्थानों पर रोंगटें खड़े होने लगते हैं। यह सोचना भयावह लगता है कि सतत क्रियाशील रहनेवाला व्यक्ति वृदावस्था आते ही पंगु हो जाता है। रिश्तों में बंधे रहना, रिश्तों को ढोना या फिर अपने हिसाब से रिश्तों को खुद बनाना इन्हीं बिन्दुओं पर यह कथानक रचा गया है। इसमें स्जीवन की टूटन, घुटन, निराशा, उदासी और मौन के बीच मानवता की पैरवी करती मन के आवेग की कहानी है। संवेदना के कई तस्तरों का संस्पर्श करती यह कहानी जीवन के साथ चलते चलते हमारे मन की छटपटाहट को पूरे आवेश के साथ व्यक्त करती है।
जवाब देंहटाएंवृद्धावस्था की लाचारी और जीने की ललक का खाका बहुत सही खींचा है ...मार्मिक प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंLachari ki bela mein jijivisha ki tivrata ko vyanjit karati badi hi marmik laghukatha. Abhar.
जवाब देंहटाएंबहुत खूब ! हालत कभी-कभी जिंदगी 'लिक्विड-ऑक्सीजन' जैसी हो जाती है. लिक्विड हमें जीने नहीं देता और ऑक्सीजन हमें मरने नहीं देता... !!
जवाब देंहटाएंआपकी यह लघु कथा मेरे को अन्दर तक छु गयी....जीवें की सचाई की कितने सही ढंग से आपने ब्यान किया है...
जवाब देंहटाएंisitindya.blogspot.com
जीवन के मार्मिक क्षण और उन क्षणों के यथार्थ को बिना किसी लाग लपेट के, बिलकुल सहजता से व्यक्त करती लघुकथा संवेदना जगा जाती है।
जवाब देंहटाएंआभार,
यह लघुकथा लिखने की प्रेरणा जिस चरित्र से मिली मैने यह कथा उन्हें ही समर्पित की थी। मेरे लिए वह बहुत सम्माननीय हैं। मुझे नहीं पता था कि यह कथा आज के ही दिन लगेगी। ईमानदारी से कहूँ तो इस संदर्भ में मेरा मनोज जी से कोई संवाद भी नहीं हुआ। लेकिन दैवीय संयोग ऐसा कि आज ही, अर्थात् 02 नवम्बर को, उनकी पुण्य तिथि है और उनकी पुण्य तिथि के ही दिन यह कथा ब्लाग पर आ रही है। इस कथा का आज पाठकों के समक्ष आना मेरी ओर से उन्हें श्रद्धांजलि है।
जवाब देंहटाएंइस संयोग में योगदान के लिए मैं मनोज जी का बहुत आभारी हूँ।
@ मनोज जी,
जवाब देंहटाएंकथा के कई संवेदनशील पहलुओं को स्पर्श करने तथा अर्थ को विस्तार देने के लिए आपका पुनः आभार।
ऐसा लगता है आपने मेरे मन में छिपे शब्दों को हूबहू चुरा लिया है। आपने सही व्यक्त किया है कि कथा में संवेदना के कई स्तर हैं। त्याग है तो त्यागने का भाव भी है। निष्ठा और समर्पण का वह स्तर भी है जब निष्ठा अपना अर्थ खोती सी प्रतीत होती है। लेकिन इन सबसे ऊपर है सामाजिक ताने-बाने को पार करती मानवीय आवेग की पराकाष्ठा जो अनुभव के इस पड़ाव पर, सब कुछ से अनभिज्ञ न होते हुए भी, लाचारी को लाचारी न मान, बेबसी को बेबसी न समझ जीवन के प्रति सहज व सकारात्मक दृष्टि से ओत-प्रोत होकर उसे उल्लास से परिपूर्ण बना देती है और जिसके समक्ष सभी पीड़ाएं छोटी पड़ जाती हैं।
@ संगीता जी, @ राय जी,
जवाब देंहटाएंप्रोत्साहन के लिए आभारी हूँ।
@ करण जी,
जवाब देंहटाएंवाह ! लिक्विड आक्सीजन !
बहुत सुन्दर उपमा से विभूषित किया है आपने इस व्यंजना को।
आभारष
@ कपिल जी,
जवाब देंहटाएंआपके शब्द मेरे हृदय को भी अंदर तक छू गए।
आभार,
यह तो आपने बहुत ही मार्मिक चित्रण प्रस्तुत किया है इस लघु कथा के माध्यम से कई जगह तो बिल्कुल झकझोर देती है मन को भीतर तक....सुन्दर लेखन आभार।
जवाब देंहटाएं.
जवाब देंहटाएंVery accurate presentation .
.
.
जवाब देंहटाएंहरीश जी,
बहुत मार्मिक प्रस्तुति। मन भावुक हो गया। उन्हें मेरी तरफ से भी श्रद्धांजलि।
.
@ सदा जी,
जवाब देंहटाएंइस उदात्तता ने मुझे भी गहरे तक स्पर्श किया है।
आभार,
@ डॉ दिव्या जी,
जवाब देंहटाएंप्रोत्साहन के लिए आपका आभारी हूँ।
एक अच्छी और सधी हुई लघुकथा.
जवाब देंहटाएंकथा अच्छी लगी.
जवाब देंहटाएंहरीश जी आपने जिससे प्रेरित होकर यह कथा लिखी उन्हे भी नमन.
moh maaya ka jaal bandhano ko todne nahi deta. acchhi lagukatha.
जवाब देंहटाएंराजेन्द्र उपाध्याय लिखते हैं-
जवाब देंहटाएं"कल
रात भर बारिश होती रही
मगर
पता ही नहीं चला
कई बार
पता चल जाता है
एक बूंद का टपकना भी।"
-------------------
कुछ ऐसा ही।