बुधवार, 17 नवंबर 2010

देसिल बयना–५६ : पूरा गांव ओझा….

 

-- करण समस्तीपुरी

जय हो महाराज ! ई परव-त्योहार से फ़ुर्सत मिलने वाला नहीं है । अब हे देखिये, छ्ट्ठी मैय्या का डाला-सूप उतरा तो सामा-चकेवा शुरु, “गांव के अधिकारी तोहे बड़का भैय्या हो…. सामा-चकेवा खेलब हे… !” खैर का होगा, इहे तो अपना देस का खासियत है ।

लगबे नहीं कर रहा है कि परव खतम हो गया । पहिले खाली घाटे सजा था अबहि तो पूरा गांवे सजा है । रे मरदे के बहरिया लोग देखे तो भकइजोत लग जायेगा । छ्ठ का पारण हुआ और दौरे सब जुबतिन्ह वृन्द कारी पण्डित के दलान पर । हमें लगा कि का भाई कहीं बिहुला के नाच का तैय्यारी तो नहीं हो रहा है…. ।”

भीड़-भार को चीर के गये तो देखे…. ले रे बलैय्या…. ! ई तो सामा-चकेवा का छोटकी-छोटकी मुर्ती बेच रहा है । हां भाई…. यही तो है अपने मिथिला का सौरभ । सामा-चकेवा बूझते हैं का होता है… ? अरे ई भाई-बहन का परव होता है । मतलब कि ई में सब बहिन लोग अपने भाई के लम्बी उमिर के लिय गीत-नाद गाके सामा-चकेबा खेलती है ।

गांव के बेटी हो कि पतोहु…. सब मिल के जो झुम्मर पाड़ती है कि नयन तिरपित हो जाये । लुखिया ताई कह रही थी कि ई बार तो सामा खेले में जबरदस्स झौहर होगा। काहे कि गांव में लड़की-फड़की का तगड़ा झुण्ड एकट्ठा हुआ है। ब्याहता लड़की भी सासरे से आई हुई है। खूब मजा आयेगा।

हां बेटी-डांटी को तो खूब मजा है मगर पतोहिया सब के कनिक मायूसी है। उ का है कि बेटी सब तो खूब झुम्मर पाड़ रहीं हैं मगर उ का करें ? सासरे में कैसे धुमकच उड़ायें… ? इधर ससुर, उधर जेठ, इधर ठेठ…. ! बहोरनी आजी (दादी) का तगड़ा अनुशासन है। कनिया तो कनिया पुरान दुल्हनिया सब का भी मिजाज हरियर कर देती थीं। का मजाल कि उनके सामने कोई घर का चौखट लांघ के देखे….!

पचरुक्खी वाली को गांव बसते पांच साल हो गया था । ई बार कहे कि हाय नरायण ! हम तो सामा खेलबे करेंगे। घुरनी माय, और बिजली मामी बुझा के थक गयी थी। उ कहिस कि नहीं, पछिला साल उ यही ससुर-भैंसुर से पर्दा के खयाल में हम सामा नहीं खेले और हमरे एकलौता भाई झम्मन को टायफ़र-निमोनिया हो गय था। ई बार कुछो हो जाये, हम तो सामा खेलबे करेंगे।

बिजली मामी बोली कि अब जौन मरजी हो वही करो। अपना जवाब देना बहोरनी आजी को। उ कहिस ठीक है। बहोरनी आजी से बात हुई। आजी कड़क हैं मगर निरदय नहीं। आखिर पचरुक्खी वाली के भाई पर दरेग (दया) आ ही गया। औडर दे दी। कहिस खेलो मगर अंगने में। गांव के बड़े-जेठ का ख्याल रखना।

एंह…. ! आजी का औडर होते ही कनिया-पुतरिया में भी खुशी की लहर दौड़ गयी। सांझे से अंगना में हुड़दंगो शुरु हो गया। पहिले तो कनिक मरद-मानुस का ख्याल भी रहा मगर चारे दिन में सब अनुशासन गया बूट लादने जनदाहा। तेसरका सांझ तो फुचाई झा खुदे बहोरनी आजी को खुदे कह रहे थे, “ललाइन ! अरे टोला में ई का हो रहा है ? अब तो गांव की कनिया-पुतरिया भी सांझ गये झुम्मर पाड़ने लगी है ।”

बहोरनी आजी ठुड्ढी पर अंगुली मटका के बोली थी, “अएं ओझा जी…. ! सो का हो गया…. ?” फुचाई झा बोले, “अरे का बतायें ललाइन ! सांझे गाय दूह के लौट रहे थे। चौबटिया पार किये तो देखते हैं, रे तोरी के…. ! इहां तो जनानिये सब मोछ पर ताव दे रही हैं। राम कहो…. !”

बहोरनी आजी की भृकुटी तन गयी थी। झुकले कमर अर लकुटिया लेके दौड़ गयी। सब समझ गया कि आज तो पचरुक्खी वाली को दिने में तरेगण सूझेगा। आजी के मुंह से जो अमृत बरसेगा….. उ सब कल्पना से ही मन दौड़्ने लगा। हम लोग भी आजी के पीछे ही डरेमा (ड्रामा) का मजा लूटने के लिये कदम ताल कर दिये।

आजी तो बड़ी खिसियाई। पचरुक्खी वाली का तेरहो दशा करने पर उतारु थी, “अएं निलज्जी…. ! लाज बेच के लपिस्टिक लगवाई है का… ? देखो छिछियलिया को…. ? खूद तो चौक चढ़ के नाचती ही हैं और दुसरी बहुरिया सब को भी लाज बेचबा के पिला रही हैं…. !”

