शनिवार, 6 नवंबर 2010

व्यंग्य :: जान में जान आई

हरीश प्रकाश गुप्त


उस दिन छुट्टी से पहले झमाझम बारिस शुरू हो गई। लगा कि थमने का नाम ही नहीं लेगी और घर पहुँचते-पहुँचते तरबतर करके ही दम लेगी। हालाकि, मन के एक कोने में राहत की साँस भी अपना आसन जमाए थी। मौसम ठण्डा और सुहाना जो हो चला था।
शुक्र ऊपरवाले का जो उसे आफिस की छुट्टी का समय याद था। एन समय से कुछ मिनटों पहले ही बारिस थम गई। अब सबकी जान में जान आई। ये जान भी बड़ी अजीब टाइप की बला है। बात-बात में निकल भागने को तैयार बैठी रहती है और जब उसके मन की होती है तब चट से वापस भी आ जाती है। अभी कुछ देर पहले गर्मी और उमस के कारण निकली भागी जा रही थी और अब जिस बारिस ने राहत की साँस दी उसके न थमने पर फिर निकल भागने को तैयार हो गई। सर्दी बढ़ गई तो जान की आफत। ज्यादा बारिस हुई तो भी जान की ही आफत। ट्रैफिक जाम में फँस गए तो भी जान पर ही आ बनती है, भाई, और ट्रेन दो घण्टे लेट हो गई तो भी गोया जान ही निकल जाएगी। आखिर, जान निकलकर भागे भी क्यों न। कोई ऐसी दूसरी चीज है भी कहाँ अपने अन्दर जो निकल जाने के नाम पर इतनी तकलीफ देती हो। लगता है, उसे भी अपनी इस तकलीफ का इलम है, तभी तो बात-बात पर दुख देती है।
ये तो दुनिया की रीत है कि जो तुम्हें पसन्द है उसे न होने देंगे। उसी दुखती रग पर रह-रह कर हाथ धरेंगे। बस, चिढ़ो और कुढ़ो। क्या घर, क्या बाहर और क्या आफिस। आफिस वालों को पता क्या चल गया कि फलॉ जगह पोस्टिंग मुझे कतई नापसन्द है तो उसी जगह ट्रान्सफर करने का भय दिखा-दिखाकर पता नहीं क्या-क्या ऐरे-गैरे काम करवाते रहते हैं। मोहल्ले के कुछ ज्ञानी उद्दण्डों को पता है कि मेरे पिताजी की निशानी मेरी प्यारी दुलारी स्कूटर पर कोई हाथ भी लगाए, मुझे गवारा नहीं। इसीलिए मेरे ओझल होते ही दो-चार नामाकूल स्कूटर से छेड़खानी करने के लिए प्रकट हो जाते हैं। गद्दी पर बैठेंगे, एक्सीलरेटर मरोड़ेंगे, ब्रेक और लाइट के स्विचों पर खटर-पटर करेंगे और यहाँ-वहाँ चिकोटी काटेंगे। है न ये भी जान की ही आफत। छेड़ेंगे उसे, दर्द यहाँ उठता है। इन्तजार करते रहते हैं कि मैं कब स्कूटर बाहर खड़ी करूँ और वे उसपर करतब दिखाने के लिए आ धमकें। सारे काम धाम छोड़कर यही एक काम बचा है उनके पास। मैं हूँ कि हर दस मिनट में उसकी निगरानी करने, उन्हें गाली देने, भगाने के लिए बाहर जाने के लिए मजबूर हूँ। मेरा सारा समय उनका। उनकी तो मस्ती है। मेरी जान से भी तो कोई हाल पूछे, तो समझ में आए।
उनकी इन धमकियों से हम ऊपरी तौर पर अपनी जान निकल जाने का दिखावा भले ही करें पर कहीं अन्दर से आवाज उठती है कि अरे ! यह डोर कटे तब न।
