मंगलवार, 9 नवंबर 2010

लघुकथा :: मित्र

मित्र

बीना अवस्थी

बस स्टाप के समीप स्थित पार्क में तुषार और उसके मित्र बैठे थे। अचानक बड़ी तेज आवाज हुई। वातावरण को दहलाने वाली। ....धड़ाम। उसके साथ ही कुछ चीखें और भगदड़।

‘क्या हुआ’ अचानक ताश खेलते हाथ रुक गए। स्कूटर और ट्रक का एक्सीडेन्ट हो गया है। दोनो लड़के पता नहीं जिन्दा हैं भी या नहीं। बताने वाला भागता चला गया । ताश फेंककर सब उठ खड़े हुए ‘चलो देखते हैं।’

‘छोड़ो यार, यह सब तो चलता रहता है। कहाँ तक देखा जाएगा। चलो अगली बाजी चलते हैं। हम अपनी इतनी सुन्दर शाम क्यों बरबाद करें।’

शायद जाने की हड़बड़ी में किसी ने तुषार की बात सुनी नहीं क्योंकि सभी भागते चले गए लेकिन उसके घनिष्ट मित्र नयन के कदम एकदम रुक गए। जमाने भर की घृणा एवं हिकारत उसके नेत्रों में समाती चली गई।

‘आश्चर्य है तुषार, यह तुम कह रहे हो। मैं तो कल्पना भी नहीं कर सकता था कि तुम जो अभी पूरी तरह अपने पैरों पर खड़े भी नहीं हो पाए हो, ऐसा बोल सकते हो। सामने देखकर भी तुम्हारे इस रूप को अजनबी पा रहा हूँ मैं।’

अभी तीन महीने पहले ही तो आफिस जाते समय तुषार का एक्सीडेन्ट हो गया था। अचेत एवं घायल तुषार को समीप स्थित डिग्री कालेज के छात्र अस्पताल ले गए थे। अपना रक्त देकर जान बचाई थी। तुषार की मूर्च्छा टूटने पर पता लेकर न केवल उसके घरवालों को सूचना दी बल्कि उसकी व्याकुल मम्मी के पास रात भर बैठकर सान्त्वना देते रहे – ‘घबराइए नहीं आन्टी, भइया जल्दी अच्छे हो जाएंगे। आप कोई भी परेशानी हम लोगों से बिना संकोच बताइएगा।’

तुषार का पर्स, चेन, घड़ी, अँगूठी एवं स्कूटर सब सुरक्षित रहा। वे सब अपनी पढ़ाई का नुकसान करके बराबर तुषार से मिलने अस्पताल आते थे। तत्काल चिकित्सा से ही तुषार के जीवन की रक्षा हुई थी। कई बार वे सब घर भी आए। तुषार एवं उसके परिवार वालों के पास कृतज्ञता के शब्द न थे। यदि वे लड़के इतने तत्पर न होते तो....।

नित्य शाम को उनकी मित्र मण्डली उसके घर पर जमा होती ताकि तुषार अकेलापन न अनुभव करे क्योंकि उसके कमर से नीचे का शरीर प्लास्टर से ढक गया था। प्लास्टर कटने के बाद खुली हवा में चलने का अभ्यास करवाने के लिए वे सब तुषार को घर के बाहर ले जाने लगे ताकि इतने दिन घर में बंद रहे तुषार का मन बहल सके। सहारा देकर चलने का अभ्यास करवाकर वे देर तक पार्क में बैठे रहते फिर तुषार को घर छोड़ जाते। अब तुषार छड़ी के सहारे चलने लगा था।

स्वार्थ का श्याम आवरण हटते ही तुषार के नेत्रों के समक्ष प्रकाश फैल गया। वह स्वयं के समक्ष अपराधी बन गया। ‘सचमुच अपने आनन्द में रंचमात्र व्यवधान आ जाने से मैं मानवता से गिर गया था। कुछ देर के लिए मैं भूल गया था कि मेरे लिए भी सबने यही सोचा होता तो क्या मैं जीवित होता। तुमने दर्पण दिखाकर मुझ पर उपकार किया है। मुझे क्षमा कर दो।’