पचरुक्खी वाली अहिस्ते से बोली थी, “का हुआ आजी ! कौनो कसुर हो गया का…?” आजी अजियाते हुए बोली, “अरी नादान की नानी…. ! सांझे ढले चौबटिया पर चढ़ के नाच करती है…. मरद-मानुस बड़ा-जेठ का कौनो ख्याल है तोहे री बेलज्जी…. ?”

पचरुक्खी वाली फिर मक्खन लगाई, “आजी उ तो हम आपही के औडर से सामा खेले गये थे न…?”

आजी फिर गुर्राई, “हां-हां ! सामा खेले तो हमरे औडर से गयी थी मगर फुचाई ओझा के सामने नाचने का औडर कौन मजिस्टेट दिया था…?”

पचरुक्खी वाली अभियो मस्खरिये में थी। छूटते ही बोली, “आजी अब आपहि कहिये… सब ससुर-जेठ का ख्याल तो हम लोग करिये रहे हैं… अब फुचाई ओझा का का कहें…. ? एगो हों तो कोई बात… । मगर इहां तो सब ओझे हैं ! अब पूरा गांव ओझा तो चलें किसके सोझा (सामने) ?

ss(1)हा…..हा….हा….हा….. ! पचरुक्खी वाली सो देसी मलाई लगा के कही थी ई बात कि आजी की भी हंसी निकल आयी….. खीं….खीं….खीं…..खीं…… ! उके पाछे चनपट्टी वाली भी दोहराई थी, “पूरा गांव ओझा तो चलें किसके सोझा…?” हें….हें…हें… हें…… !

“मार फतुरिया सब !”, बहोरनी आजी खिसियानी हंसी हंसते हुए बोली, “जाओ इहां से । जहां जा के नाचना है नाचो।” आजी अपनी तिनफुटिया लाठी खटखटाते हुए खिसक गयी। हम भी कहे, वाह ! पचरुक्खी वाली भौजी ! अरे का नुख्ता मारी हो फेर के…. “पूरा गांव ओझा तो चलें किसके सोझा !” एकदम दुरुस्त काफ़िया है।

पचरुक्खी वाली बोली, “और नहीं तो का…. ! इहां अपने ससुर-भैंसुर से तो पर्दा करिये रहे हैं अब ई ओझा-मिसिर-चौधरी सब से पर्दे करे लगे तो चलेंगे कहां? हम बोले, “हां! ठीके कहती हो। अब एक मुश्किल हो तो उस से बच के निकल जाने की सोच सकते हैं मगर कदम-कदम पर मुश्किल हो तो उस से कितना बचें ? तब तो उसका समना ही एकमात्र उपाय है। समझे…. ? इसीलिये कहते हैं “पूरा गांव ओझा तो चलें किसके सोझा !

9 टिप्‍पणियां:

  1. करन जी ,
    हम तो हर बुधवार को सुबह से ही गांव की सैर करने को तैयार बैठे रहते हैं ! देसिल बयना पढ़कर हवा में समाहित मिट्टी की सोंधी गंध मन को जो ख़ुशी देती है उसे शब्दों में ढालना बहुत मुश्किल है !
    आपकी लेखनी को नमन !
    -ज्ञानचंद मर्मज्ञ
    www.marmagya.blogspot.com

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  2. आज त हमरा छुट्टी का दिने बना दिये हैं आप करन बाबू!! देसिल बयना त बेजोड़ हईये है बाकी जे बर्नन है (ऊ हो हमेसा के तरह लाजबाब) हमको एकदम पुरनका माहौल में ले गया. ऊ का कहते हैं डाउन द मेमोरी लेन.. (ससुरा अंगरेजियो में कभी कभी मन का बातिया एक्स्प्रेस हो जाता है निमन से)... इत्मिनान से पढ रहे थे एही से आखिरी लाईन में त हमरो हँसी छूट गया. चलिये हमरे गुरूजी के.पी. सक्सेना साहेब का एगो देसिल बयना बाँच देते हैंः
    मेले ठेले में तो मुँह खोल के सिन्नी बाँटी
    और घर पे घूँघट निकाला गज भर का.

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  3. बहुत सुन्दर लेख. देसिल बयना पढ्कर मज़ा आ गया.
    मेरे नए ब्लाग "ह्र्दय से पन्नों तक" में आपका सभी का स्वागत है.

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  4. Karan ji,
    Raur desil BAYANA hamara man ke kolkata mein bhi hariyar kar dela.Raua se mile ke man karela lekin afsos ba ki duri bhi najdik ho gail ba.Gujarish ba ki ek bar hamara blog par ain.Dhanyavad.

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  5. बहुत ही लाजबाव देसिल बयना हमेशा की तरह। आभार!

    पढ़िये मेरे ब्लोग "Sansar" पर गजल......... " जो भी पाया था कभी खुदा से मैँने "

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  6. मुझे तो करण जी आपका देसिल बयना शुरू से ही अच्छा लगता है. यह अंक भी अच्छा लगा.

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  7. आप भी कमाल का लिखते हैं!
    --
    हमें भी इस सरस भाषा का ज्ञान मिलता है!

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  8. क्रिया के विपरीत प्रतिक्रिया का सिद्धांत है। आजी जितना खिसिआएगी,सामा-चकेवा का प्रेम ओतने बढ़ता जाएगा। जादे भाई वाली कोई पुतहु मिल गई त खैर नहीं।

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  9. ओह... मन तिरिप्त कर दिए हो बबुआ...

    लेकिन मन बड़ा कचोटता है...अगली शहरी पीढी तक पहुंचेगा सामा चकेवा ???? जबतक सामने देखे न हों,सिर्फ सुनकर अंदाजा नहीं लगाया जा सकता इस सब का...
    लुप्त हो रहा है यह अब तो...

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