ये छोटी-मोटी बातों में बात-बात पर निकल भागने की तैयारी में यह निगोड़ी जान डोर का एक सिरा थामे भी रहती है क्योंकि ऐसा दर्द-ए-जिगर मिलेगा कहाँ। वर्ना जान तो जान है। एक बार साथ छोड़ा, तो गए, बस। कुछ-कुछ उसी तर्ज पर, बात-बात पर अपनी भागो भी तैयार बैठी रहती है। मैं लोगों से बचकर छिपकर उन्हें इसी नाम से पुकारता हूँ। भाग्यवान के परिवर्तित नाम से। लेकिन, वो हैं कि मेरी आत्मीयता में भी खोट खोज लेती हैं। कहती हैं कि क्यों हर समय भागो-भागो कहकर चलो भागो की तर्ज में भगाने पर तुले रहते हो। उनके तौर-तरीके भी वही हैं – एक हाथ से डोर भी थामे रहती हैं। कि तुम्हें कौन पूछता है। वो तो बच्चों का मुँह आँखो के सामने आ जाता है। उनकी इन धमकियों से हम ऊपरी तौर पर अपनी जान निकल जाने का दिखावा भले ही करें पर कहीं अन्दर से आवाज उठती है कि अरे ! यह डोर कटे तब न। कभी बात सच तो हो। यह वह डोर थोड़े ही है जो कटी तो सचमुच जान से गए। यह डोर कटे तो अवसर ही खुलेंगे। नई-नई मंजिलें खुद-ब-खुद गले आ लगेंगी। पैंतालिस पार कर गए भी तो क्या। अभी उमर ही क्या है और पुरुषों की उमर थोड़े ही बढ़ती है। वह तो सोने की अँगूठी में जड़े हीरे की तरह होता है। जितनी उमर बढ़ती है उतनी ही कीमत बढ़ती है। घिसती तो अँगूठी है, उम्र भी अँगुली की ही बढ़ती है। तभी तो, अपनी उम्र किसे छिपानी पड़ती है, मुझे नहीं लगता कि यह किसी को बताने की जरूरत है।
विचारों ने तर्क रखा तो मन कुलाँचे भरने लगा। इसके लिए पहले से तैयार जो बैठा था। पल के हिस्से में ही वह आफिस से निकलकर मेगामॉल की सैर कर रहा था। शहर भर की मनमोहिनी सूरतें एकमुश्त जो हो जातीं हैं वहाँ। कालिदास और जयशंकरजी से थोड़ा-थोड़ा प्रसाद लेकर जो स्केच तैयार किया था, नजरें एसटीएफ की भाँति अपने लक्ष्य की तलाश में थीं। सेलेक्ट या रिजेक्ट करने की सरकारी पद्धति में विलम्ब और बढ़ती संख्या की बाधाएं स्वतः दम तोड़ देती हैं, सो, इन सबसे मनमुक्त हो खोज जारी थी। कहीं कंचन काया का आकर्षण होता, तो कभी निर्मल मन का मोह संवरण न कर पाने की अभिलाषा विद्यमान रहती। कहीं, कपिला अर्थात सीधी-साधी गऊ समान के मानक उत्कर्ष पर होते या फिर नयनाभिराम सुघड़ घट स्वामिनी और साँवली सलोनी रूपवंती के रूप से आसक्त चंचल चितवन कामिनी भारी हो जाती। तो कहीं उर्मिल  पथगामी सद्यःस्नाता मृगलोचना का सम्मोहन मन आसन पर हाथी पाँव की भाँति जम जाता। फिर आगे कुछ न सूझता और मृगमद सी तृप्ति का आनन्द उमड़ जाता।
मेगामॉल की रुपहली आभा में मंद-मंद मकरंद बिखेरती सामने से आती हुई कमलनयनी कुरंगिनि-सी वल्लरियाँ लगतीं कि वे आलिंगन को आतुर हमारी ही ओर बढ़ रही हैं। सबकी नजरों में उनसे बचते-बचाते और किसी तरह पीछा छुड़ाने का स्वाँग करते, लेकिन पगद्वय मन ही मन उन्हीं की ओर खिसकते जाते। मन में सुख का संचार ले कदम वहाँ से निकल मॉल रोड से होते हुए महिला विद्यालयों की शृंखला पार करते जा रहे थे। विकल्पों के प्रति असीम विश्वास का नवनीत सतह पर आ चुका था। खुशियों से भरा मन प्रकाश से भी अधिक तीव्र गति से डग भरते, पलों में ही इतनी यात्रा कर वापस लौट आया था कि आसपास खड़े ताड़ू किस्म के सहकर्मी भी तृणमात्र सन्देह न कर सके।