‘मित्रता में क्षमा और उपकार जैसे शब्द होते ही नहीं मित्र। मेरा उद्देश्य तुम्हें अपमानित या लज्जित करना नहीं था। लेकिन तुम्हारे मुँह से ऐसी बात सुनकर मैं तिलमिला गया था। भूल जाओ कि किसने क्या कहा। चलो देखते हैं हम किसी के लिए क्या कर सकते हैं।’

नयन का सहारा लेकर तुषार उठ खड़ा हुआ और छड़ी के सहारे डगमगाते हुए घटनास्थल की ओर नयन के साथ बढ़ने लगा।

29 टिप्‍पणियां:

  1. यह तो इन्सान की फितरत है , बहुत सुंदर सन्देश का सम्प्रेषण , मानव मन को टटोलती लघुकथा ..शुभकामनायें

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  2. सही कहा आपने हमे दुसरो की मदद करनी चाहिए क्युकी कल को आपको भी किसी की ज़रूरत पद सकती है | लघु कथा के रूप में आपने लोगो को काफी अच्छा सन्देश दिया है
    मैंने भी एक लघु कथा लिखी है अवश्य पढ़े
    लघु प्रेम कथा - इंतज़ार

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  3. बहुत अच्छी लगी लघुकथा. आभार आपका इस प्रस्तुति के लिए.

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  4. बहुत अच्छी लघुकथा. इस प्रस्तुति के लिए आपका आभार.

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  5. अपने स्वार्थ के लिए परिवर्तित होने वाले मानव स्वभाव को झकझोरते हुए आईना दिखाती प्रेरक व संदेशप्रद लघुकथा है। सुन्दर रचना के लिए बीना जी को धन्यवाद।

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  6. दिवाली के दूसरे ही दिन घर लौटते ऐसा दृश्य नजर आ गया ...राहत मिली की लोग मोबाइल पर पुलिस और अम्बुलेंस को फ़ोन करते नजर आ रहे थे ...
    अच्छा सन्देश दिया है लघु कथा के माध्यम से !

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  7. बहुत अच्छी लगी लघुकथा. आभार आपका इस प्रस्तुति के लिए!

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  8. sunder laghu katha .
    aaj ke nav bharat main ek khabar aaise he hai beti ne baap ke samane dam toda aur kisi ne apne gadi rok kar help nahi ke.

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  9. संदेशात्मक लघु कथा ....बहुत अच्छी प्रस्तुति

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  10. मौन कर दिया……………बेहद शिक्षाप्रद लघुकथा।

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  11. मानवीय संवेदना को सकारात्मक दिशा देती सुन्दर कथा। आभार।

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  12. मनोज जी बहुत ही सार्थक लघुकथा है। पढवाने के लिए शुक्रिया।

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  13. मानवीय मूल्यों को संप्रेषित करती हुई सुन्दर लघुकथा !
    ज्ञानचंद मर्मज्ञ

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  14. एक सुकून सा लगा इस कथा को पढकर वर्ना कुछ समय से ऐसे अनुभव सुनने को मिल रहे थे कि गैर तो क्या खून के रिश्तों में इंसानियत नहीं देखने को मिलती.
    बहुत अच्छी कहानी काश ये अहसास बड़ते रहे.

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  15. मनुष्य का जीवन कितना एकांगी और संवेदनहीन होता जा रहा है,यह इसी की कथा-व्यथा है। सामाजिकता जब घटती है,तब ऐसा मनुष्य ही बचता है।

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  16. एक सुन्दर सीख देती लघुकथा.

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  17. लघुकथा वास्तव में शिक्षाप्रद और प्रेरणा देने वाली है!

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  18. सुंदर सीख देती हुई एक अच्छी लघु कथा की प्रस्तुति के लिए धन्यवाद.

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  19. निरंतर बदलते परिवेश में, मानव जीवन के अंतर्विरोंधों की कटु सच्चाईयों को दर्शाते हुए भी, उम्मीद की लौ जगाती प्रेरक लघुकथा. आभार.
    सादर,
    डोरोथी.

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  20. बहुत अच्छा सन्देश देती सुंदर लघुकथा...

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  21. वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिये जिये।

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  22. एक शिक्षाप्रद लघु कथा. इस संसार में अकेले न इंसान रह सकता है और रह भी ले तो जाने के लिए उसको किसी न किसी का सहारा चाहिए. इसलिए मत भूलिए कि इंसानियत ही इस धरती पर इंसान को रखे हुए हैं नहीं तो ये धरती कब की रसातल में चली जाती.

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