घर पहुँचने पर दरवाजे पर लगे ताले ने हमारा स्वागत किया। जान एक बार फिर साँसत में आ गई। विचार आया कि इस मोबाइल के युग में खबर तक क्यों नहीं दी। सन्देह के बीज में कुछ अंकुर फूटे। यद्यपि मोबाइल को लेकर अधिकतर मेसेज इस तरह के आते हैं कि ‘नेटवर्क बिजी हैं’ भले ही बगल वाले की घण्टी बज रही हो। ‘यह फोन अस्थाई रूप से बन्द है’ भले ही आपने कुछ देर पहले ही किसी की घण्टी बजाई हो। और तो और, दूसरे हाथ में रखे फोन के लिए संदेश आता है कि ‘यह नम्बर मौजूद नहीं है।’ कभी-कभी अपने विशेष उद्देश्य की पूर्ति के लिए ये विशुद्ध बहाने भी साबित होते हैं। अगर किसी से मिलना नहीं चाहते तो अपने घर में बैठे-बैठे ही जड़ दो कि अभी दिल्ली में हूँ, चार दिन बाद मिलूँगा। या, बाहर गुलछर्रे उड़ाओ और कनेक्ट होते ही कह दो कि अभी बाथरूम में हूँ, आधा घण्टा बाद फोन करना, वगैरह-वगैरह। इसलिए इस विधा पर भी अधिक विश्वास नहीं किया जा सकता। लेकिन यहाँ क्या घोटाला हो सकता है।
अपने ही मन की गति से प्रकाश ले आशंकाएँ घनीभूत हो गईं। तरह-तरह के कुविचार आने लगे। सोचा, बताया तो होता। किसी से कोई चक्कर वक्कर तो नहीं है। पड़ोसन के साथ मार्केट भी गई हो सकती हैं। लेकिन इसमें छिपाना क्या। बता देती तो क्या बिगड़ जाता। हो सकता है, पड़ोसी भी साथ हो, इसलिए......। कुछ-कुछ तो मुझे भी गड़बड़झाला महसूस होता है। वो भी भाभी-भाभी कहकर कुछ ज्यादा ही लगा रहता है। किसके मन में क्या है, कौन देख आया है। या परसों सुबह की बात ही कहीं दिल से न लगा ली हो। कह भी रही थी कि देख लेना .....। और न जाने क्या क्या विचार आते रहे। कितना शर्मिन्दा होना पड़ेगा। अबकी बार फिर आफत जान पर ही आई थी।
उद्विग्नता से घिर निराशा ने जलप्लावन सा विस्तार पा लिया। कलेजा किसी तरह थामे शरीर धम से चौखट पर बैठ गया और माथे ने हाथों की शरण ले ली। आग्रह जनित आशंकाएँ मस्तिष्क-कूप में गहरे तक पैठ चुकीं थीं। तभी परिचित सी हँसी से विचारोत्तेजना भंग हुई। सामने जो देखा, परिव्यापित भावभूमि में उसपर सहसा विश्वास न हुआ। विस्मय से आँखे खुली रह गईं। वर्तमान में पूरी तरह आने में थोड़ा वक्त लगा। पड़ोसन के साथ वो भी सामने खड़ीं थीं। सदा की तरह निष्कपट और मोहिनी मुस्कान उनके अधरों पर थी। ‘मिसेज शर्मा के यहाँ कीर्तन था। तुम्हारे आने का समय ध्यान था। उठते-उठते दो मिनट ज्यादा हो गए।’
अब कहीं मेरी जान में जान आई। तसल्ली के साथ।
****
हरीश प्रकाश गुप्त
128/886 वाई ब्लाक
किदवई नगर कानपुर।

24 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही सुन्दर हास्यरस से भरपूर कथा ...

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  2. .

    हरीश जी,

    बहुत ही रोचक अंदाज में आपने बताया की कैसे 'जान पर बन आती है ' । मैं भी बहुत बार इस समस्या से गुज़र चुकी हूँ। पुरे लेख में आपकी सुन्दर समीक्षा ने बांधे रखा। एक निर्मल हास्य की छटा भी बिखरी मिली।

    एक बहुत खूबसूरत अंत के साथ आपने लेख को समाप्त किया । बहुत आनंद आया पढ़ कर।

    शुभकामनाएं।

    .

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  3. विभिन्न परिस्थितियों में जान में जान आयी के द्वारा किया गया व्यंग्य काफी आकर्षक है।

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  4. Tartamyata aur samapan bhag achha laga.Jan mein Jan aa gai, Yehi to sabse badi bat hai. Thanks.

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  5. विषय का फैलाव बहुत अधिक है। केन्द्रित कथा वस्‍तु नहीं है।

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  6. बहुत अच्छा लगा आपका यह आलेख।

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  7. आपको एवं आपके परिवार को दिवाली की हार्दिक शुभकामनायें!

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  8. अजित गुप्त जी,
    साधुवाद के साथ कहना चाहता हूँ कि यह व्यंग्य है, कहानी नहीं। और इस व्यंग्य का सूत्र है जान में जान आई। एक बार पुनः धन्यवाद।

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  9. बहुत ही रोचक ढंग से जान निकल जाने के डर की प्रस्तुति..दीपावली की हार्दिक शुभ कामनाएं...

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  10. चलिए अच्छा हुआ जल्दी ही जन में जान आ गयी ..वैसे यह जान है बहुत फालतू सी ..हर बात पर निकल जाती है :):)

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  11. हम सभी ऐसी स्थितियों से रोजाना ही तो दो चार होते हैं, पर चंचल, चलायमान मन की पल पल परिवर्तित होने वाली छवियों को जिस सहजता और खूबसूरती से उकेरा है, उसने इस रोजमर्रा की एक साधारण सी घटना को असाधारण बना दिया है. मजा आ गया. आभार.
    सादर
    डोरोथी.

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  12. व्यक्ति के मन की हलचल को जिस अंदाज में संप्रेषित किया है ,वह निराला है ,शेली काफी सशक्त है ...सचमुच सुंदर अर्थ सम्प्रेषित करता व्यंग्य ...शुभकामनायें

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  13. बड़ा मजा आय पढकर.मस्त व्यंग है.

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  14. बहुत मजा आया पढ़कर। चंचल मन ऐसे ही विचरण करता है और कभी-कभी निरर्थक से विषयों में ऊर्जा खपाता है। साधारण विषय को असाधारण बनाती अति सूक्ष्म व्यंजना है रचना में।
    धन्यवाद।

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  15. बहुत ही सुन्दर हास्यरस से भरपूर कथा ...

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  16. यह रचना बस ऐसे ही लिख गई थी। कोई प्रयोजन नहीं था। ज्यादा विचार भी नहीं किया। लोगों के कुछ चरित्र मन मस्तिष्क में जगह बना चुके थे। एक दिन खाली बैठे इस पर कलम चल गई। फिर सोचा कि क्यों न इसे ब्लाग के पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया जाए, सो यह आपके सामने आ गई। रचना पसंद करने के लिए अपने पाठकों को आभार।

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  17. रोचक मजेदार प्रस्तुति...आभार

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